सन्नाटे की आवाज: औरत और ट्रांस वूमेन की जिंदगी के अनछुए पहलुओं पर फोकस
By अनिल अनूप
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औरतों के एक ऐसे स्वरुप की चर्चा जिसे सभ्यता की चादर ओढ़े मर्दों ने सृजित किया है। एक ऐसा सृजन जिसके सर्जक ही सबसे बड़ी उपेक्षा करने वाले हैं। इस पुस्तक में वर्णित एक एक कहानी सत्यता की छांव में पल बढ़कर शब्दाकार में यहां प्रस्तुत किया गया है, सबको रिझाएगा, समझाएगा और भी बहुत कुछ... हम लेखक व्यवस्था और कानून नहीं बना सकते लेकिन वास्तविकता को अपने लेखकीय अंदाज में जगजाहिर तो कर ही सकते। इस पुस्तक में आपबीती की असीमित शक्तियां हैं तो समाज और परिवार से परित्यक्त एक ट्रांसजेंडर की मानवीय भावनाओं का सजीव चित्रण भी है। विपदाओं से घिरी जगत जननी औरत का मजबूर नंगापन है तो समाज को मुंह चिढ़ा रहा उसका कर्म भी शब्दों का पारदर्शी जामा पहनाया हुआ आपको दिख जाएगा।
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सन्नाटे की आवाज - अनिल अनूप
सन्नाटे की आवाज
औरत और ट्रांस वूमेन की जिंदगी के अनछुए पहलुओं पर फोकस
BY
अनिल अनूप
pencil-logo
ISBN 9789356107298
© Anil Anup 2022
Published in India 2022 by Pencil
Contributors:
Editor: Anjani Kumar Tripathi
A brand of
One Point Six Technologies Pvt. Ltd.
123, Building J2, Shram Seva Premises,
Wadala Truck Terminal, Wadala (E)
Mumbai 400037, Maharashtra, INDIA
E connect@thepencilapp.com
W www.thepencilapp.com
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DISCLAIMER: The opinions expressed in this book are those of the authors and do not purport to reflect the views of the Publisher.
Contents
आज़ाद-ख़्याली की इज़्ज़त करना कब सीखेंगे
शर्म जरूरत से बड़ी नहीं
हमारे तो एड्रेस में ही बदबू है साहब…
खरीदी हुई दुल्हन
वो अपनी पहचान के लिए भी तरसते हैं
सन्नाटे की आवाज
एक ट्रांसजेंडर की कहानी
आपबीती लिखूं तो दीवारों पर जगह न बचे….
एक एहसास
‘शारीरिक संबंध बनाने के बाद पति बेकार समझ लिया करते थे…’
मेरी जैसी कई औरतों को अपना शरीर बार-बार बेचना पड़ता है’’
सोच और समझ ; प्यार के नजरिए में
अस्तित्व की तलाश में भटकती जिंदगी
वे उन्हें चूमना नहीं चाहती
दिनबदिन टूटती उम्मीदें
Preface
आजाद खयाली का मंथन हो या शर्म की जरूरत का एहसास, खरीदी हुई दुल्हन की खामोशी से लेकर अस्तित्व की तलाश में भटकती हुई जिंदगी के अनकहे शब्द हों, किसी की पहचान की प्रतीक्षा हो या आपबीती की खामोश धड़कनें हों, महसूस तो कर लेते हैं सब लेकिन उसका एहसास किसी को नहीं होता। ऐसी अनकही आवाजों को सिर्फ शब्द दिए हैं मैंने। उसका सूत्रधार कोई और है मैं तो बस एक माध्यम बन उन आवाजों की शाब्दिक गूंज आपको सुनाने भर का काम किया है।
मेरा प्रयास कितना सफल हो पाता ये मालूम नहीं लेकिन कोशिश को आप तक शेयर कर लूं ये कम बड़ी कामयाबी नहीं।
आज़ाद-ख़्याली की इज़्ज़त करना कब सीखेंगे
सामने वाली आंटी बालकनी में ताला लेकर खड़ी हैं. ताले पर टकटकी लगाए सोच रही हैं, इसे कौन से कमरे पर लगाएं?रसोई के सामने वाले गलियारे के दाईं तरफ़ बेटी का कमरा है और बाईं तरफ़ बेटे का. और कान में गूंज रही हैं कुछ नेताओं की हिदायतें.इनके मुताबिक बेटी की सुरक्षा के लिए उसे घर में रखना चाहिए. यानी बेटे को बाहर घूमने देना है, लेकिन बेटी को ताले में बंद रखने में ही भलाई है.आपने भी सुना होगा, हाल ही में दो लड़कियों से बदतमीज़ी का वीडियो वायरल होने के बाद समाजवादी पार्टी के नेता आज़म खान ने कहा था, जितना हो सके, लड़कियों को घर में ही रखना चाहिए.
समस्या थी छेड़खानी और उसका समाधान ये निकाला गया. बस तभी से आंटी सोच में पड़ी हैं. और सोचें भी क्यों ना, वो वीडियो था ही इतना परेशान करनेवाला.
आपने भी अपने किसी वॉट्सऐप ग्रुप में, फ़ेसबुक फ़ीड में या ख़बरों की वेबसाइट पर इसे शायद देखा होगा.वीडियो में दिख रहा था कि दिन-दहाड़े कुछ लड़कों ने दो लड़कियों के साथ बद्तमीज़ी की, कपड़े खींचे और यहां तक की गोद में भी उठा लिया.वीडियो उन दर्जन-भर लड़कों में से किसी ने बनाया और फिर इसे सोशल मीडिया पर डाल दिया. वीडियो देखकर जितना गुस्सा आया उतनी ही उलझन हुई.जिन आंटी का मैं ज़िक्र कर रहा था, उन्होंने तो हमेशा अंकल से लड़कर अपनी बेटी को घूमने-घामने की ख़ूब छूट दे रखी थी. वो तो देर रात भी लौटती है, और वो भी अकेले.याद है साल 2012 में कोलकाता की सुज़ेट जॉर्डन, जिसका रात में नाइट क्लब से लौटते वक्त गैंगरेप किया गया.
दिल्ली को कैसे भूलें...और जिसके बाद पश्चिम बंगाल की मुख़्यमंत्री ममता बैनर्जी ने भी सवाल उठाया कि इतनी रात गए बाहर घूमने की क्या ज़रूरत है?और अपने शहर दिल्ली को कैसे भूलें, जहां की सीएम रहीं शीला दीक्षित ने भी ऐसी ही एक टिप्पणी की थी.जब साल 2008 में एक पत्रकार रात के तीन बजे ऑफ़िस से अपनी कार में घर लौट रही थी तो उसको कुछ गुंडों ने रोकने की कोशिश की थी और जब वो नहीं रुकी तो उसके सिर में गोली मार दी थी.तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने कहा था, अकले, रात के तीन बजे, दिल्ली शहर में... इतनी दिलेरी नहीं दिखानी चाहिए.
आंटी ने तो हमेशा सोचा कि बेटी को रोकने की नहीं बेटे को समझाने की ज़रूरत है. इसीलिए आज तक दोनों के कमरों के दरवाज़े बेरोकटोक खुले थे.
लेकिन आज़म खान की बात सुनकर अंकल ने जब फिर ज़िद पकड़ ली कि बेटी की सुरक्षा के लिए उसे घर पर रखो, तो वो भी अड़ गईं.वो बोलीं, बेटे को घर पर क्यों नहीं रख लेते, फिर तो बेटी बाहर आज़ाद तरीके से घूमने के लिए सुरक्षित होगी.
फिर अंकल के हाथ से ताला छीनकर बाहर आ गईं. मैं जानता था नेता लाख़ ऐसी हिदायतें देते रहें, अंकल उनसे चाहे जितना प्रभावित हों, आंटी तालेवाली नहीं हैं.अंकल पीछे-पीछे आए और कहने लगे कि ये कौनसा नया तरीका हुआ बेटियों को सुरक्षित करने का, भला बेटों को घरों में बंद किया जा सकता है क्या?
अगर रोकटोक बेटों को पसंद नहीं तो बेटियों को क्यों होगी? आंटी तिलमिलाकर बोलीं.वैसे भी पूरी दुनिया को दो हिस्सों में बांट देंगे क्या सुरक्षा के नाम पर?साथ रहने दीजिए, घूमने-घामने दीजिए, जानने दीजिए एक-दूसरे को - तभी तो समझेंगे और दूसरे को हिंसा नहीं इज़्ज़त की नज़र से देखेंगे.
अंकल के तर्क शायद ख़त्म हो गए थे. गहरी सांस ली और वही घिसेपिटे आखिरी डिफेंस में बोले- 'जो तुम ठीक समझो, होम डिपार्टमेंट तुम्हारा है', और यह कहकर वो अंदर चले गए.मैं जानती थी, नेता लाख़ हिदायतें देते रहें, अंकल उनसे चाहे जितना प्रभावित हों, आंटी तालेवाली नहीं हैं. वो मुझे देख मुस्कुराईं और ताला फेंक दिया.आंटी के राज में बेटा और बेटी दोनों आज़ाद रहेंगे और दोनों एक-दूसरे की आज़ाद-ख़्याली की इज़्ज़त करना सीखेंगे.काश! अब उनकी बात कुछ और नेता-अकंल-आंटी भी समझ जाएं.
शर्म जरूरत से बड़ी नहीं
"बीसेक साल की थी, जब पहली बार कॉलेज पहुंची। मुझे एक हॉल में ले जाया गया, जहां तेज रोशनी थी और बीच