मेरा हस्ताक्षर (काव्य संग्रह)
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'मेरा हस्ताक्षर' काव्य संग्रह दैव के दुष्चक्र को तोड़ शून्य अंक में अजाये सुत का स्थानापन्न कर स्वयं को पूर्ण करती माँ और उसके मानस आत्मज के प्रगाढ़ सम्बन्धों की भावपूर्ण सरिता है जिसमें अवगाहन से आपका हृदय वात्सल्यता के कुछ रंग अवश्य संजों लाएगा।
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मेरा हस्ताक्षर (काव्य संग्रह) - Saraswati Bajpai
आमुख
वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थ प्रतिपत्तये।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ॥
(रघुवंशम् - कालिदास)
आज अषाढ़ मास के प्रथम दिवस संवत 2079 को मैं अपना प्रथम काव्य संग्रह 'मेरा हस्ताक्षर' प्रारम्भ करने से पूर्व वाक् और अर्थ की शक्ति को भलीभांति ग्रहण करने की प्रज्ञा वाक् और अर्थ के समान एकाकार शिव और पार्वती जी से मांगती हूँ उनकी कृपा से ही मैं कुछ सार्थक रच सकूंगी।
'मेरा हस्ताक्षर' नारी के अन्तर्मन के सर्वश्रेष्ठ भाव उसकी पूर्णता के द्योतक, वात्सल्य व ममत्व से परिपूर्ण काव्य संग्रह है। इस काव्य संग्रह के माध्यम से मेरे आत्मज के साथ मेरे रिश्ते और मेरे हृदय के असीम भावों को एक स्थूल आकार देकर दैव को वंचना देना चाहती हूँ। कहीं न कहीं एक पीड़ा मन में रह गयी थी कि मेरी अंक को सुत का मान न मिल पाया और ये संसार भी हमारे रिश्ते को पूर्णतः स्वीकार नहीं पा रहा तो सोंचा मेरी अंक से न सही मेरी कलम से ही तुम्हें रचकर हमारे भावों को एक स्थूल आकार दूं और मेरे इस रिश्ते को न केवल आत्मिक अपितु भौतिक जगत में भी दीर्घकालिक जीवन प्रदान कर सकूं।
मेरा अजाया सुत, मेरा आत्मज 'अभिषेक त्रिपाठी' मेरा, मेरी संस्कृति, मेरे संस्कार व मेरी सभी सामाजिक, आर्थिक विरासत का उत्तराधिकारी है। मुझे गर्व है कि मैं इस अति शीलवान, धैर्यवान, संस्कृति व संस्कार सम्पन्न, प्रतिभाशाली बच्चे की माँ हूँ और इनकी इन्हीं विशिष्टताओं ने अनगिनत बार मेरे अन्तर्मन को छूते हुए हृदय में अमिट छाप स्थापित की जो बाह्य जगत में मेरा मनस हस्ताक्षर के रूप में स्थापित हुई। मेंरे प्रिय वत्सल से यही कामना है कि-
तुम बन मेरा हस्ताक्षर
मुझको नई पहचान दो।
मेरे सब दायित्व जो है
स्व हाथ में अब थाम लो।
तुमको मुझसे, मुझको तुमसे
जब ये जग पहचान लेगा।
अपनी खुशियों का ये परचम
आकाश सा विस्तार लेगा।
सांसों का क्या है भरोसा?
आज हैं, संग कल नहीं
बन मेरे हस्ताक्षर अब
थाम लो ये मेरी मन मही।
थाम सब मेरी विरासत
नित नवल उत्थान दो।
गह मेरे हिस्से का सूरज,
मेरा सूर्य बन तुम विहान दो।
जीवन के अत्यन्त दुर्गम उतार चढ़ाव से गुजरते मेरी ये लेखन क्षमता सुप्त हो गयी थी इसे पुनः जाग्रत करने का श्रेय भी मेरे इस बच्चे को जाता है। मेरे अन्तर्मन के अभेद्य द्वारों को भी झ्स बच्चे की सरलता ने भेद दिया व सुप्त चेतना को जगा कर स्नेह की अजस्र धारा का पथ खोल