तनहा सफ़र
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कहानी की मुख्य पात्री, निर्मला, विशुद्ध ह्रदय से यह विश्वास लेकर अपने जीवन पथ पर बढती हुई, बड़ी होती जा रही थी, कि जीवन पूर्ण है| मगर इस विश्वास के साथ वह अधिक दूर तक चल न सकी| कितनी ही पीड़ाओं को सहकर उसने सीखा कि कोमल कुसुम की डाल काँटों भरी है, और शीतल चंदन के वृक्ष में विषधर लिपटा रहता है| त्याग के पीछे स्वार्थ रहता है| कितनी आहें भरकर उसने जाना कि, इस विश्व में सत्य, शिव और सुन्दर एक दूसरे से कितना दूर है| उसने जब देखा, इस संसार में सिर्फ पाप का ही विरोध नहीं होता, पुण्य का भी विरोध होता है| न्याय से न्याय का विरोध है, और सत्य का सत्य से|
जब उसके सारे अरमान टूट गए, इच्छाएँ विलुप्त हो गईं, ह्रदय जल गया, तब उसने अपूर्णता के आगे शीश झुका दिया, और यह मानने के लिए बाध्य हुई कि जलते हुए ह्रदय की रौशनी में, विश्व-अन्धकार, जो मार्ग दिखाई पड़े, उस ओर बढ़ने के लिए तैयार रहना होगा|
उसके दग्ध ह्रदय के प्रकाश में, उसने देखा, जब पृथ्वी अपने अजिर में बसंत बनाती है, तब इस बसंत में कितने ही तरु ऐसे भी होते हैं, जिनका बसंत आने पर सब कुछ लुट जाता है, वे पत्रहीन और फलहीन हो जाते हैं| वे दग्ध-स्थल बसंत की खुशियाँ नहीं मना पाते हैं| तब उन्हें मालूम होता है, कि बसंत आता तो है, पर सबों के लिए नहीं|
कहते हैं, सत्ता की कल्पना, कल्पना से अधिक वैभवपूर्ण होती है| पर निर्मला स्वप्नों का धनि नहीं होना चाहती| वह उपरवाले से कहती है, जब मेरे जीवन की तृप्ति का साधन नहीं तो तुमने मुझे प्यास दिया ही क्यों? यह प्यास, दिन-रात मेरा रक्त पीता रहता है| मेरी त्वचा के छिद्र-छिद्र से अपने सूक्ष्म अधरों को लगाकर मेरा शोषण करता रहता है, और मौन ग्रहण किये सहती रहती हूँ| लगता है, यह मौन शीघ्र ही मुझे चिर मौन की शरण में पहुँचा देगा|
दरअसल उसके साथ हुआ भी वैसा ही, प्रतिपल अपने स्वप्न संसार के सामने सत्य संसार को असत्य समझने वाली, निर्मला को, अपने सारे स्वप्नों को भूल जाना पड़ा| जब देव से उसे हर क्षण दुत्कार मिला, चतुर्दिक अग्निज्वालमाला से घिरे बच्चों की तरह वह चीख पड़ी, कही, ‘ईश्वर तुमने यह कैसी जिंदगी दिया? मुझे तुमसे ऐसी जिन्दगी कीउम्मीद नहीं थी| तुम इसे लौटा लो, नहीं तो मैं लौटा दूँगी|
वह जब तक जिन्दी रही, उसकी आँखों से, अविरत-अविरल धारा बहती रही| मानो प्रतिज्ञा कर ली हो, कि जब तक इन आँखों से उन सारे स्वर्ग को बहा नहीं दूँ, जिसके कारण मैं जिन्दगी की वास्तविकता को समझ न सकी|
शादी से पहले, और बाद न जाने कितने स्वप्न दूर-दूर से मेरे निकट आये, पर सबके सब मृगजल के सामान अंतर्धान हो गए| वह स्वप्न और यह सत्य, दोनों ने मिलकर मेरे ह्रदय पर बज्रघात किया| मैं अपने भविष्य के तमोमय साम्राज्य में कब तक रहकर, जिन्दगी की डोर को पकड़े रहूँ? संभव है, सीपी के फट जाने पर हमारे समाज को मुक्ता का दर्शन हो|
डॉ. तारा सिंह
Dr. Tara Singh, well known Hindi Litterateur, a versatile writer, taking keen interests in writing Poems, Short Stories, Novels, Ghazals, Filmy Songs and Essay Books.She always deals with real facts and original aspects of a relationships between individuals / family members / friends. Thus, she illustrates not only the pleasant love but also sometimes resulting development like despair, betrayals and disloyalties.With publication of 46 books (Novels-4, poetry books-20, story books-15, Ghazal books-7), she is presently working as the Editor-in-Chief and Administrator of www.swargvibha.com (A leading Hindi Website) and the Swargvibha Hindi quarterly magazine. She has gotten wide applauses for her emotional and thoughtful Poems, Stories and Ghazals, while dealing with Social and Family issues, Personal and Social delicacies, Philosophy of life and Reality, Birth and Death Cycles, etc.Dr. Tara Singh's outstanding works have been duly recognized and she has already been awarded 255 awards / felicitations / trophies from both National and International Organizations of repute. Her writings / books are now available at www.swargvibha.com and www.kukufm.com (As Audiobooks), Google books, www.amazon.in, www.flipkart.com, Insta Publish, Suman Publications, www.pothi.com, Central and State Libraries in India and 30 other websites world over, etc. Her Biography, “TARA SINGH AUTHOR” has been published by Barnes and Noble (USA 2011) and also by Rifacimento International, 9 times in Who's Who (2006-2019) and Wikipedia. Her writings are always full of serious thoughts, topics, pace of happenings and philosophy of life.
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Book preview
तनहा सफ़र - डॉ. तारा सिंह
तनहा सफ़र
उपन्यास
Author: डॉ. तारा सिंह
Published: 11 February 2023
E-book Edition
Copyright © डॉ. तारा सिंह
All rights reserved including the right to reproduction of this book whole or in part
Publisher: Swargvibha Publishing House
Publisher Address: A-1601, Sea Queen Heritage, Plot-6, Sector-18, Sanpada, Navi Mumbai, Maharashtra - 400705
प्रस्तुति
कहानी की मुख्य पात्री, निर्मला, विशुद्ध ह्रदय से यह विश्वास लेकर अपने जीवन पथ पर बढती हुई, बड़ी होती जा रही थी, कि जीवन पूर्ण है| मगर इस विश्वास के साथ वह अधिक दूर तक चल न सकी| कितनी ही पीड़ाओं को सहकर उसने सीखा कि कोमल कुसुम की डाल काँटों भरी है, और शीतल चंदन के वृक्ष में विषधर लिपटा रहता है| त्याग के पीछे स्वार्थ रहता है| कितनी आहें भरकर उसने जाना कि, इस विश्व में सत्य, शिव और सुन्दर एक दूसरे से कितना दूर है| उसने जब देखा, इस संसार में सिर्फ पाप का ही विरोध नहीं होता, पुण्य का भी विरोध होता है| न्याय से न्याय का विरोध है, और सत्य का सत्य से|
जब उसके सारे अरमान टूट गए, इच्छाएँ विलुप्त हो गईं, ह्रदय जल गया, तब उसने अपूर्णता के आगे शीश झुका दिया, और यह मानने के लिए बाध्य हुई कि जलते हुए ह्रदय की रौशनी में, विश्व-अन्धकार, जो मार्ग दिखाई पड़े, उस ओर बढ़ने के लिए तैयार रहना होगा|
उसके दग्ध ह्रदय के प्रकाश में, उसने देखा, जब पृथ्वी अपने अजिर में बसंत बनाती है, तब इस बसंत में कितने ही तरु ऐसे भी होते हैं, जिनका बसंत आने पर सब कुछ लुट जाता है, वे पत्रहीन और फलहीन हो जाते हैं| वे दग्ध-स्थल बसंत की खुशियाँ नहीं मना पाते हैं| तब उन्हें मालूम होता है, कि बसंत आता तो है, पर सबों के लिए नहीं|
कहते हैं, सत्ता की कल्पना, कल्पना से अधिक वैभवपूर्ण होती है| पर निर्मला स्वप्नों का धनि नहीं होना चाहती| वह उपरवाले से कहती है, जब मेरे जीवन की तृप्ति का साधन नहीं तो तुमने मुझे प्यास दिया ही क्यों? यह प्यास, दिन-रात मेरा रक्त पीता रहता है| मेरी त्वचा के छिद्र-छिद्र से अपने सूक्ष्म अधरों को लगाकर मेरा शोषण करता रहता है, और मौन ग्रहण किये सहती रहती हूँ| लगता है, यह मौन शीघ्र ही मुझे चिर मौन की शरण में पहुँचा देगा|
दरअसल उसके साथ हुआ भी वैसा ही, प्रतिपल अपने स्वप्न संसार के सामने सत्य संसार को असत्य समझने वाली, निर्मला को, अपने सारे स्वप्नों को भूल जाना पड़ा| जब देव से उसे हर क्षण दुत्कार मिला, चतुर्दिक अग्निज्वालमाला से घिरे बच्चों की तरह वह चीख पड़ी, कही, ‘ईश्वर तुमने यह कैसी जिंदगी दिया? मुझे तुमसे ऐसी जिन्दगी कीउम्मीद नहीं थी| तुम इसे लौटा लो, नहीं तो मैं लौटा दूँगी|
वह जब तक जिन्दी रही, उसकी आँखों से, अविरत-अविरल धारा बहती रही| मानो प्रतिज्ञा कर ली हो, कि जब तक इन आँखों से उन सारे स्वर्ग को बहा नहीं दूँ, जिसके कारण मैं जिन्दगी की वास्तविकता को समझ न सकी|
शादी से पहले, और बाद न जाने कितने स्वप्न दूर-दूर से मेरे निकट आये, पर सबके सब मृगजल के सामान अंतर्धान हो गए| वह स्वप्न और यह सत्य, दोनों ने मिलकर मेरे ह्रदय पर बज्रघात किया| मैं अपने भविष्य के तमोमय साम्राज्य में कब तक रहकर, जिन्दगी की डोर को पकड़े रहूँ? संभव है, सीपी के फट जाने पर हमारे समाज को मुक्ता का दर्शन हो|
-तारा सिंह
तनहा सफ़र
संध्या हो चली थी| निर्मला अपनी सहेलियों के साथ खेलकर घर लौट रही थी, तभी उसने देखा, ‘गाँव की, सैकड़ों की संख्या में औरतें, सब के सब गहनों से लदी हुई, मर्द, बच्चे, बूढ़े सभी उत्तम कपड़े पहने, सजे-धजे ढोल, बैंड- बाजे के साथ कहीं जा रहे हैं|
निर्मला दौड़ती हुई घर आई, और पिता, दौलतराम से हांफती हुई बोली, ‘बाबू, बाबू! घर से बाहर निकलो, देखो, हमारे मोहल्ले की सभी, दादी, चाची, बुआ, बड़े भैया, चाचा मेला देखने जा रहे हैं| मुझे भी जाना है, ले चलो न|’
दौलतराम जी, बेटी निर्मला की तरफ करुण दृष्टि से देखकर बोले, ‘बेटा! वे लोग मेले में नहीं, बल्कि एक शादी में जा रहे हैं| तभी उनकी पत्नी नीता, जो रसोई में काम कर रही थी, दौड़कर बाहर आई, और सजल नेत्रों से पूछी, ‘किसकी बेटी विदा हो रही है?’
दौलतराम, खाट से उठते हुए, कहे, ‘बिनोद की बेटी की शादी है, कल चली जायेगी, लगता है, वे लोग देवता-पूजन के लिए गाँव के बाहर, तालाब पर जा रहे हैं|’
निर्मला, अत्यंत नम्रता से पूछी, ‘बाबू! शादी कर लडकियाँ देवता के घर चली जाती हैं?’
‘तो फिर मेरा देवता कहाँ रहता है? तुमने उसे देखा है कभी?’, निर्मला|
‘अभी तुम बच्ची हो, जब बड़ी हो जावोगी, तब देखने चलेंगे’, दौलतराम|
‘तो नहीं देखा है’, निर्मला|
आँख का आँसू पोछकर दौलतराम बोले, ‘नहीं, अब तक|’
दौलतराम, ‘तुमको ले जाने, तुम्हारा देवता स्वयं घोड़े पर चढ़कर तुम्हारे घर आयेगा और पालकी पर बिठाकर ले जाएगा| अभी आप हाथ-मुँह धोकर, अपने स्कूल के दिये होम वर्क को पूरा कर लीजिये, वरना कल मैडम बड़ी डांटेगी|’
निर्मला के स्कुल चले जाने के बाद, दौलतमल, आँखों में आँसू भरकर पत्नी नीता से बोले, ‘तो क्या निर्मला, हमें छोड़कर एक दिन अपने घर चली जायेगी, तब उसके बिना हमलोग कैसे जीयेंगे? जानती हो नीता, वह दिन-व-दिन ज्यों-ज्यों बड़ी हो रही है, त्यों-त्यों हमसे अधिक प्रेम बढ़ाती जाती है| कभी मेरा बाल सहलाती है| कभी ग्लास में पानी लाकर कहती है, बाबू पानी पीयोगे, प्यास लगी है? जानती हो नीता, उसका मान रखने के लिए मैं बिना प्यास का पूरा ग्लास पानी