पीपल वेदिका
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कोई भी रचना एक प्रकार का आत्म-विस्तार है। कविता अपने समय, आत्मबोध और अपने दृष्टिकोण से विकसित आत्माभिव्यक्ति है। यह मेरी पहली काव्य रचना है. इसकी रचना किसी सुविचारित प्रारूप के अनुसार नहीं की गई थी। यह कविता मेरे परिवेश और भावनाओं को व्यक्त करने का एक प्रयास है। यह रचना घटनाओं और समयबोध की अभिव्यक्ति है। यह किसी विशेष विचारधारा या प्रारूप को व्यक्त नहीं करता है, परंतु इतना अवश्य कह सकता हूँ कि प्रस्तुत संग्रह में तार्किक एवं सार्वभौमिक सत्य को व्यक्त करने का प्रयास किया गया है। इस सत्य की संकल्पना में आत्मशक्ति निश्चित रूप से वेद, गीता, उपनिषद, बुद्ध, कबीर, गांधी, अम्बेडकर और राममनोहर लोहिया से प्राप्त हुई है। प्रस्तुत रचनात्मक प्रक्रिया से गुजरते हुए विज्ञापन और आभासी जीवन दर्शन के खोखलेपन को समझते हुए स्वयं, प्रकृति और सामाजिक-राजनीतिक परिवेश को समझने का प्रयास किया गया है। मेरा प्रयास कितना सार्थक है यह पाठक के मूल्यांकन पर निर्भर करता है। मेरी काव्य यात्रा के विकास में या बनने की प्रक्रिया में, यह मेरे गाँव युसूफपुर (खड़बा), ग़ाज़ीपुर की स्मृतियों और बनारस की गलियों में घूमते हुए याद आये अनुभवों तथा आत्म-पीड़ा से उपजे अनुभवों की अभिव्यक्ति है। मैनपुरी और सैफई में आत्म-साक्षात्कार।
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