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Andhera Pakh Aur Jugunu (अँधेरा पाख और जुगुनू)
Andhera Pakh Aur Jugunu (अँधेरा पाख और जुगुनू)
Andhera Pakh Aur Jugunu (अँधेरा पाख और जुगुनू)
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Andhera Pakh Aur Jugunu (अँधेरा पाख और जुगुनू)

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About this ebook

ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित इस उपन्यास में सीमांत कृषक परिवार के दो नवयुवकों द्वारा गाँव के उत्थान की रोचक कथा गहन संवेदना के साथ बुनी गयी है।... दोनों ने महानगर में रहकर परास्नातक तक पढ़ाई की है, पर नौकरी का मोह छोड़ वे गाँव की समस्याओं को दूर करने में जुट जाते हैं। वे गाँधी जी के इस विचार से अत्यंत प्रेरित हैं कि देश के विकास का रास्ता ग्रामीण उद्योगों से होकर जाता है। छोटे किसानों और मजदूरों की समस्याओं को दूर करने का वे एक स्वप्न देखते हैं और उसे पूरा करने में लग जाते हैं।... स्थानीय राजनीति, धर्म-जाति आधारित फूट, अशिक्षा, शराब आदि बाधाओं से लड़ते हुए वे अंततः सफल होते हैं।.
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateApr 15, 2021
ISBN9789390504978
Andhera Pakh Aur Jugunu (अँधेरा पाख और जुगुनू)

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    Andhera Pakh Aur Jugunu (अँधेरा पाख और जुगुनू) - Rajender Verma

    2019

    अँधेरा पाख और जुगनू

    एक

    सुरेश लखनऊ से गाँव वापस जा रहा है, शायद हमेशा के लिए। फतेहपुर बस स्टैंड से वह गाँव के लिए पैदल ही चल पड़ता है। यहाँ से कोई पाँच कि.मी. का रास्ता है। गाँव तक डामर रोड बन गई है। रोड पर चलते हुए उसने दो-तीन बार मुड़कर देखा, कोई जान-पहचान का मोटरसाइकिल वाला मिल जाए, लेकिन नहीं मिला। एकाध जाने-पहचाने चेहरे दिखे, पर उन्होंने गाड़ी नहीं स्लो की। फिर उनसे लिफ्ट माँगने का क्या मतलब? एक ट्रैक्टर वाले ने जरूर कहा, ट्राली में बैठ जाओ, लेकिन उसमें कमर तुड़वाने से अच्छा था कि पैदल ही सैर का मजा लिया जाए।

    अचानक एक मोटरसाइकिल उसके बराबर आकर रुकी। नजर पड़ी तो देखा कि पड़ोस के गाँव के विजय थे जो किसी की मोटरसाइकिल के पीछे बैठे थे। वे झटपट उतर पड़े। मोटरसाइकिल सवार ने कहा, बैठिए, ट्रिपलिंग कर लेंगे, लेकिन सुरेश ने मना कर दिया।... विजय भी सुरेश के साथ पैदल चल पड़ा।

    सुरेश और विजय कक्षा छह से बारह तक फतेहपुर में साथ पढ़े हैं और इसी रास्ते से वे स्कूल गए-आए हैं।... विजय के पिता बाराबंकी में एस.पी.ऑफिस में क्लर्क हैं। उसने वहीं रहकर पोस्ट ग्रेजुएशन किया है, जबकि सुरेश ने लखनऊ से। विजय जब भी लखनऊ जाता, सुरेश से मिल लेता, पर इधर बहुत दिनों से उससे मुलाकात नहीं हुई थी।

    और सुनाओ यार! क्या हाल-चाल हैं? नौकरी-वौकरी मिली कि अभी रगड़ाई ही चल रही है?... तुम किसी स्कूल में पढ़ाते हो न!... और कम्पटीशन वगैरह की कैसी तैयारी चल रही है? विजय ने आत्मीयता से पूछा।

    हाँ यार! पढ़ाता तो हूँ एक प्राइवेट स्कूल में, पाँच हजार रुपये मिलते हैं, लेकिन इतने में महीने का खर्च ही नहीं पूरा पड़ता, कम्पटीशन की तैयारी कैसे हो?... क्या करूँ, कुछ समझ में नहीं आता! जिंदगी के आठ साल स्वाहा हो गए। पाँच साल पढ़ाई में और तीन साल नौकरी के लिए भटकने में!

    स्वाहा क्यों हो गए? कहीं पढ़ाई भी बेकार जाती है?

    हाँ, बेकार तो नहीं जाती, लेकिन गाँव वालों के लिए, खास तौर पर अम्मा के लिए बेकार ही है। जब तक हम कोई ढंग की नौकरी नहीं पा लेते, किसी अनपढ़ मजदूर और हममें कोई फर्क नहीं। बल्कि, अनपढ़ मजदूर अच्छे हैं, क्योंकि वे सुकुमार नहीं हो जाते और खेती-किसानी के लायक बने रहते हैं।... जिसके हाथ में कलम पकड़ा दी गई, वह अगर नौकरी कर चार पैसे नहीं कमाता, तो उसका कलम पकड़ना अकारथ गया।

    ये बात तो है।... पर तुम तो पढ़ने में अच्छे थे, पी-एच.डी. क्यों नहीं कर लेते? डिग्री कॉलेज में लेक्चररशिप तो मिल ही जाएगी! कितने परसेंट थे एम.ए. में?

    "थे तो सत्तावन परसेंट, लेकिन यह सब इतना आसान है क्या? पहले इंट्रेंस निकालो और इंटरव्यू की तैयारी कर कोई जुगाड़ फिट करो।... फिर दो-तीन साल लाइब्रेरी में हफ्तों बैठ नोट्स तैयार करो और जब उन्हें टाइप करवाकर जब गाइड महोदय को दिखलाओ, तो उनसे सुनो- अमा, तुमसे बड़ा गधा हमने नहीं देखा! यह क्या नोट्स बनाए हैं?... लेकिन बर्दाश्त करो, उनकी हाँ में हाँ मिलाओ। उनकी गुलामी करो।... उनके कुत्ते टहलाओ और उनकी बीवी-बच्चों की सेवा में रहो... और किसी बड़े साहित्यकार की सिफारिश भी करवाओ, तब कहीं वे खुश होंगे!... और साहित्यकार भी आसानी से कहाँ सिफारिश करने वाले हैं! उनको प्रसन्न करने के लिए उन्हें प्रेमचंद और अज्ञेय से बड़ा बताओ।... उसके बाद भी गाइड साहब की सेवा में कम-से-कम एक साल।... तब कहीं आप अपने नाम के आगे डॉक्टर लगा पायेंगे।... और उसके बाद जब कहीं जगह निकले तो इंटरव्यू पैनल का पता लगाओ और उसमें जो एक्सपर्ट हों, उन्हें साधो। तब जाकर मिलेगी नौकरी!"

    तो क्या हुआ? सभी करते हैं, तुम भी करो।

    इतनी रगड़ाई मेरे बस की नहीं है यार! और सबसे बड़ा सवाल कि इन चार-पाँच सालों का खर्च कहाँ से आए? एक बापू का ही सहारा है, बल्कि दस बीघे खेती का कहिए, जिसमें सालो-भर खाना-पहनना है, हारी-बीमारी से भी निपटना है और रिश्ते-नातेदारी भी निभाना है। लखनऊ में रहने-खाने और नौकरी का पीछा करने के लिए छह-सात हजार महीने का रोकड़ा कहाँ से आए? अभी तक कैसे निपटाया है, मैं ही जानता हूँ। ऐसा कोई महीना नहीं बीता कि दोस्तों से उधार न लेना पड़ा हो!... खैर, मेरी छोड़ो, अपनी सुनाओ! तुम्हारी नौकरी का क्या हुआ? तुम्हारे पापा के ऑफिस में कोई जगह निकलने वाली थी, अभी नहीं निकली क्या?

    निकली तो, लेकिन वह आई.जी. के बंदे पर रीझ गई।

    अरे! यह तो गड़बड़ हो गया।... फिर, आगे की क्या तैयारी है?

    कोई तैयारी नहीं, अब मैंने नौकरी का खयाल ही दिल से निकाल दिया है?

    फिर ?

    फिर क्या? गाँव में ही जम गया हूँ, खेती करवाता हूँ और फतेहपुर में पेस्टीसाइट की एक दुकान खोली है।

    "अरे! मैं पूछना भूल ही गया?... भाभी के क्या हाल-चाल हैं?

    हाल तो ठीक हैं, पर चाल कुछ समझ में नहीं आती, हफ्ते-भर गाँव में रहती हैं, तो पंद्रह दिन बाराबंकी में!...

    मैके में?

    हाँ, उन लोगों ने यही सोचकर मैरिज की थी कि मेरी नौकरी लग ही जाएगी, लेकिन जब नहीं लगी, तो वे लोग पापा से नाराज हैं।... पत्नी को तो मुझसे ज्यादा चिंता मेरी नौकरी की है।... मैंने भी तय कर लिया है, अब नौकरी का फॉर्म ही नहीं भरूँगा, देखते हैं, कब तक नाराज रहती हैं!

    अरे, नाराज न करो भाई उनको। मना लाओ और साथ रखो।... यह तो जीवन-भर का साथ है!

    है तो जरूर, लेकिन ताली क्या एक हाथ से बजती है?... अच्छा, हमारी छोड़ो, इस बार सुना, तुम्हारा भी खूब घेराव हो रहा है! अब तुम भी बच न पाओगे। विजय मुस्कुराते हुए बोला।

    हाँ, हो तो रहा है, देखो, क्या होता है!

    विवाह के बारे में अपनी ही आवाज सुन सुरेश के मन में गुदगुदी-सी होने लगी।

    रास्ता चलते-चलते सुरेश को स्कूल के दिनों की याद आ गई। कक्षा छह से लेकर बारह तक, सात सालों वे दोनों इसी रास्ते से ही तो स्कूल गए-आए हैं।... महादेव तालाब पीछे छूट गया है, नहीं तो उसे वह एक बार फिर से देखता। बचपन में कितनी-ही बार देखा, पर मन नहीं भरा।... हरे-भरे बागों के बीच तीन-चार छोटे-छोटे मंदिर और उनके सामने बड़ा-सा पक्का तालाब, दो तरफ से दस-बारह पक्की सीढ़ियाँ। बरसात में दूसरी-तीसरी सीढ़ी तक पानी चढ़ आता था।... सीढ़ी पर बैठकर अपने पैरों को पानी में देर तक डुबोये रखना कितना अच्छा लगता था! आजकल तो उसमें खूब कमल खिले होंगे। पुजारी की नज़रों से बचकर हम लोगों ने कितनी बार फूल तोड़े!... वे भी क्या दिन थे!

    सुरेश- विजय! तुमने कुछ कहा?

    विजय- नहीं तो!

    रास्ते पर ज्यों-ज्यों उसके पैर आगे बढ़ते, त्यों-त्यों बचपन की किताब के पन्ने खुलते जाते।... वह उनमें खोने लगा।... स्कूल खुलते ही क्लास में अपनी जगह छिदना, प्ले ग्राउंड में दौड़ना-भागना, नए कोर्स की प्रतीक्षा करना, नए दोस्त बनाना, उनके साथ खेलना, शैतानी करना, झूठ-फरेब के पाठ पढ़ना...।

    अच्छा, विजय! स्कूल के पीछे वाली बाग से चोरी से आँवले तोड़ने वाली बात याद है तुम्हें?

    "और मुनेश्वर के चाट के ठेले पर भीड़ में घुसकर पानी के बताशे खाना और पैसे माँगने पर, ‘पैसे तो पहले ही दे दिए थे!’,

    वो वाली बात तुम्हें याद है?"

    हाँ, और... घर का सौदा लाने में एकाध अठन्नी मार देना और हिसाब देने में चालाकी पकड़े जाने पर भी अपनी बात पर अड़े रहना, या फिर, बचे हुए पैसे कहीं गिर जाने का बहाना करना।... और वह अम्मा का गुस्साकर रह जाना !...

    दोनों ठठाकर हँस पड़े। फिर देर तक हँसते रहे।... दोनों के चेहरों पर बहुत दिनों की छायी उदासी जैसे धुल गई। आँखों में वही शरारत वाले दिन तैर गए।...

    सड़क के दोनों ओर गेहूँ और सरसों के खेतों की अद्भुत गंध सुरेश के नथुनों में भरी जा रही है। यह बहुत तसल्ली देने वाली है, अच्छी फसल होने का संदेशा लेकर जो आती है।... शहर के दमघोंटू माहौल में रहते-रहते वह ऊब गया है। आज का यह गुलाबी मौसम उसे बहुत अच्छा लग रहा है।

    एक ट्रैक्टर पीछे से धड़धड़ाता चला आ रहा था। घूमकर देखा, उसकी ट्राली में ऊपर तक गन्ना लदा हुआ था। उसका मन हुआ कि एक गन्ना चुपचाप खींच ले, पर हिम्मत नहीं जुटा पाया। लेकिन सौ कदम आगे चलने पर सड़क के किनारे चने के खेत से साग तोड़ने का लोभ नहीं संवरित कर सका। खेत में उतरकर जल्दी-जल्दी उसने पाँच-छह कौर साग खाया। विजय ने भी तीन-चार कौर का साथ दिया।... धनिया-मिर्चे वाले नमक की बरबस याद आ गई। मन-ही-मन उसने उसका भी स्वाद ले लिया।... मजा आ गया!

    चलते-चलते वे ‘अकेलवा’ तक आ गए हैं। अब वह काफी बड़ा हो गया है। अकेलवा माने, तिराहे पर लगा आम का अकेला पेड़। बचपन में वह भी छोटा था, उन लोगों के साथी जैसा। स्कूल से पैदल लौटते समय, गर्मियों में खास तौर पर उसके नीचे थोड़ी देर जरूर बैठकी होती, फिर आगे का रास्ता तय होता।... कक्षा छह से आठ तक उनका पैदल ही जाना-आना था, उसके बाद ही उन्हें साइकिल मिली थी।... सुरेश को तो नाइंथ और हाई स्कूल में भी आधे दिन पैदल ही जाना-आना पड़ता था। घर में एक ही साइकिल थी जो बापू (पिताजी) के पास रहती थी। जब उन्हें कहीं आना-जाना नहीं रहता, तभी उसे मिलती थी। फर्स्ट इयर में ही उसे नई साइकिल मिल पायी थी।... इस बीच वह कितनी ही बार विजय की साइकिल पर गया-आया था।

    अकेलवा से विजय के गाँव का रास्ता कटता है। थोड़ी देर पेड़ के नीचे बैठकर दोनों उठ खड़े हुए।

    कल शाम तुम्हारे यहाँ आऊँगा! कहकर विजय अपने गाँव के लिए चला।

    सुरेश भी अपने गाँव के रास्ते पर बढ़ चला।...

    रात में सुरेश जब खा-पीकर लेटा, तो भविष्य की अनिश्चितता उसे सताने लगी। दो शिफ्टों में दस घंटे की मास्टरी की नौकरी से वह ऊब चुका है। वह उसे छोड़ देना चाहता है। लेकिन उसके बाद वह क्या करेगा? गाँव में रहेगा या कहीं कुछ और काम-धंधा करेगा, कुछ तय नहीं कर पा रहा है। अम्मा-बापू से भी अभी उसने कुछ नहीं कहा है।...

    अचानक उसे प्रदीप की याद आई।

    प्रदीप उसका अच्छा दोस्त है। दोनों की पारिवारिक पृष्ठभूमि एक-सी है और एक जाति के भी हैं। पढ़ाई के लिहाज से भी दोनों हिंदी से परास्नातक और अंग्रेजी में कमजोर। समाज, राजनीति, धर्म-अध्यात्म आदि विषयों पर भी दोनों के विचार काफी मिलते हैं।...दोनों ने प्रगतिशील साहित्य पढ़ा है।

    प्रदीप सुरेश से एक साल छोटा है, परंतु व्यावहारिकता और तर्कशक्ति के मामले में वह उससे बीस ही है। आर्थिक दृष्टि से भी वह अपेक्षाकृत सुदृढ़ है।... सुरेश जब कभी जिंदगी की लड़ाई में कमजोर पड़ा है, प्रदीप ने उसमें संजीवनी भरी है।... पैसे-रुपये से भी आए दिन सहायता की है।

    पहले दोनों एक-ही कमरे में रहते थे, लेकिन बाद में जब प्रदीप कई महीनों के लिए गाँव चला गया, तो वह अकेला रह गया। किराए का कमरा अमीनाबाद के पास था, जबकि उसका स्कूल महानगर में, जो वहाँ से छह-सात किमी. दूर था। इसलिए उसने पुराना कमरा छोड़ महानगर से सटे मोहल्ले अलीगंज में अकेले ही कमरा ले लिया था।

    आज लखनऊ से चलते समय उसने प्रदीप से मोबाइल पर बात करनी चाही थी, लेकिन ‘कवरेज एरिया से बाहर’ के मैसेज के कारण बात न हो सकी थी।... उससे बात करने के लिए फिर नम्बर लगाया, पर नहीं लगा।

    वह देर तक करवटें बदलता रहा, पर भविष्य की किसी भी योजना को अंतिम रूप न दे सका। अंततः नौकरी की चिंता और विवाह की प्रसन्नता की चादर ओढ़ निद्रा की गोद में चला गया।

    दो

    सुरेश का विवाह इसी सत्ताईस फरवरी को है।

    सरकारी नौकरी का इंतजार हो रहा था, पर अब घर वालों के सब्र का बाँध टूट चुका है। अब वह भी नौकरी के कारण विवाह में देरी नहीं करना चाहता। जिन्दगी को अकेले जीते-जीते ऊब गया है।

    उसकी होने वाली पत्नी, सुरेखा उससे पाँच साल छोटी है। सुना है, साँवली है, जबकि उसका रंग गेहुंआ है।... वह खुद को शीशे में निहारता है, नाक-नक्श उसके अच्छे ही हैं और लम्बाई भी साढ़े पाँच फिट से ऊपर ही होगी!

    सुरेखा के पिता नहीं हैं। पाँच साल पहले वे अचानक चल बसे। एक भाई है जो उससे छोटा है, इस बार नाइंथ में गया है। विवाह की जिम्मेदारी उसके मामा पर थी। जब वे सुरेश से अच्छा वर नहीं ढूँढ़ पाये, तो उन्होंने यह विवाह तय किया है, यह बात किसी से छिपी नहीं है। पता नहीं, सुरेखा उसके बारे में क्या सोचती हो, पर उसे तो जैसे उसकी औकात बता दी गई!... नौकरी न मिलने की यह कैसी सजा है! ‘नाकारों’ को कदम-कदम पर ऐसी सजाएँ मिलनी ही हैं।

    उसके माँ-बाप को भी यह बात चुभती जरूर है कि समधिन विवाह के लिए इसलिए राजी हुईं, क्योंकि वे उससे अच्छा वर नहीं ढूँढ़ पाये। लेकिन अब समझौते के अलावा चारा ही क्या है!... अबकी बार मना करते तो जाने कब रिश्ता होता? पिछली सहालग खाली ही निकल गई, एक भी रिश्ता न आया! इस बार भी अकेला यही रिश्ता आया था, फिर उसे यों ही कैसे जाने दिया जाता! अब तो गाँव में उसकी उम्र का कोई लड़का नहीं बचा, जिसका विवाह न हो चुका हो।

    पहले सुरेश चाहता था कि कोई ढंग की नौकरी मिल जाए, तब विवाह करे, लेकिन माँ-बाप की इच्छा और नौकरी की अनिश्चितता ने उसे विवश कर दिया है। उसे स्वयं जीवन-संगिनी की जरूरत महसूस होती है। छब्बीस का तो हो चला!... रात में जब कभी नींद उचट जाती है, तब वह घंटों सो नहीं पाता, पता नहीं क्या उलटी-सीधी बातें दिमाग में घूमती रहती हैं। उसकी उम्र के लोगों के तो दो-दो बच्चे हैं।... एक के तो दो लड़कियाँ हो चुकी हैं और उसकी पत्नी फिर आस से है, शायद लड़के की! कैसे पार होगी उसकी? आठ बीघा खेती है उसके, आमदनी का और कोई जरिया नहीं। खेती से किसी तरह खाना-कपड़ा निभता है, धेले की बचत नहीं! हारी-बीमारी का खर्च निकल आए, यही बहुत है; लेकिन बच्चे-पर-बच्चे पैदा किए जा रहे हैं!... लड़के के चक्कर में संजय ने चार-चार लड़कियाँ पैदा कर दीं, लेकिन अभी भी चैन नहीं! कौन जाने अगला बच्चा लड़का है कि लड़की? टेस्ट करवाने गए थे, लेकिन डॉक्टरनी ने ऐसी डाँट लगायी कि होश फाख्ता हो गए।... इन मूर्खों को कौन समझाये कि अगर लड़का हो भी गया तो कौन-सी धन-वर्षा होने लगेगी?... कहते हैं कि वंश चलाने वाला चाहिए। लेकिन जब वह किसी लायक बनेगा, तब न! अगर छाती पर मूँग दले तो? कोई इनसे पूछे, चार पीढ़ियों पहले उनके पूर्वजों के क्या नाम थे, तो बता नहीं पायेंगे; वंश की बात करते हैं! असल बात की तह तक नहीं जाते, आदमी जब तक जिन्दगी में कुछ ऐसा काम न कर जाए कि दुनिया उसे याद रखे, तब तक उसका वंश चलना, न चलना एक बराबर है।

    जिस गाँव में उसका विवाह तय हुआ है, रूबी उसी गाँव की है, गाँव के चन्दर की पत्नी। तीन साल पहले उसकी शादी हुई है। चन्दर उसके साथ हाई स्कूल तक पढ़ा है।

    सुरेश ने जब उससे होने वाली पत्नी के बारे में पूछा, तो उसने कहा, यार! लड़की शायद उतनी सुन्दर न हो, जितनी तुम्हारी कल्पना की रानी रही होगी! लेकिन उसके करैक्टर के बारे में कोई ऐसी-वैसी बात सुनने में नहीं आई है। इंटर तक पढ़ी है, अब पास है कि फेल, यह नहीं मालूम! वैसे तुमसे क्या छिपा है कि लडकियाँ कैसे इंटर पास करती हैं!

    चन्दर की बातें सुन सुरेश के चेहरे पर तनाव की रेखाएँ खिंच आईं। उसे चिन्तित देख चन्दर ने कहा, तुम चाहो तो लड़की देख सकते हो, लेकिन छुपकर।... किसी रस्म की तरह नहीं, क्योंकि अब बात पक्की हो चुकी है।

    सुरेश दुविधा में है, सुरेखा को देखने जाए कि नहीं!... लेकिन अगले दिन उसने उसे देखने का प्लान बना ही डाला। रूबी ने सुरेखा को अपने साथ गाँव से बाहर लिवा लाने का जिम्मा लिया। चन्दर साथ रहेगा ही।

    चन्दर के साथ लड़की देखने की बात पता नहीं कैसे, अम्मा को मालूम पड़ गई। उन्होंने सुरेश को फटकार लगायी, तुम छिप-छिपकर लड़की देखने जाओगे? यह हमारे घर का चलन नहीं है!... मान लो, तुम्हें वो पसन्द न आए, तो क्या विवाह टाला जाएगा? न्योते बँट चुके हैं, छेई हो चुकी है; चार दिन बाद तेल हैं!... हम लोगों पर भरोसा नहीं है क्या? मैंने तो देखी है लड़की। बढ़िया है, तुम्हारे जोड़ की। थोड़ी साँवली जरूर है, लेकिन अपना भी पलड़ा देखना पड़ता है। तुम्हीं कौन-से गोरे हो? हाँ, नौकरी पा गए होते, तो और बात थी!...

    माँ से भी नौकरी का उलाहना पाकर सुरेश दुखी हो गया। वास्तव में अम्मा बेटे के विवाह में दहेज की वैसी ही आशा लगाये हुए थीं जैसे पिछले साल गाँव के एक लड़के के विवाह में मिला था, दो लाख नकद और मोटरसाइकिल। लेकिन सुरेश के विवाह में कैश मिलने का सपना, सपना ही रह गया।... हाँ, मोटरसाइकिल के साथ जरूरी सामान मिलने की बात तय हुई है। बाप-बेटे को दो-दो सूट के कपड़े, माँ-बहन के लिए बनारसी साड़ियाँ और ऊनी कपड़े तिलक में आ ही गए थे, पर नकदी के नाम पर तिलक में ग्यारह हजार रुपये ही आए थे।

    बापू भी सुरेश के नौकरी न पाने के कारण थोड़ा दुखी थे। खुद हाई स्कूल तक पढ़े थे, लेकिन घरेलू समस्याओं के चलते आगे की पढ़ाई न कर सके थे। उनका सपना था कि बेटा पढ़-लिखकर नौकरी हासिल कर दिखलाएगा! इसमें कुछ अप्रत्याशित न था, हर बाप अपनी अधूरी इच्छाएँ संतान में पूरी होते देखना चाहता है।... शायद उस दिन बापू के मुँह से यह बात इसीलिए निकल पड़ी कि अगर सुरेश की नौकरी होती, तो इतनी बढ़िया शादी होती कि लोग उसकी मिसाल देते! अकेले लड़के पर दस बीघा जमीन है।

    लेकिन नौकरी का सच तो बदला नहीं जा सकता था। सुरेश के लाख मेहनत करने पर भी उसे कोई ढंग की नौकरी न मिल सकी थी। एकाध जगह बात जरूर बन जाती अगर इंटरव्यू तक पहुँचते-पहुँचते पाँच-छह लाख रुपयों की व्यवस्था हो जाती! हालाँकि यह बात बापू से नहीं छिपी थी, लेकिन अब जो दोष था, वह उसी का था, भले-ही वह कई लिखित परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर चुका है, लेकिन सब बेकार है।

    उसके माँ-बाप दहेजलोभी नहीं हैं, फिर भी उम्मीद लगाये थे कि बेटी की शादी में जो एक लाख का कर्ज चढ़ गया है, वह बेटे की शादी से अदा हो जाएगा, लेकिन मामला गड़बड़ा गया।... यों, तय तो कुछ न था, पर इस बात की तसल्ली थी कि लड़कीवाले हैं, सामर्थ्य-भर देंगे ही, लड़की को जोड़े में तो न विदा कर देंगे! उनकी ओर से नकदी का कोई पक्का वादा न था... मोटरसाइकिल और टी.वी. देने को कह रहे थे, लेकिन जब कहा गया कि टी.वी. तो घर में है ही, तो वह छू-मंतर हो गया, जबकि आशय यह था कि टी.वी. के बदले पन्द्रह-बीस हजार रुपये विदाई की थैली में और डाले जाएँ।... बहरहाल, अब जो भी सहारा है, विदाई की थैली का है। देखो, उसमें से कितना रोकड़ा निकलता है? अभी तो बारात के खर्च के लिए मामा के यहाँ से एक लाख रुपयों की व्यवस्था हुई है।

    शाम के छह बज रहे हैं। बारात चढ़ रही है। पगड़ी पर मौर रखना सुरेश को अच्छा नहीं लग रहा है। वह रुक भी नहीं रहा है, लेकिन सुरेश मना नहीं कर पा रहा। दूल्हा बनकर उसे शर्म लग रही है, पर मन में कहीं प्रसन्नता भी छुपी हुई है। सुरेखा का अस्पष्ट-सा मुस्कुराता हुआ साँवला चेहरा उसकी आँखों में बार-बार घूम जाता है।...

    किराए की सजी हुई ‘टाटा इंडिगो’ में दूल्हे राजा, बहन सुमन, सहबाला बना मामा का लड़का और रिश्तेदारों में से एक बिटिया और उसके बच्चे के साथ सवार होकर विवाह के लिए चल पड़े।

    बारात का जरूरी सामान और दस-बारह लोगों को लादकर मामा की ट्रैक्टर-ट्राली तो घंटा-भर पहले ही चल पड़ी थी। बाकी बाराती मोटरसाइकिलों से चले। अधिकतर तो सीधे बारात ही पहुँचेंगे।

    बारात एक स्कूल में ठहरायी गई थी। डेढ़ सौ बारातियों का नाश्ता-पानी, स्वागत और खाना-पीना ठीक-ठाक ही रहा। बढ़िया इंतजाम था। द्वारचार में सुरेश को तोले-भर की सोने की चेन मिली। जयमाल और खाने-पीने के बाद रात में विवाह का नंबर आया। रस्में पूरी होते-होते सवेरे के पाँच बज गए।... आठ बजे कलेवा हुआ और जल्दी करते-करते बारह बजे तक विदाई।

    ट्रैक्टर की ट्राली में स्टील आलमारी, डबल बेड, कुछ गल्ला और दैजी का सामान लदा और बारात बिदा हुई। मोटरसाइकिल दहेज में मिली है। उसे कोई गाँव-वाला चलाकर ला रहा है।... विदाई की थैली में कितना माल है, बापू को पता लग गया है, तभी उनकी आँखों की बुझी चमक से साफ पता लग रहा है कि थैली में कुछ खास नहीं!

    पल-भर को सुरेश को यह अच्छा न लगा, पर पलक झपकते ही उसका मन प्रसन्नता से भर उठा। पत्नी की तरफ नजर पड़ते ही लगा कि जैसे दुनिया की अनमोल वस्तु उसके हाथ लग गई हो। सिर पर से सरकते घूँघट में सुरेखा को देख वह मुस्कुरा देता है।

    कार की पिछली सीट पर सुरेश के साथ सुरेखा बैठी हुई है। सुमन अगली सीट पर बैठ गई थी, ताकि भैया और भाभी को आराम से बैठने को मिले।... कार में बारातियों के अच्छे स्वागत और स्वादिष्ट खाने-पीने की औपचारिक बातें होती रहीं। सुरेखा के चेहरे को सुरेश बार-बार देख रहा था। बात-बात में उसकी मुस्कराहट और हल्की हँसी उसे बहुत लुभावनी लग रही थी। उसका चेहरा किसी भी प्रकार साँवलेपन से दबा नहीं था, बल्कि उसकी लुनाई आकर्षित करती थी।... अच्छा-ही हुआ, उसने उसे पहले नहीं देखा, अन्यथा प्रथम दर्शन का यह सुख कैसे प्राप्त होता!

    उसका मन कर रहा था कि वह सुरेखा का मुख चूम ले, लेकिन कार में यह संभव न था। ड्राइवर महोदय ‘रियर व्यू-मिरर’ में वधू को निहारते ही रहे। मिरर में कई बार उसका चेहरा सुरेश की आँखों से भी टकराया। सुरेश का मन हुआ कि ड्राइवर को लताड़ दे, लेकिन पता नहीं क्या सोच, चुप रह गया। एकाध बार उसकी चढ़ी त्योरियाँ देख ड्राइवर मिरर से बाहर देखने लगा। उसे पता चल गया था कि उसकी चोरी पकड़ी जा चुकी है।

    घंटे-भर में कार घर पहुँच गई। कार से उतरने पर वर-वधू का औपचारिक स्वागत हुआ। जो भी जरूरी रस्में थीं, पूरी हुईं और खाना-पीना हुआ।

    रिश्तेदारों में तीन-चार-लोगों को छोड़ सभी बाराती जा चुके थे। अधिकांश तो बारात विदा होने से पहले ही चले गए थे। कुछ तो रात में ही खाना खाकर ही चले गए थे। आजकल बाराती उपस्थिति दर्ज कराने आते हैं, ताकि जरूरत पड़ने पर उनके यहाँ भी लोग जुट सकें।

    थैली में इक्यावन सौ रुपये थे। कहाँ इक्यावन हजार की उम्मीद थी! इतने न होते, तो इक्कीस हजार तो होते ही। जब टी.वी. नहीं लिया गया, तो उसके बदले पंद्रह हजार तो मिलने ही चाहिए थे।... एकदम बेवकूफ बना दिया इन लोगों ने। लेकिन

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