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Sparsh
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राजवंश एक ऐसे उपन्यासकार हैं जो धड़कते दिलों की दास्तां को इस तरीके से बयान करते हैं कि पढ़ने वाला सम्मोहित हो जाता है। किशोर और जवान होते प्रेमी-प्रेमिकाओं की भावनाओं को व्यक्त करने वाले चितेरे कथाकार ने अपनी एक अलग पहचान बनायी है। प्यार की टीस, दर्द का एहसास, नायिका के हृदय की वेदना, नायक के हृदय की निष्ठुरता का उनकी कहा-नियों में मर्मस्पर्शी वर्णन होता हैं। इसके बाद नायिका को पाने की तड़प और दिल की कशिश का अनुभव ऐसा होता है मानो पाठक खुद वहां हों। राजवंश अपने साथ पाठकों भी प्रेम सागर में सराबोर हो जाते हैं। उनके उपन्यास की खास बात ये है कि आप उसे पूरा पढ़े बगैर छोड़ना नहीं चाहेंगे। कोमल प्यार की भावनाओं से लबररेज राजवंश का नया उपन्यास 'स्पर्श’ आपकी हाथों में है।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateAug 25, 2021
ISBN9788128819735
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    Sparsh - Rajvansh

    स्पर्श

    दीपा ने मुड़कर देखा‒पहाड़ी के पीछे से चांद निकल आया था। अंधकार अब उतना न था। नागिन की तरह बल खाती पगडंडी अब साफ नजर आती थी। उजाले के कारण मन की घबराहट कुछ कम हुई और उसके पांव तेजी से अपनी मंजिल की ओर बढ़ने लगे।

    सोनपुर बहुत पीछे छूट गया था। छूटा नहीं था‒छोड़ दिया था उसने! विवशता थी। अपनों के नाम पर कोई था भी तो नहीं। और जो थे भी उन्होंने उसका सौदा कर दिया था। बेच दिया था‒उसे सिर्फ पांच हजार रुपयों में। सिर्फ पांच हजार रुपए यही कीमत थी उसकी।

    कल उसका विवाह होना था‒बूढ़े जमींदार के साथ। चंपा बता रही थी‒शहर से अंग्रेजी बैंड आ रहा था। कुछ बाराती भी शहर से ही आ रहे थे। जमींदार का एक मकान शहर में भी था। पूरे गांव की दावत थी। जमींदार अपने विवाह पर पानी की तरह पैसा बहा रहा था।

    और‒इससे पूर्व कि यह सब होता, उसकी बारात आती, वह जमींदार की दुल्हन बनती‒उसने सोनपुर छोड़ दिया था। सदा के लिए। सोचा था‒लक्ष्मणपुर में उसकी बुआ रहती है। वहीं चली जाएगी।

    सोचते-सोचते वह पगडंडी से नीचे आ गई। चांदनी अब पूरे यौवन पर थी। ये लगता‒मानो वातावरण पर चांदी बिखरी हो। दाएं-बाएं घास के बड़े-बड़े खेत थे और उनसे आगे थी वह सड़क जो उस इलाके को शहर से मिलाती थी।

    घास के खेतों से निकलते ही दीपा के कदमों में पहले से अधिक तेजी आ गई। शहर की दूरी चार मील से कम न थी और उसे वहां प्रभात से पहले ही पहुंच जाना था।

    एकाएक वह चौंक गई। पर्वतपुर की दिशा से कोई गाड़ी आ रही थी। गाड़ी को देखकर दीपा के मन में एक नई आशा जगी। गाड़ी यदि रुक गई तो उसे शहर पहुंचने में कोई कठिनाई न होगी। वास्तव में ऐसा ही हुआ। ये एक छोटा ट्रक था‒जो उसके समीप आकर रुक गया और इससे पूर्व कि वह ट्रक चालक से कुछ कह पाती‒अंदर से चार युवक निकले और उसके इर्द-गिर्द आकर खड़े हो गए। उनकी आंखों में आश्चर्य एवं अविश्वास के साथ-साथ वासना के भाव भी नजर आते थे।

    दीपा ने उन्हें यूं घूरते पाया तो वह सहम गई। उसे लगा कि उसने यहां रुककर ठीक नहीं किया।

    वह अभी यह सब सोच ही रही थी कि उनमें से एक युवक ने अपने साथी को संबोधित किया‒

    ‘हीरा!’

    ‘कमाल है गुरु!’

    ‘क्या कमाल है?’

    ‘यह कि ऊपर वाले ने हमारे लिए आकाश से एक परी भेज दी।’

    ‘है तो वास्तव में परी है। क्या रूप है‒क्या यौवन है।’

    ‘और‒सबसे बड़ी बात तो यह है कि रात का वक्त है‒चारों ओर सन्नाटा है!’

    ‘तो फिर‒करें शुरू खेल?’

    ‘नेकी और पूछ-पूछ। कहते हैं‒शुभ काम में तो वैसे भी देर नहीं करनी चाहिए।’ कहते ही युवक ने ठहाका लगाया।

    इसके उपरांत वह ज्यों ही दीपा की ओर बढ़ा‒दीपा कांपकर पीछे हट गई और घृणा से चिल्लाई‒ ‘खबरदार! यदि किसी ने मुझे हाथ भी लगाया तो।’

    ‘वाह रानी!’ युवक इस बार बेहूदी हंसी हंसा और बोला‒ ‘ऊपर वाले ने तुझे हमारे लिए बनाया है, तू हमारे लिए आकाश से परी बनकर उतरी और हम तुझे हाथ न लगाएं? छोड़ दें तुझे? नहीं रानी! इस वक्त तो तुझे हमारी प्यास बुझानी ही पड़ेगी।’

    ‘नहीं-नहीं!’ दीपा फिर चिल्लाई।

    किन्तु युवक ने इस बार उसे किसी गुड़िया की भांति उठाया और निर्दयता से सड़क पर पटक दिया। यह देखकर दीपा अपनी बेबसी पर रो पड़ी और पूरी शक्ति से चिल्लाई‒ ‘बचाओ! बचाओ!’

    युवक उसे निर्वस्त्र करने पर तुला था। उसने तत्काल अपना फौलाद जैसा पंजा दीपा के मुंह पर रख दिया और बोला‒

    ‘चुप साली! इस वक्त तो तुझे भगवान भी बचाने नहीं आएगा।’

    किन्तु तभी वह चौंक गया।

    शहर की दिशा से एक गाड़ी आ रही थी और उसकी हैडलाइट्स में एक वही नहीं, उसके साथी भी पूरी तरह नहा गए थे। घबराकर वह अपने साथियों से बोला‒ ‘यह तो गड़बड़ी हो गई हीरा!’

    ‘डोंट वरी गुरु! तुम अपना काम करो। उस गाड़ी वाले को हम देख लेंगे।’

    दीपा अब भी चिल्ला रही थी और मुक्ति के लिए संघर्ष कर रही थी किन्तु इस प्रयास में उसे सफलता न मिली और युवक ने उसे अपनी बांहों में जकड़ लिया। उसका ध्यान अब आने वाली गाड़ी की ओर न था।

    किन्तु इससे पूर्व कि वह दीपा को लूट पाता‒सामने से आने वाली गाड़ी ठीक उसके निकट आकर रुक गई। गाड़ी रुकते ही युवक के साथी द्वार की ओर बढ़े‒किन्तु गाड़ी वाला स्थिति को समझते ही दूसरे द्वार से बाहर निकला और उसने फुर्ती से आगे बढ़कर अपनी रिवाल्वर उन लोगों की ओर तान दी। साथ ही गुर्राकर कहा‒

    ‘छोड़ दो इसे। नहीं तो गोलियों से भून दूंगा।’

    युवक ने दीपा को छोड़ दिया।

    दीपा उठ गई। उसकी आंखों से टप-टप आंसू बह रहे थे।

    चारों युवक सन्नाटे जैसी स्थिति में खड़े थे। अंत में उनमें से एक ने मौन तोड़ते हुए गाड़ी वाले से कहा‒ ‘आप जाइए बाबू! यह हमारा आपसी मामला है और वैसे भी इंसान को किसी के फटे में टांग नहीं अड़ानी चाहिए।’

    गाड़ी वाले ने एक नजर दीपा पर डाली और फिर युवकों से कहा‒ ‘यह गाड़ी तुम्हारी है?’

    ‘हां।’

    ‘इधर कहां से आ रहे हो?’

    ‘पर्वतपुर से।’

    ‘तो अब तुम लोगों की भलाई इसमें है कि अपनी गाड़ी में बैठो और फौरन यहां से दफा हो जाओ।’

    ‘बाबू साहब! आप हमारा शिकार अपने हाथ में ले रहे हैं।’

    ‘तुम लोग जाते हो‒अथवा।’ गाड़ी वाले ने अपनी रिवाल्वर को सीधा किया।

    चारों युवक गाड़ी में बैठ गए।

    फिर जब उनकी गाड़ी आगे बढ़ गई तो युवक ने रिवाल्वर जेब में रखी और दीपा के समीप आकर उससे बोला‒ ‘आप यहां क्या कर रही थीं?’

    ‘शहर जा रही थी।’ दीपा ने धीरे से उत्तर दिया।

    ‘इस समय?’

    ‘विवशता थी‒काम ही कुछ ऐसा था कि...।’

    ‘किन्तु आपको यों अकेले न जाना चाहिए था। दिन का समय होता तो दूसरी बात थी किन्तु रात में?’

    ‘कहा न‒विवशता थी।’

    ‘खैर! चलिए मैं आपको शहर छोड़ देता हूं। यूं तो मुझे सोनपुर जाना था किन्तु आपका यों अकेले जाना ठीक नहीं।’

    ‘आप कष्ट न करें। मैं चली जाऊंगी।’

    ‘यह तो मैं भी जानता हूं कि आप चली जाएंगी। काफी बहादुर हैं। बहादुर न होतीं तो क्या रात के अंधेरे में घर से निकल पड़तीं?’

    दीपा ने इस बार कुछ न कहा।

    युवक ने इस बार अपनी रिस्ट वॉच में समय देखा और बोला‒ ‘आइए! संकोच मत कीजिए।’

    दीपा उसका आग्रह न टाल सकी और गाड़ी में बैठ गई। उसके बैठते ही युवक ने गाड़ी का स्टेयरिंग संभाल लिया। गाड़ी दौड़ने लगी तो वह दीपा से बोला‒ ‘कहां रहती हैं?’

    ‘जी! सोनपुर।’

    ‘सोनपुर।’ युवक चौंककर बोला‒ ‘फिर तो आप वहां के जमींदार ठाकुर कृपात सिंह को अवश्य जानती होंगी। वह मेरे पिता हैं।’

    दीपा के सम्मुख धमाका-सा हुआ।

    युवक कहता रहा‒ ‘मेरा नाम विजय है। शुरू से ही बाहर रहा हूं‒इसलिए सोनपुर से कोई संबंध नहीं रहा। लगभग पांच वर्ष पहले गया था‒केवल दो घंटों के लिए! गांव का जीवन मुझे पसंद नहीं। गांवों में अभी शहर जैसी सुविधाएं भी नहीं हैं।’

    दीपा के हृदय में घृणा भरती रही।

    विजय उसे मौन देखकर बोला‒ ‘आपको तो अच्छा लगता होगा?’

    ‘जी?’

    ‘गांव का जीवन।’ विजय ने कहा‒ ‘कुहरे से ढकी पहाड़ियां‒देवदार के ऊंचे-ऊंचे वृक्ष और हरी-भरी वादियां।’

    ‘विवशता है।’

    ‘क्यों?’

    ‘भाग्य को शहर का जीवन पसंद न आया तो गांव में आना पड़ा।’

    ‘इसका मतलब है...।’

    ‘अभी दो वर्ष पहले ही सोनपुर आई हूं।’

    ‘उससे पहले?’

    ‘शहर में ही थी।’

    ‘वहां?’

    ‘माता-पिता थे किन्तु एक दिन एक दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई और मुझे शहर छोड़ना पड़ा।’

    ‘ओह!’ विजय के होंठों से निकला।

    दीपा खिड़की से बाहर देखने लगी।

    ✶✶✶

    स्टेशन आ चुका था। विजय ने गाड़ी रोक दी। दीपा गाड़ी से उतरी और एक कदम चलकर रुक गई। लक्ष्मणपुर जाना था उसे‒दूर के रिश्ते की बुआ के पास पर उसने तो कभी उसकी सूरत भी न देखी थी। केवल सुना ही था कि पापा की एक ममेरी बहन भी थी। क्या पता था‒उसे वहां भी आश्रय मिले न मिले। क्या पता‒बुआ उसे पहचानने से भी इंकार कर दे। विपत्ति में कौन साथ देता है। यदि ऐसा हुआ तो फिर क्या होगा? कहां जाएगी वह‒कौन आश्रय देगा उसे? किस प्रकार जी पाएगी वह अकेली?

    दीपा सोच में डूब गई।

    पश्चात्ताप भी हुआ। यों भटकने से तो अच्छा था कि वह सोनपुर में ही रहती। बिक जाती‒समझौता कर लेती अपने भाग्य से।

    तभी विचारों की कड़ी टूट गई। किसी ने उसके समीप आकर पूछा‒ ‘क्या आपको वास्तव में लक्ष्मणपुर जाना है?’

    दीपा ने चेहरा घुमाकर देखा‒यह विजय था जो न जाने कब से निकट खड़ा उसके विचारों को पढ़ने का प्रयास कर रहा था। दीपा उसके प्रश्न का उत्तर न दे सकी।

    विजय फिर बोला‒ ‘मैं समझता हूं‒आप लक्ष्मणपुर न जाएंगी।’

    ‘जाना तो था‒किन्तु।’ दीपा के होंठ खुले।

    ‘किन्तु क्या?’

    ‘सोचती हूं‒मंजिल न मिली तो?’

    ‘राहें साफ-सुथरी हों और मन में हौसला भी हो तो मंजिल अवश्य मिलती है।’

    ‘राहें अनजानी हैं।’

    ‘तो फिर‒मेरी सलाह मानिए।’

    ‘वह क्या?’

    ‘लौट चलिए।’

    ‘कहां?’

    ‘उन्हीं पुरानी राहों की ओर।’

    ‘यह‒यह असंभव है।’

    ‘असंभव क्यों?’

    ‘इसलिए क्योंकि उन राहों में कांटे हैं। दुखों की चिलचिलाती धूप है और नरक जैसी यातनाएं हैं। जी नहीं पाऊंगी। इससे तो अच्छा है कि यहीं किसी गाड़ी के नीचे आकर...।’ कहते-कहते दीपा की आवाज रुंध गई।

    ‘जीवन इतना अर्थहीन तो नहीं।’

    ‘अर्थहीन है विजय साहब! जीवन अर्थहीन है।’ दीपा अपनी पीड़ाओं को न दबा सकी और बोली‒ ‘कुछ नहीं रखा जीने में। हर पल दुर्भाग्य का विष पीने से तो बेहतर है कि जीवन का गला घोंट दिया जाए! मिटा दिया जाए उसे।’

    ‘आपका दुर्भाग्य...?’

    ‘यही कि अपनों ने धोखा दिया। पहले हृदय से लगाया और फिर पीठ में छुरा भोंक दिया। बेच डाला मुझे। पशु समझकर सौदा कर दिया मेरा।’

    ‘अ‒आप...।’

    दीपा सिसक पड़ी। सिसकते हुए बोली‒ ‘मैं पूछती हूं आपसे। मैं पूछती हूं‒क्या मुझे अपने ढंग से जीने का अधिकार न था? क्या मैं‒क्या मैं आपको पशु नजर आती हूं?’

    ‘नहीं दीपाजी! नहीं।’ विजय ने तड़पकर कहा‒ ‘आप पशु नहीं हैं। संसार की कोई भी नारी पशु नहीं हो सकती और यदि कोई धर्म, कोई संप्रदाय और कोई समाज नारी को पशु समझने की भूल करता है‒उसका सौदा करता है तो मैं ऐसे धर्म, समाज और संप्रदाय से घृणा करता हूं।’

    दीपा सिसकती रही।

    विजय ने सहानुभूति से कहा‒ ‘दीपाजी! आपके इन शब्दों और इन आंसुओं ने मुझसे सब कुछ कह डाला है। मैं जानता हूं‒दुर्भाग्य आपको शहर से उठाकर गांव ले गया। वहां कोई अपना होगा‒उसने आपको आश्रय दिया और फिर आपका सौदा कर दिया। इस क्षेत्र में ऐसा ही होता है‒लोग तो अपनी बेटियों को बेच देते हैं‒फिर आप तो पराई थीं और जब ऐसा हुआ तो आप रात के अंधेरे में सोनपुर से चली आईं। सोचा होगा‒दुनिया बहुत बड़ी है‒कहीं तो आश्रय मिलेगा। कहीं तो कोई होगा‒जिसे अपना कह सकेंगी।’

    दीपा की सिसकियां हिचकियों में बदल गईं।

    एक पल रुककर विजय फिर बोला‒ ‘मत रोइए दीपाजी! मत रोइए। आइए‒मेरे साथ चलिए।’

    ‘न‒नहीं।’

    ‘भरोसा कीजिए मुझ पर। यकीन रखिए‒संसार में अभी मानवता शेष है। आइए‒आइए दीपाजी!’ विजय ने आग्रह किया।

    दीपा के हृदय में द्वंद्व-सा छिड़ गया।

    ✶✶✶

    दीना की चौपाल पर महफिल जमी थी। सुबह होने को थी‒किन्तु पीने-पिलाने का दौर अभी भी चल रहा था। दीना शराब के नशे में कुछ कहता और यार-दोस्त उसकी बात पर खुलकर कहकहा लगाते। एकाएक अंदर से कोई आया और उसने दीना के कान में कहा‒ ‘काका! यह तो गजब हो गया।’

    ‘क्या हुआ?’

    ‘तुम्हारी भतीजी दीपा...।’

    ‘रो रही होगी।’

    ‘काका! बात रोने की होती तो कुछ न था।’

    ‘अबे! तो कुछ हुआ भी।’

    ‘दीपा घर में नहीं है।’

    दीना के सामने विस्फोट-सा गूंज गया। वह कुछ क्षणों तक तो सन्नाटे जैसी स्थिति में बैठा रहा और फिर एकाएक उठकर चिल्लाया‒ ‘यह-यह कैसे हो सकता है?’

    ‘काका! यह बिलकुल सच है। दीपा गांव छोड़ गई है।’

    दीना तुरंत अंदर गया और थोड़ी देर बाद लौट भी आया। दोस्तों ने कुछ पूछा तो वह दहाड़ें मारकर रो पड़ा। बात जमींदार तक पहुंची। दिन निकलते ही जमींदार का बुलावा आ गया। दीना को जाना पड़ा।

    जमींदार ने देखते ही प्रश्न किया‒ ‘क्यों बे! हमारी दुल्हन कहां है?’

    ‘सरकार!’

    ‘सरकार के बच्चे! हमने तुझसे अपनी दुल्हन के बारे में पूछा है।’ जमींदार गुर्राए।

    दीना उनके पांवों में बैठ गया और रोते-रोते बोला‒ ‘हुजूर! मैं तो लुट गया। बर्बाद हो गया हुजूर! उस कमीनी के लिए मैंने इतना सब किया। उसे अपने घर में शरण दी। उसे सहारा दिया और वह मुझे धोखा देकर चली गई। चली गई हुजूर!’

    ‘कहां चली गई?’

    ‘ईश्वर ही जाने हुजूर! मैं तो उसे पूरे गांव में खोज-खोजकर थक गया हूं।’

    जमींदार यह सुनते ही एक झटके से उठ गए और क्रोध से दांत पीसकर बोले‒ ‘तू झूठ बोलता है हरामजादे!’

    ‘सरकार!’

    ‘हरामजादे! तूने हमारी इज्जत मिट्टी में मिला दी। दो कौड़ी का न छोड़ा हमें। अभी थोड़ी देर बाद हमारी बारात सजनी थी। शहर से बीसों यार-दोस्त आने थे, दूल्हा बनना था हमें और तूने हमारे एक-एक अरमान को जलाकर राख कर दिया। किसी को मुंह दिखाने लायक भी नहीं रहे हम।’

    ‘म‒मुझे माफ कर दीजिए हुजूर!’

    ‘नहीं माफ करेंगे हम तुझे। हम तेरी खाल खींचकर उसमें भूसा भर देंगे। हम तुझे इस योग्य न छोड़ेंगे कि तू फिर कोई धोखा दे सके।’ इतना कहकर उन्होंने निकट खड़े एक नौकर से कहा‒ ‘मंगल! इस साले को इतना मार कि इसकी हड्डियों का सुरमा बन जाए। मर भी जाए तो चिंता मत करना और लाश को फेंक आना।’

    ‘नहीं हुजूर नहीं!’ दीना गिड़गिड़ाया।

    जबकि मंगल ने उसकी बांह पकड़ी और उसे बलपूर्वक खींचते हुए कमरे से बाहर हो गया।

    उसके जाते ही जमींदार बैठ गए और परेशानी की दशा में अपने बालों को नोचने लगे।

    ✶✶✶

    सूरज की पहली-पहली किरणों ने

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