Discover millions of ebooks, audiobooks, and so much more with a free trial

Only $11.99/month after trial. Cancel anytime.

Note Mein Gandhi
Note Mein Gandhi
Note Mein Gandhi
Ebook238 pages2 hours

Note Mein Gandhi

Rating: 0 out of 5 stars

()

Read preview

About this ebook

महात्मा गांधी ने भारत देश को आजाद कराया। ‘नोट में छपे गांधी’ के मर्म में गांधी की दुःखी आत्मा भारत की दयनीय स्थिति की ओर इशारा करती है। वर्तमान सन्दर्भ में व्यंग्य की विधा में कथा के माध्यम से यह कहानी, जूझते हुए एक ऐसे इंसान की स्थिति को बयां करती है जिस पर आत्ममंथन की आवश्यकता है। मानवता का दंश समाज के ऊपर भारी है, जहां चिन्तन दिशा सतत उस पवित्र नदी की तलाश करती है जहां पवित्र गंगा में उसका दोष धुल सके। इस निर्मलता के लिए फिर से एक अवतरण है ‘नोट में गांधी’ मानवता दम तोड़ रही है।
कथानक की दिव्य दृष्टि जिज्ञासा को शान्त करती है, साथ ही प्रेरणादायी होती है। कथानक का उद्देश्य समाज को आने वाले समय में विकल्प देना होता है। ध्येय की दृष्टि से समाज के प्रति पैनी नजर भी होती है, निश्चित रूप से कथाकार का उद्देश्य काल को परिणाम देना है। यह लक्ष्य भी सुखदाई होता है। पाठकों को कहानी के प्रति जिज्ञासु बनाकर उसे दीर्घकालिक बनाना है जिससे उज्ज्वल भविष्य का स्वप्न बुनकर समाज एवं राष्ट्र के भविष्य को संवारने में अपना योगदान दे सकें।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateOct 27, 2020
ISBN9789385975189
Note Mein Gandhi

Related to Note Mein Gandhi

Related ebooks

Related categories

Reviews for Note Mein Gandhi

Rating: 0 out of 5 stars
0 ratings

0 ratings0 reviews

What did you think?

Tap to rate

Review must be at least 10 words

    Book preview

    Note Mein Gandhi - Dr. Uma Singh

    जान

    गांधी ने गरदन तान ली

    गांधी जी की मूर्ति, ‘ऐ चि….चि, इधर देखो।’

    राहगीर, ‘क्या देखूं ? क्यों देखूं ?’

    गांधी जी की मूर्ति, ‘मैं वही गांधी हूं जिन्होंने भारत को आजादी दिलाई। देखो न मेरे ऊपर धूल पड़ गयी है पोंछ दो न, थोड़ा साफ कर दो न। मेरे चश्मे पर धूल पड़ गयी है, मुझे कुछ दिखता नहीं है। साफ कर दोगे तो तुम्हें आता-जाता देखूंगा। तसल्ली होगी कि आजाद भारत में तुम जी रहे हो।’

    राहगीर, ‘इतनी भीड़ है यदि तेरे कहने में आ गया तो मेरा सारा काम पीछे हो जायेगा। नौकरी जरूरी है वरना बीवी बच्चे भूखे मरेंगे। तुम्हारा क्या है? नहीं धूल पोंछूंगा तब भी चलेगा। चल-चल मुझे बहुत काम करना है।’

    गांधी जी की मूर्ति, ‘मैंने भूखे पेट रहकर तुम्हारे लिये लड़ाई लड़ी थी समझे! अपने हाथ का कता वस्त्र पहना था। विदेशी कपड़ा जलाकर स्वदेशी की शुरूआत की, असहयोग आन्दोलन चलाया था। मेरी मूर्ति पर पड़ी धूल भी साफ नहीं कर सकते हो, बस पांच मिनट ही लगेंगे। कपड़ा लेकर पहले झाड़ दो फिर पानी से भिगोकर पोंछ दो।’

    राहगीर, ‘ये बता मूर्ति पर सुनाई करने से क्या मिलेगा, कुछ नहीं। व्यर्थ समय क्यूं बरबाद करूं?’

    गांधी जी की मूर्ति, ‘आते-जाते लोगों पर दृष्टि सही नहीं पड़ रही है। मेरा मन नहीं लग रहा है, ऊब गया हूं, जाने किसने बीच चौराहे पर मुझे मेरी मूर्ति बनाकर खड़ा कर दिया। बापू अमर रहे, बापू अमर रहे’ करके एक बार भी पलटकर नहीं आये कि मेरे ऊपर जमी धूल साफ कर दें, फिर एक राहगीर पर हल्की-सी नजर पड़ी।

    गांधी आश्रम का धोती-कुर्ता पहने है, ये तो जरूर काम करेंगे।

    ‘ऐं चि…..चि……इधर देखो इधर मैं महात्मा गांधी की मूर्ति! देखो, मेरे ऊपर धूल जम गयी है साफ कर दो।’

    राहगीर ने साइकिल रोककर एक पल देखा मूर्ति की ओर। उसे लगा इतने सफाईकर्मी लगे हैं, ये उनका काम है। साइकिल पर सवार होकर आगे बढ़ने लगा।

    गांधी जी की मूर्ति, ‘रुको…रुको मेरी बात सुनो, ‘मैंने ही गांधी जी के तीन बन्दर की बात कही थी। सत्य, अहिंसा के बलबूते पर आजादी दिलाई थी। रामराज्य की बात की थी। देखो धूल कितनी जमी है साफ कर दो न प्लीज।’

    राहगीर, ‘वो तो मैं सबकुछ जान रहा हूं यदि तू न होता तो अंग्रेजों से पंगा लेना सबके बस की बात नहीं थी। मैं बहुत भक्त हूं तेरा पर तेरी सफाई करने के वास्ते लगाया गया है किसी और को। क्यों वो हराम की कमाई खाते हैं? रोज आकर धूल साफ करना चाहिए। बताओ मैं सही कह रहा हूं न।’

    गांधी जी की मूर्ति, ‘हां, सही कह रहे हो।’

    राहगीर साईकिल पर सवार होकर आगे बढ़ गया। रास्तेभर सोचता रहा, ‘मैं तो शिक्षक ठहरा, अभी सफाई कर भी देता तो चौराहे पर खड़े लोग मुझे सफाईकर्मी समझते। फिर मैं क्यों गलत काम करूं। जिसका जो काम है, उसे करना चाहिए। मेरा कार्य बच्चों को शिक्षा देना है। पांच किलोमीटर साइकिल चलाकर पढ़ाने जाता हूं। मैं अपना कार्य ईमानदारी से कर सकता हूं तो सबको करना चाहिए।’ मन में धूल साफ न करने का मलाल था। गांधी जी ने आजादी दिलाई। आज उनकी मूर्ति की धूल साफ करने का समय किसी के पास नहीं है। मैं भी शिक्षक होने के गुमान में अनर्थ कर बैठा, छोड़ो, कल जाकर कोशिश करूंगा।’

    गांधी जी की मूर्ति, ‘आज किसी राहगीर पर फिर नजर पड़े जो भला-चंगा लगता हो तो शायद मेरी सफाई हो जाये।’

    राहगीर ‘साइकिल रोककर अपना गमछा निकाला और गांधी जी की मूर्ति को साफ करने की कोशिश करने लगा।’

    चौराहे पर किसी ने जोर से आवाज लगाई, ‘गुरु जी, ये काम आपको कब से मिल गया? पढ़ाई छोड़कर सफाई करने लगे।’

    राहगीर का हाथ सुनकर रुक गया। गमछा झाड़ कर अपने गले में डाल लिया। साइकिल पर सवार हो आगे बढ़ गया। मन से गिड़गिड़ाया ‘क्या जमाना आ गया है? अच्छा कार्य भी लोग करने नहीं देते। मैंने तो काम शुरू ही किया था कि व्यंग्य ने मेरे हाथ रोक दिये। वैसे मुझे उसके व्यंग्य के चक्कर में पड़ना नहीं चाहिए।’

    गांधी जी की मूर्ति, ‘वाह राहगीर, डर गये। तुम कायर हो, बुज़दिल हो। मेरी जमी धूल आधी ही साफ की। मैंने आजादी दिलाई पर आज मेरे लिए तुम्हारी सोच घटिया है। मैं ऐसा जानता तो ऐसे लोगों के लिए अपने व्यक्तिगत सुख की कुर्बानी नहीं देता। क्या कस्तूरबा ने नहीं कहा मुझे पर मैंने आजादी के वास्ते कस्तूरबा की बातों को एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल दिया। तुम अंग्रेजों के गुलाम रहते, भूख से बिलबिलाते और कोड़ों की मार खाते। मुझे क्या पड़ी थी आजादी दिलाने की? आजादी के वास्ते त्याग किया, समर्पण किया। आज मेरी मूर्ति पर पड़ी जमीं धूल साफ करने के लिए किसी के पास वक्त नहीं है, हिम्मत नहीं है, गांधी जी की मूर्ति से अश्रु टपक पड़े।

    राहगीर, ‘ऐ गांधी, रो मत मैं वापस आकर तेरी धूल साफ करता हूं। तू सही कह रहा है।’ वापस आकर साइकिल से उतर कर फिर गमछा निकालकर जमी धूल साफ करने लगा। बस कुछ कसर ही रह गयी थी कि हल्ला होने लगा, ‘साइकिल चोर…साइकिल चोर….।’

    राहगीर ने झट से गमछा गले में बांधा, ‘ऐ गांधी आज तो मेरी साइकिल गयी न। बता, इसी साइकिल से पांच किलोमीटर पढ़ाने जाता था। आज चूना लग गया न गांधी। चल, लगभग धूल साफ हो गयी है। मैं चला अपने घर।’ रास्ते भर सोचता रहा, ‘आज बड़ा नुकसान हो गया। मंगलू, चंगू, टिंकू, टीना की फीस बड़ी मुश्किल से पढ़ाई के वास्ते जमा कर पाता हूं। साइकिल खरीदने की हैसियत नहीं।’

    बच्चों को स्कूल में पढ़ाने के वास्ते राहगीर को अब पैदल पांच किलोमीटर जाना पड़ता है। बीच चौराहे पर गांधी जी की मूर्ति फिर पड़ी नजर पर फेर ली राहगीर ने।

    गांधी जी की मूर्ति, ‘ऐं चि….चि….।’

    राहगीर, ‘क्या चि… चि… करता है? मेरी साइकिल भी चोरी हो गयी। पैदल पांच किलोमीटर चलकर पढ़ाने जाता हूं। बता, मेरे पैरों में दर्द होने लगता है। तेरे चक्कर में पड़कर… पैर पटककर… आगे बढ़ गया।’

    गांधी जी की मूर्ति, ‘किसी ने दया दिखाई तो साइकिल चोरी हो गयी। मैं भी… धूल साफ हुई क्या मिल गया मुझे… बोली…

    धिक्कार है मुझ पर… दो बात सुनाकर चला गया… धिक्कार है मुझे बनाने वाले पर… जमी थी धूल तो जमी थी। उससे क्या फर्क पड़ता था? साफ हो गया। अब इस चश्मे से ‘उन गन्दे चरित्र वाले, विचार वाले को देखने से अच्छा था कि धूल ही पड़ी रहे। मैं भी परेशान हो गया। इन्हें आते-जाते देखकर मन प्रसन्न रहता…. पर दो बात सुनाकर चला गया…. कान पकड़ता हूं, गलती से भी किसी राहगीर से नहीं कहूंगा कि मेरे ऊपर जमीं धूल साफ कर दो।’

    आज फिर राहगीर चौराहे पर पहुंचा गांधी जी की मूर्ति को देख

    गिड़गिड़ाया…, ‘तेरे कारण दो घण्टे का समय बर्बाद होता है आने और जाने में, सब बापू तेरी वजह से, तेरी बला से।’

    गांधी जी की मूर्ति, ‘मुझे क्या पता था तेरी साइकिल चोरी हो जायेगी। वरना मैं नहीं कहता… देखो रोज मुझे देखकर पैर पटककर जाते हो लाल-लाल चेहरा लेकर। जाने दो, जो हो गया, सो हो गया।… चोर, भ्रष्टाचारी, बेईमान, बलात्कारी को देखने से तो अच्छा था कि मेरे चश्मे पर धूल जमी रहे। खैर तुमने मेरी आंखें खोल दीं। अब मैं किसी राहगीर से धूल साफ करने को नहीं कहूंगा। ये बता तू शिक्षक है, अच्छी कमाई है, दूसरी साइकिल खरीद ले।’

    राहगीर, ‘ऐ बापू तुझे नहीं मालूम इतनी महंगाई है कि बच्चों की शिक्षा ही किसी तरह से हो जाए तो गनीमत है। वो भी मुश्किल है।’

    गांधी जी की मूर्ति, ‘इतना कुछ बदल गया भारत में, अच्छाई कोसों दूर चली गयी, फिर मुझे क्यों मूर्ति बनाकर रखा ? जब अच्छाई चली गयी तो मुझे भी भूल जाते। अब मुझे कितना कष्ट हो रहा है, इसका अन्दाजा तुम लोगों को नहीं है।’

    गांधी जी की मूर्ति, ‘अरे! इसे क्या हुआ? ये क्यूं मेरी मूर्ति के नीचे बैठकर रो रहा है? क्या हुआ? क्यों रो रहे हो? कौन हो तुम?’

    किसान, ‘मैं किसान हूं। मेरी फसल बर्बाद हो गयी है। सरकार मेरे लिए कुछ नहीं कर रही है। मेरे बीवी-बच्चे भूखे मर जायेंगे’, कहकर किसान रोने लगा।’

    गांधी जी की मूर्ति, ‘मैंने लघु कुटीर के माध्यम से ग्राम स्वराज्य रामराज्य का स्वप्न देखा था। आज उसकी ये हालत! इससे तो अच्छा था जो धूल जमी थी मेरे चश्मे पर। पोंछ दिया राहगीर ने। इसे देखकर लगता है फिर से चश्मे पर धूल जम जाये। आजाद भारत को फिर से विसंगतियों, असमानताओं, गरीबी, अधर्म के खिलाफ लड़ाई लड़नी चाहिए पर भारत की दुर्दशा देखकर लगता है, अच्छा हुआ मैं नहीं हूं। अंग्रेजों से प्रताड़ित जनता चाहती थी वो आजाद हो इसलिए कामयाबी मिली थी मुझे पर अब के लोग बुराई छोड़ना नहीं चाहते। कैसे कामयाब होता मैं? अच्छा है बर्बाद भारत की तस्वीर देखने हेतु मैं जिन्दा नहीं हूं।

    ‘ऐ किसान तू अनशन क्यूं नहीं करता, हड़ताल क्यूं नहीं करता? सत्याग्रह क्यों नहीं करता? कुछ तो कर अपने वास्ते, ऐसे बैठकर रोने से काम नहीं चलेगा।’

    किसान, ‘नक्कारखाने में तूती की आवाज’ नहीं गूंजती। अब वो दिन नहीं रहे कि अनशन करने पर सुनवाई होगी। पेट्रोल छिड़ककर आत्मदाह कर लेते हैं लोग, सरकार के कान में ‘जूं नहीं रेंगती।’ अब सत्याग्रह, अनशन, हड़ताल, अहिंसा, कमजोर अस्त्र हैं। धन बाहुबली शस्त्र है।’

    गांधी जी की मूर्ति, ‘रो मत किसान भाई चिन्ता न कर। यदि इतना पतन हो गया है तो ऊपर वाले भगवान पर भरोसा रख, वह इंसाफ करेगा। राम….राम….राम….।’

    किसान, ‘हां सही कह रहे हैं आप लेकिन जब इंसाफ होगा तब तक मैं जिन्दा रहूंगा ही नहीं।’

    गांधी जी की मूर्ति, ‘ऐ ये क्या कर रहा है ? किसी लड़की का दुपट्टा छीन रहा है। लड़का पागल हो गया है?’

    लड़का, ‘ऐ चुपकर, गांधीजी की मूर्ति, जहां है वहीं चुपचाप रह, जो मैं कर रहा हूं, करने दे।’

    गांधी जी की मूर्ति, ‘एक बार महिला के शरीर पर वस्त्र नहीं था। अपनी आधी धोती फाड़कर मैंने उसकी लाज ढकी थी। आज तुम ये क्या कर रहे हो? शर्म करो… राम… राम… छिः.. छिः।’

    लड़का, ‘मैं कोई सन्त नहीं हूं, आज का मॉडर्न युवक हूं, सुन्दर-सुडौल हूं, तभी तो कर रहा हूं। करूंगा क्या होगा जमानत होगी छूट जाऊंगा। मेरे, पिता बहुत धनी हैं। धन की आड़ में मुझे फांसी नहीं मिलेगी। ऐ गांधी बन्द कर अपना प्रवचन।’

    गांधी जी की मूर्ति, ‘राम… राम… राम वाह भारत! वाह भारतवासी! यहां देवी दुर्गा की पूजा होती है… राम… राम… छिः… छिः…।’

    आंधी का झोंका आया फिर धूल जम गयी गांधी जी के चश्मे पर मूर्ति पर, ‘चलो बड़ा सुकून मिला। अब मैं इन लोगों को नहीं देखूंगा तो कष्ट भी नहीं होगा बर्बाद भारत का। आंख बन्द करने से तो अन्धकार नहीं हो जाता, सिर्फ बन्द करने वाले के लिए ही

    अन्धकार होता है। यह विकल्प नहीं, क्या करूं मैं… जिन्दा तो हूं

    नहीं… खैर जिन्दा रहता तो ये हालात देखकर… शुक्र है मैं जिन्दा नहीं हूं। भुखमरी, लाचारी, बेईमानी, महंगाई, भ्रष्टाचार, बलात्कार, अत्याचार, छिः…छिः…। ये भारत है जिसके लिए मैंने कुर्बानी दी। इतना कुछ होने के बाद जाने क्यूं मुझे दो अक्टूबर पर माला पहनाने चले आते हैं। इनके हाथ से माला इस बार नहीं पहनूंगा क्योंकि इनके हाथों से बेईमानी की दुर्गन्ध आयेगी। अब तो लोग आते रहे, जाते रहे, गांधी जी की मूर्ति ने किसी राहगीर से ये नहीं कहा कि मेरे ऊपर जमी धूल साफ कर दो। इससे अच्छा अपने अन्दर की गन्दगी साफ कर लेते लोग। आज दो अक्टूबर था, लोग माला लेकर ‘गांधी जी अमर रहें…

    Enjoying the preview?
    Page 1 of 1