सिसकती मोहब्बत
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'सिसकती मोहब्बत' प्रसिद्ध भाषाविद, डॉ तारा सिंह द्वारा लिखित तीसरा सफल उपन्यास है। यह हमारे समाज में प्रचलित पारिवारिक जीवन के दोनों सत्य के साथ-साथ काल्पनिक पहलुओं से संबंधित है। कोई सामान्य दुःख की प्राप्ति की अनुभूति में भिन्न हो सकता है, जबकि दूसरा इसे हल्का लेता है। दूसरे के दिल को जला दिया जाता है;यहाँ तक कि दिल और दिमाग एक दूसरे के पूरक नहीं हैं। पति और पत्नी (जैसे कि उपन्यास में विवेक और रज्जो की तरह) कई अवसरों पर उनके संबंधित विकल्प, राय और दृढ़ विश्वास भिन्न होते हैं। हालांकि दिमाग हमारे जीवन के निश्चित बंधनों में शामिल होने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, दिलों को जीवन को खुशी और रूमानी बनाने के लिए प्यार के प्रवाह की सुविधा प्रदान करता है।
डॉ. तारा सिंह
Dr. Tara Singh, well known Hindi Litterateur, a versatile writer, taking keen interests in writing Poems, Short Stories, Novels, Ghazals, Filmy Songs and Essay Books.She always deals with real facts and original aspects of a relationships between individuals / family members / friends. Thus, she illustrates not only the pleasant love but also sometimes resulting development like despair, betrayals and disloyalties.With publication of 46 books (Novels-4, poetry books-20, story books-15, Ghazal books-7), she is presently working as the Editor-in-Chief and Administrator of www.swargvibha.com (A leading Hindi Website) and the Swargvibha Hindi quarterly magazine. She has gotten wide applauses for her emotional and thoughtful Poems, Stories and Ghazals, while dealing with Social and Family issues, Personal and Social delicacies, Philosophy of life and Reality, Birth and Death Cycles, etc.Dr. Tara Singh's outstanding works have been duly recognized and she has already been awarded 255 awards / felicitations / trophies from both National and International Organizations of repute. Her writings / books are now available at www.swargvibha.com and www.kukufm.com (As Audiobooks), Google books, www.amazon.in, www.flipkart.com, Insta Publish, Suman Publications, www.pothi.com, Central and State Libraries in India and 30 other websites world over, etc. Her Biography, “TARA SINGH AUTHOR” has been published by Barnes and Noble (USA 2011) and also by Rifacimento International, 9 times in Who's Who (2006-2019) and Wikipedia. Her writings are always full of serious thoughts, topics, pace of happenings and philosophy of life.
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सिसकती मोहब्बत - डॉ. तारा सिंह
ज़िन्दगी, बेवफा मैं नहीं
उपन्यास
Dr. Tara Singh
ज़िन्दगी, बेवफा मैं नहीं
उपन्यास
Author: Dr. Tara Singh
Revised Second Edition
ISBN: 978-81-950543-1-2
Published: April 2021
Copyright © 2021 Dr. Tara Singh
All rights reserved, including the right of reproduction whole or in part in any form.
Publisher: Swargvibha Publishing House
Publisher Address: A-1601, Sea Queen Heritage, Plot-6, Sec-18, Sanpada, Navi Mumbai, Maharashtra – 400705
अपनी बात
मैंने अपनी अनुभूति के सरिता तट से, असंख्य नई दुःख-लहरों को आते, और पुरानी लहरियों को लौटते देखा है| मगर कौन, किससे अधिक बलशाली और गहरी थी, इसकी माप-तौल मैं नहीं कर सकी| करती भी कैसे, गणित के अंकों में उसे बाँधना जो मुमकीन नहीं था| आज वही दुःख उहापोहों के नवीन धरातल पर, मानवीय भावनाओं का वस्त्र पहनाकर, तथा उसे मानवीय रूप, आकार ग्रहण कराकर, ‘जिन्दगी, बेवफा मैं नहीं" के रूप में आपके समक्ष प्रस्तुत है|
मेरा मानना है, हमें बनाने वाला ईश्वर, अपनी मोहब्बत की आढ़ में, हम इंसानों के साथ जो सुख-दुःख के खेल खेलता है, वहबड़ा ही निराला है| हम, उसे अपनी श्रद्धा-भक्ति से, अपना बनाकर, अपने दिल में रखते हैं| इसलिए कि, हमारा जीवन कलुषमय न रहे, मगर ऐसा होता नहीं| वह तो मनुज को धरती पर उतारने से पहले ही उसके हिस्से के सुख-दुःख, रोग, संताप को यहाँ उतार देता है| जो धरा पर पैर रखते ही, मनुज भाग्य से जंजीर बनकर लिपट जाता है| ‘अजय’ और ‘पारो’ की व्यथा, वेदना की यह कहानी उन्हीं नीतियों की एक क्रूर कहानी है|
यह उपन्यास, मेरी उपन्यास-माला का चौथा फूल है| इसमें जहाँ राग-विराग, दुःख-दर्द तथा प्रेम के विविध अनुभवों का जीवंत दर्शन है, तो दूसरी ओर प्रेम से उपजी निराशा, बेवफाई, वेदना और वियोग का तड़प भी है, साथ ही लोक-मंगल की भावना की कामना भी है| इस कहानी में, कुछ अंश वियोग शृंगार है| परन्तु आत्म संतावना के कारण आगे बढ़ने पर, धीरे-धीरे वेदना सामान्यीकृत होते-होते सारे संसार के चिरदग्ध दुखी व्यक्तियों तक पहुँचकर लोक पीड़ा का रूप धारण कर लेती है| ‘जिंदगी, बेवफा मैं नहीं’ में ‘पारो’ की निजी पीड़ा, संसार में व्याप्त हाहाकार का पर्याय मैंने कहीं नहीं बनने दिया है| मेरा मानना है कि यह संसार है, और संसार में सुख-दुःख पहिये की भाँति घूमने वाला क्रम है| इसलिए, मनुज को चाहिये कि दुःख से मुक्त होकर फिर से नया जीवन आरम्भ करे, न कि अपनी अतृप्त कामनाओं की अपूर्णता से उत्पन्न विषमता, से हारकर, थककर बैठ जाना|
मैंने यहाँ इस बात का पूरा ख्याल रखा है कि कहीं पर भी प्रेम भावना उच्छृंखल या जड़, या आवेशपूर्ण अथवा स्वार्थजनित न हो| भावना का उतार-चढ़ाव या घमाव सजग और मंथर रहे, क्योंकि प्रेम-बंधन को हम उस आदिम मनोवृति से नहीं जोड़ सकते, जिसमें कामना की विध्वंसता परिलक्षित हो, बल्कि इस रोमांसलता को मैंने पवित्र मांसलता के रूप में रखने का यथा संभव प्रयास किया है| जिसकी अभिव्यक्ति में निहित सौन्दर्य-चेतना एक नए प्रकार के संस्कार युक्त मनुष्य के भावना-पट से उद्भूत सौन्दर्य-सृष्टि से परिचालित हो|
मेरे उपन्यास के इस सोपान की कथाभूमि बहिर्गमन और अंतरमन के रास्ते को अपने अनुभव के प्रकाशमान धरातल पर एक जगह मिलाती है| इसमें एक भरा पूरा ठोस संसार है, भले ही यह संसार दृष्टिगोचर नहीं है, पर दृष्टिबोध का एक बृहत्तर यथार्थ संसार है|
मेरा मानना है, नारी केवल मांसपिंड की संज्ञा नहीं है| आदिम काल से आज तक विकास-पथ पर पुरुष का साथ देकर, उसकी यात्रा को सरल बनाकर, उसके अभिशापों को स्वयं झेलकर और वरदानों से जीवन में अक्षय शक्ति भरकर, मानवी ने जिस व्यक्तित्व, चेतना और ह्रदय का विकास किया है, उसी का पर्याय नारी है| जागृत युग के आदर्शवादी कवि ने मलिनता में मिली पुरानी मूर्ति के समान, उसे स्वच्छ और परिष्कृत करके उच्च सिंघासन पर बिठाकर प्रतिष्ठित तो कर दिया, परन्तु वह उसे गतिशीलता देने में असमर्थ रहा| और यही असमर्थता उसके लिए अभिशाप बनकर, उसकी राह को कंटकमय बनी रही है|
अंत में इस भूमिका के रूप में, प्रस्तुत अपने विचारों, विश्वासों तथा जीवन मान्यताओं, त्रुटियों एवं कमियों के सम्बन्ध में पाठकों से क्षमा प्रार्थना करती हुई, अपने अतीत के इन स्वप्न भार नत स्मरणों से विदा लेती हूँ|
--- तारा सिंह
ज़िन्दगी, बेवफा मैं नहीं
अजय के दादा, रामेश्वर बड़े मेहनती और धार्मिक प्रवृति के इन्सान थे| जमा-पूंजी के नाम पर, वे अपने पीछे एक झोपड़ा और एक गाय छोड़ गये थे| समरकांत (अजय के पिता) भी अपने पिता की भाँति मध्य रात्री में उठकर गंगा स्नान कर सूर्योदय के पहले बाबा विश्वनाथ का दर्शन करना, यही उनकी दिनचर्या थी| अजय के पिता की पहली पत्नी (अर्थात अजय की माँ) का देहांत, अजय जब तीन महीने का था, तभी एक बीमारी में हो गई थी| अपने मित्रों के बहुत कहने-सुनने पर उन्होंने अजय की देख-रेख के ख्याल से अपनी दूसरी शादी, पार्वती से की, जिससे उन्हें एक पुत्री थी|
अकेला बेटा होने के कारण अजय को, माँ-बाप का बेसुमार प्यार मिलता था, और यही प्यार अजय को जिद्दी तथा नटखट बना दिया था| जिद्दी इतना कि जो बात मुँह से निकल जाती थी, घर के लोगों को उसे पूरा करना पड़ता था| जब माँ उसे डाँटती थी, तो वह माँ से भी झगड़ जाता था| पितापत्नी पार्वती से कहते थे, ‘छोड़ो भी, एक ही पुत्र हैउस पर अभागा है, अपनी माँ का प्यार तो पाया नहीं; तुम डाँटोगी तो बुरा मान जायगा| इसलिए पार्वती, ज्यादातर चुप ही रहा करती थी, यहाँ तक कि पिता, समरकांत को भी जब अजय को समझाना होता था, तो बहुत डर-डर के समझाया करते थे|
लेकिन कभी-कभी बुराई से भलाई पैदा हो जाती है| पुत्र सामान्य रूप से पिता का अनुगामी होता है| सामान्यत: देखा जाता है, महाजन का बेटा महाजन, डॉक्टर का बेटा डॉक्टर, वकील का बेटा वकील होता है| सो अजय भी धीरे-धीरे अपने पिता का अनुकरण करने लगा| सूर्योदय से पहले उठकर गंगा स्नान करना, पूजा-पाठ मंत्र जाप करना; फ़िर किसी काम का आरम्भ करना| यह सब देखकर पिता मन ही मन अपने तकदीर पर इतराते थे| वे अपनी पत्नी पार्वती से कहा करते थे, ‘पार्वती, इसे पहले का संस्कार कहो या अभी का, अजय बदल रहा है| तब पार्वती, पति का मनोबल बढ़ाने के लिए, पुत्र से बड़ा धन नहीं होता, तुम्हारी यह खुशी, बेबुनियाद नहीं है, मैं भी देख रही हूँ| अजय अब पहले जैसा नहीं रहा, दिन-रात पढ़ाई-लिखाई में लगा रहता है| चलो, देर आये, दुरुस्त आये|’
अजय 20-22 साल का रहा होगा, जब वह इंजीनियरिंग प्रथम श्रेणी पास कर शहर से घर लौटा और पिता समरकांत के चरणों पर अपना सर्टिफ़िकेट रखकर चरण-स्पर्श किया| पिता समरकांत ने भी लपककर बेटे अजय को गले से लगा लिया| मानो बस, और कोई आस बाकी नहीं, सब आस पूरे हो गये| तभी पार्वती चुटकी लेती हुई, पति से बोलती है, ‘अजी, सब कुछ हो गया, मगर घर में शहनाई नहीं बजी; अब इसके बारे में सोचो|’
समरकांत भी पत्नी की हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा, ‘वो भी बजेगी, थोड़ा सबूर रखो|’
पत्नी पार्वती, समरकांत से कहती है, ‘वो तो मैं भी जानती हूँ, मगर कब? समरकांत, ‘बस एक सुंदर सी लड़की मिल जाये! अजय, अपने माता-पिता की बातचीत को सुनकर, मन ही मन खुश हो उठा, मगर कोई देख न ले, वहाँ से उठकर भीतर अपने कमरे में चला गया|
अजय जानता था, कि उसके माता-पिता उससे कितना प्यार करते हैं, और वह यह भी जानता था, कि मैं जो काम करके आया हूँ, अब मेरी कोई भी गलती इन दोनों के आगे क्षम्य है| मैं अगर घी का घड़ा भी लुढ़का दूँ, तो कुछ नहीं कहेंगे, सिवा यह कि आगे से बेटा ऐसा न हो, इसका ख्याल रखना| रातो-रात गाँव में यह खबर आग की तरह फ़ैल गई कि अजय इंजीनियरिंग की पढ़ाई में प्रथम आया है| अजय, हर रोज की तरह, सुबह जब नहीं उठा, न ही गंगा-स्नान को गया, तब दिन के दश बजे माँ पार्वती ने अजय का दरवाजा खटखटाया| अजय के खोलते ही पूछा, ‘बेटा, आज तुम गंगा-स्नान को नहीं गये| जब कि तुमको विशेषकर आज जाना जरूरी था| आज तुम जो कुछ हासिल किये हो, वे सभी तो बाबा विश्वनाथ की कृपा से ही हुआ है| इसलिए उनके चरणों में जल अर्पित कर, प्रणाम कर आओ|’
अजय चौंका, ‘हाँ- हाँ, माँ जाऊँगा क्यों नहीं; अभी जाता हूँ|
अजय के गंगा-स्नान जाने के बाद, पार्वती पीसे हुए बाजरे की रोटी बनाने लग गई, ताकि अजय के लौटते-लौटते खाना तैयार हो जाय| ऐसे ही दिन के दश बज चुके हैं, उसे तो सुबह छ: बजे कुछ खाने की आदत थी| नहीं कुछ तो, पानी और गुड़ तो चाहिये ही था, आज तो वह भी नहीं लिया|
अजय जब बाबा विश्वनाथ के मंदिर में पहुँचा, तो देखा, ‘भक्त-वृन्द अपना नैवेद्य उपहार भगवान को अर्पित कर रहे हैं, सोने-चाँदी के सिक्के देवता के चरणों में गिर रहे हैं; बदले में मंदिर के पुजारी से फ़ल-फ़ूलों का प्रसाद लेकर भक्त-गण प्रसन्न हो चले जा रहे हैं| तभी अजय ने देखा—एक सुंदर बालिका, अर्ध-विकसित फ़ूलों को अपनी पूजा की थाली में सजाये, बाबा विश्वनाथ के चरणों में अर्पित करने, कोने में खड़ी है और मौका पाते ही लज्जा से, कि कोई देखे नहीं, ज्यों का त्यों फ़ूलों को भगवान के चरणों पर फ़ेंककर, देवता के चरणों पर गिरा कि नहीं, बिना देखे, सबों से नजरें बचाकर निकल गई| अजय वहीं दूर खड़ा, चुपचाप देखता रहा और मन ही मन सोचने लगा—वह दो-चार फ़ूल-पत्ते ही तो लेकर आई थी परन्तु चढ़ाने का, अर्पण करने का शौख कितना था; एक मैं हूँ, चढ़ाया- ओढ़ाया कुछ नहीं, और प्रसाद की लिप्सा में यहाँ घंटों से खड़ा हूँ| सभी लोग चले जा रहे हैं, एक मैं ही हूँ जो खम्भे की तरह खड़ा हूँ| प्रसाद का लोभ छोड़कर मुझे यहाँ से चलना चाहिये| ऐसे भी मैं यहाँ, देवता से आशीर्वाद माँगने आया था, प्रसाद के लिए नहीं| मेरे लिए तो उनका आशीर्वाद ही सबसे बड़ा प्रसाद है| अकस्मात आरती का घंटा बजना बंद हो गया, अजय मुड़कर देखा, और वहीं ठिठक कर खड़ा रह गया| पुजारी उसके लिए प्रसाद लिये खड़ा था| अजय बोला, ‘देवता प्रसन्न हुआ कि नहीं, यह तो मुझे नहीं पता, लेकिन तुम खुश हो, इसमें कोई शंका नहीं| चलो, मुझ गरीब के लिए यही क्या कम है? पुजारी हँस पड़ा, अजय प्रसाद लेकर घर की ओर रवाना हो गया|
आज पहली बार अजय को उन्मत्त आनन्द लेने की चाह हुई| ऐसे भी बाधा-विहीन सुख लूटने की चाहत किसमें नहीं होती, सो अजय एक नदी के किनारे जाकर चुपचाप बैठ गया| कुछ देर लहरों का उठना और खो जाना देखता रहा, हठात उसकी नजर नदी के उस पार उठते धुएं पर पड़ा, जो किसी के चिते से उठ रही थी| जीते जी चाँद छूने की बात नहीं की होगी, आज यह मरकर धुएं के साथ रूह को छूने के लिए क्यों पागल है? क्या शरीर के बिना रूह का कोई अस्तित्व नहीं होता है? इसी उधेर-बुन में अजय वहाँ से उठ खड़ा हो गया| सोचा, बड़ी देर हो चुकी है, माँ चिंता कर रही होगी, मुझे जल्दी घर पहुँचना चाहिये|
अजय जल्दी में था, इतनी जल्दी में कि आगे रास्ते में कूआँ है या खाई, इसकी भी परवाह नहीं थी| तभी उसका पाँव, रास्ते पर सोये एक कुत्ते पर पड़ गया| फ़िर क्या था, कुत्ता झाऊँ- झाऊँ कर इधर- उधर भागने लगा| अजय ने जब डाँटा, कहा, ‘अरे तू रोता क्यों है, मेरी लात ही तो लगी है, कोई गोली तो नहीं लगी; किन्तु उत्तर में झाऊँ-झाऊँ ही करता रह गया| एक तो घर लौटने में देरी हो रही है, उस पर तू और तमाशा दिखा रहा| अब चुप भी कर, और उछलना- कूदना छोड़, नहीं तो अबकी बार खाल उधेड़ दूँगा, तब तुझे समझ में आयगा, नालायक कुत्ता| तभी एक शराबी आया, और यह सब होता देख, वह भी कुत्ते की ओर मुँह कर झाऊँ-झाऊँ करने लगा| अजय सोचा – ’चलो, भागो यहाँ से, अब मुश्किल ही नहीं, दो-दो हैं, इनसे निबटना नामुमकीन होगा|
माघ की रात, कड़ाके की सर्दी, आकाश पर धुआँ छाया हुआ था, अजय अपनी धुन में कुछ चिंतित होकर चला जा रहा था| उसे रह-रहकर उस कुत्ते पर क्रोध आ रहा था, और खुद ही खुद बुदबुदा भी रहा था। गये वो दिन जब लोग कुत्ते की नींद का उदाहरण देकर, विद्यार्थी को सोने की शिक्षा देते थे| अब कुत्ते के ऊपर से रोलड़ भी चला जाये, तो वह उठने के बजाय मरना पसंद करता है| अजय ठंढ़ी साँसें खींचकर कहा, ‘चलो, छोड़ो, मुझे इन सब बातों से क्या लेना? मेरी पढ़ाई तो खतम हो चुकी है, अब तो नौकरी, फ़िर शादी| तभी उसे मंदिर की उस सुंदर लड़की की याद आ गई, क्या ही सुंदर थी वह, कितनी नफ़ासत थी उसमें, क्या ही सलीका था? मैं तो उसके कदमों की भी बराबरी नहीं कर सकता, मेढ़क उड़कर दरख्त पर कभी जाकर बैठ सका है?’ पता नहीं क्यों, जब से मैंने उसे देखा है, मेरा दिल दीवाना होता जा रहा है| मेरे अंदर एक चिनगारी –सी बैठ गई है; देर नहीं कि कब वह शोले बन जाये और जलाकर मुझे राख कर दे, बावजूद अजय के जीवन में पहली बार स्फ़ुर्ति संचार कर रही थी| अब तक वह अपने दिल की हर सलाह की अवहेलना किया था, लेकिन आज उस अवहेलना में, वह दम नहीं था|
चलते-चलते अजय जब गाँव के करीब पहुँचा, देखा उसके झोपड़े से लालटेन की रोशनी आ रही थी| उसे यह समझने में जरा भी देर नहीं लगी, कि पिताजी—माँ, दोनों अभी तक मेरे इंतजार में जाग रहे हैं| अजय को ग्लानि के साथ दुख भी हुआ| ये दोनों बुजुर्ग इस कड़ाके की ठंढ़ में जाग रहे हैं, अब तक तो इन्हें सो जाना चाहिये था| अजय झोपड़ी के भीतर जाकर कुछ देर अनिश्चित दशा में खड़ा रहा, फ़िर माँ से कहा, ‘माँ मुझे भूख नहीं है, तुम खाना खाकर सो जाओ|’
माँ यह सुनकर सन्न रह गई| बोली, ‘अरे तू सुबह का गया, अभी रात के नौ बजे लौट रहे हो; कहाँ था, क्या खाया? कुछ न बताकर मुझे सोने की नसीहत दे रहे हो| तुझे सोना है, तो पहले खाना खा लो, तुम्हारे पिता भी भूखे सो रहे हैं| उन्होंने कहा है, अजय के आने पर सभी साथ खाना खायेंगे|’
अजय धीमी आवाज में कहा, ‘ठीक है, बाबूजी को उठाओ, तब तक मैं हाथ-मुँह धोकर आता हूँ|
पार्वती, पति समरकांत से कहती है, ‘अजी अब उठ भी जाओ, देखो अजय आ गया है| अजय के आने की खबर सुनकर, समरकांत उठकर बैठ गया| अजय आकर खाट पर बैठते हुए कुत्ते और पागल की कहानी सुनाकर, कहा, ‘इसी कारण देरी हो गई; अन्यथा मैं कब का आया होता| पिता समरकांत, अजय को सावधान रहने की चेतावनी देते हुए कहा, ‘आजकल के कुत्ते, आदमखोर हो चुके हैं; इनसे