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भीगी पलकें: फलक पर ओस की बुंदें
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भीगी पलकें: फलक पर ओस की बुंदें
Ebook176 pages1 hour

भीगी पलकें: फलक पर ओस की बुंदें

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About this ebook

काव्य उन्मुक्त होता है, यह स्वच्छंद होकर विचरण करता है और जब हम इसे पढते है, तो हृदय पर एक अमिट छाप छोर जाता है। हमारे उद्विग्न हृदय को शीतलता का एहसास होता है। हमें आभास होता है कि जीवन को हम जितना कड़वा समझते है,उतना होता नहीं है। जब हम असह वेदना को अनुभव करते है, तब कविताएँ पढने से हृदय को शांति की अनुभूति होती है। जब हम समझते है कि जीवन की समस्याएँ खतम होने का नाम नहीं ले रही, तब कविता के माध्यम से नया विश्वास करवट लेता है। हमें फिर से नई चेतना का अनुभव करवाता है, नई ऊर्जाओं का संचार करता है। जीवन के प्रति हमारी रोचकता को बढाता है। कविता एक ऐसी प्रवाह है, जिससे हम अपने आप को अच्छुन्न नहीं रख पाते। कविताएँ लिखने का उद्देश्य भी यही होता है कि यह जन मानस के हृदय में उतर जाए, उसे नैसर्गिक आनंद की अनुभूति करवाए।

Languageहिन्दी
PublisherPencil
Release dateAug 5, 2021
ISBN9789354586187
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    भीगी पलकें - मदन मोहन मैत्रेय

    भीगी पलकें

    फलक पर ओस की बुंदें

    BY

    मदन मोहन मैत्रेय


    pencil-logo

    ISBN 9789354586187

    © Madan Mohan Maitry 2021

    Published in India 2021 by Pencil

    Contributors:

    Co-Author: Manas Kumar Thakur

    A brand of

    One Point Six Technologies Pvt. Ltd.

    123, Building J2, Shram Seva Premises,

    Wadala Truck Terminal, Wadala (E)

    Mumbai 400037, Maharashtra, INDIA

    E connect@thepencilapp.com

    W www.thepencilapp.com

    All rights reserved worldwide

    No part of this publication may be reproduced, stored in or introduced into a retrieval system, or transmitted, in any form, or by any means (electronic, mechanical, photocopying, recording or otherwise), without the prior written permission of the Publisher. Any person who commits an unauthorized act in relation to this publication can be liable to criminal prosecution and civil claims for damages.

    DISCLAIMER: The opinions expressed in this book are those of the authors and do not purport to reflect the views of the Publisher.

    Author biography

    लेखक परिचय-मदन मोहन मैत्रेय 

    पिता-                श्री अमर नाथ ठाकुर

    स्थाई पता-        ग्राम पो-रतनपुर अभिमान,पुलिस स्टेशन-कमतौल,तालुका-जाले,जिला-दरभंगा बिहार इंडिया पिन: -       

    847307

    दुरभाष संख्या- ,8210466936

    मानव मन अनेक उलझनों से भरा होता है, कभी तो आगे बढने का दबाव, तो कभी मंजिल पर पहुंचने की जल्दी। दुनिया का हर वो इंसान जीवन के इस दाँव- पेंच से प्रभावित है, तो भला मैं इससे कैसे अछूता रह सकता था। जिन्दगी जीने की कला होती है और शायद इस कला से शुरू-शुरू में मैं अंजान ही था। साथ ही पारिवारिक परेशानियों ने समय से पहले ही प्रबुद्ध बना दिया था, तभी तो संघर्ष से उलझ पड़ा। परन्तु लिखने की ललक थी, कल्पना के पंख मुक्त होकर परवाज करने लगते थे। मन में एक तरंग सा उठता था, जिसे कलम का माध्यम बना कर कोरे कागज पर उकेर देता था। इससे मन को शांति तो मिल जाती थी, लेकिन हृदय को वो आनंद नहीं मिलता था, जो मिलना चाहिए था।

    लेकिन समय तो अपने ही रफ्तार से आगे बढता जाता है,उसे आपके भावनाओं से,आपकी इच्छाओं से कोई सरोकार नहीं होता। वो तो आपको ही समय के साथ कदम से कदम ताल मिला कर चलना होता है, तभी आप अपने उद्देश्य को पा पाते है। ऐसी परिस्थिति में मैं अपने मन की इच्छाओं को समेटे अपनी मंजिल से कोसो दूर था। ऐसे में मेरी छोटी बहन ने प्रेरणा दी कि आप अपनी अधूरी शिक्षा पुरी करें। फिर क्या था,प्रेरणा मिली और मैं ने शुरूआत कर दी,एवं इंटरमीडिएट की शिक्षा 2018 में पुरी की और 2021 में ग्रेजुएसन की शिक्षा पुरी हो जाएगी। वैसे तो मानव मन अनंत इच्छाओं का बसेरा होता है, परन्तु जीवन इसी से नहीं चलता। जीवन की सार्थकता तभी है, जब आप अपनी पहचान को अंकित कर दें। इसलिए मैं फिर से जुट गया अपने कल्पना के पंखों को सहेजने में,अपनी भावनाओं को नये सिरे से उभारने में।

     इसी क्रम में मैं ने गद्य और पद्य दोनों ही विद्याओं में रचना की और सहेजता गया, बस सहेजता गया। एक बेहद विशाल, एक अपरिमित काव्य श्रृंखला का संचय कर लिया। परन्तु हमें वह साधन नहीं मिल रहे थे, जिससे इसे जनमानस तक पहुँचाया जाए, उन्हें खुद से परिचय करवाए । पर हार मान कर बैठ जाना, मानव का नैतिक धर्म नहीं होता, मानव को नित्य ही प्रयास रत रहना चाहिए, शायद इसीलिए अनवरत मैं अपने प्रयासों में लगा रहा। मुझे यह तो विश्वास था कि क्षितिज पर ऐसा दिन भी निकलेगा, जब आपसे मेरा और मुझसे आपका आत्मीय बंधन बंध जाएगा। आप मुझे पढेंगे, समझेंगे और मैं आपके करीब आ सकूंगा। 

     वैसे यह सत्य है कि कविताएँ हृदय को झंकृत करती है, यह कला संसार की ऐसी विद्या है, जिसे हम पढते तो आँखों से है, लेकिन यह हृदय की गहराई में उतर जाती है। संभवतः यही कारण भी है कि रचनाकार अपनी कविताओं को सुगम बनाता है,सरल बनाता है कि वो हरेक इंसान के हृदय को छू सके। फिर ऐसा भी तो है कि कविता समाज का ही आईना होता है, आखिरकार यह उद्धत भी तो समाज के प्र-वर्तमान परिस्थिति, परिवेश ,घटित हो रहे घटना का प्रतिबिंब बन कर होता है। कविता में वर्तमान की गहराई, भूतकाल का अंदेशा और भविष्य की आकांक्षा छुपी होती है, जिसे कवि/ लेखक अपने लेखनी के द्वारा उतार लेता है। कविता समय की मांग के अनुसार बदल जाती है, लेकिन उसके तादात्म्य नहीं टूट पाते, वो वर्तमान,भूतकाल और भविष्य का प्रतिनिधित्व करती है और करती रहेगी। 

    मेरी रचित-रचनाएँ है,एकल काव्य संग्रह जीवन एक काव्य धारा एवं वैभव विलास-काव्य कुंज जो पेंसिल पब्लिकेशन पर प्रकाशित हुई है। दूसरी कविताएँ निम्न एन्थोलाँजी किसलय,मां का आशीर्वाद,  डेस्टिनी आँफ द सोलेस्टिक एवं अल्फाजों की उड़ान  में प्रकाशित हुई है। साथ ही विभिन्न समाचार पत्रों में रचनाएँ प्रकाशित होती रहती है। साथ ही मैं ने तीन उपन्यास औडिनरी किलर,फेसबुक टेजेड्री एवं भंवर जाल-प्रेम और विश्वास की रचना कर चुका हूं और चौथे उपन्यास अरावली-द लिजेन्ड स्टोरी पर कार्य कर रहा हूं। यह सारी कहानियां फिक्सन है और सस्पेंस से भरपूर है। 

     आपका अपना

     मदन मोहन मैत्रेय

    Contents

    उन्मुक्त भाव-काव्य की रसमाधुरी,जो हृदय को झंकृत कर दे।

    उन्मुक्त भाव-काव्य की रसमाधुरी,जो हृदय को झंकृत कर दे।

    1  संयुक्ता दुखद हुआ अंजाम 

    संयुक्ता दुखद हुआ अंजाम, परिणाम पा गए।

    मन शीतल छाँव की चाह, दोपहरी घाम पा गए।

    भूले से जो भूल गए, सच तुमको जो प्यारे थे।

    अंधी दौड़ में भूल चुके, जो कर्तव्य तुम्हारे थे।

    मंजिल के नियमों को छोरा, समय चुक गए।

    फिर तो वही घटित होना था ,इनाम पा गए।।

    महलों का हसरत पाले, यूं बातें फेंक रहे थे।

    संयुक्ता! थोथे-थोथे दावों से सपने देख रहे थे।

    खेल खेलने को हो आतुर पाँसे फेंक रहे थे।

    हृदय की पीड़ा गौण ही रख जो आँखें सेंक रहे थे।

    तुम जब पहुंचे मंजिल पर बढने को, लय चुक गए।

    जब तक संभलो संयुक्ता, जीवन की शाम पा गए।।

    अपनी भूल सुधार सको, कोई नियम नहीं है ऐसा।

    अभी तो ठोकर मिला तुम्हें, क्या है बचने जैसा।

    अब उद्विग्न हृदय हो, इससे ज्यादा तकलीफ हो कैसा।

    तुम पाए हो परिणाम, सोचते हो बातें क्यों वैसा।

    पहले ही तो संभल जाते पथ पर, भय से चुक गए।

    अब पी लो जी भर कर, कड़वे-तीखे जाम पा गए।।

    इधर-उधर में उलझे, बातों-बातों में भटक गए।

    पथ पर तो बढना था, संयुक्ता तुम तो अटक गए।

    अहो! बातों ही बातों में दुख के फंदों पर लटक गए।

    अब हो क्या पश्चाताप करने से, तुम विष को गटक गए।

    अब क्यों सिर धुनते हो, किए इरादे तय से चुक गए।

    अब तो समझो बातों को, बिगड़े हुए नाम पा गए।।

    संयुक्ता! अब बिखरी रातों का सार निचोड़ कर देखो।

    अब तो उलटा-सीधा छोड़ो, व्यवहार जोड़ कर देखो।

    पथ पर बढना ही है,तो रिश्तों

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