Osho - Ageh Smriti Granth Khand-1 : (ओशो - अगेह स्मृति ग्रंथ खंड-1)
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कितने लोग इन पुस्तकों कों पढ़ कर संन्यास लेने को प्रेरित हो रहे हैं। कितने पूना जा रहे हैं। कितने ध्यान शिवरों में सम्मिलित हो रहे हैं। कितनों ने भाव व्यक्त किया है कि सारे हिन्दुस्तान में हिन्दी में एक भी पुस्तक ओशो पर नहीं थी, वह कमी आपकी इन पुस्तकों से बखूबी पूरी होंगी ।
पहला खंड :
1. ओशो गाथा
2. ओशो के संग कुछ अनमोल क्षण
3. ओशो के मधुशाला में बचपन
4. एक ओशो शिष्य की डायरी
दूसरा खंड :
1. अनजाने ओशो
2. मेरी रजनीशपुरम यात्रा
3. ओशो एक स्वर अनेक
4. एक सोहो शिष्य की अंतर्यात्रा
यह आशा करते है कि सभी पुस्तक पाठको को पसंद आयेगी ।
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Osho - Ageh Smriti Granth Khand-1 - Kalyan Mitra Swami Ageh Bharati
ओशो - गाथा
स्वामी अगेह भारती
भगवान श्री से मेरी प्रथम भेंट
भगवान श्री रजनीश से वैसे तो सारा देश ही परिचित है, विश्व भी परिचित होता जा रहा है, पर सचमुच में कोई परिचित है, यह कह पाना कठिन है। क्योंकि वे कहते हैं- अब जो मैं साधारण आंखों से दिखाई पड़ता हूँ वही नहीं हूँ। अदृश्य और अज्ञात् ने बन्द द्वार खोल दिए हैं और मैं उस जगत् को देख रहा हूँ जो आंखों से नहीं देखा जाता और उस संगीत को सुन रहा हूँ जिसे सुनने में कान समर्थ नहीं होते हैं।
और मैं उन्हीं के संबंध में कुछ लिखने बैठा हूँ। समझ में नहीं आता कैसे लिखूँ? क्या लिखूँ? कई बार लिखा भी है और वह विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपा भी है। पर प्रकाशित होकर जब सामग्री सामने आई है तो लगा है, कुछ भी तो नहीं लिख पाया। जो कहना चाहता था उसका हजारवां अंश भी तो नहीं कह पाया। और लगा है कि असंख्य जिव्हाओं से उनकी प्रशंसा करूँ तो भी उन्हें छोटा ही देखना है। हाँ, वे मुझे प्रशंसाओं के बहुत ऊपर लगे हैं। फिर कैसे कुछ कहूँ? लगता है उनका नाम ले लूँ और चुप हो जाऊं। मगर आह। चुप रह पाना कितना कठिन है। अपनी सीमाओं में जो भी जितना भी जैसा भी,उन्हें जाना है, वह सब जिव्हा से निकल पड़ने को जैसे आतुर है। उसे भीतर रोक पाना असंभव हो गया है। अस्तुः
स्मृतियाँ आज फिर ताजा हो आई हैं। 10 फरवरी, 1967 की वह संध्या, आह! उस क्षण के प्रति, उस संध्या के प्रति कृतज्ञता कैसे प्रकट करूँ जब पहली बार इस महासूर्य से नेपियर टाउन स्थित ‘योगेश भवन’ में मिलना हुआ था, और मुझे नई राह मिली थी, अभिनव मार्ग-दर्शन मिला था। उस समय मेरी कैसी विचित्र मनोदशा थी। घर-द्वार, पत्नी-बच्चे सभी कुछ छोड़ संन्यास लेने का निर्णय ले लिया था। निर्णय ले लिया था कहना भी कदाचित् गलत होगा। वैसा हो ही गया था। भीतर से ही कुछ ऐसा हो गया कि मैं असीम आनंद में था। मैं आनन्द में था कहना भी शायद उचित न होगा। अच्छा हो अगर कहूँ कि मैं आनन्द ही हो गया था। अपने-पराये का भेद मेरे लिए मिट गया था। जात-पात की दीवारें कहीं विलीन हो गयी थीं। मृत्यु का भूत मेरे लिए मिट गया था। राष्ट्रों की सीमा-रेखाएं मेरे लिए कहीं खो गई थीं। स्त्री-पुरुष का भेद मेरे लिए अदृश्य हो गया था। हाँ, मैं बाहर सड़क पर निकलता तो मुझे स्त्री-पुरुष में भेद नजर न आता। सभी आत्म-रूप दिखते। उन दिनों यदि दस-पाँच विश्व सुन्दरियाँ मेरे ऊपर नग्न पड़ी रहतीं तो मुझे कोई फर्क न पड़ता। कोई रिक्शा तांगा वाला भी अकारण ही दो चांटे मुझे जड़ देता तो भी उसे चूम लेने के सिवा अन्य कुछ करने का मेरे पास कोई उपाय न था, मैं ऐसे असीम प्रेम से भरा था। सब मैं ही हूँ ऐसा मुझे दिखता था। और दिखना इतना स्पष्ट था कि काम, क्रोध, मद, लोभ आदि का कोई उपाय न रह गया था। वे सब शून्य हो चले थे। मैं बोलता तो मेरी वाणी से संगीत झरता। मेरा शरीर फूल से भी अधिक हल्का मालूम पड़ता। मैं चलता, पर चलता हुआ नहीं महसूस करता था। कार्य करता पर कुछ करता हुआ-सा नहीं लगता था। मैं सोता पर जागने पर लगता कि मैं जागा हुआ ही था। मैं जिससे भी एक शब्द बोलता, जिसकी ओर एक निगाह देख लेता,वह पिघल कर पानी-पानी हो जाता। बाहर से आने पर बच्चे सदा की भांति मेरी टांगों से लिपट जाते, पर कोई लिपटा है, संवेदानात्मक तल पर ऐसा कुछ मुझे महसूस न होता। मेरे हृदय में एक ऐसा आनन्द भरा हुआ था जो सारी सृष्टि की बादशाहत मिल जाने पर भी न तिल भर बढ़ सकता था, न सारी सृष्टि (परिवार की सीमा तो थी ही नहीं उस समय) के मिट जाने पर तिल भर ही घट सकता था। सचमुच में तो मैंने जो अनुभव किया था उसमें कहीं कोई सृष्टि ही न थी। वहाँ तो बस महाशून्य था। मुझे निरंतर इतनी शक्ति का बोध होता कि लगता, अगर मैं केवल इच्छा करूँ तो समूची पृथ्वी कूद कर मेरी मुट्ठी में आ जाएगी और मात्र चाहने भर से (बिना दबाये) बताशे-सी चूर-चूर हो जाएगी। मगर वहाँ तो कोई इच्छा ही शेष न थी। वहाँ तो इच्छा मात्र का अभाव हो गया था। वहाँ तो लगता था, जितना चाहा भी नहीं जा सकता था, जितने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, उतना मिल गया है। सभी के सभी कुछ के प्रति अपार अनुग्रह-बोध होता, बस। लगातार इतनी गहन शांति का अनुभव होता रहता कि भरे बाजार में भी लगता जैसे सारा जगत स्थिर है। कहीं कुछ भी चल-फिर नहीं रहा है। कहीं कोई गति ही नहीं है। मैं कैसे आनंद में था, उसे शब्दों में कहने का कोई उपाय नहीं है। बड़ी असमर्थता है। वह असंभव ही है। वास्तव में मैं स्वयं को, सर्व को और जो कुछ भी दिखाई व सुनाई पड़ रहा था सब कुछ को निरंतर परमात्मा अनुभव कर रहा था। उन दिनों मेरे समक्ष भूत और भविष्य तो था ही नहीं, बस निरन्तर वर्तमान भर था और यह अनुभव कालातीत घटित हुआ था। दिन- तारीख का कुछ भी पता नहीं। उस क्षण दिन-रात तो दूर ‘समय’ भी न था। आज तो यही कह सकता हूँ कि यह घटना दिसंबर 1966 के अंतिम सप्ताह में या फिर इसी के आस-पास कभी भी घटित हुई। बहरहाल यह स्थिति महीने डेढ़ महीने रही। एक दिन अचानक मुझे लगा कि जो असीम प्रेम मुझ पर अनायास बरस पड़ा है। (हालाँकि यह भी उतना ही सत्य है कि इस जगत् में अनायास कुछ भी नहीं होता) घर-द्वार, बीवी बच्चों को छोड़कर उसका संदेश सारी दुनिया को देने निकल पडूं। यह परमात्मा की ओर से दिया गया मेरे लिए काम है।
मगर घर छोड़कर जाने के पूर्व मैं खुद भी नहीं जानता कि क्यों व किस अज्ञात शक्ति की प्रेरणा से मैं भगवान श्री के निवास स्थान का पता लगाता उनके पास जा पहुँचा। इसके पहले न उन्हें कभी देखा था, न सुना था। यह भी नहीं जानता था कि वे संत हैं। इसका भी कोई पता न था कि वे भाषण देते हैं। कुछ भी तो नहीं जानता था कि वे क्या हैं, कौन हैं, कहाँ हैं?
प्रथम बार मिलने गया 8 फरवरी को तब दिन के 12 बजे थे। तब मुझे क्या मालूम था कि यह किसी के विश्राम का समय हो सकता है। एक हंसमुख व मधुर भाषी युवक ने उक्त जानकारी दी जिसे कि आज अरविन्द के नाम से जानता हूँ। उस दिन उनसे भगवान श्री का पता माँग लिया और वापस लौट आया। और लौटकर अन्तर्देशीय पत्र लिखा। मैं नहीं जानता कि जिसके बारे में मैं कुछ नहीं जानता था उसके लिए ऐसा पत्र कैसे लिख सका? मैंने लिखा- आज आपसे मिलने आया था पर आप विश्राम में थे; अतः वापस लौट आया। परमात्मा आप द्वारा जो कार्य करवा रहा है उसमें शरीर का थक जाना स्वाभाविक है। अतः उसे विश्राम देना आवश्यक ही है। इसीलिए मुझे वापस लौटने में तनिक भी दुख नहीं हुआ। पर मैं मिलने आता रहूँगा जब तक एक बार भेंट न हो जाएगी। और कभी भी भेंट न हो तो भी लौटने का कभी दुख न होगा, मगर मिलने आता रहूँगा। और मुझे तो लगता है कि यदि मै चाहूँ तो आपसे अभी भेंट हो सकती है, इसी वक्त, यहीं मेरे निवास पर। मगर आश्चर्य! कोई चाह ही शेष नहीं रही, फिर कैसे चाहूँ? है न विचित्र बात! कि मिलने के लिए आता भी रहूँगा और फिर भी मिलने की आशा-आकांक्षा से मुक्त भी रहूँगा। आप कहेंगे यह युवक विरोधाभासी बातें कर रहा है, पर सच, ऐसा ही है। खैर…आपका शरीर स्वस्थ रहे, यही प्रभु से प्रार्थना है। अधिक मिलने पर।
दो दिन बाद ही दूसरी बार पहुँचा अर्थात् 10 फरवरी को। यही है वह तिथि जब मुझे उनके दर्शन हुए। जब मैं वहाँ पहुँचा, संध्या के 6 बजे थे। अरविन्द जी से मालूम हुआ, आचार्य श्री (तब भगवान श्री को आचार्य श्री ही कहते थे) विश्राम कर रहे हैं और यदि मिलना ज़रुरी ही है तो 8 बजे आ जाऊं, मिनट का समय मिल जाएगा। मैंने सड़क पर टहल-टहल कर (सचाई यह है कि नाच-नाच कर) 8 बजाए। ठीक 8 बजे मैं गेट के भीतर पहुँचा। अरविन्द जी मुझे ले जाकर किताबों से सजे एक विशाल कक्ष में बैठा गए और बोले-बैठें, दो मिनट में आचार्य श्री आते हैं। मैं समझता हूँ एक मिनट ही बीते होंगे कि एक हिमश्वेत वस्त्रों में आचार्य श्री खिले कमल-से मुस्काते हुए अपनी मनोहारी चाल की छटा बिखेरते कमरे में प्रविष्ट हुए। मैंने खड़े होकर अभिवादन किया। उन्होंने मुझे पास बुलाकर बैठाला और कहा, मैं आज ही कल में तुम्हारे पत्र का उत्तर देने को था।
मैंने कहा : ‘मैं स्वयं ही आ गया।’ वे मुस्कराये। जबलपुर में कब से रहता हूँ आदि क्षण भर की व्यावहारिक पूछ-ताछ के बाद जब मुझे अपनी बात शुरु करना हआ तो मैंने घडी की ओर निहारा। प्रभ ने कहा : आप सभी कुछ बतायें, पूरे विस्तार से बतायें, समय की चिन्ता न करें।
और जब मैंने उनसे सारा कुछ जो व जैसा हुआ था बताया तो उन्होंने बड़ी सहजता से कहाः मन की अनेक स्थितिया हैं। यह उनमें सर्वोच्च स्थिति है जो कि जाने किन जन्मों के सुकर्मों का फल है। क्योंकि यह स्थिति भी सामान्य (common) नहीं है। यह उसका द्वार हो सकता है। पर यह ‘वह’ नहीं है। उसके होने पर फिर कोई स्मृति नहीं रह जाती, कुछ स्मरण करने को नहीं रह जाता। वहाँ दृश्य व दृष्टा जैसा द्वैत भी नहीं रह जाता, आनन्द भी नहीं रह जाता है। यहाँ (छाती के नीचे व पेट के ऊपर, मध्य में जो छोटा सा गड्ढानुमा भाग है वहाँ संकेत करते हुए) एक शून्य जैसा हो जाता है। रही घर-द्वार छोड़ जाने की बात, तो वह ठीक नहीं है। घर-द्वार उसमें कोई बाधा नहीं है। छोड़ जाना भी अहंकार ही है। कौन छोड़ कर जाएगा? किसे छोड़कर जाएगा? छोड़ जाना भी अहंकार है। हाँ, उन्होंने एक बात और कही थी-
यह जो आनन्द मिला है इसे अकेले में भोगें, इसका आनन्द लें। किसी से कहें नहीं। क्योंकि लोग समझेंगे नहीं और कहेंगे कोई पागल है, जाने क्या बकता है। और यह भी अच्छी बात नहीं है कि तमाम लोग पागल कहें। उन्होंने मेरे चलते -चलते बड़े प्रेम से कहा-
जब भी कोई बात हो, जब भी आने जैसा लगे, तुम सीधे चले आना। द्वार सदा खुले हैं। मैं उस करुणा की मूर्ति को अभिवादन कर अपार आनन्द अनुभव करता चला आया। पर वह बात लोगों से कहे बिना कैसे रह जाता। मन की ही स्थिति जो थी। अस्तुः मैंने अनेक मित्रों से बताया और सचमुच ही कोई कुछ समझ न पाता कि मैं आखिर कहता क्या हूँ? बातें किस लोक की करता हूँ? और ज्यों-ज्यों बताता गया मेरा वह आनन्द कम होता गया, कम होता गया। जब भी किसी से बताता, हर बार मेरा वह आनन्द घट जाता और समूचे शरीर पर से जैसे रोड क्रेशर गुजर गया होता। बेहद थकान एवं टूटन महसूस करता। अंततः उस आनन्द से खाली ही हो गया। स्मृतियां भर शेष रह गई हैं। मगर मैं दुखी नहीं हूँ। मन की स्थिति की शायद यही अनिवार्य परिणति हो सकती थी। फिर जो होना ही था, जल्दी हो गया, अच्छा हुआ। पर इससे मुझे देखने की आंख ज़रुर मिल गई- विशेषकर भगवान श्री को। 1967 की फरवरी के पूर्व अगर पूरे 55 करोड़ लोग कहते कि रजनीश बहुत बड़े संत हैं, पहुँचे हुए हैं, परमात्मा हैं तो मैं कहता कि तुम सब गधे हो, अंधे हो, बेचारे हो। वे एक बहुत बुद्धिशाली एवं चालाक व्यक्ति हैं जो कि मौज कर रहे हैं। क्योंकि उस समय उनको देखने की मेरे पास आंख न थी। मगर अब स्थिति एकदम उल्टी हो गई है। एक आंख जो मिल गई है। अब सारा देश ही नहीं, सारा संसार भी उन्हें गलत कहे तो भी मैं अकेला ही कहता रहूँगा-
मेरे प्रिय, अभी तुम्हारी आंखें खुली नहीं है, तुम अंधे हो,बेचारे हो, तुम्हारा कसूर नहीं है।" और यही कहने के लिए आज इस संस्मरण के माध्यम से हजारों-लाखो मित्रों से उस सब को बता रहा हूँ जिस घटना को भगवान श्री ने उस दिन मना किया था। भले ही बचा खुचा आनन्द भी छिन जाए,पर उसे कैसे रोकूँ? कैसे छिपाऊं? जिससे कि प्रभु जी को समझने में मित्रों को मदद मिल सकती है। लोग उन्हें जानें-समझें, इसके लिए आनन्द छिन जाने की बात दूर, मैं मिट भी जाऊं तो मुझे संतोष है। सत्य की राह पर कौन होगा अभागा जो नहीं मिटना चाहेगा? और उन्हें जाना कैसे जा सकता है? उन्हें जानने का एक मात्र उपाय है स्वयं को जानना। बिना स्वयं को जाने उन्हें जानने का कोई उपाय नहीं है। मैंने खुद पाया है कि मैं जितना स्वयं के निकट होता जाता हूँ वे उतना ही मेरे लिए खुलते जाते हैं। यद्यपि मेरे लिए अभी भी वे रहस्य ही हैं। वे रहस्य हैं क्योंकि मैं स्वयं अपने लिए रहस्य हूँ। अभी जीवन से मेरा परिचय कहाँ हुआ है। तथापि खिड़की से किरण रोशनी फेंकती है तो इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि बाहर आकाश में सूर्योदय हुआ है। अतः इतना तो मानना ही पड़ता है कि अगर मन की किसी स्थिति में मैंने स्वयं की लगतार वर्तमान, कालातीत व अवर्ण्य आनन्द से भरा, काम-क्रोध-मद-लोभ आदि से शून्य पाया तो जिसे आत्मज्ञान कहते हैं, उसे उपलब्ध व्यक्ति के आनन्द की वह या उससे भी उच्च स्थिति अक्षुण हो जाए तो क्या आश्चर्य? उसमें मृत्यु सदा के लिए मर जाए तो क्या आश्चर्य? उसमें स्त्री-पुरुष का भेद सदा के लिए मिट जाए और परमात्मा ही उसमें वास करने लगे तथा उससे झरने लगे ‘तो क्या आश्चर्य? बहरहाल मेरे समक्ष अमृत के अनुभव की उनकी बात एक चुनौती के रूप में खड़ी है। एक तीखी प्यास जग गई है उसके लिए। मेरा आग्रह नहीं है। पर कामना यही है कि श्री रजनीश की वाणी आपके लिए भी चुनौती बन जाए। सच, इस चुनौती की स्वीकृति में भी, इस प्यास से भर जाने में भी कितना आनंद है। कितना जागरण है!!
लुधियाना यात्रा : एक रिपोर्ताज
भगवान श्री रजनीश के साथ होना एक आनंद है। मैं उनके निकट होता हूँ तो विचारों की दौड़ प्रायः खो गई होती है और चित्त अभूतपूर्व शांति का अनुभव करता है। कितना भी दुखी व परेशान हूँ, उनके निकट आते ही सारे तनाव शिथिल पड़ जाते हैं और जी हल्का होकर एक ताजगी से भर जाता है। वे जब मुझसे ही बातें कर रहे होते हैं उस समय तो मुझे किसी बाहरी दुनिया का स्मरण भी नहीं होता। जाने कैसे आनंद में होता हूँ, जाने कितना उल्लास रहता है, जाने कितनी उत्फुल्लता। उनसे विदा लेने पर ही बाहर के जगत् का ख्याल आता है। और यह बात मेरे साथ नहीं, अनगिनत मित्रों को ऐसा अनुभव हुआ है, हो रहा है। कितनों ने कितनी बार मुझसे ही ऐसा कहा है, कितनों को ऐसी स्थिति में मैंने स्वयं देखा है। सच तो यह है कि अब मैं समझता हूँ कि क्राइस्ट ने अंधों को कैसे आंखें दीं, रोगियों को कैसे नीरोग किया और कैसे उनका स्पर्श पा कब्रों से मुर्दे जी उठे। हाँ, इस सबका अर्थ मुझ पर अब प्रगट हुआ है। कई बार मुझे भगवान श्री से ईर्ष्या भी हुई है और यह एक सचाई है मैंने अब तक के जीवन में पृथ्वी पर किसी अन्य व्यक्ति को नहीं देखा-सुना जिससे मैं ईर्ष्या कर सकूँ। तो आइये ऐसे भगवान श्री के साथ हम आज लुधियाना-यात्रा पर चलें-
1 अगस्त, 1969 की रात हम जबलपुर से इलाहाबाद पहुँचे हैं बम्बई-हावड़ा मेल द्वारा जो कि लेट थी। ‘अपर इंडिया’ जा चुकी है जिसमें कि वातानुकूल आरक्षण था। हमें तूफान एक्सप्रेस आने तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी अर्थात् लगभग 5 घंटे। हम प्रथम तल पर प्रतीक्षालाय में पहुँचे हैं। भगवान श्री एक कुर्सी पर बैठ गए हैं, एक दूसरी पर पैर को सहारा दिए हुए हैं। उनके सामने की ही कुर्सी खाली है। मैं यहाँ, उनके ठीक सामने, बैठना नहीं चाहता, पर जब वे ही बैठने को कहते हैं तो दूसरा कोई चारा नहीं रह जाता। अतः मैं बैठ गया हूँ भगवान ने आंखें बंद कर ली है मैं मन ही मन सोच रहा हूँ- यह मनुष्य मात्र का प्रेमी, पथ-प्रदर्शक, यह दुनिया का महान् विचारक, यह कृष्ण और महावीर जैसा वीतरागी पुरुष अब पाँच घण्टे कुर्सी पर बैठकर बितायेगा। इन्हीं सोच-विचारों ने मेरा वहाँ बैठा रहना असंभव कर दिया। अतः मैं चुपचाप उठकर नीचे प्लेटफार्म पर निकल आया हूँ और टहलते-टहलते रात बिता दिया हूँ। सुबह लगभग 4.30 बजे मैं ऊपर प्रथम तल पर गया। प्रतीक्षालय में पहुँचा तो अटेण्डेण्ट से पता चला कि प्रभु श्री अभी-अभी लगेज उठवाकर नीचे प्लेटफार्म पर गए। मुझे काटो तो खून नहीं। प्रभु श्री को मेरा भी सूटकेस, होल्डाल, फेल्ट हैट वगैरह उठवाकर ले जाना पड़ा। मैं सीढ़ियों से नीचे अवश्य उतर रहा था पर निर्जीव सा था। भीतर कहीं अपराध भाव जैसा महसूस कर रहा था। प्लेटफार्म पर आया तो देखा कि प्रभु श्री एक बेंच पर बैठे हैं और सामने कुछ युवक-युवतियाँ खड़े उनसे कुछ समाधान पा रहे हैं। मैं पीछे ही खड़ा हो गया। लगा कि सामने कैसे जाऊं? तभी प्रभु श्री दायां हाथ अपने दायें कंधे की ओर ले आकर मेरी ओर इशारा करते हुए कहते हैं, शिव, पता करना, ट्रेन ज्यादा लेट हो गई क्या?
भगवान श्री मुझे शिव कहकर पुकारते थे। उनका मेरे लिए संबोधन सुनते ही मेरा अपराध-भाव विलीन हो गया। मैं ट्रेन का पता लगाने गया। वापस आकर ट्रेन के बारे में बताकर सामने खड़ा होकर अमृतवाणी सुनने लगा। कुछ देर बाद तूफान एक्सप्रेस आ गयी है और हम गाड़ी में बैठ गए हैं वे युवक मुग्ध से खड़े हैं और भगवान श्री को विदा देते हुए फिर भेंट होने की आशा व्यक्त कर रहे हैं।
तूफान एक्सप्रेस चल पड़ी है। भगवान श्री प्रथम श्रेणी में हैं, मैं तृतीय श्रेणी के ‘टू टायर’ में। मुझे सोने को बर्थ मिल गयी है, पर नींद नहीं आती। सोचता हूँ ओशो रात भर जगे हैं और अब दिन में भी जगना ही पड़ रहा होगा, क्योंकि सीटें भरी होंगी। दिन में प्रथम श्रेणी में सोने को बर्थ कहाँ मिलती है। मैं इसी जिज्ञासावश अनेक स्टेशनों पर उतरता हूँ और सचमुच उन्हें बैठा ही पाता हूँ। दोपहरी में एकाध घण्टे को मुझे नींद आ गयी है। जगने पर फिर भगवान श्री को देखा हूँ और उन्हें जगता पाया हूँ और इससे दुखी हुआ हूँ। उन्होंने कई बार मेरे खाने-पीने के बारे में पूछ-ताछ की हैं। एक बार उन्होंने मुझे ‘केक’ खिलाया है। उनके हाथ का ‘केक’ कितना मीठा था, अगर कहूँ तो आप उसकी मिठास का अनुमान शायद ही लगा पायें।
2 अगस्त की संध्या हम दिल्ली पहुँचे। स्टेशन पर लाला श्री सुन्दरलाल व अनेक प्रेमी लेने आए हैं। लोग भगवान श्री को पाकर कितने विव्हल हो जाते हैं, यह तो देखते ही बनता है। हम गाड़ियों में बैठकर लालाजी के निवास पर पहुँच गए हैं। यहाँ भी बहुत सारे प्रेमी भगवान श्री से मिलने की आकुलता लिए बैठे थे। सभी मिलते हैं। फिर हमने स्नान भोजनादि किया है और कुल 2.30 घण्टे बाद ही लुधियाना के लिए प्रस्थान कर दिया है। ‘फ्रन्टियर मेल’ में वातानुकूलित डिब्बा है। मैं प्रसन्न हूँ भगवान श्री को सोने को मिल जाएगा क्योंकि पाँच बजे प्रातः पहुँचकर 7.30 बजे ही बोलना है।
3 अगस्त की प्रातः के पौने पाँच बजे हैं। हम लुधियाना प्लेटफार्म पर उतर गए हैं। भगवान श्री का जो भव्य स्वागत यहाँ हो रहा है, वह बताया जाना बहुत कठिन है। बहुत सारे लोग हैं। कोई उनसे लिपटा जा रहा है। कोई दूर से ही उनके चरणों में गिर पड़ता है। भगवान श्री को फूल मालाओं से लाद दिया है प्रेमियों ने। एक मित्र भगवान श्री से गले मिलकर सिर उठाए तो सामने ही मैं था स्वभावतःमैंने उन्हें प्रणाम किया है। प्रत्युत्तर में वे मुस्कराते हुए आत्म-विस्मृत से मेरी ओर दौड़ आये हैं और मेरा हाथ अपने हाथों में लेकर चूम लिया है। साथ ही धीमे व मधुर स्वर में शुभनाम पूछा है। मेरे द्वारा नाम बताये जाने पर वे, जैसे कहीं खोए-खोए से मेरा नाम दुहरा देते हैं- शिव। बाद में पता चला आप श्री कपिल हैं। एस०एस०पी० श्री गिल भी आश्चर्यजनक रूप से आत्म-विभोर हैं। इन्हीं के आमंत्रण पर भगवान श्री पहली बार लुधियाना पधारे हैं।
प्रातः 7:30 बजे दिरेशी हाल में भगवान श्री का उद्बोधन। ‘हाल’ काफी बड़ा है। पहला दिन है,लुधियाना में पहली बार, पूरा हाल भरा है। शाम की मीटिंग बाहर मैदान में हो भगवान श्री ने इच्छा व्यक्त की है।
संध्या 8:30 बजे खुले मैदान में भाषण। कोई 8-10 हजार मित्र। सभी विस्मित। 4 अगस्त की प्रातः पुनः उसी मैदान में भाषण। विमुग्ध प्रेमियों की अपार भीड़। 10 बजे ‘आर्य कालेज’ में भाषण। कारों, स्कूटरों, तांगों, रिक्शों, साइकिलों का तांता। बहुत बड़ा हाल, पूरा खचाखच भरा, कई सैकड़ों विद्यार्थी बाहर खड़े। भगवान श्री के भाषण जितनी तन्मयता से सुने जाते हैं उतनी तन्मयता से किसी का भाषण सुना जाते मैंने नहीं देखा है। स्वर्गीय बालकृष्ण भट्ट का एक लेख कभी पढ़ा था। उन्होंने लिखा है बातचीत दो व्यक्तियों के बीच ही संभव होती है. तीसरे के होने पर बातचीत नहीं हो पाती। मैं समझता हूँ बहुत ठीक लिखा है उन्होंने। पर भगवान श्री के भाषण में जाने क्या जादू है, जाने क्या संबंध उनसे स्थापित हो जाता है कि प्रत्येक श्रोता के लिए भगवान श्री व स्वयं उसके अतिरिक्त अन्य कोई रह ही नहीं जाता। अन्य की उपस्थिति का ख्याल भी नहीं रहता।
संध्या दिरेशी ग्राउन्ड पर पुनः अपार जन-समूह जैसे कोई महायज्ञ हो और शांति इतनी, निस्तब्धता इतनी कि जैसे किसी घाटी में कोई ‘अकेला’ खड़ा हो, जैसे हवा भी बहना बन्द हो गई हो और फिर भी एक शीतलता हो। भगवान श्री के भाषण इतने मर्मस्पर्शी होते हैं कि कई बार आंसु संभाले नहीं संभलते। आज भी बहुत सारे मित्र रो पड़े हैं। इस ‘रो पड़ने’ में कितनी सरलता है, कितना प्रेम है, इसे तो मात्र अनुभव किया जा सकता है।
5 अगस्त की प्रातः पुनः दिरेशी मैदान में भगवान श्री ने हजारों की महती सभा को सम्बोधित किया। 10 बजे कृषि विश्व विद्यालय में महान् क्रान्तिकारी उद्बोधन। बहुत बड़ा आडिटोरियम, खचाखच भरा। हजारों छात्र बाहर खड़े ध्वनि विस्तारक यंत्र की ओर मंत्र मुग्ध निहारते। भगवान श्री के भाषण के बाद कुलपति महोदय ने 5 मिनट के अपने भाषण में आभार प्रदर्शन किया। वे भगवान श्री के भाषण से इतने प्रभावित हुए हैं कि उनकी वाणी में भी अद्भुत ओज है, अजीब जोश है। वे अब भगवान श्री के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर रहे हैं तथा हमारा विश्वविद्यालय फिर सुन सकेगा ऐसी आशा रख रहे हैं।
3 व 4 अगस्त को अपराह्न 3 बजे से प्रेमियों, जिज्ञासुओं ने भगवान श्री से व्यक्तिगत मुलाकातें कीं। 5 अगस्त के अपराह्न 3 बजे श्री गिल साहब के निवास स्थान पर नगर के प्रतिष्ठित वकील, डाक्टर, मजिस्ट्रेट एवं प्रोफेसर्स आदि की एक विशेष प्रश्नोत्तर वार्ता। उसी समय कुसुम बहन ने 2-3 मर्मस्पर्शी भजन सुनाएं जिससे सारा वातावरण मीरामय हो गया।
5 अगस्त की संध्या लुधियाना में उस बार का अंतिम उद्बोधन। ओह! जिधर भी देखता हूँ सिर ही सिर दिखाई पड़ते हैं। 25-30 हजार से तो कम क्या होंगे। हजार के ऊपर तो लोग मैदान के किनारे सड़क पर खड़े हैं। सैकड़ों चहार दीवारी पर बैठे हैं। मैदान में जगह न होने से कितने अपनी कारों में बैठे सुन रहे हैं। आज भाषण समाप्त होने पर प्रेमियों ने भगवान श्री को सप्रेम घेर लिया है। वे काफी देर बाद कार तक पहुँच पाये हैं। कार भी चलने नहीं पाती, भगवान श्री को कोई छोड़ने को तैयार नहीं है। बड़ी देर बाद कार मुश्किल से चल पाती है।
रात 10:30 बजे हम फिर लुधियाना स्टेशन पर हैं। सैकड़ों की संख्या में भगवान श्री के प्रेमी उन्हें विदा देने आये हैं। अमृतसर व जलंधर से कई प्रेमी अपने-अपने परिवारों के साथ आये हैं। वे तीन दिन तक होटलों व विश्रामगृहों में ठहरे रहे। आज वे भी विदा देने आये हैं। युवक-युवतियाँ, वृद्ध, बाल सभी। भगवान श्री को फिर सुगंधित फूल-मालाओं से लाद दिया गया है और लोगों की आंखें गीली हो आई हैं। भाई कपिल तो मेरे ही गले में माला डाल दिए हैं। कहते हैं- ‘मैं तो तुम्हे ही पहनाए देता हूँ अपनी माला। यह कहते-कहते वे मुझसे लिपट जाते हैं, मेरे होंठ उनकी गर्दन को चूम लेते हैं। हम बड़ी देर तक लिपटे रहते हैं- कहते कुछ नहीं। कुछ कहा जा भो नहीं सकता। यह मैं महसूस करता हूँ कि उन्होंने माला जो मेरे गले में पहनाई, वह भगवान श्री के प्रति उनका कितना सम्मान व कितना प्रेम, कितना भरोसा प्रगट करती है। खैर अब गाड़ी चल पैंड़ी। भगवान श्री के वातानुकूलित डिब्बे के बगल में ही मेरा डिब्बा है- प्रथम श्रेणी। मैं देख रहा हूँ लोग हाथ हिला रहे हैं। प्रायः सभी की आंखों में आंसू हैं। मुझे भगवान श्री पर प्रीति पगा गुस्सा आया है- यह जादूगर सभी का दिल लूट लेता है और खुद अछूता मुस्काता चल देता है। मेरी भी आंखें भर आई हैं जाने क्यों? शायद भगवान श्री के प्रति लोगों की प्रेम मिश्रित पीड़ा देखकर। प्रातः हम दिल्ली पहुँचे हैं। लाला सुंदरलाल जी व शांतिलाल जी लेने आए। हम लालाजी के घर पहुँचे हैं। फिर वहाँ मिलने वालों की भीड़. भोजन…, कुछ क्षणों का विश्राम। अपराह्न 2.30 बजे अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध एवं देश के अत्यधिक लोकप्रिय कवि डॉo हरिवंश राय बच्चन आए हैं। यह बच्चन जी की हैं प्रथम भेंट थी और मैंने ही इसका आयोजन किया था। बच्चन जी हाथ जोड़े हुए भगवान श्री की ओर बढ़ते हुए कहते हैं-मेरा नाम बच्चन है। भगवान श्री मुस्कानों के साथ उनका स्वागत करते हैं। बच्चन जी अब बैठ गए हैं और भगवान श्री को मधुशाला भेंट करते हुए उन्होंने कहा है- पुरानी परंपरा रही है कि संत महापुरुष के पास जाएं तो कुछ लेकर जाएं
। और कि, वैसे तो 40-50 किताबें हो गई हैं पर यह लोकप्रिय अधिक हुई हैं। मै तो जीवन भर यही खेल खेलता रहा हूँ
। भगवान श्री मुस्कराये ही हैं कि तभी शांतिलाल जी ने बच्चन जी से गीत सुनाने का अनुरोध किया है। बच्चों जैसे सरल बच्चन जी मधुशाला की ही तीन रुबाइयाँ सुनाते हैं। अब भगवान श्री बोले हैं- अच्छा है, सब कुछ को खेल समझ कर खेलना अच्छा है। किसी चीज़ को गंभीरता से नहीं लेना चाहिये। मगर जब तक खेल में भी ‘मैं’ मौजूद हूँ, तब तक बात नहीं बनती। खेल भी ‘मैं’ नहीं खेल रहा हूँ। खेल चल रहा है बस.
बच्चन जी जैसे भीतर कहीं कुछ टटोल रहे हैं- अनुभव कर रहे हैं और अगर मेरी स्मृति धोखा नहीं दे रही है तो वे भी दुहरा दिए हैं-‘खेल चल रहा है, खेल भी ‘मैं’ नहीं खेल रहा हूँ।’ भगवान श्री ने पुनः बोलना शुरु किया है और 15 मिनट तक बोले हैं कि तभी एक डॉo त्रिपाठी 20-25 छात्राओं के साथ आ पहुँचे हैं। आज 6 अगस्त है। आज ही के दिन हिरोशिमा में बम गिरा था। अतः आत शांति-दिवस मना रहे हैं। वे ‘शांति’ और ‘गांधी’ को लेकर कुछ प्रश्न करते हैं। भगवान श्री कहते हैं- ‘शांति-शांति’ चिल्लाने या गांधी का नाम रटने से शांति नहीं आयेगी, यह बात समझ लेनी होगी। अशान्त क्यों है, हम अशांत क्यों हैं। यह समझ में आ जाए तो ज़रुर शांति लाई जा सकती है। हिंसा भी कई तरह की हो सकती है। यह हिंसा है कि मैं कहूँ कि मेरी बात मान लो वर्ना छाती में छुरा भोंक दूँगा। और यह भी हिंसा है कि कहूँ कि मेरी बात मान लो वर्ना छाती में छुरा भोंक लूँगा। बल्कि यह अधिक खतरनाक है क्योंकि आपको छुरा भोंक देने को कहूँ तो आप भागकर भी बच सकते हैं पर अपने को छुरा भोंक लेने को तैयार हो जाऊं तब तो भाग भी नहीं सकते हैं। तभी मिलने आए पहले से विराजमान कई संन्यासियों में से एक उत्तेजित हो उठे और भगवान श्री से बहस करने लगे। बहस कहना शायद संगत नहीं क्योंकि बहस दो के बीच होती है। वे अकेले ही बकते जाते हैं। भगवान श्री को तो बोलने ही नहीं देते। वे बोलकर चुप होते हैं तो भगवान श्री मुस्करा कर रह जाते हैं…. तभी वे पुनः जोर से बोलने लगते हैं और भगवान श्री मुस्करा कर रह जाते हैं। उन्होंने कहा था- महात्मा गांधी इतने महान् व्यक्ति, जिसे सारी दुनिया महात्मा मानती है आप उसकी आलोचना करते हैं? भगवान श्री ने कहा था मुझे जो ठीक लगता है वही मैं कह सकता। कोई ज़रुरी नहीं कि आप उसे मान लें। मेरा तो निवेदन इतना ही है कि सोचें-समझें, न ठीक लगे तो कूड़े में फेंक दें। संन्यासी ने कहा- आज तक बुद्ध, महावीर आदि इतने महापुरुष हुए हैं क्या आप कहना चाहते हैं कि वे सब गलत थे? भगवान श्री ने कहा, अभी तो समय नहीं है, फिर कभी हम इस पर विस्तृत चर्चा करेंगे, मगर इतना तो आज कहे ही जाता हूँ कि वे सब गलत थे। गाड़ी का समय हो चुका था अतः सभी उठ गए। संन्यासी महोदय ने उठने पर अपने उभर आये आवेश को दबाते-छुपाते हुए क्षमा माँगी कि मैंने आपको कष्ट पहुँचाया। भगवान श्री ने मुस्कराते हुए कहा-
नहीं-नहीं आपने कोई कष्ट नहीं पहुँचाया है। संन्यासी लोग विदा हो गये। डॉo त्रिपाठी व साथ आयी छात्राएं अब विदा हो रही हैं। उन्होंने खेद प्रगट किया कि आपके विचार हमें प्रिय लग रहे थे हम और सुनना चाहते थे पर संन्यासी महाराज के कारण हमारी बातें ठीक से न हो पाई। अब वे भी चले गए हैं और हम सामान समेटने लगे हैं। तभी वह ‘क्षण’ आया जिसे मैं इस यात्रा का सर्वाधिक मार्मिक क्षण कह सकता हूँ। बच्चन जी ने कहा-
मैं एक प्रॉफेसी करना चाहता हूँ। भगवान श्री ने मुस्काते हुए कहा- क्या? बच्चन जी ने कहा,
यू आर ए ट्रेजिक परसन एण्ड यू विल बी क्रूसीफाइड! यह कहते-कहते बच्चन जी की आंखों में आंसू छलछला आये हैं। मुझे भी बच्चन जी की भविष्यवाणी सुन रोना आ गया है। भगवान श्री ने मेरे कंधे पर स्नेहयुक्त हाथ रखते हुए बच्चन जी की ओर देखते हुए मुस्कान के साथ कहा-
आप ठीक कहते हैं।"
हम अब दिल्ली स्टेशन जा रहे हैं। दो कारें हैं। एक में पीछे भगवान श्री बैठे हैं। उनकी बायीं बगल लालाजी और उनकी दायीं ओर बच्चन जी। सामने चालक की बाई ओर मैं। दूसरी गाड़ी में शांतिलाल जी वगैरह हैं। भगवान श्री व बच्चन जी में कुछ बातें अभी भी होती चल रही हैं। मैं एकाध दिन दिल्ली ठहरना चाहता हूँ अतः भगवान श्री को विदा देकर मैं बच्चन जी के साथ कार में उनके निवास-स्थान पर जाता हूँ। रास्ते में बच्चन जी कहते हैं- "इनके विचारों को फैलाने के लिए एक संगठन होना चाहिए। इस व्यक्ति ने हिन्दुस्तान की नब्ज पकड़ ली है। वे बोलते हैं तो एक लहर-सी उठती है। इन्होंने मुझे बेहद प्रभावित किया है। तुम्हें इतने बड़े महापुरुष की निकटता मिली है अपने लेखन का सदुपयोग करो, एक ‘प्रवेशिका’ लिख डालो…भगवान श्री के विचारों के संबंध में इन्ट्रॉडक्शन जैसा। और कि 1 अक्टूबर तक तो मुझे अवकाश नहीं है। 1 अक्टूबर के बाद भगवान श्री जब भी 8-10 दिनों को इकट्ठे जबलपुर में रहें, मुझे सूचना देना। मैं जबलपुर आना चाहता हूँ 8-10 दिनों को। और जितना अधिक से अधिक समय वे दे पायें, उनके साथ बिताना चाहूँगा। जबलपुर लौटकर मैंने बच्चन जी को सूचित कर दिया कि भगवान श्री 7 से 12 अक्टूबर व 19 से 26 अक्टूबर जबलपुर रहेंगे। पर बाद में बच्चन जी की पीठ में बाथरूम में फिसल जाने से मोच आ गई और वे नहीं आ सके। शायद अब जबकि भगवान श्री बम्बई चले गए हैं और बच्चन जी भी, अब उन्हें उनका सान्निध्य मिलता ही होगा। धन्य हैं वे जिन्हें भगवान श्री की निकटता मिलती है।
जहाँ स्वीकृति नहीं, वहाँ प्रेम नहीं
भगवान श्री की सन्निधि में मुझे जिस शान्ति एवं आनन्द का अनुभव होता है, वह इस जीवन में अन्य कहीं कभी नहीं हुआ है। मानव-मन की जिन अनंत गहराइयों तक उनकी पहुँच है उस पहुँच का व्यक्ति, न मैंने सुना है, और न देखा है। उनके समीप होने पर जिस अभय का बोध, जिस प्रेम की अनुभूति मुझे होती है, वह अनुपम एवं अवर्ण्य है। सच तो यह है कि उनसे मेरी भेंट न हो गई होती तो या तो अभी तक मैं मर ही गया होता और या फिर पागल जरुर हो गया होता। उनके सामीप्य में कहीं किसी को चोट भी लगती है तो वह उसकी आंख खुलने का कारण बन जाती है। ऐसी ही अपनी एक भेंट की चर्चा करूँ। शायद आपके लिए भी वह हितकर हो। इस भेंट में मेरे मित्र नारायण भी साथ थे जिन्हें चोट मिली थी और मुझे शांति। और शांति पाकर भी मैं दुखी था कि मेरे कारण मेरे मित्र को चोट मिली और वह चोट खाकर भी आनंदित था कि उसकी आंख खुली।
26 मार्च, 1969, हम दोनों दिन के लगभग 10 बजे भगवान श्री के पास पहुँचे तो वे अपनी ‘स्टडी’ में अकेले ही बैठे कुछ पढ़ रहे थे। हमें देख वे मुस्कराये। हम पास पहुँचे, प्रणाम किया और बैठ गए। कुशल क्षेम के बाद कुछ देर यों ही बातें होती रहीं। फिर मैं ही फूट पड़ा। मैंने कहा: ये मित्र मुझे ‘कमेन्ट’ करते हैं कि मैं इनसे पहले से आपके संपर्क में हूँ फिर भी भीतर आने में डरता हूँ और ये बाद में संपर्क में आने के बावजूद अधिक खुल गए हैं। मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि आपका क्या विचार है? क्या मैं डरता हूँ? मैं तो जहाँ तक समझ पाता हूँ आप अकेले व्यक्ति हैं जिससे भय नहीं लगता। आपके पास होने पर तो सारे भय विलीन हो जाते हैं।
भगवान श्री नारायण की ओर मुखातिब होकर बोलने लगे- "हर व्यक्ति अपने को दूसरे पर थोप रहा है या थोपना चाहता है। इस थोपे जाने से शायद ही कोई बच पाता हो। मैं देखता हूँ कि सारी दुनिया ही गलत निर्मित हो गई है। पति अपने को पत्नी पर थोप रहा है। माँ-बाप अपने को बच्चों पर थोप रहे हैं। माँ-बाप अगर नहीं थोपें तो स्कूल में शिक्षक थोपेगा। मित्र, मित्र पर थोप रहा है। कोई भी किसी का मित्र नहीं है। मित्रता क्या है, यह तक हमें पता नहीं है। मित्र व शत्रु में कोई भेद नहीं है। शत्रु कहता है मेरी बात मान लो वर्ना लाठी मार दूँगा। मित्र कहता है मेरी बात मान लो वर्ना मित्रता तोड़ लूँगा। एक ही बात है। कोई फर्क नहीं है मित्र व शत्रु में। होना यह चाहिए कि हम समझ लें कि अमुक ऐसा है और उसके वैसा होने को स्वीकार कर लें। स्वीकृति दें उसे। और ऐसा नहीं कर सकते तो अधिक ठीक होगा कि उसे छोड़ दें, अकेला छोड़ दें। मगर उस पर थोपें नहीं अपने को। यह सीधी हत्या है उसकी। और यही सारी मनुष्यता की विकृति और तनाव का कारण है। क्योंकि सचाई यह है कि हर एक ही अपनी निजता है, अपना व्यक्तित्व है, अपनी अलग विशेषता है।
अभी मैंने एक अद्भुत पुस्तक पढ़ी है। उसमें लिखा है कि वहाँ पिछले 20 वर्षों से पागलों पर एक प्रयोग चलता है और उसके अच्छे परिणाम निकले हैं। वह प्रयोग है स्वीकृति का। वह कहता है पागलखाना पागलों के लिए सही जगह नहीं है। पागलों का उपचार वहाँ नहीं हो सकता, वह तो समाज की ओर से अंतिम अस्वीकृति है। उस प्रयोग के अनुसार पागलों को स्वीकृति दी जाती। अगर पागल गाली बकता है तो ठीक, अगर पागल नंगा नाचता है तो ठीक…और इस तरह 15-20 दिनों में वह ‘रिलैक्स’ हो जाता है. और ठीक हो जाता है। स्वीकृति अस्वीकृति के सारे तनावों को निकाल देती है। मानसिक रूप से जो पागल है,उसका इलाज मात्र स्वीकृति है। हाँ, शारीरिक रूप से जो पागल हुआ हो उसके लिए चिकित्सा ज़रुर उपयोगी हो सकती है।"
तो आपका ढंग आपका ढंग है। वह किसी और का नहीं हो सकता। न ही आपको कोशिश करनी चाहिये। आप सीधे बेधड़क चले आते हैं, यह आपका प्रेम है। कोई आता है और घण्टे भर बाहर खड़ा रहकर लौट जाता है, यह उसका प्रेम है। और हो सकता है आपको खड़ा रहना पड़े तो दुख हो। हो सकता है ये सीधे चले आयें तो दुखी हो जाएं। और हो सकता है घण्टे भर खड़े रहकर भी ये आनंद में लौटते हों, इन्हें सुख मिलता हो।"
नारायण ने कहाः भगवान श्री, फिर ये अधूरे और अव्यक्त क्यों लौटते हैं? रास्ते में कहते हैं, अरे यह कहना था, अरे वह पूछना था, अरे यह भूल गया, वह भूल गया, इस तरह तो ये पागल हो जाएंगे।
भगवान श्री ने कहा, अगर कोई पागल होता है तो उसे बचा कौन सकता है? बचाने की कोशिश हम जो करते हैं उससे तो पागलपन बढ़ ही सकता है जिसे चार दिन में पागल होना होगा वह एक ही दिन में पागल हो सकता है। हाँ हम उसे स्वीकृति दें। कभी बहुत आवश्यक हुआ तो आग्रह नहीं, निवेदन भर कर दिया कि मेरी तो यह समझ है, बस इतना ही काफी है। और फिर जो पागल नहीं हैं वे क्या कर ले रहे हैं? मेरी समझ में तो कोई अपने निर्णय से आत्महत्या कर लेता है तो भी शुभ है। वह भी उसके विकास का क्रम है। सच तो यह है कि जिसे आत्महत्या कहा जाता है. वह मेरे देखे मात्र देह हत्या है। आत्महत्या वह है जब मैं किसी और जैसा बनना स्वीकार कर लेता हूँ अथवा किसी और जैसा बनने की चेष्टा करने लगता हूँ। जीना और मरना बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है। एक बच्चा एक वर्ष का होकर मरता है। कहाँ है इसमें दुःख की बात! वह अभी नहीं मरता तो 50 वर्ष को होकर मरता, 80 वर्ष का होकर मरता,कहाँ फर्क पड़ता है। और फिर हो सकता है पागल हो जाने वाला इतना संवेदनशील रहा हो कि जिस कुरूप दुनिया को हम सहते चले जाते हैं, वह सह न पाया हो। हो सकता है, आत्महत्या करने वाला इतना संवेदनशील रहा हो कि दुनिया की बेवकूफियों में अपने को ‘ऐडजस्ट’ न कर पाया हो। और जो पागल नहीं हो गए हैं, क्या वे पागल नहीं हैं? जो मर नहीं गए हैं. क्या वे जी रहे हैं? एक बिन्दु ऐसा भी है जिसे पार करके ही उसके पार जाया जा सकता है, उससे बचकर नहीं। मुर्गी के अंडे में अगर उस जीव को कष्ट व परेशानी होती हो तो भी उसे झेलना पड़ेगा, तभी वह मुर्गी हो सकेगा। मुर्गी होने के पहले अण्डा में हो लेना ज़रुरी है। अभी बम्बई में एक मित्र ने पूछा थाः
आपने नीत्शे को कभी महान विचारक कहा है, सो क्यों कहा? वह तो पगाल हो गया था। फिर वह कैसा विचारक था जो खुद को पागल होने से भी न बचा सका? मैंने उन्हें कहा,
नीत्शे महान् विचारक था इसलिए ही वह पागल हो गया। वह विचार के उस बिंदु पर पहुँच गया जहाँ पागल हो ही जाना था। यह भी ज़रुरी नहीं है कि जो महान् विचारक हो वह पागल हो ही जाए। यह भी जरुरी नहीं है कि जो महान विचारक हो वह पागल ना ही हो। कोई पागल न होकर भी महान विचारक हो सकता है। कोई महान विचारक होने के कारण ही हो सकता है पागल हो जाए। पागल होना या न होना विचारक होने की कसौटी नहीं है और स्मरण रहे, सभी विचार नहीं करते। विचार कुछ लोग ही करते हैं। शेष तो बस जिये जाते हैं। और विचार करना शुभ है, भले ही वह पागल बना दे।"
और यह ‘डर’ नहीं है कि कोई घण्टे भर खड़ा रहता है कि कोई निकले और अगर कोई नहीं निकलता तो लौट जाता है। कभी-कभी बहादुरी बेवकूफी भी सिद्ध होती है।
ज़िंदगी में छोटी-छोटी बातें भी बड़े-बड़े प्रभाव पैदा करती है तुम आते हो तो अपेक्षा करते हो कि कहूँ- ‘बैठो।’ अगर तुम आओ और मैं बैठने को न कहूँ तो तुम नाराज हो जाओगे, तुम्हें दुःख होगा। और जहाँ हम इतनी भी अपेक्षा करते हैं वहीं परतंत्र हो जाते हैं, वहीं बंधन खड़ा हो जाता है। फिर किसी के विचार को ही बदलने की अपेक्षा करना तो बहुत बड़ी बात है। फिर हम स्वतंत्र कैसे हो सकते हैं? और मित्र अगर बदल भी जाए, मित्र के विचार अगर आप जैसे हो भी जाएं, मित्र का ढंग अगर आप जैसा हो भी जाए, तो क्या होगा? क्या आप सोचते हैं कि तब आप संतुष्ट हो जाएंगे? बिल्कुल सन्तुष्ट नहीं होंगे। तब वह बेकार हो जाएगा। तब वह ऊब पैदा करेगा। तब उसमें कुछ भी नया अथवा मौलिक नहीं रह जाएगा।
अभी कुछ दिनों पहले एक बड़े नगर में एक लड़की मिली। उसने एक लड़के का नाम लिया और कहा कि हम दोनों इसी प्रतीक्षा में थे कि आप आवें और अनुमति दें तो हम विवाह कर लें। मैं लड़की व लड़के दोनों के माँ-बाप से परिचित था,लड़के को भी जानता था। मैंने स्वीकृति दे दी। लड़की के पिता से भी कह दिया कि अद्भुत लड़का है वह। जरुर विवाह कर दें। बात पक्की हो गई। कुछ दिनों बाद विवाह हो जाने को था। फिर अभी पिछली बार वहाँ जाना हुआ तो वह लड़की फिर मिली और उसने कहा कि अब वह उसके साथ विवाह नहीं करेगी क्योंकि वह तो हर बात में ‘हाँ’ कर देता है। कुछ भी कहें ‘हाँ’ कर देता है। सभी कुछ स्वीकार कर लेता है। अतः वह पति होने जैसा नहीं है। यह है मनुष्य का चित्त। पति, पति हो जाएगा तब चित्त कहेगा कि पति मुझे प्यार नहीं करता, मेरी हर बात का विरोध करता है। और पति, पत्नी को प्यार करेगा तो वह कहेगी कि वह पति होने के योग्य नहीं है।
बिना स्वीकृति के प्रेम नहीं पैदा होता। उसी नगर की एक महिला मिलीं। उनको दुःख था कि उनका पति उन्हें बेहद प्रेम करता है पर वे प्रेम नहीं कर पातीं। उन्हें लगता है कि वह उतना प्रेम नहीं कर पातीं जितना उन्हें करना चाहिए। बाद में वह खुली कि विवाह के पहले उसका एक युवक से प्रेम था। मैंने उन्हें सलाह दी कि वह इस बात को अपने पति से बता दें तो हल्की हो जाएंगी। और उसने अपने पति से यह बात बता दी। पति का प्रेम और बढ़ गया कि यह इतनी सरल, इतनी अकृत्रिम! और महिला ने देखा कि यह बात बता देने से भी पति के प्रेम में कोई फर्क नहीं पड़ा तो उसके भीतर से भी प्रेम के स्त्रोत फूट पड़े। अब वे दोनों बहुत प्रसन्न हैं।
तो रास्ता यही है कि मित्र जैसा है, उसे स्वीकार करें। समझ लें कि यह ऐसा ही है और प्रेम करें। आपकी यह स्वीकृति, हो सकता है उसे पागल होने से बचा ले। मगर अपने जैसा बनाने की चेष्टा तो उसे न भी होना हो तो पागल बना देगी।
कितनी प्यास है?
जहाँ तक स्मरण कर पाता हूँ 1968 की कार्तिक की संध्या थी वह, जब मौसम की धीमी सिहरन महसूस करता मैं भगवान श्री के निवास पर जा पहुँचा था। फाटक खोलकर पुष्प-लताओं से भरे बगीचे में मैं खड़ा हो गया था। उस समय 8 बजने को 10 मिनट शेष थे। लगभग 8 बजे भगवान श्री अपनी ‘स्टडी’ में आकर बैठ गए हैं। मैं उन्हें शीशों से बने द्वार से स्पष्ट देख रहा हूँ। मैं कालबेल बजाना पसंद नहीं करता हूँ क्योंकि उसकी आवाज़ मुझे कर्णकटु लगती है फिर जो आवाज़़ मुझे ही अप्रीतिकर लगती है वह उन्हें कैसे सुनाऊं जिनके प्रति सहज ही एक प्रेम सा अनुभव करता हूँ। अतः मैं खड़ा रह गया हूँ कि कोई तो निकलेगा। तभी, लगभग 8:25 पर, चार सज्जन स्कूटर से आये हैं और उनमें से एक ने मुझसे पूछा हैं, भगवान श्री हैं? मैंने कहा- जी हाँ। वे पूछते हैं, कोई और मिलने वाला उनके पास है? मैंने कहा, नहीं। वे बोले: हम उनसे मिलना चाहते। हैं, हमने समय लिया है। मैंने कहाः ‘समय लिया है तो मिलिए’ और कि ‘मैं खुद भी मिलने की आकांक्षा लेकर आया हूँ’। अब उन्होंने कालबेल बजा दिया है और क्रान्ति बहन ने दरवाज़ा खोला है। मैं भी उन अपरिचित मित्रों के साथ कक्ष में प्रवेश कर गया हूँ। भगवान श्री मुस्काते हुए उन मित्रों की सकुशलता पूछते हैं। फिर मेरा भी हाल-चाल पूछते हैं। और अब उन मित्रों ने अपनी शंकाएं रखनी शुरु कर दिया है।
पूछा है: आप कहते हैं चित्त के शांत होने पर जो अनुभूति होती है, वही परमात्मा है। लेकिन वह अनुभूति संभव क्यों नहीं होती?
भगवान श्री ने कहाः उसके न होने के अनेक कारण हैं, लेकिन उनमें से तीन चार जो मुख्य हैं, उन्हें मैं आपसे कहता हूँ। तो प्रथम तो परमात्मा के लिए हमारे भीतर प्यास का अभाव है। अभी पिछले दिनों मैं पटना में था। एक ही दिन में तीन-चार मीटिंगें थीं। अंतिम मीटिंग समाप्त होने पर एक मित्र मेरे पीछे-पीछे गाड़ी लिए,जहाँ मैं ठहरा था वहाँ आए और उन्होंने कहा :
मैं परमात्मा को पाना चाहता हूँ, मुझे कुछ बताएं। मैंने उन्हें कहाः
अभी तो मैं चार मीटिंगों में बोला हूँ और थक गया हूँ, प्रातः 7 बजे आ जाएं तो बात करुँगा। उन्होंने कहाः
8 बजे तो मैं सोकर उठता हूँ फिर 7 बजे कैसे आना हो सकता है। मैंने कहा 10:30 बजे आ जाएं। वह कहने लगे 10:30 बजे तो मैं आफिस में रहूँगा। मैंने कहा फिर 5 बजे संध्या आ जाएं वह कहने लगे,
5 बजे तो मेरा दूसरा अपॉइंटमेंट है। और कि, क्या आप आज की रात मेरे लिए नहीं जग सकते? क्या आप में इतना भी प्रेम नहीं है? मैंने कहा:
प्रेम तो मेरे भीतर बहुत है और मैं जग भाग सकता हूँ। लेकिन आखिर कब तक? इस तरह कितने दिन प्रेम किया जा सकता है? अगर काम करना है तो विश्राम भी करना ही होगा।" तो ऐसी है हमारी प्यास! परमात्मा के लिए आधा घंटा पहले उठ भी नहीं सकते। हमें ख्याल ही नहीं है कि दुनिया में हर चीज़़ के लिए मूल्य चुकाना पड़ता है। बिना मूल्य चुकाए कुछ भी नहीं मिलता। और फिर परमात्मा तो सब से महँगा मिलता। उसके लिए तो ‘स्वयं’ को ही दे देना पड़ता है। पर उसे ही लोग सबसे सस्ते में पाना चाहते हैं, कि कहीं जा रहे हैं काम-धन्धे से, रास्ते में कोई साधु, कोई संन्यासी हमारी पैण्ट की जेब में डाल दे। टुच्ची से टुच्ची बात के लिए श्रम करेंगे। मैट्रिक की सर्टीफिकेट के लिए 10 वर्ष श्रम करेंगे। असफल हो जाएंगे तो पुनः वर्ष भर मेहनत करेंगे। पहलवान बनने के लिए 15 वर्ष कसरत करेंगे और अगर कहीं हार जाएंगे तो सोचेंगे अपनी साधना में कोई कमी है। लेकिन परमात्मा के लिए अगर दो माह ‘ध्यान’ किया और वह नहीं मिला तो ‘ध्यान’ बन्द कर देंगे कि समय गंवाना व्यर्थ है।
दूसरी बात, मान लें किसी को प्यास भी है और वह श्रम भी करता है, फिर भी परमात्मा नहीं मिलता। इसका कारण यह हो सकता है कि वह गलत दिशा में श्रम करता हो। और अगर श्रम भी ठीक दिशा में करता हो, फिर भी वह नहीं मिलता तो बहुत संभावना है कि उसमें आत्म-विश्वास न हो। संभव है जीवन भर की शिक्षा, कि किसी की कृपा से ही वह मिलेगा, उसमें आत्म विश्वास ही न पैदा होने देती हो। और फिर जहाँ आत्म विश्वास न हो, वहाँ तो प्रारम्भ ही निर्वीर्य है।
उन मित्र ने पूछाः कर्म व संस्कार की जो इंडियन फिलॉसफी है, उस सम्बन्ध में आपका क्या कहना है?
भगवान श्री ने कहा: कर्म, संस्कार व भाग्य आदि सब व्यर्थ की व्याख्याएं हैं। इन्हीं व्याख्याओं ने भारत को निर्जीव, नपुंसक व निकम्मा बना दिया। इन्हीं व्याख्याओं ने मनुष्य में पुरुषार्थ को जन्मने नहीं दिया। सारी पृथ्वी पर एक भारत ही ऐसा मुल्क है, जो 1000 वर्षों तक गुलाम रहा। वह इन्हीं व्याख्याओं के कारण। फिर राजा राम मोहन राय से लेकर जवाहर लाल नेहरू तक जो भी स्वतंत्रता की आकांक्षा किए हैं, उन सब को ही पश्चिम से प्रेरणा मिली है वर्ना आज भी भारत गुलाम होता। कर्म का फल तत्क्षण मिलता है। अभी हाथ आग में डालूँगा तो अभी ही जलूँगा, अगले जन्म में नहीं। अभी प्रेम करुँगा तो अभी ही आनन्दित हूँगा, अगले जन्म में नहीं। अभी घृणा करुँगा तो अभी ही दुखी हूँगा। संक्षेप में कहूँ कि मैं किसी ऐसी बात का समर्थन नहीं करता हूँ जो मनुष्य के पुरुषार्थ को छीन लेती हो, जो उसकी संकल्प-शक्ति को हीन बनाती हो। मैं तो कहता हूँ मनुष्य सब कुछ कर सकता है। वह ‘चाहे’ और बस वह कर सकता है। इन साधु-संन्यासियों ने इस देश को नपुंसक बनाया है। एक व्यक्ति किसी की हत्या करता है तो वह अपराधी कहलाता है। उसे दंड मिलता है लेकिन अगर कोई करोड़ों लोगों को गलत दिशा में ले जाता है, गलत चीज़ का प्रचार करता है तो उसके प्रति समाज सोया रहता है। मेरी दृष्टि में साधु-संन्यासी अधिक अपराधी हैं जिन्होंने करोड़ों मनुष्यों की आत्मा को निकम्मी बना दिया है। इन साधु-संन्यासियों ने हमें यही अंधविश्वास दिया है। यह बड़ी अजीब बात है कि हमारे पास जो भी आज ज्ञान है. वह सब अधर्मियों ने दिया है। 200 वर्ष पूर्व हम यह नहीं जानते थे कि रक्त शरीर में दौड़ता रहता है। हम जानते थे, वह शरीर में कहीं भरा रहता है। इसी तरह की बहुत सारी बातें जो आज हम जानते जिनका आज हम उपयोग करते हैं, वह सब अधर्मियों का दिया हुआ है। दूसरे मित्र ने पूछा:
आपने इन्दौर वाले प्रवचन में कहा था कि आगे कोई जन्म नहीं है। क्या सचमुच ही पुनर्जन्म नहीं होता है?"
भगवान श्री ने कहाः मुझे लोग बहुत गलत समझते हैं। आगे जन्म है, और निश्चित है। मैं इसका विरोध नहीं करता। जब मैं कहता हूँ आगे कोई जन्म नहीं है तो मेरा कुल मतलब इतना होता है कि आगे के जन्म को आधार बनाकर कुछ मत करना। जैसे कि कोई सोचता हो कि इस जन्म में मौज कर लूँ, परमात्मा की खोज अगले जन्म में कर लूँगा। या कि अच्छे कर्म करूँ ताकि अगला जन्म शुभ हो। जो है, यही है; वर्तमान ही सत्य है। भूत बीत गया, भविष्य अभी आया नहीं। जो समक्ष है वही सत्य है। यानी पुनर्जन्म है कहने से ‘पोस्पोनमेन्ट’ (स्थगन्) जो हमारी आदत है, उसे बल मिलता है। ‘पोस्पोनमेन्ट’ की आदत आदमी की अगर टूटे तो वह बहुत कुछ कर सकता है। तो जब मैं कहता हूँ पुनर्जन्म नहीं है तो मेरा मतलब इतना ही है कि पुनर्जन्म के आधार पर ‘पोस्पोन’ न करें चीज़ों को।
अब वे मित्र भगवान श्री के प्रति प्रेम व आदर प्रकट करते हुए विदा लिए हैं: कुछ देर बैठकर मैं भी चला आया हूँ हालांकि भगवान श्री के पास से उठकर आने का जी कभी नहीं होता।
मुझसे क्यों पूछते हो?
1968 के जनवरी के आसपास की बात है। एक संध्या सवा आठ बजे मैं भगवान श्री के निवास पर गया। तब वे नेपियर टाउन में रहा करते थे और मकान भी सुन्दर लताओं से आच्छादित तथा कोना-कोना भांति-भांति के फूलों की सुगंध से भरा रहता था। कोई एक फूल की सुगंध तो इतनी ‘डिवाइन’ थी कि पागल ही कर देती। फाटक खोल कर जब मैं भीतर पहुँचा तो भगवान श्री अकेले ही ‘स्टडी’ में बैठे कुछ पढ़ रहे थे। मैंने प्रणाम करते हुए कक्ष में प्रवेश किया। उन्होंने एक मधुर मुस्कान के साथ कहा: आओ, आओ बैठो, कहो क्या हाल-चाल हैं तुम्हारे?
मैंने कहाः भगवान श्री आज तो मैं बड़े मौज में आ रहा था पर रास्ते में एक मित्र मिल गये और उन्होंने कुछ बातें बताईं जिससे मैं बड़ा दुखी हो गया हूँ।
भगवान श्री ने पूछा: ‘कहो, क्या बात है?’ मैंने बताया: जब मैं आ रहा था, रास्ते में एक मित्र से भेंट हो गई। वे रेलवे में गार्ड है। उन्होंने पूछा: कहाँ जा रहे हो? मैं यहाँ अकेला ही आना चाहता था। अतः थोड़ा डरा कि वे भी न साथ हो लें। मगर कहता भी क्या? अतः बता दिया कि भगवान रजनीश के यहाँ जा रहा हूँ। उन्होंने कहा आज तो नहीं, पर किसी दिन मैं भी चलना चाहता हूँ। मुझे उनसे एक प्रश्न पूछना है और वह केवल उन्हीं से पूछा जा सकता है। मैंने उनसे कहा कि जब भी चलना, पूछना आप ही, मगर प्रश्न क्या है यह तो मुझसे भी बता ही सकते हैं। हो सकता है आपका प्रश्न मेरा भी प्रश्न हो। इस पर उन्होंने बताया कि वे दो दिनों से भूखे हैं। खाने को कुछ भी नहीं है। क्या करें? तो भगवान श्री यद्यपि उन्होंने मुझे मना किया था कि कभी वे स्वयं पूछेंगे मगर उन मित्र की हालत ने मुझे बहुत दुखी कर दिया है अतः उसकी चर्चा आप से किए बिना रहा न गया।
भगवान श्री ने कहाः "आपका प्रश्न एक व्यक्ति का नहीं, समूचे देश का प्रश्न है। आपको 100-50 रुपये देकर सहायता की जाए तो क्या आपकी समस्या हल हो जाती है? और अगर आपकी समस्या हल हो भी जाए, तो क्या होता है? भूखा तो सारा देश ही है!! हमारे पूर्वजों ने जो किया है उसका फल कौन भोगेगा? और हम भी अगर नहीं चेते तो यही भोग आने वाली पीढ़ियों को छोड़ जाएंगे। और वे भी यही प्रश्न पूछेंगी कि हम भूखे हैं, क्या करें? यह देश 10 वर्षो में पूर्ण आत्म-निर्भर हो सकता है। लेकिन मैं तो कुछ कहता हूँ तो आप पत्र लिखते हैं कि ये सब कहना बन्द करो वर्ना गोली मार दूँगा। फिर ये प्रश्न मुझसे क्यों पूछते हो? मैं आज बड़ा गुस्सा हूँ (हालांकि मुझे भगवान श्री के मुख पर गुस्सा नहीं, करुणा और पीड़ा ही दीखती थी) यह प्रश्न मंदिरों के भगवानों से पूछो, यह प्रश्न करपात्री जी से पूछो जो गर्भ निरोध का विरोध करते हैं और आपको भी ये बातें पसन्द आती हैं कि बच्चे तो ईश्वर की देन हैं। आप बच्चे पैदा किए जाते हैं और कहते हैं बच्चे तो ईश्वर की देन हैं। फिर उस ईश्वर से ही क्यों नहीं कहते कि हम भूखे हैं? आप बच्चों के बाप हैं या दुश्मन? फ्रांस ने 1930 में परिवार नियोजित कर लिया, उसकी जनसंख्या आज भी उतनी है जितनी 1930 में थी।
आज वहाँ एक भी आदमी यह कहने को नहीं है कि हमें खाने को नहीं। लेकिन हम हैं बहुत बेईमान लोग! बच्चे पैदा करने को तो ईश्वर की देन कहेंगे, और मरने को? नहीं, बुखार भी आएगा तो डाॅक्टर के पास दौड़े जाएंगे। फिर नहीं कहेंगे कि यह भी ईश्वर की देन है। अभी मैं पटना गया था। वहाँ मैंने गंगा देखी जिसमें इतना पानी है कि 50 पटना सींचे जा सकें। लेकिन पटना में अकाल है। और अगर गंगा से पानी निकालना है तो गांधी के चर्खे से काम नहीं चलेगा, तब मशीन चाहिए। आप मशीन का भी विरोध करते हैं। बोध गया में 8-10 गज के नीचे पानी है। और वहाँ बुद्ध के समय में भी अकाल था, आज भी अकाल है। बारिश नहीं हुई तो अकाल पड़ गया। कुएं नहीं खोद सकते। सभी एक दूसरे पर दोष मढ़ते हैं, करना कुछ नहीं चाहते। इस तरह समस्या नहीं हल होगी। बेशर्मी की भी कोई सीमा होती है। रूस अमरीका भी सतर्क हो गए हैं कि यह तो भिखमंगों का देश है। अगर ये इसी दर सें बच्चे पैदा करते जाएंगे तो हम इन्हें कब तक देते और खिलाते रहें। और हमारे देश को अन्तर्राष्ट्रीय शिष्टता तक नहीं आती। उन्हीं का खाते हैं, उन्हें ही गालियाँ बकते हैं।
दरिद्रों को यहाँ नारायण कहा जाता है। जब दरिद्र को नारायण कहेंगे तो दरिद्रता कैसे जाएगी? नहीं, मैं कहता हूँ दरिद्रता पाप है, धरती पर एक कलंक, एक धब्बा। लूलों-लंगड़ों को संतानें पैदा करने का कोई भी अधिकार नहीं होना चाहिए। दया-ममता सब मूर्खताएं हैं। उसके साथ इतनी ही दया काफी होगी कि उनके रहने व खाने की सरकार व्यवस्था कर दे। दरिद्रता हमारे भाग्य का फल नहीं, हमारी मूर्खता का फल है। फिर भाग्य का भरोसा किए बैठे रहो। क्यों कहते हो कि हम भूखे हैं। यह सब हमारे पूर्वजों, ऋषि-मुनियों की करतूतों का फल है। उन्होंने कहा यह संसार मिथ्या है, बस मोक्ष ही सत्य है। मोक्ष…मोक्ष फिर मोक्ष व स्वर्ग की दौड़ में हमने शरीर की ओर ध्यान ही नहीं दिया। शरीर को बिगाड़ ही लिया, अब मोक्ष की कामना क्यों नहीं करते? और शरीर के लिए तो काम करना पड़ेगा। इस संसार को सत्य समझकर काम करना पड़ेगा।
कुछ देर बैठकर मैं चला आया हूँ। और रास्ते भर मुझे लगता रहा है कि इस व्यक्ति के हृदय में कितनी करुणा है! कितना दर्द है लोगों के लिए!! मगर सरकार बहरी है। सरकार ही नहीं, जनता भी बहरी है।
एक ही पुरुषार्थ है-स्वीकृति
20 नवम्बर 1968 की संध्या कोई 8:45 बजे का समय मैं भगवान श्री के पास जा रहा था। रास्ते में एक मित्र दयाल जी मिल गए। वे भी साथ हो लिए। हम भगवान श्री के निवास पर पहुँचे तो देखा दरवाजे़ पर एक सिंदूरी रंग की कार खड़ी है। इस गाड़ी को मैं पहचानता हूँ, रेलवे विभाग के डिवीजनल मेडिकल ऑफिसर (डॉo) एo यूo बिजलानी की है। हमने अपनी साइकिलें खड़ी कीं, फाटक खोला, भीतर ‘स्टडी’ में पहुँचे और देखा भगवान श्री यहाँ नहीं हैं। यहाँ कोई भी नहीं है। इस कक्ष से ही लगे वातानुकूलित कक्ष में हैं भगवान श्री, हमने आपस में कहा। अब हम भीतर कैसे घुसें?
मैंने कहा- ‘भाई दयाल! भगवान श्री ‘स्टडी’ में बैठे रहते हैं तब तो मैं निःसंकोच उनके पास चला आता हूँ, भले ही वे पढ़ रहे हों, भले ही कोई मिलने वाला आया हो। पर वे अपने इस कक्ष में रहते हैं तो मुझे जाने क्यों एक संकोच-सा घेर लेता है।’ दयाल ने कहा ‘मुझे भी संकोच लगता है। मैं तो अलग से आकर कभी मिला ही नहीं हूँ। हाँ, एक बार माँ बहन को मिलाने अवश्य लाया था।’ मैंने कहा लेकिन तुम्हारी जगह नारायण होते तो इतनी देर प्रतीक्षा हमें न करनी पड़ती। उनके साथ तो इस कक्ष में भी दर्जनों बार मिल गया हूँ। होता यह है कि हम बन्द दरवाजे के पास आते हैं और तभी नारायण मुझे जोर से आगे ढकेल देते हैं। इतना जोर से कि या तो दरवाज़ा खोलूँ या फिर दरवाजे़ से टकरा जाऊं। तीसरा विकल्प नहीं रहता। अतः विवश दरवाज़ा खोल देता हूँ। भगवान श्री मुस्काते हुए कहते हैं- ‘आओ शिव।’ मैं भीतर घुसते हुए पीछे नारायण की ओर मुड़कर कहता हूँ- आओ ना। और वे भी आ धमकते हैं। मगर तुम तो न मुझे ढकेलते हो और न ही खुद दरवाज़ा खोलते हो। दयाल ने कहा- न भाई, मैं न ढकेलूँगा ही और न दरवाज़ा ही खोल सकता हूँ। मैंने कहा- अच्छा आओ कुछ देर पत्रादि पढ़ें। भगवान श्री के लिए लिखे गए पत्र भी पढ़ने में मुझे बड़ा आनन्द आता है। कोई लिखता है - प्यारे प्रभु! कोई लिखता है- परम प्रिय एवं पूज्य…कोई लिखता है My beloved है। कोई लिखता है- परम-पूज्य परम ब्रह्म सच्चिदानन्द…हजार तरह के सम्बोधन…और फिर पत्र के ‘कॉन्टेण्ट्स’- क्या गजब! गद्य भी गीत जैसे। एक बार काशी विश्वविद्यालय की श्रीमती लीना बनर्जी का पत्र देखा था। पत्र में कुल इतना लिखा था- ‘करुणामय करुणा करो!’ मुझे तीन शब्दों के इस पत्र ने एक अजीब संगीत-बोध से भर दिया था। फिर एक बार लुधियाना की कुसुम बहन का पत्र देखा जिसमें ऊपर तारीख लिखी थी, शेष सारा का सारा कागज़़ कोरा पड़ा था। मुझे उस कोरे कागज़ में जिस अनूठी कविता का अहसास हुआ था, उसे शब्दों में कह पाना असंभव है। बड़े विचित्र-विचित्र पत्र देखने को मिलते हैं। मगर यह क्या! आज तो यहाँ कोई भी पत्र नहीं दिखते। कुछ पत्रिकाएं उलटता हूँ, कुछ और कागज़़ पत्तर पलटता हूँ, मगर पत्र नहीं मिलते। शायद भगवान श्री पत्र पढ़कर या पढ़ कर और उत्तर लिखकर फाड़ दिए होंगे जैसा कि हमेशा करते हैं। वह तो जब बाहर कहीं यात्रा पर होते हैं और कभी जा पहुँचता हूँ तो उनके लिए आए हुए ढेरों पत्र उनकी प्रतीक्षा करते मिलते हैं। उनकी अनुपस्थिति में उनके लिए आए पत्रों को पढ़ने की चोरी मैंने खूब की है।
मैंने ‘स्टडी’ से लगे दूसरे कक्ष की ओर देखा। द्वार पर पर्दा झूल रहा है मैंने पर्दे के बीच से देखने की कोशिश की कि शायद रमा बहन ही दिख जाए तो पूछ लूँ कि भीतर कौन-कौन हैं। क्योंकि मन में अन्देशा था कि कहीं कोई अलग से समय लेकर मिलने न आए हों। कई बार लोग भगवान श्री से अकेले में मिलना चाहते हैं। खुद मैंने कितनी बार चाहा है कि जब मैं मिलूँ तो वहाँ दूसरा कोई न हो…कोई भी नहीं। खैर, तो रमा जी नहीं दिखतीं। कोई भी नहीं दिखता। फिर हम उस कक्ष की ओर आ गए हैं जिसमें भगवान श्री हैं और बंद द्वार के पास कान ले गए हैं। भगवान श्री बोलते हुए सुन पड़े हैं। मैंने कहा- दयाल भाई, अब तो प्रतीक्षा करना असंभव है। दयाल जी ने केवल मुस्करा दिया है। मैंने उनसे कहा- ‘मित्र’, एक बात मुझे बहुत खटकती है। एक से एक मूढ़ों के घरों व दफ्तरों के दरवाजे़ मैंने देखे हैं ओर खोले हैं। उनमें तनिक भी आवाज़ नहीं होती। भगवान श्री के इस दरवाजे़ में यह एक बड़ा दोष है कि इसे खोलने में थोड़ी आवाज़ होती है। और वह थोड़ी सी आवाज़ भी मुझे बेहद खराब लगती है। यह देश भी कैसा अन्धों का है। इतना बड़ा विचारक इस कक्ष में रहता है। जिसका दरवाज़ा खोलने में आवाज़ करता है। नाम तो मुझे स्मरण नहीं पर दो या तीन वर्ष पूर्व एक विदेशी लेखक को नोबेल पुरस्कार मिला, शायद एगनॉन को। उन्हीं दिनों उसके बारे में पत्र-पत्रिकाओं में कुछ छपा था। उसी समय मुझे ज्ञात हुआ कि वह लेखक जहाँ रहता था वह ‘शांत क्षेत्र’ कहलाता था और एक मील (अथवा ऐसे ही कुछ) के इर्द-गिर्द सरकारी बोर्ड लगे थे कि - "कृपया आवाज़ न करें, हो सकता है मि. एगनॉन विचार