Ek Thi Aai
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आई' का मिलना मेरे लिए मात्र कोई विवाहोपरांत घटित परिणति नहीं थी ना ही कोई पूर्वनिर्धारित संयोग। यह एक पराभौतिक प्रारब्ध था जो ईश्वर द्वारा दो महान और पवित्र आत्माओं को एक रिश्ते में बांधने, कुछ अलौकिक प्रेम के क्षण साथ में गुजारने और अपने ऋणानुबंधों को चुकाने हेतु नियत किया गया था। ये आत्माएं थी एक मेरी 'माँ' और दूजी 'आई'। सत्रह वर्षों की इस दीर्घकालिक संबद्धता में शायद ही किसी की ओर से कोई पूर्वाग्रह, गिला-शिकवा अथवा शिकायती भाव का अवरोध उत्पन्न हुआ हो। वे दोनों दो परिवारों के परिमार्जन, परिशोधन, परिसीमन और परिचर्या हेतु ही इस धरा पर आई थी। दो विभिन्न संस्कृतियों, परंपराओं और संवेदनाओं की व्यवहारिक धुरी बनकर। 'आई' इसका आधार थी तो 'माँ' परिधि। 'आई' का उदात्त दृष्टिकोण, अद्वैत श्रद्धा भाव और स्नेहिल सदाशयता मुझे अमृत स्नान करा जाती थी। वो सचमुच में 'विमल' थी। मन से भी, मष्तिष्क से भी, हृदय से भी और आत्मा से भी। वो हमारे भीतर 'विमलता' का बीजारोपण कर गई है जो पुष्पित, पल्लवित होकर हम सभी की मति को पवित्रतम करेगा। 'आई' जैसा अन्य कौन होगा ? एक थी 'माँ' और एक माँ सी 'आई'! __ डॉ.कारुण्य
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Book preview
Ek Thi Aai - Dr. Karu Kalamohan Jamada
एक थी आई
(जीवनी)
डॉ. कारुलाल कलामोहन जमड़ा
कारुण्य
समर्पण
पूजनीय 'आई' (सासू माँ)
श्रीमती विमल सोनपरोते के चरणों में उनकी पुण्य
स्मृति को समर्पित
भूमिका
संसार के दुर्लभ रिश्ते पर कदाचित पहली रचना-
’एक थी आई'
संसार के सब रिश्तो में सबसे दुर्लभ रिश्ता है सास और दामाद का रिश्ता। सासू ने वर लाडला
जैसी उक्तियां प्राय: इस रिश्ते पर एक तरह से अत्यधिक स्नेह और वात्सल्य भाव की द्योतक है। रामचरितमानस में सीता की विदाई के अवसर पर प्रसंग आता है कि सीता की माता 'सुनयना' प्रसन्न मन से मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम की आरती करती हुई मन ही मन अपने जामाता पर मुग्ध हुई जाती है—
रूप सिंधु सब बंधु लखि हरषि उठा रनिवासु।
करहिं निछावरि आरती महा मुदित मन सासु॥
देखि राम छबि अति अनुरागीं।
प्रेमबिबस पुनि पुनि पद लागीं॥
रही न लाज प्रीति उर छाई।
सहज सनेहु बरनि किमि जाई॥
इस सनातन संस्कृति और विश्व में इस दुर्लभ रिश्ते के संस्मरणों पर शायद ही कोई जामाता होगा, जिसने कोई ग्रंथ अपनी सास पर लिखा हो। भावुक और कवि हृदय आदरणीय डॉ कारूलाल जमड़ा जी ने इस दुर्लभ रिश्ते पर अपनी लेखनी चलाई है और अपनी दिवंगत सासूमाँ आदरणीय विमल सोनपरोते को याद करते हुए इस पुस्तक का प्रणयन किया है।
वस्तुत: यह ग्रंथ अपने आप में एक अनूठा और अद्वितीय ग्रंथ होना चाहिए, ऐसा मेरा अदम्य विश्वास है। पुत्र होने के बाद भी सास और दामाद के रिश्ते में भारतीय परंपरा अनुसार मर्यादाशील पुत्रानुवत् प्रेम होता है। कारूलाल जी को अपने परिवार से यह संस्कार मिले हैं कि जीवनदायिनी माँ पर लिखते-लिखते इनकी लेखनी अपनी पत्नी की संस्कारशीला 'माँ' पर भी चली। उनकी विनयशीलता, सहृदयता और संवेदनशीलता की गहराई मैं गत वर्ष उनकी माताजी की स्मृति में रखें कार्यक्रम में देख चुकी हूँ। मैं मुक्त कंठ से आपकी कोटिश: सराहना करती हूँ तथा माँ वीणापाणी से सदैव प्रार्थना करती हूं कि वह आपको अपनी कृपा कटाक्ष में रखें, आपके जीवन का हर ध्येय पूरा करें और जिस सुंदर ग्रंथ की आप रचना कर रहे हैं, वह साहित्य में नए कीर्तिमान स्थापित करें।
#शुभस्ते पंथान संतु।
डॉ प्रणु शुक्ला
प्राध्यापक (हिन्दी साहित्य)
सम्पादक एवं समीक्षक
जयपुर, राजस्थान
केवल कृतज्ञता का भाव
यह कोई आध्यात्मिक अथवा गैर-सांसारिक विचार मात्र नहीं है, परंतु दिन-प्रतिदिन हमारी आंखों के सामने घट रहा सच है। जितनी जल्दी इसे मान लिया जाए कि हम इस संसार में एक यात्रा पर हैं, हमेशा के लिए नहीं आए हैं, उतना ही स्वयं के लिए श्रेष्ठकर है और आत्मसंतोष का साधन भी। अपने समस्त प्रयासों, सफलताओं, उपलब्धियों और ऊंचाइयों के बावजूद यह कभी विस्मृत नहीं किया जाना चाहिए कि हम कोई अमरबुटी खाकर नहीं आए हैं। मृत्यु निश्चित है और जो कुछ भी हमें प्राप्त हुआ है उसमें हमारी महत्वाकांक्षाओं स्वयं के, परिजन के परिश्रम, संघर्ष, प्रयासों के अतिरिक्त हमारे संपर्क में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति का कोई ना कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहयोग, सद्भाव और प्रारब्ध अवश्य जुड़ा हुआ है।
इस बहुत बड़ी दुनिया में अपने संपूर्ण जीवन में हम जिन लोगों के भी संपर्क में आते हैं, चाहे वे रिश्तेदार हो, परिचित अथवा मित्र हो या हमारे परिजन ही क्यों न हो, उनका हमारे संग प्रारब्ध अथवा पूर्वयोग होता ही है। इसलिए यह कृतज्ञता अवश्य प्रकट की जाना चाहिए कि हमारी अपनी जीवन यात्रा को पूर्ण कराने में उनका कहीं ना कहीं कोई योगदान रहा है, चाहे वह अंश मात्र का ही क्यों न रहा हो। जिन्हें यह लगता है कि उन्होंने सब कुछ अपने बलबूते पर हासिल किया है, वे पद, प्रतिष्ठा और पैसे के मद में अक्सर यह भूल जाते हैं कि किसी भी रूप में उन्हें जो मानसिक संतोष प्राप्त हुआ है या एक तरह की शांति और निश्चितता का