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That Hardly Happens To Someone
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That Hardly Happens To Someone

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About this ebook

जीवन मे सभी को प्यार होता है फिर चाहे वह प्यार करियर से हो, खेल, संगीत, परिवार या किसी व्यक्ति से क्यों न हो। राजीव की यात्रा छोटे-से गांव से शुरू होकर कस्बे, शहर से होती हुई महानगर तक के सांस्कृतिक और सामाजिक माहौल में रंगी हुई है। वह जीवन में उठाए गए अपने हर कदम से आगे तो बढ़ा पर असफलता ने उसे दो कदम पीछे भी धकेला। उसकी जिंदगी की उलझनों को सुलझाने के लिए कोई गणित काम नहीं आया। वास्तविकता के कैनवस पर जिंदगी और प्यार के बारे में लिखी गई ऐसी कहानी जो सबको अपनी जैसी लगती है और अलग भी। शायद इसलिए इस कहानी को दैट हार्डिल हैपन्स टू समवन का नाम दिया गया। इस पुस्तक के लेखक राजेश सिंह ने भारतीय वायुसेना में चार वर्ष और भारतीय स्टेट बैंक मे आठ वर्षों तक भारत के विभिन्न स्थानों पर काम किया। वे एक अच्छे बांसुरी वादक होने के साथ साथ क्रिकेट, गायन, नृत्य, चित्रकला एवं अन्य खेलों में भी रूचि रखते हैं। हाल ही में उन्होंने आई.आई. एम.ए. से एक वर्ष का रेजीडेंशियल एक्जीक्यूटिव प्रोग्राम पूरा किया। वे अहमदाबाद (गुजरात) मे अपनी पत्नी व बेटी के साथ रहते हैं।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateOct 27, 2020
ISBN9789352966295
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    That Hardly Happens To Someone - Rajesh Singh

    गई।

    एक

    तकरीबन 28 साल पहले; पूर्वी उत्तरप्रदेश के छोटे से खूबसूरत गाँव में मेरा जन्म हुआ;, जिसकी आबादी करीब पाँच सौ थी। गाँव के पश्चिमी छोर पर एक बड़ा-सा ताल था। गाँव में खेती-बाड़ी के सिवा कोई दूसरा धंधा नहीं होता था। गाँव में कोई भी सरकारी नौकरी में नहीं था। गन्ने की नकदी फसल से ही गाँव वालों का कामकाज चलता था। जमीन उपजाऊ थी लेकिन मौसम की मार की वज़ह से, कुछ चुनिंदा फसलें ही उगानी पड़ती थी। मजदूर परिवारों को भी जीनेखाने की विशेष चिंता नहीं करनी पड़ती थी पर ये दिहाड़ी पर काम करने वाले लोग अक्सर ब्याह-शादी, जन्म-मरण, बीमारी या कलह-क्लेश की वज़ह से कर्जे के जंजाल में फँसे ही रहते। खेती से कोई खास बचत नहीं होती बल्कि उसे अगली फसल के लिए लगाना पड़ता था। इस गाँव में भी दूसरे भारतीय गाँवों की तरह अच्छाइयाँ और बुराइयाँ मौजूद थी। लोगों को शराब की बुरी लत थी, तकरीबन आधा गाँव इसकी चपेट में था। इसी वज़ह से और भी बुराइयाँ आ गई थीं। लोग छोटी-छोटी बातों पर दंगा करते। ब्याहे हुए लोगों के दूसरों से नाजायज़ रिश्ते, नीच जात की औरतों या दूसरे गाँव की लड़कियों से नाजायज संबंध बनाना आम बात थी। कई बार जात-बिरादरी के पीछे भी भयंकर लड़ाइयाँ होतीं। करीब पाँच कि. मी. की दूरी पर ही थाना था- जहाँ हर छोटे बड़े काम के लिए पूजा चढ़ानी पड़ती थी। चाहे एफ. आई. आर. दर्ज करानी हो, किसी को बंद करना हो या किसी एक गुट के कहने पर दूसरे को पीटना हो। ये गाँव, उन सभी गाँवों की सूची में सबसे ऊपर था- जो पुलिस स्टेशन के लिए मुर्गे (ग्राहक) लाता था। कुछ परिवारों के लिए तो कोर्ट-कचहरी भी आम बात थी।

    मेरे परिवार के पास आठ एकड़ जमीन थी, जिसमें से आधी; हर दूसरे-तीसरे साल बाढ़ में घिर जाती। हमारे पास गाँव के औसत परिवारों से ज्यादा बेहतर जमीन-जायदाद थी। मेरे पुरखों का गाँव पर काफी दबदबा रहा था पर पिछली तीन पीढ़ियों से खेती और घर के बँटवारे और जमींदारी प्रथा खत्म होने की वज़ह से यह असर काफी घट गया था। मेरे दादा, अपने वक्त के होशियार लोगों में से थे। जमीन-जायदाद और फौजदारी के मामलों में अच्छी जानकारी रखते थे। लेखपाल होने की वज़ह से उनकी ज्यादातर जिम्मेवारियाँ; बेटियों के ब्याह व मकान बनाने जैसे काम, बख़्शीश या रिश्वत की ऊपरी कमाई से ही पूरे हुए थे। लेकिन रिश्वत कभी अकेले नहीं आती। ये अपने साथ कई बुरी आदतें भी लाती हैं, जिनमें से शराब की लत भी एक थी। वे आसपास के देहात या शहर की औरतों के पास भी आते-जाते थे। बस एक अच्छी बात यह थी कि वे अपने परिवार के लिए अपना फर्ज समझते थे; यही काफी था। उन्होंने पापा की पढ़ाई पर पूरा ध्यान दिया और बेटियाँ भी अच्छे घरों में ब्याहीं।

    वे घर पर पूरा दबदबा रखते थे, उनके कहे बिना तो पत्ता भी नहीं हिल सकता था। पापा हाई स्कूल तक तो अच्छे नतीजे लाते रहे पर इसके बाद पढ़ने-लिखने से उनका मन उचटने लगा। उन्हें लगने लगा कि जिस लड़के के बाप की इतनी कमाई हो या इतनी जमीन जायदाद हो, उसे पढ़ने की क्या जरूरत है? इंटरमीडिएट के बाद उनका ब्याह कर दिया गया और वे खेती-बाड़ी संभालने लगे। तब तक दादा कुछ लापरवाहियों की वज़ह से, अपनी नौकरी से हाथ धो चुके थे पर वे अनपढ़ लोगों को राय-मश्विरा दे देकर अपना खर्चा निकालते रहे। पापा हमेशा दादा का कहा मानते, वे उनके सामने कभी नहीं बैठते थे और न ही उनसे नज़रें मिला कर बात करते। सभी दादा के नियंत्रण में थे, किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि उनकी बुरी लतों पर अँगुली उठा सके।

    पापा ने खेती-बाड़ी संभालनी शुरू कर दी थी पर उन्हें दादा की हरकतें भी पता लगने लगी थीं। गाँव के लोग पापा तक कोई बात पहुँचाने में देर नहीं लगाते थे। वे उन्हें कई तरह से भड़काने की कोशिश करते। मेरी दादी एक धार्मिक महिला थी, वह दादा को बड़ा मान देती थीं। शायद पति को भगवान के बाद मानने वाली पौराणिक कथाओं का उन पर गहरा असर था। शायद ये कहानियाँ कुछ बुद्धिमान-पुरुषों ने ही लिखी होंगी। जब भी वे दादा को कुछ समझाना चाहतीं तो उन्हें फटकार खा कर चुप होना पड़ता।

    मैं 6 साल का था, एक छोटा भाई और बहन भी थे। मैं सारा दिन स्कूल, घर और गाँव में खेलता फिरता। मैं अक्सर देखता कि शाम को दादा घर के बीचों बीच बैठे किसी न किसी को गालियाँ दे रहे होते। दादी या पापा के टोकने से मामला और बिगड़ जाता। पापा, दादा की हरकतों पर टोक लगाने लगे तो दादा के लिए बरदाश्त करना मुश्किल हो गया। घर में रोज पापा और दादा में क्लेश मचता। दादा तो पापा पर गालियों की बौछार कर देते। पापा दादा से रखैल से नाता तोड़ने को कहते तो वे पापा को उनकी पढ़ाई में असफलता या औकात का ताना देते। दादा बड़ी शान से बताते कि किस तरह परिवार से अलग होने के बावजूद उन्होंने अपनी सारी जिम्मेवारियाँ निभाई थीं। वे अक्सर जमीन-जायदाद बेचने की धमकी भी देते।

    बेचने की क्या जरूरत है, सब आपकी शौक की भेंट हो जाएगा। पापा धमकी का जवाब देते।

    दादा के लिए रोज की बक-झक से अच्छा था कि वे अपनी रखैल के पास चले जाएँ। अब वे दो-तीन दिन तक गायब रहने लगे। लौटते तो जम कर झगड़ा होता। घर का माहौल बड़ा बुरा हो गया था पर बच्चे सब कुछ आसानी से भूल जाते हैं, मेरे साथ भी तो ऐसा ही था। उनकी लड़ाई के बाद तो मैं आजाद पंछी की तरह घूमता। मुझे याद है, पापा ने एक बार दादा के हाथ में तेज हथियार थमा कर कहा था मेरा गला काट दो! यही सब करना था तो मुझे पैदा ही क्यों किया? उस रात दस बजे तक दरवाजे पर भीड़ लगी रही थी। हर कोई रो रहा था और मदद माँग रहा था।

    दिन व दिन हालात बिगड़ते गए। दादा अपनी रखैल के पास ही रहने लगे, वे तभी लौटते जब ग्राहकों या कर्जदारों से पैसा वसूलना होता। इस दौरान वे बैंक और दूसरी जगह से भी कर्जा ले लेते। पापा की रोकने की सारी कोशिशें नाकाम रहीं।

    अब पापा, परिवार को अपना तमाशा दिखाने लगे। एक दिन दोपहर को बाजार से शराब खरीद लाए। दरवाजे के बाहर बैठ कर, सबके सामने पीते रहे। बुजुर्गों से भी नहीं कतराए। कोई भी पास जाता तो चिल्लाते खबरदार! मेरे पास मत आना। वो शराब नहीं छोड़ते तो मैं भी पीऊँगा। मुझे रोकना है तो पहले जा कर उनको रोको।

    ये फिल्मी फार्मूला यहाँ चलने वाला नहीं था। अगले दिन दादा लौटे तो सब जान कर भी, उन पर कुछ असर नहीं पड़ा। वे बोलते रहेः तू मुझे नहीं बदल सकता। तेरा अपना परिवार है जा कमा-खा। मैं तेरी जिम्मेवारियाँ क्यों लूँ?

    दोनों के बीच आधी रात तक तीखी बहस चलती रही। अगले दिन दादा फिर वहीं लौट गए। पूरे घर में दम घोंटूं माहौल था। अंत में पापा ने उस औरत के पास जाने का फैसला किया।

    वे जानते थे कि उस औरत का घर मुस्लिम इलाके में था। इसलिए वहाँ तमाशा करने में खतरा था पर वे तो कुछ भी करने को तैयार थे। उस दिन की घटनाएँ मुझे आज भी नहीं भूलतीं। पापा ने मेरे सामने ही अम्मा को कहाः अगर कल तक सब ठीक न हुआ तो हममें से कोई अगली सुबह नहीं देखेगा।

    अम्मा ने बहुतेरे हाथ-पाँव जोड़े, रोईं, मैं भी अनजान होने के बावजूद रोता कहा हालांकि मुझे आखिरी वाक्य समझ आ गया था।

    पापा ने वहाँ पहुँच कर देखा कि दादा वहाँ नहीं थे। उस औरत के दो किशोर लड़के थे। भगवान जाने किस लालच ने उसे दादा की ओर खींचा था। पापा, दादा के एक दोस्त के पास गए जो पहले उनके साथ काम भी करते थे। उन्होंने चपरासी को एक मारवाड़ी आदमी के पास भेजा, जो दोनों का दोस्त रह चुका था। चपरासी ने आ कर बताया कि दादा वहाँ भी नहीं थे। पापा ने यकीन नहीं किया। वे खुद वहाँ पहुँचे तो मारवाड़ी ने उन्हें अंदर जाने से रोका। पापा को उस घर के बारे में पता था। वे भाग कर सीढ़ियाँ चढ़ गए।

    बड़े कमरे में दादा नहीं दिखे तो वे स्टोर रूम की तरफ भागे। वहाँ कोने में दादा की रखैल खड़ी थी और वे उसके पीछे छिप रहे थे। पापा के आँसू टपक पड़े। उनके मुँह से ‘बाबूजी’ के सिवा कुछ नहीं निकला। फिर वे बोले; ये दिन देखने से पहले हम मर क्यों नहीं गए या हमने आत्महत्या क्यों न कर ली! आज आप मेरे साथ न चले या ये सब न छोड़ा तो ये कुतिया और हम सब यहीं मरेंगे! पर बेहतर तो यही होगा कि आप लौट चले।’ दादा काफी हद तक संभल गए थे लेकिन पापा के गुस्से और हालात की नज़ाकत को देखते हुए नीचे उतर आए। पापा रखैल की ओर मुड़े कमीनी! मेरा तो सब कुछ दाँव पर लगा है, अगर मैंने सुना या पता चला कि तू दोबारा उनसे मिली है तो वह तेरी जिंदगी का आखिरी दिन होगा।"

    वह भाग कर दरवाजे से निकल गई।

    शाम को मैं दोस्तों के साथ सड़क किनारे खेल रहा था। तभी साइकिल पर पापा और दादा आते दिखे। मैं पागलों की तरह उनकी तरफ दौड़ा।

    "दादा, मेरी किताबें लाए?’ मैंने दादा को देख कर पूछा। छोटा बच्चा होने की वज़ह से मैं सुबह की सारी बातें भूल गया था। उनकी तरफ से जवाब न मिलने पर मैंने पापा को देखा। उनके आँसू बह रहे थे। मुझे एहसास हो गया कि फिर कुछ गड़बड़ हुई हैं मैंने खेलना छोड़ा और घर की राह ली।

    घर में तो हालत और भी खराब थी। पापा ने दादी की ओर सख्त चेहरा घुमा कर कहा, आज मैंने वो दिन देखा है, जो शायद ही कभी किसी बेटे ने इस दुनिया में देखा होगा। जरा पूछो, इतने सयाने और इज्जतदार इंसान हो कर भी ये ऐसी शर्मनाक हरकतें क्यों कर रहे हैं? इन्होंने घर की इज्जत खाक में मिला दी है। शुक्र है, घर में कुँवारी बहनें नहीं है, वरना उन्हें ब्याहना मुश्किल हो जाता। मैं तो किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं रहा।

    दादा इतनी आसानी से हार मानने वाले नहीं थेः तुमने सरेआम शहर और बाजार में मेरी इज्जत उछाली है, अब तुम्हें असली रूप दिखाऊँगा। देखूँ तुम मुझे रोकने के लिए क्या कर सकते हो?

    गर्मागर्म बहस का दौर जारी रहा। पापा का चेहरा लाल पड़ गया था; वे भीतर जा कर अम्मा से बोले‒ तैयार हो जाओ, हम अभी इस नर्क से निकलेंगें।’

    "क्यों पगला रहे हो? मामला ठंडा पड़ने दो। हड़बड़ाहट में कुछ न करो।’ अम्मा ने कहा।

    पापा अपनी आन के पक्के थे‒ अभी नहीं चलना चाहती तो मत आ। जब भी जी चाहे, बच्चे ले कर किसी के साथ बंबई आ जाना। अगर वो भी न कर सकी तो ये जहर खा लेना।

    पापा ने जहर की शीशी अम्मा के आगे फेंक दी। किसी पड़ोसी ने जबरदस्ती अम्मा से जहर छीना।

    वो बड़ी भयानक रात थी। मैं अपना नन्हा दिमाग लड़ा रहा था जबकि छोटे भाई-बहन तो कुछ भी समझने की स्थिति में नहीं थे। मैं अगले दिन भी डरा हुआ था, मैंने भगवान से प्रार्थना की कि घर में लड़ाई न हो। 10 बजे के करीब पापा कहीं से आए, उन्होंने अम्मा से सोने का हार माँगा ताकि उसे बेच कर घर छोड़ने का इंतजाम कर सके। एक बार फिर से तमाशा शुरू हो गया। दादा को छोड़कर सभी रोने-चिल्लाने लगे। दादा ने आग में घी डालाः- इसे बाहर का स्वाद चखने दें। महीना भर भी कहीं नहीं टिक पाएगा। सारा हीरोपना निकल जाएगा और ये मेरे पैरों में औंधे मुँह पड़ा होगा। मैंने अपनी जिंदगी में ऐसे बहुत से देखे हैं अब पापा की बारी थीः- मैं कसम खाता हूँ कि चाहे बंबई में भूख से मर क्यों न जाऊँ, लौट कर नहीं आऊँगा। मेरी बात याद रखना? दोबारा लौट कर उस औरत के पास गए तो हम सबका मरा मुँह देखोगे।

    दादा चुप रहे। पापा ने दादी के चरण छुए। हर माँ की तरह उन्होंने भी आशीर्वाद में कुछ शब्द कहे और दीवार थाम कर बैठ गई। पहली बार उनका इकलौता लड़का घर से दूर जा रहा था।

    पापा वहाँ जा खड़े हुए; जहाँ दादा खड़े थे। घर से जाने से पहले पिता को प्रणाम करना भी तो जरूरी था। आपका बेटा बन कर जीने से तो मौत भली थी पर बदकिस्मती से मुझे अपने बाल-बच्चों के लिए जीना पड़ेगा। हाँ, अगर आपके कहें अनुसार मैं कुछ न कर सका तो पहले वाला विकल्प ही अपनाऊँगा, पापा दादा के पैरों में झुक गए। दादा के जवाब का इंतजार किए बिना, वे बैग उठा कर निकल गए।

    दादा के चेहरे पर मिले-जुले भाव थे। वे इतने लोगों के सामने, अपने बेटे के लिए प्यार नहीं दिखाना चाहते थे और दिल पर अब भी दिमाग का कब्जा था। मैं भाग कर दरवाजे के पास पहुँचा और पापा के पाँव छू कर बोला।

    पापा, वापिस आ जाना। मैं बहुत डर गया था।

    उन्होंने नम आँखों से कहाः- हाँ, मैं लौटूँगा, अपने भाई-बहन का ध्यान रखना, हालांकि मुझे बात समझ नहीं आई पर मैंने गर्दन हिला दी।

    पापा के जाने के बाद दादा को छोड़ कर सभी सुबक रहे थे। भीतर ही भीतर उन्हें भी लाडले बेटे से बिछोह का दुख था। वे कमरे में चले गए; शायद वे अपना उदास चेहरा दिखाना नहीं चाहते थे या हमारे मायूस चेहरे देख नहीं सकते थे। वे उन पलों को याद कर रहे थे, जब उन्होंने पापा को ‘मुंसिफ’ या ‘मैजिस्ट्रेट’ बनाने का सपना देखा था। जब पापा हाई स्कूल से फर्स्ट डिवीजन में पास हुए थे तो कैसे वे स्वयं उसका सामान अपने सिर पर लाद कर बड़े स्कूल में दाखिला करवाने गए थे। कैसे उन्होंने एक आज्ञाकारी पुत्र खो दिया।

    वे दो दिन तक कहीं नहीं गए, हम भाई-बहनों को बुला कर बतियाते रहे। उन्हें याद था कि मेरे जन्मदिन पर कैसी बढ़िया दावत हुई थी। अतीत की यादें उन्हें बुरी तरह डस रही थीं।

    अगले दिन वे बाजार गए और माँस ले आए। वे मांसाहार के शौकीन थे और कई व्यंजन तो अपने हाथों से बनाते थे। वे बाजार से शराब की कुछ थैलियां भी लाए थे। घर में कोई भी माँस पकाने या खाने को तैयार नहीं था। उन्होंने मेरी मदद से स्टोव पर खुद पकाया। फिर दादी को बुलाया, जो तीन दिन से उनसे चुप लगाए बैठी थीं।

    वे बोलेः- वो मेरा बेटा भी है। मैं भी उसके लिए तड़प रहा हूँ। फर्क इतना है कि तू रो सकती है, मैं रो नहीं सकता। फिक्र न कर, वो लौट आएगा। उन्होंने दादी के साथ-साथ अपने को भी तसल्ली दी।

    तुमने अपनी आदतें न बदलीं तो वह भी अपने कहे से पीछे न हटेगा। दादी ने कहा।

    माना मेरी गलती है, मेरी वज़ह से परिवार को काफी भुगतना पड़ा। मैं सब ठीक करने की कोशिश करूँगा। दादा ने पछतावे भरे लहजे में कहा।

    हमारे नजदीकी रिश्तेदार बंबई में रहते थे। पापा गोदी (डॉकयार्ड) में काम करने चले गए वहाँ अपनी हिम्मत और हुनर के बल पर एक ही महीने में "फिटर’ की नौकरी पा ली। पैसे अच्छे मिलते थे, उन्हें काम पसंद आ गया। रिश्तेदार ने खत भेजा कि पापा अपने परिवार को वहाँ बुलाना चाहते हैं। दादा ने जवाब नहीं दिया। उनके पास जवाब देने के लिए शब्द ही कहाँ थे? इन दो महीनों में, उनमें काफी बदलाव आया था। वे उस औरत के पास नहीं जाते थे और शांत रहते थे। मेरी ट्यूशन लगा दी। जो लोग बंबई जाते, वे पापा की खबरें लाते रहते।

    पापा के लिए नौकरी की इतनी अहमियत नहीं थी। वे चाहते थे कि दादा पहल करें। आखिरकर किसी ने बीच में पड़ कर समझौता-सा कराया। पापा को गए छः महीने हो चुके थे। पहले से सब ठीक था बस दादा शाम को शराब पीते थे। वे घर की पहले से भी अच्छी देख-रेख कर रहे थे।

    सर्दियों की एक शाम, पापा कोई खबर दिए बिना अचानक आ गए। दादा खाने के बाद हाथ धो रहे थे। पापा ने पाँव छुए तो दादा बोले दीर्घायु हों फिर उन्होंने दादी को पुकारा देखो, बाबू आये हैं, इसके लिए कुछ खाने को पका दो। उन्होंने पापा को लाड के नाम से पुकारा था और उनकी आवाज में हैरानी के साथ-साथ खुशी भी शामिल थी।

    *

    दो

    छोटी-सी जिंदगी में पहली बार मुझे अपने घर में खुशी का एहसास हुआ। हालांकि कर्जों का बोझ तो नहीं घटा था पर बाकी चीजें संभलने के बाद इसकी इतनी परवाह नहीं रह गई थी।

    मैं पढ़ाई में काफी तेज था, शायद ये पुश्तैनी असर भी था। दादा और पापा भी अपनी पढ़ाई में काफी तेज़ थे और मैं इसका अपवाद नहीं था। मैं गाँव के प्राइमरी स्कूल में जाने लगा। तीसरी कक्षा, के बाद मेरा दाखिला मांटेसरी स्कूल में कराया गया, वहाँ माँ-बाप के लिए अंग्रेजी का बड़ा खिंचाव था। स्कूल गाँव से तीन कि. मी. दूर था। पहले साल मेरे गाँव से दस बच्चों ने दाखिला लिया। मुझे हमेशा सबसे आगे रहने की होड़ रहती थी। इसलिए मुझे कभी दूसरे स्थान पर आना पसंद नहीं था।

    हमारे साथ एक खूबसूरत लड़की प्रिया भी थी। हमारे दल में और लड़कियां भी थीं। खुशी, दुःख, उदासी, प्यार, प्रीत, जलन व कुढ़न आदि इंसानी विशेषताएँ, जिंदगी के शुरूआती दौर में ही कब प्रविष्ट हो जाती हैं कोई जान भी नहीं पाता। बाकी सभी लड़कियाँ प्रिया से उसकी तेज़ जुबान, अपनी बात खुलेपन से कहने की आदत या उसकी खूबसूरती से कुढ़ने की वज़ह से अलग ही रहतीं। मुझे अक्सर उनके बीच का पुल बनना पड़ता था, प्रिया की तरफ से बोलना भी पड़ता। वह मेरे साथ पढ़ती थी और हमारे बीच अच्छी दोस्ती थी। आवाज़ अच्छी होने की वज़ह से मैं अक्सर फिल्मी गीत गुनगुनाता "मुझे पीने का शौक नहीं, पीता हूँ गम भुलाने को (फिल्म- कुली); साथ जीएँगे, साथ मरेंगे; मर कर हम-तुम लैला; मरने से नईयो डरना (फिल्म-लैला)। मुझे गानों का मतलब तक नहीं पता था लेकिन इतना पता था कि उन्हें सुन कर प्रिया खुश होती थी और उसके लिए गाने का मज़ा ही कुछ और था।

    दिन बड़ी खुशी से बीत रहे थे। एक साल बीतते ही, बाकी बच्चे प्राइमरी स्कूल में लौट आए। सिर्फ मैं और प्रिया मांटेसरी स्कूल में पढ़ रहे थे। लोगों ने कहा कि वहां बच्चों की तालीम सही तरीके से नहीं हो पा रही थी और दूर भी काफी था जबकि हकीकत यह था कि वहाँ की फीस काफी ज्यादा थी।

    1984, तक रेडियो जैसी किसी चीज़ का नाम लिया जाने लगा, जिसमें बोलती तस्वीरें दिखती थीं, तभी मैंने पहली बार "टी. वी.’ का नाम सुना। स्कूल के पास गाँव में, दो-तीन बड़े जमींदारों के घर श्वेत-श्याम टी. वी. थे। मैं इतना छोटा था कि अकेले देखने नहीं जा सकता था और कार्यक्रम भी शाम को शुरू होते थे।

    उन जमींदारों के बच्चे टी. वी. की बातें करते तो प्रिया बड़े गौर से सुनती। इससे मैं मायूस हो जाता। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद स्कूल में छुट्टी हुई तो मैंने प्रिया से कहा कि वो घर पर न बताए। हम दोनों टी. वी. देखने चले गए, जिस पर सारा दिन भजन और प्रार्थनाएँ आती रही। हमें वे बोलती तस्वीरें देख कर बड़ा मज़ा आया।

    जब भी मैं किसी ब्याह-शादी के मौके पर जाता तो औरतों द्वारा गाए हुए गीत याद करने की कोशिश करता। वापिस लौटकर मैं उन्हें प्रिया के लिए गाता और कॉपी में लिख देता। मैं अक्सर स्वेटर बुनना सीखने की भी कोशिश करता ताकि उसे प्रभावित कर सकूँ।

    कुछ समय बाद हमारे गाँव में भी टी. वी. आ गया। मेरी तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मैं चित्रहार’ और फीचर फिल्म’ देखने जाता। अगले दिन प्रिया को फिल्म की कहानी और गाने सुनाता। मैं अपने कमरे में नाचने का अभ्यास भी करता। फिल्मों और गीतों का भूत दिमाग में घुसा हुआ था।

    दिन तेजी से बीत रहे थे। मुझे चिंता थी कि पाँचवीं के बाद जब हम जूनियर हाई स्कूल में जाएँगे तो साथ रह जायेंगे या नहीं क्योंकि प्रिया के पिता जी ने उसे पढ़ाई के लिए शहर भेजने का फैसला कर लिया था। वह शहर में मामा के यहाँ पढ़ने चली जाती तो मुश्किल से महीने में एकाध बार मिलने का मौका मिल पाता।

    गाँव में ब्याह था, मैं भी दूसरे बच्चों की तरह खाने-पीने और नाचने के लिए बेताब था। इस छोटी जाति के ब्याह में दूल्हा 11 बरस का था और दुल्हन "गुलाबी’ करीब 17 बरस की थी। ऐसी शादियों के लिए तर्क दिया जाता था कि दुल्हन दूल्हे के घर 7-8 बरस बाद जाएगी। शाम को बारात आ पहुँची, मैंने भी दोस्तों के साथ मिल कर दूल्हे की पालकी को घेर लिया।

    मैंने अपने दोस्त रमेश से कहा "अरे, ये तो बड़ा छोटा है। इतनी जल्दी शादी कैसे हो रही है?’

    ‘तुम तो कुछ नहीं जानते। शादी तो कभी भी हो सकती है। शादी के बाद, इंसान जल्दी बढ़ता है। 6-7 साल में वो भी गुलाबी जितना लंबा हो जाएगा, फिर उसे अपने घर ले जाएगा।’ मुझसे दो साल बड़े रमेश ने कहा।

    मैंने डोली में झाँक कर दूल्हे से पूछाः- अंग्रेजी लिखनी आती है। 20 तक पहाड़े आते हैं? मैं रौब मारने की कोशिश में था।

    "नहीं, मैं तो प्राइमरी स्कूल में

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