Insaf
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Insaf - Dr. Jagdish Prasad Verma
वर्मा
इंसाफ
(1)
किस्मत ने बेचारी को कहां ला पटका था, पत्थरों के ढेर पर। एक हाथ में हथौड़ा था, दूसरे में पत्थर! पत्थर तोड़कर गिट्टी बना रही थी। पत्थर तोड़ने की मजदूरी करना उष्मा की विवशता थी, न तोड़ती तो खाती क्या? पेट भरने का अन्य कोई जरिया ही न था। घर से प्रातः आठ बजे आती, सारा दिन पत्थर तोड़ती। सायंकाल छह बजे के बाद घर जाती। आज भी सवेरे से ही पत्थर तोड़ रही थी। अब तो दोपहर के साढ़े बारह-पौने एक बज रहा था। जेठ की चिलचिलाती धूप में पत्थर तोड़ती, तो कभी दम भरने लगती। वसुंधरा भी आग की लपटें उगल रही थी। इस कड़ी धूप में मानो समूचा मानव सूख जाए। ऐसे में आसमानी छत के नीचे पत्थर तोड़ना सबके वश का रोग नहीं था, लेकिन उष्मा की यह आदत अब पक गई थी। बीस-बाईस साला तरुण नारी थी, नवयौवन चढ़ती आयु, घर बसाने और खेलने-खाने के दिन थे पर उष्मा को दो घड़ी भी सुख नसीब न हुआ। धूप के भयंकर प्रहार से एक सुकोमलांगिनी का गौर वर्ण झुलसकर श्यामलता पकड़ता जा रहा था। इससे पूर्व वह गोरा बदन अपार हुस्न खजाना हुआ करती थी। आज धूप में सारा दिन काम करते-करते शाम हो चली थी। पसीना सिर से निकलना प्रारंभ होता, पगतल में जा पहुंचता। उष्मा के सुकोमल हाथ पत्थर तोड़ते-तोड़ते कठोर हो चले थे। मां-बाप ने लाड़-प्यार से नाम चुनकर उष्मा रखा था।
बेटी के इस कठोर परिश्रम की कमाई से दो पेट भर जाते, पिता और पुत्री का। पिता चारपाई का मेहमान बनकर रह गया था। ऐसे में बेटी भी मजदूरी करके न लाती तो दो पेट कैसे पलते। जब कभी दम भरते समय दूर दृष्टि उठकर जाती, तो आभास होता, जैसे धूं-धूंकर धुकती धरती से धुआं मिश्रित लपटें उठ रही हों, उसके आसपास की धरा से उठती तपस से उष्मा को इतना अधिक सेंक लग रहा था, लगता जैसे वह सेंक सुकोमल त्वचा को पारकर भीतरी सतह तक जा पहुंचा हो। उससे लगभग 20-25 गज दूरी पर लिंक सड़क शहर को जाती थी, चार-पांच किलोमीटर दूरी पर शहर भी था। उसका अपना गांव समीप ही था, वह भी एक-डेढ़ किलोमीटर पर था। इस कड़ी दोपहरी में मानव तो क्या, दूर-दूर तक परिंदे भी नजर नहीं आ रहे थे। हां, दस-पांच मिनट के अंतराल से इक्का-दुक्का कोई वाहन अवश्य गुजर जाता। जब तपस बर्दाश्त से बाहर हो जाती, मन अकुला उठता; तो हथौड़ा वहीं छोड़कर सड़क के किनारे आम के वृक्ष की छाया में चली जाती। यह पेड़ भी अब बूढ़ा हो गया था, इसी आम के वृक्ष के साथ-साथ एक जामुन का वृक्ष भी था। जामुन अभी जवान थी, दूर से देखने वालों को यह मूक अवश्य लग रहे थे, पर नहीं, ये बाप-बेटी लगता था जैसे रूठकर खड़े हों। वह छाया में दो पल बैठकर पसीने से भीगी धोती-ब्लाउज को हरकाती, फिर जाकर पत्थर तोड़ने लगती। यह रेही मिट्टी वाली बंजर भूमि थी, दूर-दूर फसल का नामोनिशान भी नहीं था। इसीलिए इस वीरान सुनसान में उसे भय भी था, कहीं सड़क पर वाहन से जाता पथिक रुककर आ न जाए, मुझ अकेली को देख इज्जत-आबरू लूटकर न चला जाए। अकेली थी, क्या बिगाड़ पाती, संघर्ष करके भी उस धूर्त मानव का। स्त्री के लिए सबसे प्यारा और बहुमूल्य खजाना उसकी अपनी लाज ही तो होती है। लुट गई तो...तो वह बर्बाद कंगाल होकर रह जाती है। लंठ मानव उसकी यह बर्बादी कंगाली देख पश्चाताप की हमदर्दी दिखाने की अपेक्षा उसका परिहास और मखौल बनाकर चल देते हैं, जैसे कुछ हुआ ही न हो। भय तो व्याप्त था, फिर भी पत्थर तोड़ना पड़ता। यह उसकी मजबूरी थी। आंचल से पसीना पोंछती रहती, पत्थर तोड़ती रहती। पोंछते-पोंछते भी मुखमंडल से कुछेक बूंदें पत्थर के ढेर पर टिप-टिप करके चू पड़तीं। वह छाया में जाने की लालसा से फिर उठी, पत्थरों के ढेर से नीचे उतरकर टूटी चप्पल पैरों में फंसा ही रही थी, तभी अचानक भयानक विस्फोट हुआ, कानों के पर्दे फाड़ने वाला विस्फोट।
वह बुरी तरह चौंककर देखने लगी, विस्फोट सड़क पर जाती मोटरसाइकिल का हुआ था। अगले चक्के का टायर फट गया, बैलेंस बिगड़ा; मोटरसाइकिल सहित सवार पल्टी खाते सड़क से आठ-दस फुट नीचे लुढ़कता आ गया। लुढ़कता मानव चीखा था, ‘बचाओ’। एक ही बार चीख पाया, फिर वह मोटरसाइकिल से पृथक उथले खड्डे में जा गिरा। पल-भर खड़ी उष्मा ने घटित घटना देखी, फिर गिरे मानव की तरफ दौड़ पड़ी। निकट पहुंचते-पहुंचते भी घटना के शिकार मानव की टूटती आवाज उसने सुनी‒ ‘हाय! मुझे बचा लो।’ इस स्वर के साथ ही वह अचेत हो गया। छटककर गिरते मानव को देख उसका दिल दहल गया था, फिर वह दौड़कर उसके पास पहुंची। उसे देखते ही उसके मुंह से भी हाय निकल गई। उस व्यक्ति से चार-पांच फुट फासले पर पड़ी मोटरसाइकिल ऊंचाई से गिरकर खुद ही बंद हो गई थी। चालक के सिर और नाक से तेज गति से रक्त बह रहा था। अन्य चोटों से भी खून रिस रहा था। पैंट-शर्ट भी गिरने की रगड़ से मटमैले होकर एक-दो स्थानों से फट गए थे।
उष्मा ने घूम-घूमकर हिला-डुलाकर देखा, समझ में कुछ नहीं आ रहा था क्या करे और क्या न करे। सिर से बह रहे रक्त की गति जितनी तेज थी, उस अनुमान से दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति की कुछेक क्षण बाद मृत्यु निश्चित थी‒वह मन-ही-मन बड़बड़ाई और सोचकर बुरी तरह घबरा उठी। उसे तत्काल और तो कुछ सूझा नहीं, उसने तुरंत अपनी पहनी हुई धोती फाड़ी, कुछ हिस्से को तह लगाकर गद्दी बनाकर बड़े जख्म पर रख दिया, शेष कुछ भाग चौड़ी पट्टी बनाकर जकड़कर ऊपर से बांध दिया। फिर वह सड़क पर दौड़ी गई, सड़क पर खड़ी होकर हाथ का संकेत देती एक-दो वाहनों को रोकने का प्रयास किया, पर कोई नहीं रुका। सब दूर से हॉर्न बजाते आते और पवन की तरह चले जाते। फिर उसने दूर से आती एक कार देखी, उष्मा उसे रोकने के लिए चिल्लाती, हाथ जोड़कर सड़क के मध्य में खड़ी हो गई। ज्यों-ज्यों कार निकट आती जा रही थी, उष्मा रोकने के लिए चिल्ला रही थी। फिर बार-बार हाथ देती व दोनों हाथ जोड़ देती। गाड़ी का ड्राइवर पहले हॉर्न बजाता रहा, लेकिन जब हॉर्न से भी पीछे न हटी, तो निकट आकर भारी चीत्कार के साथ गाड़ी रुक गई। ड्राइवर तत्काल दरवाजा खोलकर उतरा, फिर तीव्र गति से युवती के पास आकर तड़ाक से गाल पर थप्पड़ जड़ दिया‒ ‘बीमा कराया था छोकरी या फिर यूं ही मरने के लिए उतावली है?’ क्रोध में ड्राइवर उस पर बरस पड़ा, बुरा-भला भी बहुत कहा।
‘भाई साहब, बेशक थप्पड़ दो-चार और भी मार लीजिए, बुरा-भला भी जो जी में आए कह लीजिए, पर... पर मेरी प्रार्थना पर ध्यान देकर जाना।’ वह बड़े-बड़े अश्रु बहाती, गाल सहलाती हुई रुंधे कंठ से बोली‒ ‘आप इंसान नहीं देवता हैं, मुझ पर रहम कीजिए।’ फिर वह फफककर रो पड़ी।
‘जल्दी से बक भी, क्या कहना है?’ ड्राइवर गुर्राया।
लड़की ने जख्मी मानव की ओर हाथ उठाकर संकेत किया‒ ‘मेहरबानी करके इसे अस्पताल पहुंचा दीजिए, दम टूट रहा है इसका। मैं आपसे रहम की भीख मांग रही हूं।’ उष्मा ने फटी धोती का आंचल फैला दिया।
‘नहीं, मुझे फुर्सत नहीं है। रास्ता छोड़िए, मुझे जल्दी जाना है।’
‘ऐसा जुल्म न करें भाई साहब, आपकी थोड़ी-सी सहायता से उस बेचारे के प्राण बच जाएंगे। आप भी भाई-बहन वाले हैं, रहम करने से आपका भी भला होगा। मैं आपके आगे हाथ जोड़ती हूं।’
‘मैं तेरे आगे हाथ जोड़ता हूं लड़की, किसी अन्य वाहन को रोकने का प्रयास कर। मुझे छुट्टी दे, मैं बहू विदा कराने जा रहा हूं। पहले ही आधा घंटा लेट हो चुका हूं।’
‘भलाई करने से मुख न मोड़िए भाई साहब, एक भला काम करने से परमात्मा उसका दस गुणा भला करता है। मरते समय तो दुश्मन भी दुश्मन पर रहम करता है, आप तो फिर भी एक पथिक हैं, संकट में घिरे दूसरे पथिक की सहायता करना महापुण्य का काम है। बहू विदा कराने ही जाना है, दस मिनट में इसे अस्पताल पहुंचाकर चले जाना।’ वह करबद्ध पुनः गिड़गिड़ाई।
ड्राइवर गंभीर हो उठा, उसका दिल भी पसीज गया। वह उष्मा का मुंह ताकता ही रह गया‒ ‘जख्मी पड़ा व्यक्ति तुम्हारा क्या लगता है?’ रहमदिली से उसने पूछा।
‘जिस तरह आप एक मुसाफिर हैं, यह बदकिस्मत इंसान भी एक मुसाफिर है।’
‘मुझे सहायता से इनकार नहीं है, फिर भी एक छोटा-सा सुझाव देना चाहता हूं। भलाई का जमाना नहीं रहा, आप कानूनी मुसीबत में घिर सकती हैं। फिर पुलिस हम दोनों को तंग करेगी।’
‘आप मत घबराएं भाई साहब, कानून मुझे घेरेगा! घेरने दीजिए। फांसी चढ़ाएगा, मैं चढ़ जाऊंगी, पर कानून से डरकर मैं इस जख्मी भाई को खतरे में घिरा तो नहीं छोड़ सकती। इस वीरान निर्जन में इसका अपना सगा तो यहां कोई भी नहीं है। आप ही जैसे यह भी किसी बहन का भाई होगा, किसी मां का लाल होगा, ईश्वर न करे यदि इसे कुछ हो गया तो हम... बातों में समय न गंवाए भाई साहब, वरना...।’ वह फिर रो पड़ी।
गाड़ीवाले ने स्वतः गंभीरता से सोचा, मन-ही-मन कुछ बड़बड़ाया भी। अधेड़ आयु दाढ़ी वाला हृष्ट-पुष्ट पठान लग रहा था। फिर बोला‒ ‘चलिए, देखता हूं इसे।’
वह लड़की के साथ ही सड़क से उतरकर जख्मी पड़े नौजवान के पास पहुंचा, जहां चौबीस-पच्चीस वर्षीय नौजवान बुरी तरह खून से लथपथ पड़ा था। ड्राइवर ने उसकी नब्ज टटोलकर देखी, तो सचमुच उसकी हालत गंभीर थी। रक्त-मिट्टी से उसके वस्त्र सन गए थे, सिर के बालों में भी काफी सारी मिट्टी चिपक गई थी। ड्राइवर ने लंबी सांस भरी, फिर खड़े होकर इधर-उधर दूर तक देखा‒ ‘ठीक है देवी, मैं गाड़ी सड़क से यहीं लेकर आता हूं। वजन अधिक है, ऊपर चढ़ाने में बड़ी कठिनाई होगी।’ कहकर वह गाड़ी की तरफ तेजी से गया, थोड़ी देर बाद उसने गाड़ी को दूर से घुमाते हुए सड़क से उतारकर खड्ड के समीप लाकर बैक करके लगा दिया। गाड़ी से उतरकर पिछला दरवाजा खोला, फिर घायल के पास आ गया‒ ‘लड़की, तुम भी सहारा दो, गाड़ी पर अकेले नहीं चढ़ा पाऊंगा।’
‘जी, जी भाई साहब, आप जैसे कहें मैं तैयार हूं।’
ड्राइवर ने जैसा कहा? उष्मा ने गर्दन में हाथ जा फंसाए और ड्राइवर ने कमर में हाथ डालकर युवक को उठा लिया, फिर जैसे-तैसे उसे किसी तरह गाड़ी में चढ़ाया। दोनों के वस्त्रों में खून लग गया था; पर उष्मा पूरी तरह रक्त से सन गई थी।
‘जख्मी के प्रति तुम्हारी उपजी सहानुभूति दर्शाती है, अवश्य ही ये कोई आपके जान-पहचान अथवा संबंधी हैं।’ ड्राइवर ने सहज ही व्यक्त किया।
‘जऽऽजी-जी।’ वह कुछ चौंकी थी‒ ‘पिछले जन्म का सगा-संबंधी हो तो मुझे पता नहीं है। फिलहाल आज तो मेरे लिए यह भी आप जैसा एक मुसाफिर भाई है।’
ड्राइवर ने ध्यान से उसका मुंह देखा‒ ‘अच्छी बात है, चलिए बैठिए पीछे।’
‘जी बहुत अच्छा, आप सड़क पर गाड़ी घुमाकर लाइए।’ उष्मा ने दौड़कर पत्थरों के ढेर के पास जाकर हथौड़ा उठाया, फिर वहीं ढेर में छुपा दिया। पुनः जल्दी-जल्दी चप्पलों से धूल उड़ाती वापस आ गई। गाड़ी सड़क पर पहुंच चुकी थी, वह ड्राइवर के पास जाकर बोली‒ ‘भाई साहब, एक अर्ज और है, थोड़ा-सा कष्ट करें। फिटफिटी का ताला लगा दीजिए।’
ड्राइवर ने पुनः उसे ध्यान से देखा‒ ‘सही फरमाती हो, तलाशी भी ले लेना उचित रहेगा।’ कहकर वह गाड़ी से उतरकर चला गया। उसने मोटरसाइकिल लॉक की, पीछे टोकरी में रखा ब्रीफकेस निकाला और आगे लगा हैंड पर्स। सारा कुछ लाकर उसे संभाल दिया। उष्मा सामान के साथ पीछे जख्मी के पास बैठ गई। ड्राइवर अपनी सीट पर आकर बोला‒ ‘सबसे पहले कहां ले चलें?’
‘सरकारी बड़े अस्पताल ले चलिए।’
‘नहीं, पहले पुलिस थाने ले चलते हैं।’
‘जऽऽजी-जी, पुलिस थाने क्यों?’
‘पुलिस में खबर करना बहुत जरूरी है, इसी में हम दोनों की भलाई भी है। मोटरसाइकिल भी पुलिस जाकर उठा लाएगी या उसकी निगरानी करेगी। पुलिस में सूचना देना लाभ है, हानि नहीं।’
‘जैसा मुनासिब समझिए, परंतु जल्दी कीजिए।’ वह सहनशीलता से बोली, लेकिन उसका स्वर बेहद घबराया हुआ था। ड्राइवर गाड़ी स्टार्ट करके चल पड़ा। पांच-सात मिनट में ही शहर पहुंच गया। उसने गाड़ी कोतवाली के सामने जाकर रोकी। ड्राइवर उतरकर गेट पर खड़े संतरी के पास गया, बात की, फिर अंदर चला गया।
कुछ क्षण बाद दो कांस्टेबलों के साथ दरोगा साहब आए, उनके साथ थाने का मुंशी भी था। जख्मी व्यक्ति का सरसरी तौर पर मुआइना किया, फिर कागजात खोलकर उष्मा के सामने मुंशी खड़ा हो गया।
‘यह तुम्हारा कौन है, पति या सगा-संबंधी?’ दरोगा ने प्रश्न किया।
‘जीऽऽजी..... आप जो चाहें लिख लीजिए।’ उष्मा बोली
‘मतलब आपके पति हैं?’ इस बार मुंशी बोला।
‘मैंने कहा न, आप जो चाहें लिख लीजिए, फिलहाल जल्दी जाने दें, हालत बड़ी नाजुक है।’
‘बहनजी, कुछ भी लिख देने से कानून के कागजों का पेट नहीं भरता। कृपया आप साफ-साफ स्पष्ट कीजिए, यह व्यक्ति रिश्ते में तुम्हारे कौन हैं, क्या हैं?’
‘मुझे बहुत दुःख है, क्या आपके कानून का पेट इस शख्स की जान लेने के बाद भरेगा? जो आप वकीलों की तरह बारी-बारी जिरह कर रहे हैं। यदि आपके कानून का पेट इतना ही बड़ा है, तो बैठिए मेरे साथ गाड़ी में, अस्पताल चलते हैं। एक तरफ उपचार प्रारंभ हो जाएगा, दूसरी ओर मैं आपके कागजों का पेट भरूंगी, जैसे भी हो, परंतु अब जाने दीजिए।’
‘जाने दे यार, क्यों इससे मगज खपा रहा है।’ दरोगा ने कहा।
‘लीजिए, अंगूठा लगाएंगी या फिर दस्तखत। मैंने वारिस लिख दिया है।’
मुंशी ने उष्मा के दस्तखत कराए, फिर उसने मोटरसाइकिल की चाबी उसके हवाले कर दी। इजाजत मिल गई। ड्राइवर गाड़ी में बैठ गया और गाड़ी बढ़ा दी। कोतवाली के पीछे कुछ ही दूरी पर सरकारी अस्पताल था, कुछ देर बाद ही गाड़ी अस्पताल का गेट पार करती इमरजेंसी वार्ड के सामने आकर रुकी। ड्राइवर की सहायता से उष्मा ने जख्मी को वार्ड के अंदर ले जाकर उपचार बर्थ पर लिटा दिया। फिर ड्राइवर हाथ जोड़कर बोला‒ ‘जी इजाजत हो तो मैं अब चलूं, मुझे बहुत देर हो रही है।’
‘आपकी मेहरबानी की मैं बड़ी शुक्रगुजार हूं।’ उष्मा ने भी हाथ जोड़ दिए‒ ‘परमात्मा आपका सदा भला करें, कष्ट के लिए क्षमा चाहती हूं।’
‘नहीं-नहीं, कष्ट कैसा, आप मुझे शर्मिंदा कर रही हैं। दुःख और मुसीबत में एक-दूसरे के काम आना हमारा फर्ज है। फिर भी आपकी कुर्बानी बहुत बड़ी है। इस युग में जब अपना ही अपनों का दुश्मन है, आप एक राही के लिए...।’ ड्राइवर सचमुच भावुक हो उठा था। वह चुपचाप बाहर निकल गया। पीछे-पीछे उष्मा आई। गाड़ी से पर्स और ब्रीफकेस उठाकर उसे पुनः हाथ जोड़कर नमस्ते की और फिर सामान उठाकर अंदर आ गई।
डॉक्टर अब भी अपनी सीट पर बैठा किसी पुस्तक का अध्ययन कर रहा था। उष्मा सीधे उसी के पास गई, हाथ जोड़कर विनिमय लहजे में बोली‒ ‘कष्ट के लिए क्षमा करना डॉक्टर साहब, मरीज की हालत खतरे में है; कृपया उठकर देख लीजिए।’
‘अभी डेढ़ बजा है, अस्पताल तीन बजे खुलेगा, तब तक बाहर बैठकर इंतजार कीजिए।’ खुश्क स्वर में डॉक्टर बोला।
‘ऐसा न कहिए डॉक्टर साहब, मैं पहले ही कह चुकी हूं कि मरीज की हालत खतरे में है। मैं आपके हाथ जोड़ती हूं, कुछ कीजिए डॉक्टर साहब।’
‘बिना खतरा अस्पताल में कोई नहीं आता, प्रसन्न अवस्था में यहां कौन आता है।’ तेवर चढ़ाकर डॉक्टर बोला‒ ‘यदि तुरंत उपचार चाहती हैं तो 10 रुपए इमरजेंसी फीस, 50 रुपए डॉक्टर फीस जमा करवाएं।
‘डॉक्टर फीस।’ उष्मा घबरा उठी‒ ‘आप तो सरकारी डॉक्टर हैं, ऐसा क्यों कह रहे हैं?’ वह हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाई‒ ‘कुछ तो मेरी दयनीय हालत पर तरस खाएं।’
डॉक्टर अनायास खोखली हंसी में हंसा‒ ‘यदि हम तरस खाएं, तो सुबह से शाम तक तरस खाते ही रह जाएं। फिर अपने बच्चों को क्या अनाथालयों में भेज दें।’ कठोर स्वर में डॉक्टर बोला‒ ‘इमरजेंसी फीस तो भरनी पड़ेगी, एक नया पैसा भी कम नहीं होगा। इलाज कराना है कराएं या पेशेंट को लेकर घर चली जाएं।’
‘डॉक्टर साहब, इसका मतलब हमारा समाज गलत भावनाओं का शिकार है।’ वह भी गंभीर हो उठी‒ ‘जो कहता है डॉक्टर इस जग में दूसरा ईश्वर है। ईश्वर लोभी, लालची नहीं हो सकता। वह तो इन व्याधियों से सदा मुक्त रहता है। वह अपने मजबूर मरीज को कभी परेशान नहीं करता। नहीं-नहीं डॉक्टर, आप परमेश्वर के नाम पर धब्बा न लगाएं।’
‘डॉक्टर भी एक मानव प्राणी है। हर मानव प्राणी को जीने के लिए भोजन की आवश्यकता होती है। भोजन-सामग्री एकत्र करने के लिए धन की आवश्यकता होती है। भाषण से कभी किसी का पेट नहीं भरा जा सकता। आपको ज्यादा नाराज होने की जरूरत नहीं, मैंने पेशेंट लाने के लिए अस्पताल से पत्र नहीं भेजा था, उपचार प्राइवेट डॉक्टर से जाकर करा लीजिए।’
डॉक्टर की बातें सुनकर वह स्तब्ध रह गई। उसे विश्वास हो गया था, यह डॉक्टर नहीं पत्थर है जिसे सिर्फ रुपया पिघला सकता है। वह पुनः छटपटाती जख्मी को देखने लगी, फिर दिल मसोसकर पलटी और भरे कंठ से बोली‒ ‘डॉक्टर साहब ठीक है, आप जो कह रहे हैं, ठीक कह रहे हैं।’ क्रोध पर बलपूर्वक काबू पाकर बोली। फिर उसने अपने बाएं हाथ की तर्जनी उंगली में पहनी स्वर्ण अंगूठी उतारकर उसके सामने मेज पर रख दी‒ ‘लीजिए डॉक्टर साहब, यह सोने की अंगूठी पांच वर्ष पूर्व 45 रुपए में बनी थी। आशा है आज के भाव में यह सौ रुपए से कम नहीं होगी। मेरा विश्वास है, आप फीस के बदले स्वर्ण अंगूठी पाकर मरीज पर अब दया अवश्य करेंगे।’
डॉक्टर की आंखें चमक उठीं। वह उल्लास भरे स्वर में बोला‒ ‘ठीक है-ठीक है, अब रुपए नहीं हैं तो मैं इससे ही काम चला लूंगा।’ अंगूठी उठाकर जेब में रखी, इसके पश्चात मेज पर रखा स्टेथोस्कोप उठाकर खड़ा हो गया और मरीज पर झुककर चेकअप करने लगा। सीने पर लगाकर पहले दिल की धड़कन देखी, नब्ज़ टटोलकर देखी। त्वचा जगह-जगह से खींचकर देखी, आंखों को खोलकर अध्ययन किया। देखते-ही-देखते माथे पर परेशानी की शिकन उभरती चली गई। फिर वह विद्युत गति से घूमकर ब्लड सर्कुलेशन यंत्र उठाकर मरीज को लगाकर देखने लगा और घबराकर बोला‒ ‘पेशेंट को तुरंत खून चाहिए, कृपया जल्दी से प्रबंध कीजिए।’
‘जऽऽजी-जी वह तो...।’
‘समय नहीं है, आधा घंटे के अंदर ब्लड न चढ़ाया गया तो पेशेंट को बचा पाना मुश्किल होगा।’
‘पर खून का प्रबंध मैं कहां से करूंगी डॉक्टर साहब, आप तो समझ...।’
‘समय नष्ट करने से नुकसान हो जाएगा, फिर मुझे दोष मत देना। किसी को बुलाकर ले आएं।’
‘डॉक्टर साहब, यहां मेरा कोई सगा-संबंधी नहीं है, आप तो...।’
‘मैं यह सब कुछ नहीं जानता।’ डॉक्टर ने डांटा‒ ‘मरीज बचाना है तो रक्त का प्रबंध अभी, इसी समय जहां से मर्जी प्रबंध कीजिए।’
उष्मा के पैरों तले जमीन खिसक गई। दिमाग चकरा उठा। समझ नहीं पा रही थी, क्या करे और क्या न करे। वह घबराई हुई बोली‒ ‘डॉक्टर साहब, क्या मेरे रक्त से काम...।’
‘यस-यस, चलेगा, बिलकुल चलेगा।’ डॉक्टर ने कहा। फिर मेज पर रखी घंटी बजाई। उसी समय बाहर से एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति आया। डॉक्टर ने उसे आदेश दिया‒ ‘रामदीन, स्टाफ रूम से फौरन तीन नर्सें बुलाकर लाइए।’ वह चला गया। दो मिनट बाद ही तीन नर्सें आ गईं। डॉक्टर ने सख्त लहजे में कहा‒ ‘मीरा जी, मरीज की तुरंत पट्टी कीजिए, ध्यान रखना रक्त जाम करने वाली किसी भी दवा का उपयोग जख्म पर अवश्य कर लेना। रीता और सुनीता जी मरीज और इस लड़की के रक्त की जांच करके ग्रुप्स पता करें। यदि दोनों का ग्रुप मैच करता है तो लड़की का दो बोतल रक्त लेकर चढ़ा दीजिए। प्लीज जल्दी, ‘इंजेक्ट द ब्लड टेकिंग इट फ्रॉम द ब्लड बैंक, केवल बीस मिनट के अंदर।’
उष्मा को तुरंत दूसरे बिस्तर पर लिटाया गया। दोनों के रक्त का परीक्षण किया गया। रक्त ग्रुप मिल गए थे। रक्त ग्रुप मिल जाना भी एक संयोग ही था, वरना इस चोरबाजारी में रक्त न मिल पाने के कारण रोगी रोग मुक्त होने की अपेक्षा प्राण मुक्त अवश्य हो जाता। नर्सों ने तत्काल उष्मा का रक्त लिया। उधर मीरा ने पट्टियों का कार्य समाप्त कर लिया था। इसके पश्चात रक्त चढ़ाया जाने लगा।
खून चढ़ाने का काम जब समाप्त हो गया, उसके बाद जख्मी मरीज को मर्दाने वार्ड में पहुंचा दिया गया। उष्मा ने ब्रीफकेस और पर्स सिरहाने की तरफ रखी पोर्टेबल अलमारी में रख दिए, फिर लंबी सांस लेकर वहीं फर्श पर लेट गई। उसे चक्कर आने लगे थे, आंखों के सामने बार-बार अंधेरा छाने लगा था। अति आवश्यक उपचार हो चुका था। डॉक्टर ने आश्वासन दिया था‒ ‘तीन-चार घंटे उपरांत मरीज चेतन अवस्था में आ पाएगा। अतः अब चिंता की कोई बात नहीं है।’ उष्मा यही सोच रही थी और छत की तरफ निहार रही थी। उसी समय वार्ड में फाइल लिए नर्स आई, उष्मा पर रौब डालती अकड़कर बोली‒ ‘यह अस्पताल है, तेरे बापू जी का घर नहीं, जहां टांगें फैलाकर पसरकर लेटी है।’
‘बहनजी, मुझे चक्कर बहुत आ रहे हैं। आंखों के सामने अंधेरा छा जाता है, इसलिए थोड़ा लेट गई थी।’ कहकर वह बेचारी उठकर बैठ गई।
‘भरपेट आहार लिया करे, फल-फ्रूट्स, हरी चीजें खाया करे। चक्कर आने बंद हो जाएंगे। फिलहाल कैंटीन जाकर आधा किलो दूध गर्म कराकर पी, चक्कर आने बंद हो जाएंगे। हां, तेरे मरीज का नाम क्या है?’
उष्मा फिर मुसीबत में फंस गई, नाम-पता जानती तब तो लिखवाती। उसे क्या पता उसका नाम-पता क्या है, वह कहां का रहने वाला और कौन है। वह मन-ही-मन गुंथ रही थी, तभी स्टाफ नर्स पुनः बरस पड़ी‒ ‘तू बहरी तो नहीं है, मैंने तुझसे मरीज का नाम पूछा है।’
‘जऽऽजी-जी मैं वही तो सोच रही थी।
लिख लीजिए सुरेश कुमार।’
‘गांव का नाम-पता क्या है?’
‘....।’ काफी देर सोचकर बोली‒ ‘तपापुर।’
‘वाइफ ऑफ...।’ फिर पूछा।
‘जी-जी, क्या पूछा?’
‘तेरा नाम क्या है?’
‘उष्मा रानी, गांव पंखरपुर; अतः डाकखाना सोनपुर है। जी और कुछ?’
‘ठीक है, बस।’ नाम-पता पूछकर लिखने के बाद शेष फाइल के कॉलम स्वयं ही भर दिए। इसके पश्चात फाइल सिरहाने रखी पोर्टेबल पर रखकर चली गई। अब उष्मा धीरे-धीरे उठी, जहां दराज में ब्रीफकेस और पर्स रखा था, उसमें ताला लगा दिया और वार्ड से बाहर निकल आई। काफी देर से वह यही सोच-सोचकर परेशान हो रही थी, वह मरीज को छोड़कर घर वापस कैसे जाए। मेरे घर जाने के बाद यदि वह होश में आया तो कुछ भी मांग सकता है। उधर घर पर पिता को दोपहर का भोजन देने में भी काफी देर हो चुकी थी।
जी हां, घर में मात्र उष्मा के पिताजी ही थे; वे भी चारपाई के मेहमान बने हुए थे। मां को चार साल से भी अधिक समय हो चुका था स्वर्ग सिधारे, दो भाई, एक बहन थी। बहन को आज का दहेज दानव निगल गया था, उसी बहन के गम में उष्मा के बड़े भाई ने संन्यास ले लिया था। घर-संसार से नाता तोड़कर मोह-माया से मुक्त होकर आजकल अयोध्या धाम में संत आश्रम में रहता था। रहा छोटा भाई, वह हैजे का शिकार हो गया था। बस इतने बड़े परिवार में और इस घर में एक उष्मा के वृद्ध पिताजी रह गए थे या फिर उष्मा रानी।
समय परिवर्तनशील है, उतार-चढ़ाव आना भी स्वाभाविक है। कोई समय था, जब उष्मा के पिताजी एक माने हुए लठैत थे, ठेकेदार भी बहुत बड़े। दूर-दूर तक नामी शख्सियत थे। जब जाने-माने ठेकेदार थे, तब उनके घर लक्ष्मीजी की भी अपार कृपा थी। धन-दौलत से भरा-पूरा सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। आज से दस वर्ष पहले एक अन्य ठेकेदार, जो इनसे ईर्ष्या करता था, ने कुछ छंटे हुए बदमाश लाकर उष्मा के घर रात में आग लगवा दी। सब कुछ जलकर स्वाहा हो गया था, घर में कुछ भी तो नहीं बचा था। गृहस्थी की गाड़ी आगे बढ़ाने की गर्ज से जो बैंक बैलेंस बचा था, उसमें से कुछ भाग घरेलू आवश्यक सामान जुटाने में लग गया। बाकी बचा धन बड़ी बेटी की शादी पर लगाया। बाद में फिर जोड़-बटोरकर बीस-पच्चीस हजार उष्मा की शादी पर लगा दिया। उष्मा की शादी के बाद मां स्वर्ग सिधार गई। उनके क्रिया-कर्म पर अच्छा-खासा खर्च आ गया। आग लगने के बाद तो उष्मा के पिताजी कर्ज पाटते ही रह गए, परंतु कर्ज नहीं पाट पाए थे। कुदरत ने फिर कहर का शिकार बनाया। उष्मा के पिता अधरंग की चपेट में आ गए। इसलिए अब वे चारपाई के मेहमान बने थे। डेढ़ साल हो गया, उनकी दवा-दारू और कर्ज-भार उष्मा की अकेली जान पर आ पड़ा। घर का खर्च चलाकर जो बच पाता, उससे पुराना कर्ज भी पाट रही थी।
(2)
दोपहर साढ़े तीन बजे के बाद उष्मा जलती-खपती पैदल घर पहुंची। रक्तदान किया था, इस कारण उसे मार्ग में कई जगह बैठना भी पड़ा था। अभी भी उसे कभी-कभी चक्कर आ रहे थे, अतः उठकर खड़ी होने पर आंखों के सामने अंधेरा भी छा जाता। ऐसा उसका रक्त अधिक लिए जाने के कारण हो रहा था। दो बोतल रक्त कौन-सा कम लिया था। उसके पिता इंतजार में व्याकुल थे। उष्मा घड़ी-भर भी आगे-पीछे हो जाती तो उसके पिता के प्राण सूखने लग जाते। बेटी तो फिर बेटी होती है, चाहे सुघड़-सुंदर हो या फिर बदसूरत-कुरूप। एक आंख से नेत्रहीन हो अथवा लूली-लंगड़ी। हर संतान पिता के लिए अति प्यारी होती है। हर मां-बाप के लिए बेटी जिगर का टुकड़ा होती है। फिर उष्मा जैसी रूपवान सुंदर बेटी के लिए कंगाल पिता देर होने पर क्यों न तड़प उठता। इसलिए उष्मा जब घर आई तो सीधे अपने पिता के पास पहुंची‒ ‘बापू, मैं आ गई हूं।’
‘आ गई मेरी बेटी, आज इतनी देर कहां लगा दी?’
‘भोजन कर लिया है बापू?’
‘टालो नहीं बेटे, मैंने पूछा है तुम दोपहर क्यों नहीं आईं? कुशल तो है?’
‘नहीं बापू कुशल-मंगल ही तो नहीं है, वरना समय पर घर न पहुंच जाती।’ संकुचित भावना, बेहद उदास और गुमसुम धीमे स्वर में बोली।
‘मेरी बच्ची, यह तू...तू क्या कह रही है?’ असीम व्यथा से पिता तड़प उठा था। वे धीरे से उठे; फिर उष्मा का हाथ पकड़कर अपने पास बैठा लिया‒ ‘यऽऽयह... यह तेरी आंखों में आंसू बेटी, जल्दी बोल क्या हुआ मेरी बच्ची?’ उष्मा के नयन सचमुच भर आए थे। तड़पते पिता ने अंक में लेकर बेटी के अश्रु पोंछे। इसके पश्चात उसने प्रारंभ से लेकर अंत तक अपने बापू को सारी व्यथा भरी घटना कह सुनाई। पिता रक्तदान की बात सुनकर काफी परेशान हो उठे। फिर बेटी को खींचकर अपनी छाती में दबोच लिया‒ ‘मेरे लाल, तू तो पहले ही मरी हुई है।’
‘बापू, सोचा मैंने भी यही था पर मैं गरीब थी, इसलिए मेरी चली नहीं। अस्पताल में आपातकाल के लिए ब्लड बैंक में खून न हो, यह संभव ही नहीं है, लेकिन बैंक का खून बड़े-बड़े अमीर धनी लोगों को चढ़ता होगा, प्रभावशाली राजनेताओं को चढ़ता होगा या फिर धन लेकर डॉक्टर खून बेचते होंगे। उधर रक्त के अभाव में मरीज खतरे में है‒सुनकर मैं घबरा गई। रह-रहकर अंतरात्मा कचोटने लगी, मन-मस्तिष्क की रग-रग बेकाबू हो उठी; दिल विकराल भार-सा महसूस करने लगा। फिर विवेक भी फटकारने लगा‒वह जिंदगी जीना व्यर्थ है, जिसने परोपकार से मुंह मोड़ लिया। वह इंसान नहीं हैवान है, जो समर्थ होकर भी मौत के मुंह में समा रहे को वापस जीवनदान न दे सके। बापू, मैं अपने सबल मन के आगे बहुत ही निर्बल पड़ गई थी, इसलिए यह जोखिम उठा बैठी, मुझे माफ कर दीजिए पिताजी।’ इस तरह वह बापू की छाती में मुखड़ा छुपाकर सुबक पड़ी। पिता ने बेटी को पुनः