मेरा भी एक गाँव है
By संजय कुमार
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About this ebook
लेखक बचपन में हर साल गर्मी की छुट्टियों में, छठ पर्व में या किसी अन्य मौके पर गाँव जाया करते थे। नौकरी के व्यस्त जीवन ने उन्हें गाँव से दूर कर दिया। इस पुस्तक में लेखक अपने बचपन में गाँव में बिताए पलों को याद करते है। वे हसीन पल जो उन्होनें रिश्तेदारों, दोस्तों, और गाँववालों के साथ बिताए। वे प्रकृति प्रेमी भी हैं, इस पुस्तक में कई जगह इसकी झलक मिलती है। वो पर्व-त्योहार खुल कर मनाते हुए नज़र आते हैं। उन्होनें अनेकों अनुभव का जिक्र किया है जो गाँव में ही मुमकिन हो सकता है। लेखक ने इस बात का भी उल्लेख किया है कि आने वाले समय में क्यूँ लोग गाँव में ही रहना पसंद करेंगें और गाँव में क्या-क्या संभावनाएँ है? यह पुस्तक लोगों का गाँव के प्रति जो नज़रिया है उसे एक नया दृष्टिकोण देगा, साथ ही जो लोग अपने गाँव से कट चुके है, उनलोगों को गाँव के साथ जुड़ने कि एक ठोस वजह साथ एक उम्मीद भी देगा।
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मेरा भी एक गाँव है - संजय कुमार
मेरा भी एक गाँव है
BY
संजय कुमार
pencil-logo
ISBN 9789354581960
© Sanjay Kumar 2022
Published in India 2022 by Pencil
A brand of
One Point Six Technologies Pvt. Ltd.
123, Building J2, Shram Seva Premises,
Wadala Truck Terminal, Wadala (E)
Mumbai 400037, Maharashtra, INDIA
E connect@thepencilapp.com
W www.thepencilapp.com
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DISCLAIMER: The opinions expressed in this book are those of the authors and do not purport to reflect the views of the Publisher.
Author biography
लेखक पेशे से एक बैंकर और लेखक हैं। इनके लेख बैंक के गृह पत्रिकाओं मे प्रकाशित होते है। एक लंबे समय से यह ब्लॉग भी लिखते आ रहे है।
इनकी पहली पुस्तक 'The process of achievement-a practical approach to achieve your goals' पाठकों ने बहुत पसंद किया और सराहा।
इनकी लेखनी सहज़, सरल और प्रेरणादायक होती है।
पढ़ने-लिखने के अलावा साइकलिंग, मैराथॉन, और प्रकृति के साथ समय बिताना पसंद हैं।
संप्रति अपनी पत्नी इन्दु किरण, बेटा हर्ष कुमार और बेटी अनुष्का बाला के साथ राँची, झारखंड में रहते हैं।
Contents
मेरा भी एक गाँव है
समर्पित
आत्मकथन– ''मेरा भी एक गाँव है''
पाठ
भूमिका
यात्रा की शुरुआत
हमारा परिवार
मिट्टी का घर
दिनचर्या
अनोखा खेल
गाँव का मिडिल स्कूल
स्कूल के पास का पोखर
पथ्थल पोखरा स्कूल
बारिश का मौसम
दो नहरें जो कभी पूरी न हो सकीं
पगला गाछी
गिद्ध
सर्दियों में घूरे में आग तापना
आकाशगंगा
गाँव के लोग
हीरा-मोती की जोड़ी
साइकिल
घटनाएँ
हाट (बाज़ार)
विषहर मेला
साँप पकड़ना
सिनेमा हॉल
सोनपुर मेला
नानीघर
उपसंहार
गाँव का जीवन-मूल्य
मेरा भी एक गाँव है
मैं सबसे पहले भगवान को सहृदय धन्यवाद देता हूँ। यह उनकी कृपादृष्टि है जिसकी बदौलत मैं अपने सपने को साकार करने की हिम्मत कर पा रहा हूँ।
मैं अपने पुत्र हर्ष का आभार व्यक्त करता हूँ जिसने इस पुस्तक को हिन्दी में लिखने के लिए जरूरी सॉफ्टवेयर को अपने लैपटाप में डाऊनलोड कर मेरी बहुत मदद की।
साथ ही मैं अपनी पत्नी इन्दु किरण का भी आभार व्यक्त करता हूँ जिन्होंने हमेशा ही मेरा उत्साह बढ़ाया है। इस पुस्तक के सम्पादन में उनका महत्वपूर्ण योगदान है।
इस पुस्तक को पाठकों तक पहुंचाने में बहुत सारे लोगों ने अपना योगदान दिया है मैं उन सभी का तहेदिल से शुक्रिया अदा करता हूँ।
इस पुस्तक की त्रुटियों को दूर कर इसे पढ़ने लायक बनाने के लिए मैं श्री शशांक युगल किशोर दुबे, महाप्रबंधक, राजभाषा विभाग आई॰डी॰बी॰आई॰ बैंक का भी आभार व्यक्त करता हूँ।
समर्पित
यह पुस्तक समर्पित है मेरे पूज्य पिताजी श्री मीठु बाबू, मेरी ममतामयी माँ व मेरी प्यारी बेटी अनुष्का और मेरे गाँव के उन सभी लोगों को जिन्होंने अपना वक़्त और प्यार मुझे दिया।
आत्मकथन– ''मेरा भी एक गाँव है''
इंसान आसमान में उड़कर बड़ा नहीं बनता, वह बड़ा तभी कहलाता है जब वह अपनी मिट्टी से जुड़ा हुआ हो। प्रस्तुत पुस्तक मेरा भी एक गांव है
के लेखक संजय कुमार अपनी मिट्टी से जुड़े होने के कारण सरल व्यक्तित्व के धनी हैं। जिस प्रकार उन्होंने अपनी भूली-बिसरी यादों को करीने से सँजोया है, वो अत्यंत सराहनीय है। बैंकिंग क्षेत्र की व्यस्त दिनचर्या और उस पर शाखा प्रमुख का दायित्व होने के बावजूद इतने वर्षों की यादों को समेटकर रोचक ढंग से लिखना वास्तव में एक बड़ी बात है।
मन के ऐसे भावों को संकलित करके काग़ज़ पर उतारना जिनसे बचपन की यादें जुड़ी हों, अपने आप में एक चुनौतीपूर्ण कार्य होता है। मुझे बेहद प्रसन्नता है कि लेखक ने इस चुनौती का सफलतापूर्वक सामना किया है और इसमें सफलता भी पाई है। उनकी रचना मेरा भी एक गाँव है
इस बात का जीवंत प्रमाण है जिसे किसी अन्य साक्ष्य की आवश्यकता नहीं है। लेखन इतना रोचक है कि हर दृश्य जैसे जीवंत हो उठा हो।
इस कृति में न केवल अपने बचपन को पुनः जिया गया है बल्कि उन सभी चरित्रों का भी सहज चित्रण किया गया है जिन्होंने उनके जीवन को प्रभावित किया है। उन्होंने अपने माता-पिता, परिवार एवं गाँव के अन्य लोगों का बहुत ही सजीव वर्णन किया है। आप पात्रों को पढ़ते-सुनते हैं तो ऐसा लगता है जैसे आप उन्हें साक्षात देख रहे हों और सब कुछ आपके सामने ही घटित हो रहा हो।
ये तो आज का एक कड़वा सच है कि कितने ही लोग अपनी जन्मभूमि को भूलकर शहरों की ओर निकल जाते हैं और वहां की खोखली चकाचौंध के चक्रव्यूह में फँसकर अपने आप को आधुनिक और प्रगतिशील साबित करना शुरू कर देते हैं। किंतु वे ये भूल जाते हैं कि उनकी जड़ें तो गाँव से ही जुड़ी हुई हैं। संजय कुमार ने अपनी इस कृति के माध्यम से यही संदेश देने की कोशिश की है कि आप अपनी मिट्टी से जुड़े रहकर ही पुष्पित और पल्लवित हो सकते हैं। उसी में आपका जीवन छिपा है।
अच्छी बात यह है कि इस पुस्तक को बिना किसी विराम के आसानी से पढ़ा जा सकता है क्योंकि पूरा कथानक सिलसिलेवार चलता रहता है और आपकी आँखों के सामने किसी चलचित्र के सामान दृश्य चलते नज़र आते हैं। सबके बड़ी और उल्लेखनीय बात यह है कि लेखक की कोई भी विशेष साहित्यिक पृष्ठभूमि न होने के बावजूद भी उन्होंने भाषा को बहुत सरल और संयत तरीके से लिखा है। देशज शब्दों का प्रयोग इनकी भाषा की सुंदरता को बढ़ाता है।
इस रचनाकृति की विशिष्टता यही है कि इसमें उन सभी व्यक्तियों को बहुत सम्मान दिया गया है जो अत्यंत साधारण से लोग थे। उनके साथ अपने अनुभवों और स्मृतियों के माध्यम से उनकी छोटी छोटी बातों को याद रखना और साझा करना एक बड़ी बात है। इसमें गाँव की मिट्टी की सोंधी महक आपको आसानी से मिलेगी और साथ ही अस्सी के दशक में बिहार के गांवों की व्यवस्था और वातावरण से भी आप पूर्णतया अवगत हो सकेंगे।
अंत में, इतना अवश्य कहना चाहूंगी कि सबसे महत्वपूर्ण कार्य है लिखना और अपने भावों को बिना किसी लच्छेदार भाषा की चिंता किए निरंतर अभिव्यक्त करते जाना। इसके लिए मैं कृति के लेखक संजय कुमार की प्रशंसा करती हूँ और मेरी शुभकामना यही है कि