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एक ही भूल
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एक ही भूल

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About this ebook

यह चार दोस्तों संतोष, रवि, शेखर और दीक्षा की काल्पनिक कहानी है। रवि और संतोष बचपन में एक "भूल" बनाते हैं, जो उनके जीवन को बदल देता है। कई बार कोशिश करने के बाद भी वे जीवन भर उस "भूल" को नहीं भूल पाते हैं और उनका पूरा जीवन उसी "भूल" के इर्द-गिर्द घूमता है। अगर वह "भूल" न होती तो उनकी जिंदगी कुछ और होती। "एक ही भूल" क्या है? दोस्ती और प्यार की अनोखी कहानी है ये, ये है 'एक ही भूल'।

Languageहिन्दी
Release dateNov 28, 2022
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    एक ही भूल - सरला मिश्रा

    एक ही भूल

    एक कहानी दोस्ती और प्रेम की

    यह कहानी है चार दोस्त संतोष, रवि, शेखर और दीक्षा की। रवि और संतोष बचपन में एक भूल कर बैठते हैं जिससे उनकी जिंदगी ही बदल जाती है। कई बार कोशिश करने के बाद भी वह उस भूल को उम्र भर नहीं भूल पाते और उनकी पूरी जिंदगी उस भूल के इर्द-गिर्द ही घूमती रहती है। अगर वह ‘भूल’ न होती तो उनकी जिंदगी कुछ और ही होती। ‘एक ही भूल’ क्या है? दोस्ती और प्रेम की अनोखी कहानी है ये ‘एक ही भूल’।

    आभार

    यह पुस्तक हम सभी के अंदर चल रहे उठा पठक की कहानी है। इसलिए यह पुस्तक आज के दौर की उधेड़बुन को उजागर करने के लिए हम सभी की है। आज हम इतने व्यस्त है कि कई बार तो हम अपने खास मित्रों को भी भूल जाते है। बस यही बात मेरी इस कहानी की आत्मा है। आदमी इतना कठोर हो जाता है और अपने अहम को पकड़ के बैठ जाता है कि अपने चाहने वालों को भी भूल जाता है या यूं कहूँ भूलने का अभिनय करता है। मानो अकेले ही पहाड़ उठा लेगा। कई बार तो घमंड चूर-चूर हो भी जाता परंतु फिर भी इंसान की फ़ितरत होती है कि झुकेगा नहीं। हमारी राय में तो ‘जिंदगी सिर्फ चार दिन की है’ को मानते हुए सबसे प्रेम करना चाहिए और किसी के लिए गलत धारणा रखनी ही नहीं चाहिए। कहानी शुरू करने से पहले, आइए हम तीन साधारण प्रश्नों को अपने आप से करें-

    (1) क्या हम कभी किसी के खास मित्र थे जिससे कई सालों से बात भी ना की हो?

    (2) क्या हम किसी के खास मित्र हैं जिससे कई सालों से लगभग हर रोज ही बात चीत होती है?

    (3) क्या हम इस भीड़ में भी अकेले है?

    यदि इनमें से एक भी प्रश्न का उत्तर हाँ में है तो यह पुस्तक बस सिर्फ आप के लिए ही है। इस पुस्तक को लिखने लिए हर उस व्यक्ति ने प्रेरित किया जो भी हमारे संपर्क में आया। सब ने कुछ न कुछ सिखाया कभी अच्छा और कभी खराब। आपकी प्रतिक्रिया चाहे सकारात्मक हो या नकारात्मक हर हाल में हमें और लिखने और गलतियाँ सुधारने के लिए प्रेरित करेंगी। इसलिए हमें, आप सब अपनी प्रतिक्रिया जरूर देने की कृपा करे।

    मैं आभार प्रकट करता हूँ हमारे माता-पिता का, जिन्होंने सदा सही काम करने के लिए प्रेरित किया। मैं आभार प्रकट करता हूँ हमारे पूरे परिवार का, गुरुजनों का, मित्रों का, सहकर्मियों का, जिन्होंने सदा सही काम करने के लिए प्रेरित किया और हमेशा हमारे ऊपर अपना भरोसा बनाए रखा। हमें पूरा भरोसा है कि पाठक हमारी इस पहली पुस्तक को अपना पूरा साथ देकर भविष्य में और पुस्तकें लिखने के लिए प्रेरित करेंगे।

    (श्रीमती सरला मिश्रा/डॉ. शशि कान्त)

    नई दिल्ली ।

    सर्व शक्तिमान ईश्वर,

    माता जी श्रीमती आशा देवी

    और

    पिता जी श्री योगेंद्र प्रताप मिश्र

    को समर्पित

    भूमिका

    यह कहानी आज के व्यस्त जिंदगी पर आधारित है। हम पति-पत्नी कई बार आपस में चर्चा करते हैं कि वास्तव में लोग इतने व्यस्त हैं या सिर्फ व्यस्त होने का ढोंग करते हैं। पिछले दो सालों में कोरोना के दौरान भी कई लोग कहते मिले कि मेरे पास तो किसी मित्र का फोन तक ना आया। कोई हाल चाल भी ना पूछा। इस कहानी का जन्म कोरोना के दौरान हम पति-पत्नी के आपसी चर्चा से हुई। सोचा क्यों ना अपने विचार प्रकाशित किए जाए और इस कहानी को लिखने का सफर शुरू किया। परिणाम स्वरूप यह कहानी आपके सामने प्रस्तुत है।

    इस कहानी के पात्र, स्थान आदि काल्पनिक होते हुए भी हमारे दिल के काफी करीब हो गए है। कहानी खत्म होते-होते तो ऐसा लगने लगा कि सारे पात्र हमारे ही बहुत अच्छे दोस्त हों और ये कहानी हमारी जिंदगी का अभिन्न हिस्सा हो। इस कहानी का मकसद पूरी तरह से साफ है अपने पाठक का मनोरंजन करना बस परंतु एक बार फिर से बताते चलें कि इस कहानी के पात्र, स्थान, संस्थान, घटनाएं आदि पूरी तरह से काल्पनिक है और इनका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है।

    यह कहानी 1990 के दशक से शुरू होकर 2022 के इस आधुनिक व्यस्त जीवन तक जाएगी। इस कहानी के मुख्य पात्र चार मित्र हैं, संतोष, रवि, दीक्षा और शेखर जो 1990 में प्राथमिक कक्षाओं के छात्र हैं। चारों मित्र उत्तर प्रदेश के रहने बाले हैं। संतोष और रवि निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से है जबकि दीक्षा और शेखर के पिता सरकारी नौकरी करते हैं इसलिए उन्हें मध्यम वर्गीय परिवार से मान सकते हैं।

    यह कहानी एक आईने की तरह जिंदगी को जीने की कला, उतार-चढ़ाव, उठा-पठक और कई आयाम दिखाएगी। इस कहानी के पात्र काल्पनिक होते हुए भी आप-हम से ही प्रेरित हैं। आइए अपने पात्रों को और अधिक जानने का प्रयास करते हैं।

    संतोष का जन्म पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव मे हुआ था। उसके दो भाई-बहिन हैं और पिता जी खेती-बाड़ी का काम करते हैं। संतोष की माता जी ग्रहिणी हैं परंतु बहुत ही समझदार तथा धार्मिक महिला हैं। वह सारे व्रत-पूजा करती हैं। घर में अधिक धन न होते हुए भी पूरे घर को सुचारु रूप से चलाती हैं। बच्चों को तो ये भी पता न चलने देती कि वे लोग कितने गरीब हैं। पूरे घर में सदा सकारात्मक ऊर्जा रहती है। संतोष के पिता के पास भूमि ज्यादा न होने के कारण वह कुछ भूमि बटाई पर भी ले लेते हैं। खूब मेहनत करते हैं। संतोष के माता-पिता खुद उतना पढ़े-लिखे न होते हुए भी कभी अपने बच्चों को खेतों पर काम करने न बुलाते हैं और सभी बच्चों को स्कूल भेजते हैं। संतोष यूं तो बहुत शरारती बच्चा है परंतु अपने गाँव के स्कूल से उसको जो भी सीखने को मिलता, सीख लेता है। संतोष को स्टेज प्रोग्राम में भाग लेने का भी शौक है, कोई मौका न छोड़ता था अगर कोई सामाजिक प्रोग्राम हो और वह भाग न ले उसमें। रवि की स्थिति भी, संतोष की तरह ही है, वह भी निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से है। रवि, संतोष के पास बाले गाँव में रहता है और संतोष के गाँव में स्कूल में पढ़ने आता है। संतोष और रवि एक ही कक्षा के छात्र हैं। रवि इतनी छोटी उम्र में भी एक दम सही बात का साथ देता है और कोई बेकार की बकवास न करता। सबसे बड़ी बात अपनी बात पर कायम रहता है। किसी को गुमराह करना, झूठ बोलना आदि रवि की आदत का हिस्सा नहीं हैं।

    शेखर के पिता जी उत्तर प्रदेश में राजकीय उच्च-माध्यमिक विद्यालय में प्राध्यापक हैं। शेखर की तीन बहिनें हैं और शेखर सबसे छोटा है। शेखर बहुत ही शांत स्वभाव का है। उसे ज्यादा वे-फालतू की बातें करनी न आती हैं। शेखर सिर्फ काम से काम रखता है। शेखर व उसकी बहिनें अपने पापा के साथ ही उनके स्कूल में जाते हैं। शेखर क पिता शिक्षक होने के कारण अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का विशेष ध्यान रखते है परंतु उस समय उनके स्कूल में अंग्रेजी क्लास 6 से पढ़ाई जाती है इसलिए शेखर अंग्रेजी न पढ़ता है। बाकी के सारे विषय का ध्यान रखते है। कुल मिला के शेखर भी पढ़ने वाले बच्चों में है और वह भी स्कूल के कई मंच (स्टेज) कार्यक्रम में शामिल होता रहता है।

    दीक्षा के पिता जी कानपुर में एक उच्च पुलिस अधिकारी हैं। दीक्षा का गाँव कानपुर देहात में आता हैं। दीक्षा का कोई और भाई बहिन नहीं हैं, वह अकेली ही है। इस समय वह कानपुर के एक बड़े अंग्रेजी स्कूल में प्राथमिक कक्षा में पढ़ती है। दीक्षा को काफी अच्छी तरह से अंग्रेजी बोलनी आती है। दीक्षा अकेली संतान होने के बाद भी बहुत ही अच्छे से अपने से बड़ों से बात चीत करती है। उसे अपने पापा के इतने उच्च पद पर होने का कोई घमंड नहीं है और अपने से कमतर लोगों से भी बहुत ही प्यार से बात करती है। सभी उसकी तारीफ करते रहते है। दीक्षा हमेशा ‘सादा जीवन उच्च विचार’ को मानती है और उसने इतनी छोटी-सी उम्र में ही अपने खुद के विचार विकसित कर लिए है। स्कूल में भी कभी ये न जताती कि उसके पापा इतने बड़े पुलिस अधिकारी हैं।

    उपरोक्त चार ही इस कहानी के मुख्य पात्र हैं और चारों लगभग एक ही उम्र के हैं। सभी अलग-अलग सामाजिक-आर्थिक समाज से आते हैं जैसा कि पहले बताया है। कुछ पात्र और भी हैं जो बीच-बीच में आते रहेंगे उनका जिक्र उसी समय करेंगे। अब आप तैयार हो जाइए इस कहानी का आनंद लेने के लिए, धन्यवाद।

    अनुक्रमणिका

    1. जानें क्यों?

    2. उलझन

    3. राज़

    4. जुर्म

    5. नई राह

    6. नए दोस्त

    7. दुनिया गोल है

    8. मुखौटा

    9. खेल

    10. संतोष का प्यार

    11. दोस्ती में दरार

    12. एक-दूजे के लिए

    13. कॉलेज के दिन

    14. जीवन की असली परीक्षा

    15. सीख

    1. जानें क्यों?

    संतोष अभी बस सात साल का ही है और 1990 का दौर चल रहा है। एक दिन की बात है। संतोष अपने स्कूल में बैठा हुआ था तभी स्कूल के बाहर से एक कड़क आवाज आई ‘अबे कोई है क्या?’। संतोष ने पलट के देखा तो क्या देखता है, एक छः फुट का हट्टा-कट्टा गबरू जवान (राजू) स्कूल के गेट पर जोर-जोर से चिल्ला रहा है। ‘अबे कोई है क्या?’ ‘अबे कोई है क्या?’। संतोष ने मन में सोचा कि ये कौन आदमी है, जो स्कूल में भी इतनी गंदी तरीके से चिल्ला रहा हैं। इसे तो बिल्कुल भी तमीज़ नहीं हैं। बैल के फूफा हो गए हैं लेकिन अकल बिल्कुल न है। संतोष ये मन ही मन बड़बड़ा रहा था।

    कुछ ही देर बाद संतोष ने देखा कि मास-साहब (मास्टर साहब), दौड़े-दौड़े स्कूल के गेट की तरफ जा रहे थे और हाथ जोड़ते हुए अपनी गाँव की बोली में बोले, ‘आप काहे आए, हमें बुलाय लओ होतो, हम खुदई चले आते हुआँ’। यह सब सुनकर संतोष का बालक मन बहुत असमंजस में था। मास-साहब (प्रधान अध्यापक), को हाथ जोड़े खड़े किसी के

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