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Ebook210 pages1 hour

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राजवंश एक ऐसे उपन्यासकार हैं जो धड़कते दिलों की दास्तां को इस तरीके से बयान करते हैं कि पढ़ने वाला सम्मोहित हो जाता है। किशोर और जवान होते प्रेमी-प्रेमिकाओं की भावनाओं को व्यक्त करने वाले चितेरे कथाकार ने अपनी एक अलग पहचान बनायी है। प्यार की टीस, दर्द का एहसास, नायिका के हृदय की वेदना, नायक के हृदय की निष्ठुरता का उनकी कहानियों में मर्मस्पर्शी वर्णन होता हैं। इसके बाद नायिका को पाने की तड़प और दिल की कशिश का अनुभव ऐसा होता है मानो पाठक खुद वहां हों। राजवंश अपने साथ पाठकों भी प्रेम सागर में सराबोर हो जाते हैं। उनके उपन्यास की खास बात ये है कि आप उसे पूरा पढ़े बगैर छोड़ना नहीं चाहेंगे। कोमल प्यार की भावनाओं से लबररेज राजवंश का नया उपन्यास ‘मिलाप’ आपकी हाथों में है।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateJun 3, 2022
ISBN9789350830062
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    Milap - Rajvansh

    मिलाप

    अनिल ने अपने बदन पर चादर लपेट कर अन्दर की ओर देखा और अपना माथा दबाने लगा। इतने में एक नौकर ने उसके सामने चाय की प्याली रखते हुए कहा, ‘‘लीजिए, मास्टर जी! चाय पी लीजिए!’’

    ‘‘चाय!’’ अनिल मुस्कराकर बोला, ‘‘वास्तव में इस समय तुमने बड़ा उपकार किया है। चाय की ललक उठ रही थी।’’

    ‘‘अरे, तो आपने कह क्यों नहीं दिया? आपकी यह आंखें क्यों लाल हो रही हैं?’’

    ‘‘मेरे सिर में सख्त दर्द है!’’

    ‘‘दर्द है?’’ नौकर चौंककर बोला।

    ‘‘हां.... दो दिन से बुखार है।’’

    ‘‘बुखार भी है.... फिर आप चले क्यों आए? आपको तो आराम करना चाहिए था।’’

    ‘‘नहीं काका.... मोनू की परीक्षा सिर पर है। उसका कोर्स पूरा कराना भी आवश्यक है।’’

    इतने में मोनू अनिल के पीछे आकर खड़ा हो गया। अनिल ने उसे देखा नहीं था। वह नौकर से बोला, ‘‘यह मोनू गया कहाँ?’’

    ‘‘यह रहे....।’’ नौकर ने कहा।

    अनिल ने घूमकर मोनू की ओर देखा। मोनू ने मुस्कराकर कहा, ‘‘गुड़ ईवनिंग, अंकल।’’

    ‘‘ईवनिंग.... इतनी देर कहां लगा दी? चलो, पुस्तक लेकर आओ।’’

    ‘‘नहीं अंकल, आज मैं नहीं पढ़ूंगा।’’

    ‘‘क्यों नहीं पढ़ोगे?’’

    ‘‘आज आपकी तबीयत खराब है........ आपको बुखार है ना...’’

    ‘‘मेरी चिंता मत करो.... मुझे कुछ नहीं हुआ........ तुम अपनी पुस्तकें ले आओ। तुम्हारी परीक्षा सिर पर आ गई है।’’

    ‘‘अंकल! मैं तो आपके पढ़ाने से पास हो जाऊंगा लेकिन आपका स्वास्थ्य बिगड़ गया तो क्या होगा? आपकी तो कोई देखभाल करने वाला भी घर पर नहीं........ आप अकेले ही रहते हैं।’’

    नौकर ने बीच में कहा, ‘‘मास्टर जी, मोनू बेटा ठीक कहता है, आपको आराम करना चाहिए।’’

    ‘‘नहीं काका, मोनू की परीक्षा....।’’

    अचानक सीढ़ियों पर से एस.पी. सिन्हा साहब रिवाल्वर का होलस्टर ठीक करते हुए नीचे उतरे और अनिल को देख चौंक कर मुस्कराए, ‘‘हैलो अनिल....!’’

    ‘‘हैलो........ सर....।’’ अनिल खड़ा हो गया।

    ‘‘बैठो........ बैठो....।’’

    अनिल बैठ गया। सिन्हा साहब ने मोनू से कहा, ‘‘अरे मोनू, तुमने अभी तक पढ़ाई आरम्भ नहीं की?’’

    ‘‘डैडी.... मैं तो पुस्तकें लाने ही वाला था.... मगर....!’’

    ‘‘मगर क्या........?’’

    ‘‘अंकल की तबीयत खराब है।’’

    ‘‘तबीयत खराब है?’’ सिन्हा-साहब चौंक पड़े।

    ‘‘हां डैडी, अंकल को बुखार भी है........ और उनके सिर दर्द भी है।’’

    ‘‘ओहो....!’’ सिन्हा साहब ने अनिल का माथ छूकर देखा और बोले, ‘‘ऐसी दशा में भला तुम घर से क्यों निकल पड़े?’’

    ‘‘ओह........ सर.... मोनू की परीक्षा आरम्भ होने वाली है ना।’’

    ‘‘एक दिन न पढ़ने से कोई अन्तर नहीं पड़ जाता........ तुम्हें आराम करना चाहिए था। इतनी तेज हवा चल रही है और तुम बुखार में निकल पड़े तबीयत और खराब हो गई तो क्या परेशानी नहीं बढ़ जाएगी? वैसे भी तुम अकेले ही हो.... कोई देखभाल करने वाला भी नहीं है। तुमसे कितनी बार कह चुका हूं कि इसी कोठी में एक कमरा ले लो लेकिन तुम मानते ही नहीं।’’

    ‘‘आपका बहुत धन्यवाद.... सर! लेकिन मैं वह घर अकेला नहीं छोड़ना चाहता ........ आप पिताजी को जानते ही है.... वह आपके मातहत थे और उन्होंने ईमानदारी की कमाई से वह घर बनाया था। उन्हें उस घर से कितना प्यार था........।’’

    ‘‘हां....।’’ सिन्हा साहब ठण्डी सांस लेकर बोले, ‘‘बहुत प्यार थी उन्होंने अपने घर से। और तुमसे भी तो कितना प्यार करते थे। तुम्हारी मां की मौत के बाद उन्होंने तुम्हें मां-बाप दोनों का प्यार दिया था। वह तुम्हें पढ़ा-लिखाकर जाने क्यों बनाना चाहते थे। अगर डाकुओं को मुठभेड़ में उनका स्वर्गवास न होता तो आज तुम्हें ट्यूशन करने की आवश्यकता न पड़ती।’’

    ‘‘सर........ होनी को कौन टाल सकता है? वैसे भगवान ने चाहा तो मैं एक दिन पिताजी का सपना जरूर पूरा करूँगा।’’

    ‘‘भगवान सफल करेगा.... अच्छा, अब तुम जाओ.... तुम्हें शहर से भी पांच मील आगे जाना पड़ता है इसलिए जल्दी जाना चाहिए।’’

    ‘‘अच्छा सर........ जैसे आपकी आज्ञा।’’

    ‘‘और हां.... ठहरो.... मोनू, तुम ड्राइवर के साथ गाड़ी ले जाओ और अंकल को उनके घर छोड़ आओ।’’

    ‘‘बहुत अच्छा डैडी।’’

    ‘‘ओह सर.... धन्यवाद, इसका कष्ट मत कीजिए। मैं तांगे पर चला जाऊंगा।

    ‘‘नहीं भाई, जब गाड़ी है तो फिर तांगा करने की क्या आवश्यकता?’’ फिर वह नौकर से बोले, ‘‘रामू! ड्राइवर से कहो, गाड़ी निकाले।’’

    ‘‘बहुत अच्छा, मालिक।’’

    नौकर चला गया.... मोनू ने अनिल से कहा, ‘‘चलिए अंकल....।’’

    ‘‘चलो....।’’

    अनिल ने सिन्हा साहब को सलाम किया और बाहर निकल आया।

    ड्राइवर ने गाड़ी गैरेज से निकालकर पोर्टिको में लगा दी थी.... दोनों गाड़ी में सवार हो गए और गाड़ी कोठी के फाटक से निकलकर सड़क पर दौड़ने लगी।

    मोनू ने अनिल की ओर देखकर कहा, ‘‘अंकल! आपने फिल्म ‘रॉबिनहुड’ का नाम सुना है?’’

    ‘‘हां सुना है.... क्यों?’’

    ‘‘लोग कहते हैं, बहुत बढ़िया मूवी है।’’

    ‘‘कहते तो हैं........।’’

    ‘‘और आज उसका आखिरी दिन है.... प्लाज़ा पर।’’

    ‘‘तो फिर....?’’

    ‘‘यह देखिए.... मेरे पास ‘रॉबिनहुड’ के चार टिकिट है....।’’ मोनू ने जेब से टिकट निकालकर दिखाये।

    ‘‘फिर....?’’ अनिल ने मुस्कराकर मोनू को देखते हुए पूछा।

    छः बजे का शो है अंकल, अगर आपको पहुंचाने गया तो शो निकल जायेगा........ मुझे तीन दोस्तों को भी साथ लाना है।’’

    ‘‘अरे पगले, तुमने पहले ही कह दिया होता।’’

    ‘‘मुझे शर्म आ रही थी क्योंकि आपको बुखार है। आप कहें तो मैं टैक्सी में चला जाऊँ। ड्राइवर आपको पहुंचा देगा।’’

    ‘‘नहीं भाई, तुम मुझे यहीं उतार दो, मैं तांगे से चला जाऊँगा।’’

    ‘‘धन्यवाद! आप बहुत अच्छे अंकल है।’’ फिर मोनू ड्राइवर से बेला, ‘‘ऐ ड्राइवर, गाड़ी रोको।’’

    ड्राइवर ने गाड़ी रोक दी। अनिल गाड़ी से उतर गया। मोनू ने एक बार फिर क्षमा भरे स्वर में कहा, ‘‘क्षमा कर दीजिएगा अंकल।’’

    ‘‘इसमें क्षमा करने की क्या बात है भाई?’’

    ‘‘अच्छा.... बाए.... बाए।’’

    ‘‘बाए.... बाए।’’

    गाड़ी चली गई। अनिल ने अपनी चादर लपेटी और धीरे-धीरे तांगों के अड्डे की ओर चल पड़ा। उसका सिर चकरा रहा था.... आंखों में बार-बार अंधेरा छा जाता था........ पूरा बदन थर-थर कांप रहा था।

    कुछ देर बाद वह तांगा-स्टैंड के पास था जहां इस समय केवल एक ही तांगा खड़ा हुआ था और ब्रह्म उस तांगे के शानदार सफेद घोड़े की मालिश करता हुआ लहककर गा रहा था-

    ‘‘उंगली ने सय्यां मरोड़ी रे.... राम कसम सरमा गई मैं....।’’

    अनिल उसके पास पहुंचकर मुस्कराया और बोला, ‘‘क्यों रे ब्रह्म तू फिर उल्टा गाना गा रहा है।’’

    ‘‘अरे.... मास्टर जी!’’ ब्रह्म चौंक कर बोला, ‘‘आप.... और इस समय।’’

    ‘‘क्यों? मेरे आने का कोई समय निश्चित है?’’

    ‘‘नहीं मास्टर जी.... मैं तो इसलिए कह रहा था कि इस समय तो आपको कोई सवारी मिलेगी नहीं- आपको पैदल ही जाना पड़ेगा।’’

    ‘‘पैदल तो मैं चला जाता........ मगर मेरे सिर में दर्द है........ और बुखार भी है।’’

    ‘‘हाय....! सिर में दर्द है और बुखार भी है?’’ ब्रह्म ने अनिल का हाथ टटोला और चौंककर बोला, ‘‘ओहो.... आपका तो बदन फुंक रहा है।’’

    ‘‘हां, इस समय तो सवारी की जरूरत है- यह तांगा जो खड़ा है।’’

    ‘‘यह तांगा जानते हैं किसका है?’’

    ‘‘किसका है?’’

    ‘‘शबराती का तांगा है।’’

    ‘‘तो क्या हुआ? किराया नहीं लेगा क्या?’’

    ‘‘इस समय तो दस गुना किराया लेकर भी नहीं जाएगा।’’

    ‘‘क्यों?’’

    ‘‘यह समय उसके अड्डे पर जाने का है - समझते हैं आप?’’

    ‘‘समझता हूं किन्तु मैं उसे मुंहमांगा किराया दूंगा।’’ कहते-कहते अनिल तांगे पर चढ़ने लगा।

    तभी शबराती तेजी से चलता हुआ स्टेशन से निकला। उसके बदन पर मैला-सा तहमद था और लम्बा-सा कुर्ता, सिर पर उसने पगड़ी बांध रखी थी। उसने अनिल को अपने तांगे में सवार होते देखकर दूर ही से पुकार कर कहा, ‘‘ऐ बाबूजी.... तांगा खाली नहीं है।’’

    ‘‘खाली तो है भई, मुझे जरा सोनपुर जाना है।’’

    ‘‘कोई दूसरी सवारी देख लो।’’ शबराती पास आकर बोला।

    ‘‘तुम मुंहमांगा किराया ले लेना।’’

    ‘‘बाबूजी, सवा रुपये में भी नहीं जाऊंगा इस समय।’’ कहते-कहते शबराती ने तांगे पर सवार होकर घोड़ा हांक दिया।

    अनिल का एक पैर पिछले पायदान पर था। वह गिरते-गिरते बचा और ब्रह्म ने जल्दी-जल्दी उसे संभाल लिया। तांगा हवा की भांति नजरों से ओझल हो गया। अनिल ने बिगड़कर कहा, ‘‘बड़ा बदतमीज आदमी है।’’

    ‘‘सिरफिरा है मास्टर जी- बड़ों-बड़ों की परवाह नहीं करता।’’

    ‘‘हूं - हैं तो तांगे वाला ही।’’

    ‘‘अब क्या करेंगे बाबूजी? इस समय तो कोई भी सवारी नहीं मिलेगी।’’

    ‘‘देखा जाएगा.... जाना तो है ही।’’

    ‘‘लेकिन बाबूजी- इस दशा में?’’

    ‘‘अरे भई मर्द हूं, मर्द.... औरत तो हूं नहीं कि कराहकर सड़क के किनारे बैठ जाऊंगा........ आन पड़ती है तो भुगतनी ही पड़ती है।’’

    ‘‘सो तो है बाबू जी....।’’

    अनिल ने एक ठंडी सांस ली और चल पड़ा।

    * * *

    शबराती ने घोड़े की लगाम ढीली छोड़ रखी थी और घोड़ा हवा की तरह उड़ा चला जा रहा था। शबराती ने कहा, ‘‘शबाश........ मेरे तीस-मार-खां, शाबाश!’’

    थोड़ी देर बाद घोड़े की गति अपने आप ही धीमी पड़ गई और घोड़ा एक देशी शराब के अड्डे के सामने खड़ा हो गया, ‘‘शाबाश बेटे!’’ शबराती ने घोड़े की पीठ पर हाथ फेरकर कहा, ‘‘तेरी नाक बहुत तेज है मेरे शेर....!’’ फिर वह घोड़े की पीठ थपथपाकर अड्डे की ओर चल पड़ा।

    अड्डे में पहुंचकर उसने इधर-उधर निगाह दौड़ाई। एक नौकर ने उसे देखते ही कहा, ‘‘सलाम, शब्बू चाचा....!’’

    ‘‘सलाम...!’’

    शबराती ने जेब से दस का सिक्का निकालकर उसके हाथ पर रख दिया। फिर उसकी नजरें एक मेज पर पहुंचकर रुक गईं। उस मेज पर एक तगड़ा-सा पहलवान सरीखा आदमी बैठा था। लिबास और हुलिए से वह भी तांगे वाला ही नजर आता था। शबराती उसे देखकर बड़बड़ाया, ‘‘कल्लू खलीफा.... आज फिर सनक चढ़ी है इसे।’’

    कल्लू खलीफा ने शबराती को देखा तो वह और भी अधिक तन कर बैठ गया। शबराती ने अपनी बांहों की मछलियां देखीं और कमर पर हाथ रखे-रखे वह कल्लू खलीफा की मेज के पास जाकर रुक गया।

    कल्लू खलीफा ने उसे तीखी नजरों से देखा और बोला, ‘‘क्या देख रहा है रे....?’’

    ‘‘देख रहा हूं.... आज सुबह से हथेली शायद इसीलिए खुजा

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