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Ek Adhyapak
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एक अध्यापक जाति, धर्म, रंग, देश, राज्य व प्रांत को आगे करके शिक्षा देने लगे तो उसके विघार्थी का भविष्य क्या होगा? उस अध्यापक का यह रवैया देखकर उस विघार्थी का जीवन हमेशा नकारात्मकता से भरा रहेगा। उस विघार्थी के जीवन में अंधेरा ज्यादा और उजाला कम होगा। यदि अध्यापक इन सब बुराइयों को लेकर बच्चों को शिक्षा देते हैं तो मैं यही समझती हूं कि वह विघार्थी कभी कुछ ना कर पाएगा या ना करेगा। उसे अपने आपसे बहुत ही ज्यादा संघर्ष करना पड़ेगा, तब जाकर उसको अपनी मंजिल मिल पाएगी या हो सकता है ना भी मिले क्योंकि वह नकारात्मकता और उस अध्यापक की बेरुखी और जटिलता को कभी नहीं भूल पाएगा। वे विघार्थी बचपन से ही डरे—सहमे रहते हैं और यह सिलसिला हमेशा उसके साथ ही चलता रहता है।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateJun 3, 2022
ISBN9789350830246
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    Ek Adhyapak - Sushma Kureel

    एक अध्यापक

    एक अध्यापक जो पूरे विद्यार्थी वर्ग रूपी ब्रह्मांड का सूरज है। अध्यापक संसार को उजाले की तरफ ले जाता है और अंधेरे की तरफ भी। मेरा कहने का अर्थ है कि एक अध्यापक जो स्कूलों, कालेजों, पाठशालाओं में पढ़ाते हैं और कोचिंग देते हैं विद्यार्थियों को हर देश में, राज्य में, कई भाषाओं में। यदि एक अध्यापक अपनी कक्षा में जब पढ़ाता या पढ़ाने जाता है तो उसका विद्यार्थी से कैसा व्यवहार होना चाहिए- गुस्से वाला, प्रेमवाला या ईर्ष्या। मतलब रंग-रूप होना चाहिए, जाति-धर्म या वह विद्यार्थी किस राज्य से संबंध रखता है इस बात को लेकर। यदि वह उसी अध्यापक की भाषा, धर्म और राज्य का होता है या फिर रंग-रूप में भी अधिक सुंदर व चंचलता से भरा होता है तो इन सभी मतों को लेकर एक अध्यापक कक्षा के विद्यार्थी से कैसा व्यवहार कर सकता है।

    मैं किसी और को लेकर यह बात नहीं लिख रही, न मेरी किसी अध्यापक से लड़ाई है। चलिए, मैं अपने ही जीवन की बात करती हूं। जो मेरे साथ हुआ है स्कूल-कालेज, ट्यूशन में- शायद ही किसी के साथ हुआ हो। ईश्वर करे किसी विद्यार्थी के जीवन में ऐसा न ही हो, जैसा कि मेरे जीवन में हुआ। समाज और समाज के लोग अध्यापक को माता-पिता से बढ़कर ईश्वर के बराबर का दर्जा देते हैं। कबीर का एक दोहा है - गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागू पांय। मतलब ईश्वर ने हमें धरती पर भेज दिया। माता-पिता ने हमें जन्म दिया। जीवन जीने की कला, जीवन में संघर्ष करना और आगे बढ़ना, अच्छा-बुरा, अंधेरे से उजाले में लाना, हमें सत्य का मार्गदर्शन कराना, ज्ञान देना यह सारा कुछ एक अध्यापक ही (गुरु) सिखाता है।

    यदि वही एक अध्यापक क्रूर, जाति, धर्म, रंग, देश, राज्य व प्रांत को आगे करके शिक्षा देने लगे तो उस विद्यार्थी का भविष्य क्या होगा? उस अध्यापक का यह रवैया देखकर उस विद्यार्थी का जीवन हमेशा नकारात्मकता से भरा रहेगा। उस विद्यार्थी के जीवन में अंधेरा ज्यादा और उजाला कम होगा। यदि अध्यापक इन सब बुराइयों को लेकर बच्चों को शिक्षा देते हैं तो मैं यही समझती हूं कि वह विद्यार्थी कभी कुछ ना कर पाएगा या ना करेगा। उसे अपने आपसे बहुत ही ज्यादा संघर्ष करना पड़ेगा, तब जाकर उसको अपनी मंजिल मिल पाएगी या हो सकता है ना भी मिले क्योंकि वह नकारात्मकता और उस अध्यापक की बेरुखी और जटिलता को कभी नहीं भूल पाएगा। वे विद्यार्थी बचपन से ही डरे-सहमे रहते हैं और यह सिलसिला हमेशा उसके साथ ही चलता रहता है।

    मेरे अनुभव अनुसार अध्यापक कुछ उन्हीं विद्यार्थियों को पढ़ाने में इच्छुक दिखते हैं जो उन्हीं के राज्य, जाति-धर्म के हों, रंग-रूप से सुंदर हों और चंचलता से भरे हों। कक्षा व कॉलेज में मानो वही दो-चार-दस विद्यार्थी हैं बस, बाकी सब भेड़-बकरी हैं। हाजिरी भी रजिस्टर में रोल नंबर से होती है, नाम तो अध्यापकों को पता ही नहीं विद्यार्थियों के, केवल दस-पांच को छोड़कर। मैं यह सब क्यों लिख रही हूं- शायद मैं अपने दिल की भड़ास समाज के सामने निकालना चाह रही हूं- क्योंकि उस समय मैं अपने अध्यापकों के रवैये के कारण एकदम बंधी हुई थी, कुछ न बोल पाती थी, न ही कुछ कभी कर पाई। फिर मैंने सोचा- कुछ बनूंगी, पर अध्यापक नहीं बनूंगी। इतनी नफरत हो गई थी मुझे अध्यापकों से, पर आज मैं अध्यापक बनना चाहती हूं। क्यों? कारण यह है कि मैंने अपने जेठ (सकठू कुरील) से सीखा कि छात्र से कैसे व्यवहार किया जाता है, कैसे विद्यार्थी को, कक्षा के सभी स्टूडेंटस को अपना बनाकर रखा जाता है। उन्हें एक-एक स्टूडेंट्स के रोल नंबर ही नहीं बल्कि उनके नाम और चेहरे भी याद हैं।

    अध्यापक समाज का सूरज होता है, जो हर एक को बराबर रोशनी देता है, किसी में भी फर्क नहीं करता। मैं सभी अध्यापकों को नहीं जानती पर जिन्होंने मुझे पढ़ाया और मेरे साथ उनका जैसा व्यवहार था- मैं उन्हीं को जानती हूं। अध्यापक और छात्र में हमेशा एक मर्म स्पर्शी रिश्ता होता है। जब मैं पंजाब में पढ़ती थी तो टीचर के घर जाना तो दूर की बात थी, वे ढंग से बात भी नहीं करते थे। लेकिन अब मैंने जो देखा यहां आज दो साल से मेरा मन बहुत खुश हो गया। मेरे जेठ जो डिग्री कॉलेज चित्रकूट मऊ में पॉलीटिकल साइंस के प्रोफेसर हैं, उनका विद्यार्थियों के साथ, लड़का हो या लड़की इतने अच्छे संबंध हैं कि मैं बयान नहीं कर सकती। सभी स्टूडेंट्स घर आते-जाते हैं। लड़के-लड़कियां मेरे जेठ को मानो सर नहीं समझते बल्कि अपने घर के मेंबर की तरह समझते हैं। क्योंकि उनका आपस में हंसी-मजाक करना व डांट खाना, फिर कुछ ही पल में ‘सर-सर क्या करना है?’ इस बात को दर्शाता है। यही कारण है कि व्यवसाय से मुझे नफरत हो चुकी थी, आज जेठ को देखकर मेरे मन में भी एक इच्छा जागी कि मैं भी प्रोफेसर बनूं, कोशिश भी करूंगी प्रोफेसर बनने की और चाहती हूं कि ऐसे ही स्टूडेंट्स के साथ दोस्तों की तरह व्यवहार करूं और जो मेरे जैसे डरे-सहमे विद्यार्थी कक्षा में रहते हैं उन्हें भी मैं आगे लाऊं, उनकी झिझक, शर्म व डर को दूर करने की कोशिश करूं। मैं अब अपने बीते हुए कल यानि स्टूडेंट लाइफ से शुरुआत करती हूं।

    मैं काफी कम उम्र में स्कूल गई। कुछ घटनाओं से संबंधित हल्की-हल्की याददाश्त बाकी है। मैं काफी शरमाती थी। मेरी बहन जो मेरे से दस-बारह साल बड़ी है, उसने मुझे स्कूल में दाखिल करवा दिया तीन-साढ़े तीन साल की उम्र में। मेरी बहन पढ़ नहीं सकी थी- कुछ घर का काम ज्यादा पड़ता था और कुछ दूसरा कारण यह था कि दीदी की कक्षा के किसी लड़के ने कुछ छेड़छाड़ कर दी थी, जब दीदी पांचवीं कक्षा में पढ़ती थी, जिस कारण दोबारा वह कभी स्कूल नहीं गई। खुद नहीं पढ़ सकी लेकिन वह मुझे खूब पढ़ाना चाहती थी। सोचती थी, मैं नहीं पढ़ी तो मेरी बहन ही पढ़ जाए। रोज मैं रोती और दीदी दो-चार थप्पड़ लगाकर स्कूल छोड़ आती। मम्मी को पढ़ने-लिखने से कोई मतलब नहीं था। पढ़ाने-लिखाने का सिलसिला बस दीदी तक ही था। मम्मी लड़का-लड़की में काफी भेदभाव करती थी। बस जो है लड़का ही है, बेटियां तो बस पराये घर की हैं उनका कोई हक नहीं है यहां पर, लेकिन डैडी की सोच मम्मी से अलग थी। वे दोनों को चाहते थे बेटा हो या बेटी। शायद बेटी को ही ज्यादा। वे मुझे कहते ‘बेटी पढ़ लो ताकि अच्छी नौकरी कर सको।’ वे काफी गुस्सैल व नियमों के पक्के थे। घर में किसी को खाली बैठे देख नहीं सकते थे, बस काम-काम-काम। पैरालाइसिस हो चुका था दो बार, पर फिर भी बैठते नहीं थे। कुछ न कुछ करते ही रहते थे।

    जिस स्कूल में मुझे पढ़ने के लिए डाला गया था, उस स्कूल का नाम था- नेशनल मॉडल स्कूल। उस आठवीं तक के स्कूल में टीचर गिनती के तीन-चार ही थे। किसी भी टीचर को मैंने इस स्कूल में एक-दो महीने से ज्यादा टिकते नहीं देखा था। जिसका स्कूल था, बस उसका पूरा परिवार ही संभालता था। मैं जानती हूं कि मैं नई लेखिका हूं दुनिया-समाज के लिए पर, मुझे ऐसा बिल्कुल भी नहीं लगता क्योंकि जब मैं पहली बार स्कूल गई ढाई-तीन साल की उम्र में तब का वह माहौल, वे छोटे-छोटे बैंच-डैस्क, डरी-सहमी-सी मैं। मेरे वे भाव आज भी मेरी आंखों में घूमते रहते हैं। वह समय जब बड़ी मैडम ने कहा था- ‘पूनम! चल किताब निकाल।’ मैं कॉपी हाथ में लेकर होमवर्क चैक कराने के लिए लाइन में खड़ी थी और मेरे हाथ-पैर कांप रहे थे। न मैं किसी से बोलती थी न कोई मेरे से। मैं बस अपने सुंदर से बैग को बार-बार देखती रहती। उससे कभी एक कॉपी निकालती तो कभी दूसरी। डेस्क-बैंच छोटे थे इसलिए बैग को अपनी गोदी में ही रखे रहती थी, जमीन में रखना गंवारा नहीं था क्योंकि सोचती कहीं गंदा न हो जाए, मिट्टी न लग जाए।

    मैं अपने मन के छोटे-से-छोटे भाव को तभी से लिखती आ रही हूं। मुझे आज यह सब लिखना बिलकुल भी नया नहीं लग रहा है। असल में वह पहले के दो-चार दिन ही याद हैं बाकी तो पहली कक्षा से हल्का-हल्का याद है। यशपाल मैडम थी हमारी पहली कक्षा की टीचर। मैं आज से नहीं बल्कि अपने मन के भावों को तब से लिखना चाह रही हूं जब मैं तीन-चार साल की थी, किन्तु सामर्थ्य न होने के कारण मन में उत्पन्न शब्दों को सितंबर, 2009 से माला में पिरोया है या कहिए कॉपी के पन्नों पर उतारा है। तब इतनी समझ भी नहीं थी मुझमें पर अब जीवन के उतार-चढ़ाव ने धीरे-धीरे सब कुछ सिखा दिया है।

    मैं कहां से शुरू करूं- मुझे समझ में नहीं आ रहा है लेकिन फिर भी शुरू तो करना ही है कहीं न कहीं से। तो शुरू करते हैं- मुझे कुछ-कुछ पहला दिन याद है नर्सरी कक्षा का। मेरे पास बैग था-उसमें किताबें-कॉपी थीं। बैग काफी बड़ा था, वह मुझसे संभल नहीं रहा था। पूरी कक्षा बच्चों से भरी थी।

    स्कूल में जहां नर्सरी कक्षा बनी हुई थी वह काफी बड़ा रूम था। गर्मी भी थी काफी उस दिन। स्कूल का वह पहला दिन था। कभी मैं यह किताब निकालती तो कभी दूसरी और हाथों से बैग फिसलने पर उसे नीचे जाने से रोकती। तभी एक भारी-भरकम आवाज आई- ‘चलो सारे बच्चे कॉपी निकालो। सभी लाइन से लेकर आ जाओ।’

    मैंने पंजाब में पढ़ाई की क्योंकि काफी समय पहले मेरे डैडी काम की तलाश में गांव से निकलकर जालंधर में आकर बस गए थे। मेरे दोनों बड़े भाइयों और बहन का जन्म गांव में ही हुआ था। जब डैडी का थोड़ा-बहुत कामकाज चलने लगा तब डैडी मम्मी और हम तीनों भाई-बहन को भी गांव से जालंधर ले आए। बड़ा भाई आज से ग्यारह साल पहले भगवान के पास चला गया। वर्ष 1979 में जालंधर में मेरा जन्म हुआ। मेरे जन्म से पहले डैडी का कामकाज नहीं चलता था, पर मेरे जन्म के साथ हम जुड़वां भाई-बहन हुए थे और मेरे साथ का जो भाई था वह जन्म लेने से पहले ही खत्म हो गया था और मैं बच गई। हमारे देश में न सिर्फ यूपी, बिहार बल्कि कहीं भी देखिए लड़कियों से ज्यादा लड़कों को ही माना जाता है। मेरे साथ भी वही हुआ। लड़का खत्म हो जाने के कारण घर के लोग काफी उदास थे।

    मम्मी बताती है- तुझे कोई हाथ तक लगाने को राजी नहीं था। तेरी छठी भी मनाने के लिए डैडी से काफी झगड़ा करना पड़ा था। डैडी कभी हाथ लगाना तो दूर, तेरी तरफ देखते तक नहीं थे। बड़ी मुश्किल से दो-चार लोगों को बुलाकर तेरी छठी की थी। डैडी तो मान ही नहीं रहे थे और मेरा नाम भी लगभग एक साल बाद रखा गया था। कोई नाम नहीं रखा था- बस मैं ही ‘बिटिया’ कहकर बुलाती थी। फिर जब धीरे-धीरे डैडी का कामकाज बढ़ने लगा, बिजनेस बढ़ने लगा तब डैडी ने मुझे हाथ लगाना शुरू किया और नाम (सुषमा) रखा, वरना मुझे कोई नहीं छूता था।

    इधर डैडी का कामकाज काफी बढ़ गया। पूरी मार्केट में रामपाल मंत्री के नाम से पहचाने जाने लगे। सुबह जब भी मैं स्कूल जाती तो पहले मेरे हाथों से गल्ले में बोहनी करवा लेते फिर जाने देते।

    इधर मम्मी को किसी बात पर गुस्सा, आता तो मम्मी कहती- ‘जब तेरे साथ का वह मर गया तू भी मर जाती।’ यह मैं हमेशा से सुनती आ रही थी। लड़के के मरने के कारण मम्मी को तुरंत हॉस्पिटल ले जाया गया, मुझे भी ले जाया गया होगा क्योंकि डिलीवरी घर में हुई थी। लड़के के मरने का इतना गम था कि किसी ने भी मेरा जन्म प्रमाणपत्र ही नहीं लिया।

    इधर पैसा जैसे-जैसे बढ़ने लगा वैसे-वैसे ही मेरे प्रति घरवालों का प्यार भी बढ़ने लगा। मैं जो भी मांगती, जिस समय भी मांगती, चाहे आधी रात ही क्यों न हो मेरे लिए वह चीज हाजिर हो जाती। बस अब स्कूल का समय शुरू हो गया। घर में मैं काफी शरारती थी। दीदी की पढ़ाई भी छूट गई थी। एक बार दीदी की थाइज में किसी लड़के ने स्कूल में हाथ रख दिया तो दीदी दोबारा स्कूल गई ही नहीं और न ही घर में किसी ने कहा कि स्कूल जाओ। घर का काम ही इतना ज्यादा था कि बस दीदी काम में दबकर रह गई। पैसा भरपूर था पर पता नहीं, किस्मत की बात थी जो दीदी पढ़ न सकी और उसने मुझमें अपने आपको देखा और मुझे तीन साल की उम्र में ही स्कूल भेजना शुरू कर दिया। रोज सुबह उठाती, प्यार से नहलाती, टिफिन देती और तैयार करती। उसे जो थोड़ा-बहुत जैसा आता वह होमवर्क करवाती तथा स्कूल छोड़ने और लेने भी जाती। फिर जब मैं दूसरी कक्षा में गई तब तक दीदी की शादी हो गई और मैं अकेली रह गई।

    मम्मी को कोई ज्यादा खास मतलब नहीं था बेटियों के पढ़ने-लिखने से। बस खुद फ्री रहें, बाहर प्रपंच लगाए औरतों के साथ और बेटियां घर का काम करें। बाकियों के बारे में नहीं कहती किन्तु मेरी मम्मी की तो यही आदत थी। कहने को भाभी भी थी पर वह थी भी या नहीं उसका मुझे कभी एहसास ही नहीं हुआ। वह कभी भाई व बच्चों को लेकर अलग हो जाती तो कभी साथ रहने लग जाती। वैसे मैंने जब से होश संभाला दीदी की शादी के बाद तो कभी भाई-भाभी को साथ में रहते हुए नहीं देखा। मुझे नहीं पता बड़े भाई-भाभी का मतलब क्या होता है।

    स्कूल के शुरुआती दिन मुझे आज भी याद हैं-वह भारी-सी पंजाबी आवाज मेरे कानों के आर-पार हो गई और देखा की मोटी-सी टीचर सामने कुर्सी पर बैठी है सूट पहने हुए सांवली-सी। मैं डर-सी गई और कभी यह किताब निकालती तो कभी वह। मुझे बहुत डर लगता था सुबह स्कूल जाने में।

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