वैभव विलास काव्य कुंज: काव्य कुंज बिहार
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कविताएँ हृदय को झंकृत करती है, यह कला संसार की ऐसी विद्या है, जिसे हम पढते तो आँखों से है, लेकिन यह हृदय की गहराई में उतर जाती है। संभवतः यही कारण भी है कि रचनाकार अपनी कविताओं को सुगम बनाता है,सरल बनाता है कि वो हरेक इंसान के हृदय को छू सके। फिर ऐसा भी तो है कि कविता समाज का ही आईना होता है, आखिरकार यह उद्धत भी तो समाज के प्र-वर्तमान परिस्थिति, परिवेश ,घटित हो रहे घटना का प्रतिबिंब बन कर होता है। कविता में वर्तमान की गहराई, भूतकाल का अंदेशा और भविष्य की आकांक्षा छुपी होती है, जिसे कवि/ लेखक अपने लेखनी के द्वारा उतार लेता है। कविता समय की मांग के अनुसार बदल जाती है, लेकिन उसके तादात्म्य नहीं टूट पाते, वो वर्तमान,भूतकाल और भविष्य का प्रतिनिधित्व करती है और करती रहेगी। मदन मोहन (मैत्रेय)
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वैभव विलास काव्य कुंज - मदन मोहन मैत्रेय
वैभव विलास काव्य कुंज
काव्य कुंज बिहार
BY
मदन मोहन (मैत्रेय)
pencil-logo
ISBN 9789354580727
© मदन मोहन (मैत्रेय) 2021
Published in India 2021 by Pencil
A brand of
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123, Building J2, Shram Seva Premises,
Wadala Truck Terminal, Wadala (E)
Mumbai 400037, Maharashtra, INDIA
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Author biography
नाम का आत्मीय प्रभाव होता है,यह वो शब्द है जो आपके पूरे जीवन को प्रभावित करता है ।होता यह भी है कि हम जो सोचे वो हमारे मन के मुताबिक नहीं होता पर इंसान को जीना परता है।मैं मदन मोहन(मैत्रेय) साधारण मध्यम वर्गीय परिवार में जन्म लेने के कारण जिम्मेदारी के बोझ तले बचपन में ही दब गया था। ऐसा नहीं था कि मैं अपनी जिम्मेदारी से दूर भाग रहा था,बचपन में ही पढाई का दामन छोर कर कमाई करने के लिए परदेश निकल पड़ा।
पर लिखने की ललक ही थी कि मैं ने लिखना नहीं छोरा,बस समय मिलता और लिखने बैठ जाता, लिखता और अपने ही लिखे को मिटा डालता। बस समय की नजाकत में मैं पलता गया और मेरी लिखने की कला मुखरीत होती गयी,लिखने की वो तमाम विद्याएँ क्रमानुसार सुव्यवस्थित होती गयी। बस कोशिशें-फिर कोशिशें,इसी बीच छोटी बहन से प्रेरणा मिली की पढाई की शुरूआत कीजिए ,बस २०१६ में इक बार फिर से पढाई में मन पिरोया। अब आलम यह है कि बैचलर डिग्री ललित नारायण युनिवर्सिटी दरभंगा से २०२१ में पूरी हो जाएगी।
बचपन में पहले-पहल नाटक की रचना करता था और इसी संदर्भ में २००२ में अपनी पहली रचना "नाटक भक्त भास्कर की रचना की और प्रथम रश्मि के तहत सफल मंचन किया,जो हिंदुस्तान न्यूज के फस्ट पेज पर छापा गया था। पर इससे मैं कोई फायदा नहीं उठा पाया या सफलता नहीं हासिल की। पर लिखने की तमन्ना थी, मन के आँचल में कल्पना के बादल घूमर उठते थे। बस लिखता और संजोता गया, एक अनमोल धरोहर सा। परन्तु शुरूआत जिन्दगी की भूमि समतल ना थी, उबर-खाबर रास्तों से होकर निकलना था, तो खुद को ठोकरों से कैसे बचा पाता। समय के फलक पर मुझमें रचना की वे महतम गुण विकसित हुए, जो एक लेखक में होते है।
मूलतः लेखक आसमान से निकल कर जमीं पर नहीं आता, वो भी तो समाज का एक हिस्सा होता है। सामाजिक परिवेश में पला-बढा होता है और संभवतः उसकी रचनाओं में इसकी अमिट छाप देखने को मिलती है। रचना चाहे जैसी भी हो, सामाजिक गुणों से लबरेज रहता है, चाहे वो सकारात्मक हो, या नकारात्मक। रचना को प्रभावित करने में लेखक के मौलिक गुण भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है,लेखक वही तो लिखता है, जो वो अपने आस- पास घटित होते देखता है, फिर वही घटना कभी कहानी, कभी कविता तो कभी आर्टिकल के रूप में उद्धत होती है।
कविताएँ हृदय को झंकृत करती है, यह कला संसार की ऐसी विद्या है, जिसे हम पढते तो आँखों से है, लेकिन यह हृदय की गहराई में उतर जाती है। संभवतः यही कारण भी है कि रचनाकार अपनी कविताओं को सुगम बनाता है,सरल बनाता है कि वो हरेक इंसान के हृदय को छू सके। फिर ऐसा भी तो है कि कविता समाज का ही आईना होता है, आखिरकार यह उद्धत भी तो समाज के प्र-वर्तमान परिस्थिति, परिवेश ,घटित हो रहे घटना का प्रतिबिंब बन कर होता है। कविता में वर्तमान की गहराई, भूतकाल का अंदेशा और भविष्य की आकांक्षा छुपी होती है, जिसे कवि/ लेखक अपने लेखनी के द्वारा उतार लेता है। कविता समय की मांग के अनुसार बदल जाती है, लेकिन उसके तादात्म्य नहीं टूट पाते, वो वर्तमान,भूतकाल और भविष्य का प्रतिनिधित्व करती है और करती रहेगी।
वैसे व्यवहारिक स्तर पर मैं काफी मिलनसार हूं, आखिरकार यही मिलनसारिता तो रचना में माधुर्य लाती है। इतना ही नहीं अपने विचार, अपने कार्य के प्रति अडिग, इच्छा तो यही रहती है कि तय समय पर रचना को पुर्ण कर लिया जाए। आखिर समय का पाबंद होना जिन्दगी में जरूरी होता है, और यह गुण संघर्ष के चक्की पर पीस कर आता है। बचपन से, करीब १६ वर्ष की उमर से ही जिसकी जिन्दगी जीविकोपार्जन में लग गया हो, आखिर वो कैसे नहीं समय का पाबंद होगा। जिम्मेदारी वो बोझ है, जो अपने-आप ही समय के महत्व को समझा देती है।
जिन्दगी भी एक किताब सी है, सब कुछ तो सिक्रेट सा है, अगले पल यहां क्या होगा किसी को मालूम नहीं, पर यह मालूम है कि हमें जीना है, जिन्दगी है तो जीना ही परेगा। पर इस जिन्दगी के नीरसता को कम करने के लिए हमें सहारे की जरूरत होती है।मैं ना कभी थका, और ना ही मैं ने जिन्दगी में हार मानी। इंसान ही तो हूं, फिर जिन्दगी से भागना क्या, संघर्ष तो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। बचपन में ही जिम्मेदारी का बोझ कंधे पर पड़ा, तो कमाई के लिए शहर निकल गया, पढाई पीछे कहीं छूट गयी। लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था, फिर से पढाई की शुरूआत की, वो भी छोटी बहन के प्रेरणा पर।
Contents
काव्यांजलि
काव्यांजलि
1 अभिलाषाओं के मोती चुन-चुन कर
अभिलाषाओं के मोती चुन-चुन कर ।
अभी तो लेकर ही आया था तरूवर से।
वृथा भंग हो गए वो दिवास्वप्न से।
ध्यान भंग हुआ हो ज्यों लगते ही शर से।
काश कही अवकाश ना होता जगने की।
मैं तो नींद में था, जाग उठा हूं इसके डर से।।
आर कही-पार कही, जीवन में उठते तकरार कहीं।
कही जीत पर भी लगता है, मिला हो जैसे हार कही।
कही शीत निशा सी जीवन में बंद हुआ हो द्वार कही।
क्या-क्या मन को समझाऊँ, है सपनों का व्यापार कही।
कांटे ही कांटे है राहों में, डर है इसके लगने की।
ओह! मेरी अत्रिप्त क्षुधा ,मैं डर जाऊँ जो जग से।।
प्रतिकार करूं बस कैसे, अभिलाषा के पंख लगे।
और कहो कैसे स्वच्छंद परवाज करूं, कब के जंग लगे।
बस इतना ही अनुमानित है, दिवास्वप्न जगे।
कहो केशव कहां से लाऊँ, जो पार्थ कहे सखे।
वो मनका मोती के ले आऊँ, है रात अभी तो जपने की।
मैं-मैं में रच-बस कर ही, दौड़ रहा हूं अपने पग से।।
अभिलाषा-वो अभिलाषा, तुम मन के तादात्म्य संभालो।
मैं जीती बाजी हार भी लूं, तुम बस इतना समय बीता लो।
जीवन की राहों में दलदल है, बस इससे मुझे बचा लो।
और नहीं-कोई छोर नहीं, तुम अपने हो गले मुझे लगा लो।
यह ऐसी भाषा है जीवन की, आदत सी है रटने की।
तुम अभिलाषा हो दिवास्वप्न, तुम्हें देख रहा हूं