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Main likh kar baat karata hoon
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Ebook129 pages43 minutes

Main likh kar baat karata hoon

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About this ebook

"मैं लिख कर बात करता हूं" एक मनोरम पुस्तक है जो ग़ज़लों, कविताओं, शायरियों, और सूक्ष्म कहानियों के संग्रह के माध्यम से भावनाओं और अनुभवों की एक समृद्ध चित्र को एक साथ बुनती है। शीर्षक ही, जिसका अर्थ है "मैं शब्दों के माध्यम से बोलता हूं," लेखक की अनूठी आवाज़ का एक मार्मिक प्रतिबिंब है। पन्नों के भीतर, पाठक,

Languageहिन्दी
Release dateJan 5, 2024
ISBN9789360492434
Main likh kar baat karata hoon

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    Main likh kar baat karata hoon - Swapnil

    पद्य

    अंधेरे की आवाजे

    रात में, कुछ साढ़े बारह बजे के बाद,

    अंधेरे के सन्नाटे को चीरती हुई एक आवाज़ आती है,

    कोई पाजेब, कहीं पास में ही बजती जाती है।

    मैं उठता हूँ, इधर उधर चक्कर लगाता हूँ,

    कोशिश करता हूँ, देखने की, उस अंधेरे के किसी रौशनदान से,

    मगर तू दिखायी नहीं देती कभी,

    फिर सुकून से सो जाता हूँ यह सोच कर,

    चलो, ज़रूर कोई चुड़ैल होगी!

    आग

    आग लगी पड़ी है,

    सब पानी छिड़क रहे है कि बुझ जाये,

    कमबख़्त,

    पता कहाँ है इन्हें की पानी से आग नहीं बुझती!

    वो तो और भड़कती है,

    जैसे उस दिन भड़की थी,

    जब पानी बरस रहा था आसमान से,

    और तुम्हें पहली बार गली से गुजरते देखा था।

    मुँडेर पर खड़े हो कर घर की,

    चाय की चुस्कियाँ थम गई थी,

    गरम चाय का कप हाथ में रह कर,

    कितना जला गया, होश ना रहा!

    वो जो आग पानी ने जलायी थी,

    कोई पानी उसे बुझा पाएगा क्या?

    इक ग़ज़ल

    ये तो यक़ीन था मुझे तेरे जाने का,

    वरना डर ही जाता,

    वो तो अच्छा है कि मैं मुर्दा हो चुका हूँ,

    वरना मर ही जाता।

    ऐसा नहीं है कि जला नहीं कभी पहले,

    अजी ज़िंदगी हमने भी तो जी है,

    वो तो बाग़ी हो ना सके जिम्मेदारियों के कारण,

    वरना कुछ तो कर ही जाता।

    ग़म भुलाने के तरीक़े और भी थे,

    हमने भी औरों की तरह शराब को चुना,

    वो तो इतना पी चुके है की अब फ़र्क़ नहीं लगता,

    वरना तो प्याला भर ही जाता।

    ये तो अब ख़ुदा पर भरोसा ना रहा,

    इसलिए चक्कर लगाने कम कर दिये,

    थोड़ा भी यदि तवक्कुल होता,

    तो फिर से तेरे दर पर ही जाता।

    एक्सपेरिमेंटिया ग़ज़ल

    ख़त्म होने को आया बसंत,

    बस अंत हो अब इस दूरी का भी,

    आज भी याद हैं जानम,

    जा नम आँखों से जब रही थी तुम दूर मुझसे।

    नज्म अब निकलती नहीं, ना मिलते है क़ाफ़िये,

    काफ़ी ये दौर-ए-जुदाई अब हुआ,

    धरती फूट पड़ी और रो रहा पड़ा है आसमान,

    आ समान रूप से अब एक हो बह चले।

    वो भी एक दौर था जब तू थी मेरे इश्क़ में कमली,

    कम ली है अब गोया दिलचस्पी तुमने, मुझमें,

    कैसे रहते थे इश्क़ में हम मतवाले,

    मत वाले बहुत मिल गये मेरे ख़िलाफ़ तुझे फिर।

    आ जाओ के अब जब तक है यह देह साबुत,

    सा बुत सी देख रही थी मुझे जब निकाला गया था गली से तेरी,

    इतने भी क्यों हो गए हो अब तुम लापता,

    ला पता तेरा अब मैं ही ढूँढ लूँ।

    तेरे होने से ही थी मेरी ज़िंदगी में रहमत,

    रह मत तू साथ मगर एक बार सामने तो आ।

    यादें

    आज एक पुरानी किताब मिली, स्कूल के वक्त की।

    बोसीदा सी, जिसके काग़ज़ सफ़ेद से कुछ कुछ पीले से हो गए थे।

    स्याही भी थोड़ी थोड़ी हल्की पढ़ गयी थी,

    ग्यारहवी जमात की थी शायद।

    किताब के पीछे कुछ पेंसिल से ड्राइंग बनी थी,

    याद आया, जब पढ़ने का मन नहीं होता था ना,

    पेंसिल अपने आप कब हाथों का साथ पा के चलने लगती थी,

    ख़याल कहा रहता था।

    इक अजीब मगर जानी पहचानी सी ख़ुश्बू भी आ रही थी उस से,

    इक सूखा हुआ गुलाब का फ़ूल कही छुपा बैठा था,

    दो पन्नो के बीचोंबीच, बेजान सा, मुरझाया हुआ, भुलाया सा, मरा हुआ।

    मगर फिर भी कुछ महक जैसे बाक़ी थी उसमें,

    कुछ किताबों का शायद ना खुलना ही बेहतर होता है!

    रात का करिश्मा

    लोग कहते है बड़ी ग़जब की रौशनी आती

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