Abhishap
By Rajvansh
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Abhishap - Rajvansh
अभिशाप
कंधों पर फैले भीगे बाल, होंठों पर चंचल मुस्कुराहट और आंखों में किसी के प्यार की चमक लिए मनु बाथरूम से निकली तो एकाएक वहां खड़ी संध्या से टकरा गई और झेंपकर बोली-‘सॉरी! लेकिन तू यहां क्या कर रही थी?’
‘प्रतीक्षा कर रही थी तेरी! जानती है-पूरे पैंतीस मिनट बाद बाहर निकली है।’
‘तो! कौन-सा आकाश टूट पड़ा?’
‘आकाश मुझ पर नहीं-उस बेचारे पर टूटा है।’
‘बेचारा! यह बेचारा कौन है?’
‘आहा!’ संध्या ने मनु के गाल पर हल्की-सी चिकोटी भरी और बोली- ‘पूछ तो यों रही है-मानो कुछ जानती न हो। पूरा आधा घंटा बीत गया उसे यहां आए हुए।’
‘अच्छा! कोई पापा से मिलने आया है?’
‘पापा से नहीं-तुमसे। नाम तो मैं नहीं जानती किंतु शक्ल-सूरत...। बिलकुल राजकुमार लगता है।’
‘होगा कोई।’ मनु ने अपने बालों को झटका देकर असावधानी से कहा- ‘तू उसके पास बैठ, मैं आती हूं।’
‘अरे वाह! मिलने आया है तुझसे-और पास बैठूं मैं।’
‘तू जाती है कि नहीं।’ इतना कहकर मनु ने संध्या के कान की ओर हाथ बढ़ाया तो संध्या खिलखिलाते हुए ड्राइंगरूम की ओर चली गई।
संध्या के चले जाने पर मनु ने कमरे में आकर जल्दी-जल्दी स्वयं को तैयार किया और ड्राइंगरूम में पहुंची-किंतु अंदर पांव रखते ही एक भयानक विस्फोट के साथ पूरा-पूरा अतीत उसके सामने बिखर गया।
सामने निखिल बैठा था।
निखिल, जिसे वह प्यार से निक्की कहती थी।
निखिल उसे देखकर उठ गया और हाथ जोड़कर बोला- ‘नमस्ते मनु जी!’
मनु उसके अभिवादन का उत्तर न दे पाई। होंठ कांपकर रह गए। तभी वहां बैठी संध्या ने उठकर उससे कहा- ‘अच्छा बाबा! मैं तो चली।’
‘ब-बैठ न संध्या!’
‘न बाबा! बहुत देर हो गई। कल की पार्टी का प्रबंध भी करना है।’ इतना कहकर संध्या वहां से चली गई।
मनु अब भी बाहर की ओर देख रही थी। कदाचित निखिल की ओर देखने एवं उससे कुछ कहने का साहस उसमें न था। तभी वह चौंकी। निखिल उससे कह रहा था- ‘लगता है-मेरा आना तुम्हें अच्छा नहीं लगा?’
‘नहीं!’ मनु धीरे से बोली- ‘ऐसी कोई बात नहीं।’
‘तो फिर ये मौन-ऐसी बेरुखी?’
‘सोच रही थी कुछ।’
‘वह क्या?’
‘अपने अतीत के विषय में?’
‘और शायद यह भी कि एक ही राह पर चलने वाले दो मुसाफिर फिर अलग-अलग दिशाओं में क्यों चले जाते हैं-है न?’
‘जो राह छूट गई थी-उसके विषय में मैंने कभी नहीं सोचा।’
निखिल को यह सुनकर आघात-सा लगा। मनु की ओर से उसे ऐसे उत्तर की आशा न थी। दीर्घ निःश्वास लेकर वह बोला- ‘किन्तु मैंने सोचा है। प्रत्येक सुबह-प्रत्येक शाम, मुझे उस राह की भी याद आई है और तुम्हारी भी। सोचकर यह भी नहीं लगा कि तुम बेवफा थीं और यह भी नहीं लगा कि तुमने मुझे धोखा दिया था।’
‘तो और क्या लगा?’ मनु ने पूछा। और-यह वह प्रश्न था जिसने उसकी आत्मा को कई बार झंझोड़ा था।
निखिल बैठकर बोला- ‘लगा था-तकदीर ने धोखा दिया है। यदि ऐसा न होता तो मुझे अपने बेटे की तरह चाहने वाले अंकल गोपीनाथ मेरी प्रार्थना को यों अस्वीकार न करते। कभी न कहते कि तुम हमारी मनु के योग्य नहीं। जानती हो-ऐसा क्यों हुआ?’
मनु खामोशी से चेहरा झुकाए रही।
निखिल कहता रहा- ‘मेरी निर्धनता के कारण। मेरी गरीबी ने लूटा मुझे। मेरी गरीबी ने खून किया मेरे प्यार का। अन्यथा मेरी वह राह आज भी मेरी होती। मेरी मनु आज भी मेरी बांहों में होती।’
‘जो बीत चुका है-उसे दुहराने से क्या लाभ?’
‘लाभ है।’ निखिल फिर उठा और बोला- ‘मुझे आत्म-संतोष मिला ये बताकर कि न तो तुम बेवफा थीं और न ही मैं बेवफा था। बेवफा थी तो तकदीर, मेरी उम्मीदें।’
‘बसा करो। निक्की! बस करो।’ मनु ने बेचैनी से कहा। स्वर में अथाह पीड़ा थी। मानो पुराना जख्म फिर से हरा हो गया हो।
निखिल से उसकी यह पीड़ा छुपी न रही। बोला- ‘स-सॉरी मनु! मैं तो यह सब कहना ही न चाहता था। पुराने जख्मों को कुरेदने से क्या लाभ? जिन राहों ने सदा-सदा के लिए साथ छोड़ दिया, उनकी ओर देखने से भी क्या लाभ। किन्तु हृदय न माना। न चाहते हुए भी तुमसे बहुत कुछ कह बैठा। न चाहते हुए भी तुमसे मिलने चला आया हूं। बड़ा विचित्र होता है यह हृदय भी-बहुत दुःख होता है प्यार करने वालों को। और सबसे बड़ी विचित्रता तो यह है कि उन दुखों को यह स्वयं भी झेलता है। काश-विधाता ने मनुष्य को हृदय न दिया होता।’
‘तो फिर।’ मनु के होंठों से निकल गया- ‘जीवन कैसे जिया जाता?’
‘पत्थर बनकर।’ दर्द भरी मुस्कुराहट के साथ निखिल बोला- ‘पत्थरों की भांति, जिनके लिए न तो पीड़ाओं का कोई अर्थ होता है और न ही मुस्कुराहटों का। जिनके सीने में होता है कभी न टूटने वाला मौन और सब कुछ सहने की शक्ति।’
‘निक्की!’ मनु तड़पकर रह गई। निखिल की पीड़ा उनके अस्तित्व में तूफान बनकर चीख उठी।
निखिल ने वॉल क्लॉक में समय देखा और गहरी सांस लेकर बोला- ‘चलता हूं मनु! बहुत राहत मिली तुम्हें देखकर। वर्ष भर की तड़प एक ही पल में मिट गई। शुक्रिया तुम्हारे प्यार का। और हां! एक बात और-यह निक्की अब पहले जैसा नहीं रहा। आज पास मेरे सब कुछ है। बंगला-गाड़ी, नौकर-चाकर और लाखों की दौलत। कोई कमी नहीं मेरे जीवन में। कमी है तो सिर्फ तुम्हारी-तुम्हारे प्यार की। और-और ये वो कमी है जो कभी पूरी न होगी। काश! मेरे पास दौलत न होती-तुम्हारा प्यार होता-सिर्फ तुम्हारा प्यार।’ कहते ही निखिल ने बेचैनी से होंठ काट लिए।
इसके पश्चात् वह एक पल भी नहीं रुका और सुस्त कदमों से बाहर चला गया।
मनु उसे सम्मोहित-सी देखती रही। निखिल का एक-एक शब्द उसके मस्तिष्क में पटाखों की भांति शोर कर रहा था और एक अनजानी पीड़ा थी, जो उसे बार-बार व्याकुल कर रही थी।
एकाएक किसी गाड़ी के इंजन की आवाज सुनकर वह चौंकी। खिड़की के समीप पहुंचकर देखा-निखिल की गाड़ी गेट से निकल रही थी। कुछ क्षणों उपरांत गाड़ी उसकी नजरों से ओझल हो गई, किन्तु वह वहीं खड़ी रही। तभी किसी की खिलखिलाहट भरी हंसी ने उसकी विचार मुद्रा तोड़ दी। चेहरा घुमाकर देखा-यह संध्या थी जो पीछे खड़ी उससे पूछ रही थी-
‘क्यों-हो गया न मिलन?’
‘तू कहां थी?’ मनु ने पूछा।
‘बराबर वाले कमरे में। तूने मुझसे अपने मेहमान के विषय में कुछ भी नहीं बताया था न-इसलिए रुक गई।’
मनु बैठकर बोली- ‘तो यूं कह न कि जासूसी कर रही थी?’
‘न बाबा-मेरी इतनी हिम्मत कहां कि तेरी जासूसी कर सकूं।
‘यह निखिल था।’
‘निखिल कौन?’
‘कॉलेज में साथ पढ़ा था।’
‘बस?’ संध्या ने मुस्कुराकर पूछा और मनु के समीप बैठ गई।
‘हम दोनों अच्छे दोस्त थे।’
‘और फिर हुआ यह कि तुम्हारी दोस्ती एक दिन प्यार में बदल गई?’
‘हां।’
‘तुम दोनों घरवालों की नजरों से छुपकर किसी पार्क अथवा पिकनिक स्पाट पर मिलने गए?’
‘हम लोग महारानी गार्डन में मिलते थे।’
‘जगह अच्छी है-बहुत मजा आता होगा। लेकिन-तुम दोनों के बीच प्रोफेसर आनंद कहां से आ गए?’
‘मैंने निक्की से मिलना छोड़ दिया था।’
‘निक्की-अर्थात निखिल?’
‘हां।’ मनु ने गंभीरता से उत्तर दिया और मूर्तिमान-सी खिड़की से बाहर देखने लगी।
संध्या ने अगला प्रश्न किया- ‘निक्की से मिलना क्यों छोड़ा?’
‘निक्की पापा को पसंद न था।’
‘वह क्यों?’
‘धरती-आकाश जैसा अंतर था उसकी और हमारी हैसियत में। यूं कहो कि उसके और मेरे बीच चांदी की दीवार थी। मेरे अंदर इतना साहस न था कि पापा से विद्रोह करके उस दीवार को तोड़ पाती। अतः पापा के कहने पर मुझे उससे संबंध तोड़ना पड़ा।’
‘इसका मतलब है।’ संध्या उठकर बोली- ‘तूने अपने प्यार को एक नाटक और निक्की के हृदय को एक खिलौना समझा। जब तक चाहा-अपना मनोरंजन किया और जब उससे दिल भर गया तो उसे तोड़कर फेंक दिया-क्यों?’
मनु तड़पकर रह गई। उठकर उसने संध्या के कंधे पर हाथ रखा और बोली- ‘मुझे गलत न समझ संध्या। मैंने उससे वास्तव में प्रेम किया था। बहुत चाहा था उसे। किन्तु तू जानती है न कि जीवन में प्यार ही सब कुछ नहीं होता। सिर्फ प्यार की बातें और इधर-उधर घूमना-वादे करने-कसमें खानें-इस सबसे तो जीवन की गाड़ी नहीं चलती। जीने के लिए दौलत भी बहुत जरूरी होती है। दौलत न हो तो प्यार के वादे भी झूठे लगते हैं। प्यार थोथा एवं कल्पना जान पड़ता है। पापा ने मुझे यही शिक्षा दी थी। मैंने उनकी शिक्षा पर भी ध्यान दिया और अपना भविष्य भी देखा। इसके पश्चात् यही निर्णय लिया कि मुझे अपने प्यार को भूल जाना चाहिए।’
‘और-तू भूल गई?’
‘नहीं।’ निःश्वास लेकर मनु बोली- ‘नहीं भूल पाई उसे। लाख प्रयास करके भी नहीं। निक्की मुझे हर पल याद आता रहा। कई बार वह सपनों में आता और मुझसे एक ही प्रश्न पूछता। पूछता कि क्या मेरा प्यार, प्यार न था-क्या मेरा हृदय, हृदय न था? आखिर-आखिर क्यों ठुकराया तुमने मेरे प्यार को? क्यों टुकड़े-टुकड़े किया मेरा हृदय? उसने मुझे कई बार बेवफा कहा और मैं रो पड़ी। उसने मुझे चीख-चीखकर धोखेबाज कहा और मैं कुछ भी न कह सकी।’ यह सब बातें कहते-कहते मनु का कंठ भर आया।
‘खैर!’ संध्या बोली- ‘मैं यह तो नहीं कहूंगी कि तूने अच्छा किया अथवा बुरा। किन्तु एक सलाह अवश्य दूंगी। तुझे उसे भूल जाना चाहिए। एक सप्ताह बाद तेरा विवाह है। यदि तूने विवाह के पश्चात् भी निक्की को याद रखा तो तू कभी आनंद से न जुड़ पाएगी। और वैसे भी-अपने सपनों को तो तूने स्वयं जलाया है। अब उनकी राख को कुरेदने से क्या लाभ? व्यर्थ ही हाथ जलाएगी पगली! बहुत पीड़ा होगी उस गर्म राख को कुरेदने से। चलती हूं।’
इतना कहकर संध्या ने मनु का कंधा थपथपाया और चली गई।
मनु उसके जाते ही खिड़की के समीप आ गई। उसकी आंखों में अब आंसुओं की मोटी-मोटी बूंदें झिलमिला रही थीं।
* * *
निखिल की उंगलियों में सिगरेट सुलग रही थी। अपने कार्यालय में रिवॉल्विंग चेचर की पुश्त से सटा वह सामने वाली दीवार पर लगी एक पेंटिंग को देख रहा था।
एकाएक द्वार खुला और अधेड़ आयु के एक व्यक्ति ने कमरे में प्रवेश किया। निखिल के होंठों पर गर्वपूर्ण मुस्कुराहट फैल गई। उसने सिगरेट ऐश ट्रे में कुचल दी और चौंकने का अभिनय करते हुए उठकर बोला- ‘नमस्ते अंकल! आईए-आईए ना।’
ये गोपीनाथ थे जो द्वार के निकट खड़े निखिल को यों देख रहे थे-मानो संसार के किसी बड़े आश्चर्य को देख रहे हों। निखिल उन्हें यों विचार मग्न देखकर फिर बोला- ‘अंकल! लगता है-आप मुझे भूल गए हैं। मैं निक्की हूं-निक्की यानी निखिल। बैंक चपरासी श्रीमान राजारामजी का बेटा।’
‘ओह!’ गोपीनाथ के होंठों से निकला। किन्तु आंखों में फैले आश्चर्य के भाव कम न हुए।
‘आप शायद यह देखकर हैरान हैं कि एक चपरासी का बेटा, जो किसी समय कॉलेज की फीस भी नहीं दे पाता था-एकाएक ‘शिल्पा फिल्म कंपनी’ का मालिक कैसे बन गया।’
गोपीनाथ कुछ भी न कह सके।
निखिल उनके समीप आया और फिर बोला- ‘बात आश्चर्यजनक तो है अंकल! किन्तु अनहोनी नहीं। अनहोनी इसलिए नहीं-क्योंकि भाग्य बदलते देर नहीं लगती। सब कुछ विधाता के हाथ में होता है। विधाता चाहता है तो राजा को एक ही पल में रंक और रंक को राजा बना देता है। असल में मेरे एक चाचा जी थे-वेणी प्रसाद। उनका हमारे परिवार से खून का रिश्ता न था। किन्तु जो रिश्ता था-वह खून के रिश्ते से भी बढ़कर था। इस शहर में वे वर्षों हमारे साथ रहे। उनका अपनों के नाम पर तो कोई था नहीं-अतः वे हमारे परिवार को ही अपना परिवार मानते थे। मुझसे विशेष मोह था उन्हें। बचपन में मैं उन्हीं के पास सोता था और उन्हीं के हाथ से खाना खाता था। फिर एक दिन पिताजी से उनका किसी बात पर झगड़ा हो गया और वे गुजरात चले गए। गुजरात में उनके मामा हीरों का व्यवसाय करते थे। समय का ऐसा चक्र चला कि मामा का देहांत हो गया और उनकी करोड़ों की संपत्ति उन्हें मिल गई। फिर एक दिन वेणी प्रसाद भी दुनिया से चले गए और मरने से पूर्व अपनी कुल चल-अचल संपत्ति मेरे नाम लिख गए। यूं समझिए कि विधाता ने मुझे छप्पर फाड़कर दिया और रंक से राजा बना दिया। लेकिन-लेकिन आप खड़े क्यों हैं? बैठिए न।’
गोपीनाथ बैठ गए।
निखिल ने बैठकर चपरासी से कोल्डड्रिंक लाने के लिए कहा और इसके उपरांत गोपीनाथ के चेहरे पर नजरें जमाते हुए वह बोला- ‘मैनेजर सक्सेना ने मुझसे आपके विषय में बताया था। यह जानकार खुशी हुई कि आप...।’
‘अब मेरा वैसा कोई इरादा नहीं।’
‘क्या मतलब?’
‘मैंने ठेके लेने का विचार त्याग दिया है।’
‘ऐसा क्यों अंकल? क्या आप ये सोचते हैं कि इस ठेके से आपको कोई लाभ न होगा?’
‘लाभ तो होगा-किन्तु मैं बीती बातों को दिमाग से न निकाल पाऊंगा। मुझे आज भी वो दिन याद है, जब तुमने मेरे सामने मनु से शादी करने की बात रखी थी।’ गोपीनाथ मन की बात कह गए।
‘और आपने मेरी प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया था।’ निखिल ने कहा- ‘आपने साफ-साफ लफ्जों में कह दिया कि तुम मनु के योग्य नहीं। इसके अतिरिक्त आपने मुझसे यह भी बता दिया था कि मेरी हैसियत क्या है। किन्तु विश्वास कीजिए-इसमें आपका कोई दोष न था। आपने तो मेरे सामने एक सच्चाई रखी थी। आपके स्थान पर कोई दूसरा व्यक्ति होता तो वह भी मेरी मांग को ठुकरा देता। वास्तव में यह दोष तो मेरा था। मुझे मनु के विषय में सोचना ही नहीं चाहिए था। मुझे यह देखना चाहिए था कि मेरी औकात क्या है-मेरी हैसियत क्या है। सच पूछिए तो आपसे मिलने के पश्चात् मुझे अपनी बात पर बेहद पश्चाताप हुआ था। कई बार यह भी सोचा था कि आपसे क्षमा मांग लूं, किन्तु साहस न जुटा सका था।’
‘क्या-क्या तुम सच कह रहे हो निखिल बेटे!’ कांपती आवाज में गोपीनाथ बोले- ‘क्या तुम्हें मुझसे वास्तव में कोई शिकायत नहीं?’
‘विश्वास कीजिए अंकल! मुझे वास्तव में आपसे कोई शिकायत नहीं। और वैसे भी-आप तो मेरे पिता समान हैं-श्रद्धेय हैं। आपसे कैसी शिकायत?’ तभी चपरासी कोल्डड्रिंक ले आया।
निखिल बोला- ‘लीजिए, कोल्डड्रिंक लीजिए अंकल!’
बोतल अपनी ओर सरकाकर गोपीनाथ बोले- ‘मुझे अफसोस है कि मैंने तुम्हें समझने में भूल की।’
‘कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है। भूल जाइए सब और अब सिर्फ एक वचन दीजिए।’
‘वह क्या?’
‘आप इस कंपनी को अपनी समझेंगे और इसके लिए काम करेंगे।’
‘अवश्य निखिल! अवश्य।’
निखिल कोल्डड्रिंक के घूंट भरने लगा। कुछ क्षणोपरांत वह बोला- ‘सुना है-ठीक एक सप्ताह बाद मनु की शादी है?’
‘हां।’ गोपीनाथ धीरे से बोले। मानो कहते हुए भय लगा हो। फिर एक पल रुककर उन्होंने कहा- ‘किन्तु मुझे अफसोस है कि...।’
‘अंकल! आज जो कुछ कहना चाहते हैं, उसे मैं समझ रहा हूं। किन्तु आप इस संबंध में कुछ न सोचें। मनु का विवाह हो रहा है-इस समाचार से मुझे दुःख नहीं बल्कि प्रसन्नता हुई है। मैं तो केवल यह कहना चाह रहा था कि अभी तो आप शादी के कारण व्यस्त रहेंगे।’
‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। मैं अपना काम कल से ही आरंभ कर