S For Siddhi (एस फॉर सिद्धि)
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S For Siddhi (एस फॉर सिद्धि) - Sandeep Tomar
तोमर
1
उसकी फ्लाइट आने में अभी समय था। जय प्रकाश नारायण अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा भारत में बिहार राज्य की राजधानी पटना से 5 किमी दक्षिण-पश्चिम में था। मैं उसकी फ्लाइट का इंतजार कर रही थी। कुछ सोच मैं मार्किट निकल गयी। ये एक कोस्मेटिक शोरूम है। एक परफ्यूम, कुछ गुलाब की पेटल्स खरीदी। एक बुका भी लिया था, आज ही उसकी युक्रेन से वापसी थी और आज ही उसका जन्मदिन था। जन्मदिन सेलिब्रेट करने का लगभग सभी सामान खरीद मैंने अपने हैण्डबैग में रखा। मोबाइल से होटल भी बुक कर दिया था, कमरा नंबर दो सौ चार, हाँ यही नंबर अलोट हुआ था।
उसकी फ्लाइट आई तो वहाँ से कैब पकड़ मैं उसके साथ होटल पहुँची थी। रिसेप्शन से सर्विस बॉय ने चाबी ली, सामान उठाया और हमारे आगे-आगे चलने लगा था, कमरे के बाहर से ही मैंने उसे लौटा दिया। होटल का कमरा बहुत ही शानदार था बिलकुल अनिकेत की पसंद का। अनिकेत सीधे बाथरूम की ओर चला गया। मैंने पूरे कमरे को परफ्यूम की खुशबू से महकाने की गरज से स्प्रे किया। और अनिकेत के बाहर आने का इंतजार करने लगी।
अनिकेत बाथरूम से बाहर आया तो उसके सीने के बालों से पानी की टपकती बूँदें मुझे उत्तेजित करने लगी थी, मैं दो कदम आगे बढ़ी और उसके सीने पर अपने होंठ रख दिए, ये चुम्बन कुछ ज्यादा ही लम्बा हो गया।
क्या ये बर्थडे का एडवांस गिफ्ट है?
-अनिकेत ने कहा था।
हाँ कुछ ऐसा ही समझ लो, अनिकेत हमें तुम्हारे सीने के बाल सबसे ज्यादा आकर्षित करते हैं, कब से मन था इस सीने पर दो चुम्मी लेने का।
लेकिन ये तो एक ही चुम्मी हुई।
एक उधार समझिये, मौका और दस्तूर होगा तो फिर माँग लेंगे आपसे।
-मैंने शरारती आँखों से कहा।
अनिकेत ने केक काटा तो मैंने पहला टुकड़ा उसके मुँह में लगभग ठूंस दिया, ये उसे अप्रत्याशित भी लगा होगा। अभी केक खाया तो मैंने एक डिब्बी खोल उसकी अनामिका में रिंग पहना कहा-अनिकेत बाबू ये हमारी जिन्दगी की शुरुआत करने की निशानी कुबूल कीजिये।
अनिकेत ने बिना कुछ बोले मेरी हथेली को अपने हाथ में ले चूम लिया। एक बार फिर मेरे शरीर में सिहरन थी।
होटल की सेंटर टेबल से हम बिस्तर की ओर बढ़ गए। कम कपड़ों में दो शरीर, मानों एक-दूसरे के लिए बने हों। अभी मिलन की बेला शुरू भी नहीं हुई कि अनिकेत पूछ बैठा- सच सच कहो, सिद्धि, क्या तुम मुझसे प्रेम करती हो
?
हाँ, मैं आपसे बेहद प्रेम करती हूँ, कम से कम इस समय तो करती ही हूँ।
कम से कम इस समय, मैं इसका मतलब नहीं समझा।
कैसे समझाऊँ, हमारी जिन्दगी में तरह-तरह की भावनाएँ हैं, प्रेम, घृणा, क्रोध, शांति, सब कुछ ही तो है हमारे बीच। कभी एक भावना आती है और कभी दूसरी। फिर दोनों ही चली जाती हैं। इस समय मेरे अन्दर प्रेम की भावना प्रबल है बहुत ही प्रबल। मैं उस प्रेम की प्रबलता को न कम ही करना चाहती हूँ न ही उसे खत्म ही करना चाहती हूँ। मुझे इस जगह से प्यार है, मुझे इस कमरा नंबर दो सौ चार से प्यार है, मुझे इस शहर से प्यार है, मुझे तुम्हारे-हमारे बीच उपस्थित हर दृश्य से प्यार है, मुझे आपसे प्यार है। सच कहती हूँ अनिकेत, मुझे जिंदगी से प्यार है।
अनिकेत ने मेरी बातों का क्या अर्थ लिया नहीं जानती लेकिन सोच रही हूँ उसने जो भी सोचा होगा उसमें कहीं कुछ रहस्यमय था। मैंने उसे जो भी कहा, झूठ नहीं कहा था, शायद एक बहुत बड़ा सत्य कहा था, जिसे मैं उस समय अनुभव कर रही थी।
ऐसा नहीं था कि अनिकेत इस पल की खुशी को महसूस नहीं कर रहा था लेकिन उसका ये सवाल करना कि क्या तुम सचमुच मुझसे प्रेम करती हो, ये सवाल खुद में इस प्रेम पर भी सवाल कर रह था और मेरे मन पर भी हथोड़े मार रहा था, लेकिन मैं प्रेम के एक भी पल को गवाना नहीं चाहती थी।
होटल से बाहर खिड़की से गगनचुम्बी इमारतें ही दिखाई पड़ती थी, लेकिन कहीं दूर देखने पर एक क्षितिज भी दिखाई पड़ता था, एक ऐसी जगह जहाँ धरती आसमान की तरह लगती थी। कमरे का नाईट बल्ब इतना मन्दिम था मानो दीपक हो, जो तेल न रहने पर बुझने के कगार पर हो, इसे लगभग अँधेरा भी कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। अंधेरे में मैंने अनिकेत के कान में फुसफुसाते हुए कहा-‘क्या हमारा प्रेम खिड़की से बाहर की दुनिया से वास्ता रखता हैं?’
‘नहीं, खिड़की का बाहर अन्दर की दुनिया से एकदम अलग है। मैं इस प्रेम को नितांत निजी मानता हूँ, जिसमें किसी का कोई दखल न हो।’
अनिकेत, लेकिन बाहर की दुनिया से बावस्ता हुए बिना हमारे प्रेम का अस्तित्व भी तो नहीं, एक दिन तो....?
सिद्धि, क्या आगे का सोचकर हम अपने आज को जीना छोड़ दें? क्या जो आज हमारे सामने है उसे बेहतर तरीके नहीं जिया जाना चाहिए?
आज जो जिया जा रहा है ये भी कोरा सच है लेकिन कल के लिए भी तो सोचना ही होगा? यूँ कब तक बन्द कमरे में हमारी सिसकारियाँ गूँजती रहेंगी?
सुनो, पहले तालाब बना तब ही किनारे की कल्पना हुई, धरती से पहले पगडण्डी नहीं बनाई जाती, आकाश से पहले तारों का वजूद नहीं होता।
अनिकेत बोले जा रहा था और मैं उसकी बाँहों में समाती चली जा रही थी। उसका विशाल वक्ष मुझे एक सिक्युरिटी का भाव दे रहा था। अनिकेत के हाथ भी मेरे गालो से होते हुए गोलाई तक का सफर तय करते और नीचे सरकने लगे थे।
2
हाँ तो अनिकेत, ये हनीमून शहर दिल्ली चुनने के पीछे क्या वजह है, क्या मैं जान सकती हूँ?
वजह कुछ खास नहीं। बस यूँ समझ लो, ये मेरी कर्मस्थली है। मैंने अपने बिजनेस को यहीं से शुरू किया था। पढ़ाई पूरी करके यहाँ आया, कुछ दिन नौकरी की लेकिन मन नौकरी में रमता ही नहीं था, लगता था जैसे मैं नौकरी के लिए बना ही नहीं हूँ और हुआ भी वही, एक दिन नौकरी छोड़ दी। बिजनेस का अनुभव नहीं था लेकिन एक जज्बा था, एक जुनून था। तो यूँ समझ लो जीवन की एक हसीन शुरुआत इसी शहर से हुई तो फिर क्यों न अपने पंद्रह हनीमून शहरों में से पहले इसी शहर को चुना जाए।
लेकिन पहले पटना फिर दिल्ली? इस हिसाब से तो ये दूसरा हनीमून हुआ न?
-मैंने कहा।
हाँ इस मायने में तुम मान सकती हो कि ये हमारा दूसरा हनीमून है, लेकिन दिल्ली मेरे जीवन का वो शहर है जिसने मुझे मैं बनाया।
ठीक है लेकिन काठमांडो में क्या बुराई थी? पहले तो वहीं का प्लान तय हुआ था। अब वहाँ जाते तो पहले पशुपतिनाथ जाकर पूजा करते। जानते हो हम शिव को बहुत मानते हैं। हमें लगता है शिव की पूजा से ही आप हमें मिले हैं।
- मैंने कहा।
काठमांडो तो हमारे पंद्रह शहरों में से एक शहर में शामिल है। वहाँ का हनीमून भी शानदार होगा लेकिन अभी तो दिल्ली पर फोकस कीजिये डार्लिंग।
दिल्ली मुझे कभी आकर्षित नहीं करती। हमेशा इस शहर से दूर रहने की कोशिश करती रही मैं। और आज पहले शहर के रूप में मुझे इसी शहर से सौगात के रूप में ट्रेन के टिकिट मिले।
मैं तो चाहता हूँ कि तुम एयर से आओ लेकिन तुमने ही मुझे मना किया हुआ है कि कभी भी मेरे टिकिट एयर के न कराएँ।
मुझे अनिकेत का तुम बोलना बहुत भाया था।
मैंने नियत समय पर ट्रेन पकड़ ली थी। मेरा ड्राइवर वीरेन मुझे स्टेशन तक छोड़ने आया था। वीरेन मेरे यहाँ वर्षों से काम कर रहा है। घर के सदस्य जैसा हो गया है। वीरेन सिर्फ ड्राइवर ही नहीं घरेलू नौकर जैसा है। मेरे कितने ही जरूरत के काम वह निपटाने में मदद करता है।
वीरेन स्टेशन पर ट्रेन के खुलने तक बैठा रहा था। ट्रैन खुली तो सारा सामान एडजेस्ट करवा वह वापिस गया।
ट्रैन ने रफ्तार पकड़ ली थी और उसी के साथ मेरे हृदय की धड़कने भी बढ़ने लगी थी।
एक अनजान शहर, अनजान लोग। हाँ, एक अनिकेत ही था जिसे मैं जानती थी। लेकिन अनिकेत को भी तो कितना जाना अभी? ढाई महीने की मुलाकात और ये फैसला? मैं खुद के फैसले पर कभी मायूस होती तो कभी हँसने लगती। ट्रैन चले जा रही थी, पीछे बहुत कुछ छूटता जा रहा था। लेकिन आगे एक भविष्य मुझे दिखाई दे रहा था।
ट्रैन काफी लेट थी। मैं बराबर अनिकेत के सम्पर्क में थी। रात के बारह बजे ट्रेन ने प्लेटफॉर्म पर उतारा था। अनिकेत को मैंने बाहर ही इंतजार करने को कहा था। नियत जगह पर पहुँच मैंने पहले से खड़े अनिकेत की तरफ हाथ मिलाने की नियत से दायाँ हाथ आगे बढ़ाया। उसने आस-पास की परवाह न कर आलिंगन किया और एक पहले से तय ऑटो ड्राइवर को सामान उठाने को कहा।
दिल्ली जैसे महानगर में ऑटो ड्राइवर सामान उठाना भी जैसे तौहीन समझते हैं। चुनांचे हम दोनों ने ही सामान उठाकर ऑटो में रखा। सामान के नाम पर मेरे पास एक ट्रॉली बैग और एक हैंड बैग के साथ एक छोटा बैग खाने-पीने के सामान के लिए था। खान-पीन का सामान साथ लेकर चलना मेरी आदत में शुमार है इसलिए ये मुझे अजीब नहीं लगता। हालांकि अनिकेत ने कहा था कि ज्यादा सामान मत लेकर चलना। हर जगह खाने का सामान मिल ही जाता है। लेकिन कुछ आदतें तो वक्त के साथ ही छूट सकती हैं।
ऑटो में बैठ मैंने अनिकेत से कहा-इतनी गाड़ियाँ होते हुए भी यूँ ऑटो से किसलिए?
लग्जरी लाइफ जीना मुझे अच्छा नहीं लगता। और फिर सामान्य आदमी की तरह जीने का अपना ही आनंद है। देखो न आज मौसम कितना सुहाना है। ऑटो में गर्मी का अहसास भी नहीं।
हाँ अनिकेत तुमने सच कहा।
अनिकेत ने अपनी एक बाजू को मेरे कंधे के पीछे कर लिया था। और हथेली मेरी बाजू पर। उसका हौले से मेरी बाजू पर अँगुली चलाते हुए कुछ लिखना मुझे अंदर तक बेचैन करने लगा। मुझे एहसास हो रहा था कि इतने सौष्ठव बदन का मालिक कब मेरे साथ अकेला होगा? काश ये ऑटो न होकर कार होती या फिर ये कमरा होता। लेकिन काश का कोई विकल्प नहीं हुआ करता।
एक डर, एक भय जरूर मेरे मन में था कि अनजाने शहर में अनजाने इंसान के साथ मैं अकेले जा रही थी। लेकिन एक खुलूस मेरे मन को आंदोलित भी कर रहा था।
अचानक अनिकेत ने अपनी हथेली का दबाव मेरे बाजू पर बनाया। और सिर मेरे कन्धे पर रख दिया। अचानक मेरे मुँह से निकला-अनिकेत ये कुछ ज्यादा नहीं हो रहा?
हालांकि मन अंदर से बेचैन था। मन कह रहा था अनिकेत यूँ ही लेटे रहो। तुम्हारा स्पर्श मुझे आंदोलित कर रहा है। तुम्हारे साथ होने के अहसास मात्र से तिरोहित हूँ फिर आज तो साक्षात मेरे साथ हो। ओह अनिकेत अब तक कहाँ थे तुम?
मेरे ज्यादा कुछ होने की बात से अनिकेत को शायद बुरा लगा। वह सीधा बैठ गया। उसकी हथेली की पकड़ भी ढीली हो गयी। ऑटो में कुछ पल के लिए मौन पसर गया। कोई शब्द नहीं, कोई आहट भी नहीं। मैंने ही मौन को तोड़ा था-चुप क्यों हो?
चुप्पी भी अच्छी लगती है।
हाँ लेकिन तब जब अकेले हों।
मुझे मेरी हद का पता है सिद्धि।
अब मौन रहने की मेरी बारी थी।
अनिकेत ने कहा-जानती हो अकेलापन किसी भी इंसान को कितना सालता है? साथ होकर भी अगर अहसासों के बीच कम या ज्यादा का भाव होगा तो मुझे लगेगा कि ये टूर ही बेमानी है। जानती हो ये पहला हनीमून, पहला शहर है और आज ही ये सब बन्दिशें हुई तो फिर इतना लम्बा जीवन कैसे रोमांस से भरपूर होगा?
अनिकेत ने ऑटो को एक अपार्टमेंट के पास रुकने का इशारा किया। ऑटो रुका तो पहले अनिकेत उतरा था फिर मैं। अनिकेत ने ऑटो ड्राइवर को खुले पैसे दिए। ड्राइवर ने कहा-साहब और दीजिये न।
अरे इतना ही तय हुआ था। रखो और सामान उतारो।
साहब तय तो हुआ था लेकिन रात का टेम है।
तो रात में ही ऑटो लिया, ऐसा नहीं कि दिन में लिया और फिर अचानक रात हुई है। नाईट चार्ज के बाद ही तो किराया तय हुआ। फिर ये हुज्जत किसलिए?
साहब गरीब आदमी हूँ, रात भर ऑटो चलाकर पेट भरता हूँ।
तो इसका मतलब ये हुआ कि आज की सारी दिहाड़ी मुझसे वसूलना है, तुम यू.पी., बिहार वालो ने दिल्ली में बड़ी गुंडागर्दी मचा रखी है।
मैंने अनिकेत की तरफ देखा, वह अपनी गलती भाँप चुका था। थोड़ा नजाकत के साथ उसने मेरी तरफ देखा और एक पचास का नया नोट ड्राइवर को पकड़ा दिया।
अनिकेत सामान उतारने का इंतजार करने लगा लेकिन ड्राइवर अपनी सीट से नहीं उठा। भुनभुनाते हुए अनिकेत ने ड्राइवर को भद्दी गली दी-मा...द...र.....। और खुद ही सामान उतार मेरा एक हाथ पकड़ दूसरे में सामान ले फ्लैट की ओर बढ़ गया।
एक लम्बी बालकनी को पार कर हम फ्लैट के मेन गेट के पास पहुँचे थे। यह एक डुप्लेक्स फ्लैट था। जिसमें नीचे एक बड़ा हॉल था जिसमें दाएँ हाथ से एक छोटी बालकनी से होते हुए बैडरूम था। बैडरूम की बगल में एक और कमरा था। मेन हॉल के दायीं ओर बड़ी सी किचेन। किचेन क्या ये पूरा एक कमरा था। जिसमें एक डाइनिंग टेबल के साथ चार कुर्सियाँ लगी थी। चॉपिंग के लिए पूरा एक हिस्सा छोड़ा गया था। डबल सिंक, माइक्रो वेव के लिए अलग स्थान था। कुल मिलाकर ये एक आधुनिक किचेन थी। मैंने अनायास ही पेंट्री को खोलकर देखा। पेंट्री आधुनिक खान-पीन की वस्तुओं से अटी पड़ी थी। किचेन के दायीं तरफ बढ़ते हुए एक और बड़ा कमरा था। संभवतः ये कमरा आगंतुकों के लिए होगा। इसी के बराबर में काँच से सुसज्जित वाशरूम। जिसमें सभी आधुनिक साज-सज्जा का सामान था। बड़े बाथटब में दोनों तरफ सॉवर लगे थे। ऐसा ही एक बाथरूम बैडरूम के साथ भी था। फ्लैट के बीच से एक अत्याधुनिक लिफ्ट ऊपर जाने के लिए थी। लिफ्ट लिफ्ट न लगकर कोई शोकेस प्रतीत होती थी। जिसमें दो लोग अगर खड़े हों तो एक-दूसरे से चिपकना पड़े। चिपकने के नाम से मेरे शरीर में सिहरन हो गयी। फ्लैट के मुआवने के समय अनिकेत मेरे साथ था। बोला-ओह, सिद्धि, तुम्हें फ्लैट दिखाने के चक्कर में मैं भूल गया कि तुम थकी हो। चलो आराम कर लो।
मेरा रूम कौन सा होगा अनिकेत बाबू?
अरे जान, बीवियों के लिए बैडरूम होते हैं, कमरे नहीं।
-अनिकेत ने कहा।
मन किया कि बोल दूँ कितने भोले हो, चंद मुलाकातों को शादी के रूप में देखने लगे। लेकिन फिर अहसास हुआ - ऐसा कह एक बेहतरीन रिश्ते को खोने का जोखिम कैसे ले सकती हूँ?
3
अनिकेत से एक बार बातचीत शुरू हुई तो ये एक सिलसिला बन गया। रात से दिन फिर दिन से रात कैसे हो जाते पता ही नहीं चलता। नींद जैसे आँखों के पास ही नहीं फटकती थी। मुझे लगता जैसे मेरा जीने का रूटीन है वैसे ही अनिकेत का भी होगा। लेकिन अभी महीना भी बातें करते हुए नहीं हुआ होगा कि एक दिन अनिकेत ने कहा-सिद्धि जितनी बातें हमारी हो रही हैं इनसे बिजनेस पर फर्क पड़ रहा है। क्लाइंट्स को टाइम नहीं दे पा रहा, इस तरह तो सारी पार्टियाँ दूसरे बिजनेसमैन के पास जाने लगेंगी।
मुझे भी लगा कि अनिकेत ठीक ही कह रहा है। उसने कहा- "तुमसे बातें होने से पहले मैं रोज साढ़े पाँच बजे जगता था, उठकर पार्क जाता था और वहाँ से आकर नहा-धोकर