उलझे दोराहे का सफर: Biography & Autobiography, #1
By Hari Mittal
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About this ebook
हरि मित्तल
शिक्षा: बी.टेक, बी.आई.टी.(सिंदरी), 1965, एम.एस.(एम.इ), कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय (यू.एस.ए), 1967|
आजीविका कार्यक्षेत्र: तकनीकी सलाहकार|
कला रूचि: अभिनय, निर्देशन एवं प्रशिक्षण (रंगमंच एवं फिल्म )|
मुख्य अभिनीत एवं निदेशित नाटक:
अँधायुग, आषाढ़ का एक दिन, एक और द्रोणाचार्य, कसाईबाड़ा, सखाराम बाइंडर, संध्या छाया , आखरी सवाल, पंछी ऐसे आते हैं, कन्या दान, सैयां भये कोतवाल, एक था गधा उर्फ़ अलादाद खां, सिंहासन खाली है, रक्तबीज, कबीरा खड़ा बाज़ार में, चरणदास चोर, गधे की बारात, हयवदन, इत्यादि|
फिल्म अभिनय:
लघु फ़िल्में- घर-निकाला, अकीदत के रिश्ते, क्रंदन, लगाव, प्री-वेडिंग(एक अभिशाप), तोहफा|
दूरदर्शन धारावाहिक: और यहाँ से|
डोक्यु-ड्रामा: एक ईंट-एक रूपया (महाराजा अग्रसेन की जीवनी पर आधारित)|
कथा-फिल्म: पंचलैट (फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी पर आधारित)|
आकाशवाणी (जमशेदपुर): बी-हाई ग्रेड(नाटक कलाकार)|
निदेशक: मीडिया मंत्रा एक्टिंग अकादमी, जमशेदपुर (अभिनय प्रशिक्षण संस्थान)|
मुख्य पुरस्कार एवं सम्मान: रचनाकार रंग सम्मान (कोलकाता), संस्कार भारती नाट्य सम्मान (पटना), कृष्ण- कांति सम्मान ( कला संस्कृति विभाग, झारखण्ड सरकार), तुलसी साहित्य सम्मान (जमशेदपुर), भरत मुनि नाट्य सम्मान (सिंहभूम जिला साहित्य सम्मलेन, जमशेदपुर), रोटरी क्लब आर्ट एंड कल्चर सम्मान (जमशेदपुर), इत्यादि|
संपर्क: 9, जुबिली ऑफिसर्स कालोनी, नोर्दर्न टाउन, जमशेदपुर-831001 (झारखण्ड)
About the Book
"Uljhe Dorahe ka Safar" is a depiction of major events in my life, events that occurred as a result of the conflicting traits of my personality. The conflict of my own expectations from life and the expectations of my near and dear ones from me, sometimes turned into very complex situation. This book records all such moments, which are of various hue and colors. Bitter and unpleasant sometimes and hilarious quite often.
One aspect of my life is the high academic qualification which includes a Masters degree in Engineering from University of California, the other side of my personality is being a theater activist, an actor, an artist. These diagonally opposite traits have always been at logger heads with each other and I could never figure out the solution to this never ending fight.
The book depicts my life in school and college, in India and the USA both. It also depicts my success and failures in professional field and the role of my family and friends in it.
In the process of narrating different events and circumstances, the reality of our social, administrative and political system unfolds. The comparison between our Indian culture and western system is based on my personal experience, which may be different for other people.
The book is a chronicle of my experience of working in a number of theatrical productions as an actor and director, and as an actor in occasional film projects.
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उलझे दोराहे का सफर - Hari Mittal
उलझे दोराहे का सफर
लेखक: हरि मित्तल
प्रकाशक: Authors Tree Publishing
Authors Tree Publishing House
W/13, Near Housing Board Colony
Bilaspur, Chhattisgarh 495001
Published By Authors Tree Publishing 2022
Copyright © Hari Mittal 2022
All Rights Reserved.
ISBN: 978-93-91078-79-9
प्रथम संस्करण: 2022
भाषा: हिंदी
सर्वाधिकार: हरि मित्तल
मूल्य:₹ 225/-
यह पुस्तक इस शर्त पर विक्रय की जा रही है कि लेखक या प्रकाशक की लिखित पूर्वानुमति के बिना इसका व्यावसायिक अथवा अन्य किसी भी रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता। इसे पुनःप्रकाशित कर बेचा या किराए पर नहीं दिया जा सकता तथा जिल्द बंद या खुले किसी भी अन्य रूप में पाठकों के मध्य इसका परिचालन नहीं किया जा सकता। ये सभी शर्तें पुस्तक के खरीदार पर भी लागू होंगी। इस संदर्भ में सभी प्रकाशनाधिकार सुरक्षित हैं।
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उलझे दोराहे
का सफर
हरि मित्तल
प्रेरणा स्रोत
आप लिखिए!.....जयनंदन ने कहा।
मुझे सहसा अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ।
कोरोना महामारी के लॉकडाउन में सारी गतिविधियाँ ठप्प थीं। घर से निकलना भी प्रतिबंधित था। फोन के अतिरिक्त संपर्क का कोई साधन नहीं। अभिनय प्रशिक्षण संस्थान मीडिया मंत्र
भी बंद करना पडा था। मित्रों के साथ साप्ताहिक बैठकी पर भी कोरोना का ग्रहण लग गया। ऑफिस के साथी भी वर्क फ्रॉम होम
की लहर में खो गए। नाटक, अभिनय, फिल्म, सब छूट गया। होता भी कैसे? ये सब सामूहिक गतिविधियां हैं, अकेले बैठे क्या करें।
मैंने जयनंदन से फोन पर अपनी व्यथा बताई। लेखक हैं, लेखन के लिए किसी समूह की आवश्यकता नहीं होती। तो उन्होंने मुझे भी यही सुझाव दिया.....आप लिखिए।
सुझाव तो उत्तम था लेकिन लिखें तो क्या, कैसे, क्यों, और मेरा लिखा कोई पढेगा भी किसलिए? ढेर सारे सवाल। अब तक किसी अखबार या स्मारिका के लिए लिखे गए रंगमंच संबंधी छोटे–मोटे लेख ही मेरी पूँजी थे। कथा-कहानी और कविता लेखन मेरे लिए ग्रीक-लैटिन से कम दुरूह नहीं है। हाँ, पढने का शौक जरूर है।
अपने बारे में लिखिए- उन्होंने सुझाव दिया।
अपने बारे में, मतलब- आत्मकथा? वो तो महापुरुषों की होती है। मैंने तो जीवन में ऐसा कोई लक्ष्य हासिल नहीं किया जिससे दूसरों को प्रेरणा मिलें।
जयनंदन ने मेरी शंका का समाधान करते हुए कहा- अपने जीवन की रोचक घटनाओं औए तत्जनित अनुभवों को साझा कीजिये, आजकल यह काफी पढ़ा जा रहा है।
ठीक है, प्रयास करते हैं- मैंने कहा।
बमुश्किल दसेक पृष्ठ लिखे होंगे, कि मन-मस्तिष्क में विचार और घटनाएं गड्ड-मड्ड होने लगीं। कोई तारतम्य नहीं जम रहा था।
जयनंदन ने बताया: जैसे-जैसे दिमाग में घटनाएं और विचार आएँ, उन्हें एक डायरी में नोट करते चलें, बाद में सिलसिलेवार श्रृंखलाबद्ध कर लें।
ये युक्ति कारगर रही। करीब पच्चीस हज़ार शब्दों का लेखन संपन्न हो गया तो मुझे लगा कि मैंने मैदान मार लिया। जयनंदन को बताया तो उत्तर मिला- और लिखिए।
और
लिखने के लिए अपने अतीत को बेरहमी से कुरेदना शुरू किया। वक़्त की परतों में दबे-ढंके लम्हे उघड़ते चले गए। उनको दोबारा जीते हुए मन कभी लहूलुहान हो जाता तो कभी खुशनुमा यादों की धूप खिल उठती।
अपने कुछ परिजनों, परिचितों और सह-रंगकर्मियों के प्रति भावना व्यक्त करने के क्रम में कहीं-कहीं ज्यादा ही कठोर शब्दों का प्रयोग हो गया, ऐसा मुझे लगता रहा। यदि वो पढेंगे तो संभवत: विक्षुब्ध होंगे। अभिनय के क्षेत्र में किरदार की भावनाओं को व्यक्त करने के लिए अभिनेता मुँहफट होने की सीमा तक जा सकता है लेकिन यहाँ तो किरदार भी मैं हूँ और अभिनेता भी मैं ही हूँ। अपने खुद के भोगे हुए सच को शब्द देने के अभियान में मैंने यथासंभव शालीनता की मर्यादा बनाये रखने का प्रयास किया है।
अभिनेता के रूप में पूर्व रचित शब्दों के आधार पर मंच पर परिस्थितियाँ साकार करता रहा हूँ। अब लेखक के रूप में पूर्वघटित और साकार हुई परिस्थितियों को शब्द देने का प्रयास है।
आभारी हूँ, यशस्वी साहित्यकार मित्र जयनंदन का, जिन्होंने बहुत धैर्य के साथ मेरा मार्गदर्शन किया और मेरे अनगढ़ प्रयास को प्रोत्साहित करते हुए इसे मंजिल तक पहुँचाने का बीड़ा उठाया।
- हरि मित्तल
प्रस्तावना
यह पुस्तक मेरे जीवन में घटित घटनाओं का दस्तावेज और मेरे व्यक्तित्व के दो परस्पर विरोधी आयाम की रस्साकशी से उत्पन्न खट्टे-मीठे क्षणों की कहानी है। एक तरफ मेरी ज़िन्दगी से मेरी अपनी उम्मीदें और दूसरी तरफ मेरे परिजनों के वो सपने जिन्हें पूरा करने की जिम्मेदारी भी मेरे कंधो पर डाल दी गई थी, या जाने-अनजाने मैंने स्वयं स्वीकार कर लिया था। अनुकूल परिस्थितियों के अभाव में उम्मीदों की टकराहट से विचित्र हालात पैदा हुए।
मैंने इस पुस्तक के माध्यम से उन विभिन्न रंगी क्षणों को पुन: जीने का प्रयास किया है, उन क्षणों को जो कभी मधुर और आनंदप्रद प्रतीत होते और कभी लहूलुहान कर देते।
मेरे व्यक्तित्व का एक पहलू वह व्यक्ति है, जिसके पास उच्च शैक्षणिक योग्यता है, अमेरिका के एक विख्यात विश्वविद्यालय से प्राप्त एम्.टेक. की डिग्री है। वहीँ दूसरे पहलू पर एक ऐसे व्यक्तित्व का कब्ज़ा है जो एक कलाकार है, रंगमंच को समर्पित है, अभिनेता और निर्देशक है। मेरे वज़ूद के दोनों पहलू हमेशा परस्पर संघर्ष की स्थिति में होते थे। इनके बीच सामंजस्य कैसे हो, ये मैं कभी नहीं समझ पाया।
पुस्तक के पूर्वार्ध में भारत और अमेरिका में अध्ययन एवं प्रवास की घटनाएं है और भारत वापसी के बाद के दिनों में उद्योग व्यवसाय के क्षेत्र में संघर्ष और सफलता-विफलता का लेखा-जोखा है। मेरे परिजन और प्रियजन इस धूप-छाँव के सहयात्री और सहभागी भी थे।
घटनाओं और हालात की तफसील के साथ साथ हमारे सामाजिक, प्रशासनिक और राजनैतिक ढाँचे की वो सच्चाई भी उजागर होती चली जाती है, जो मैंने भोगी। भारतीय और अमेरिकन संस्कृति तथा व्यवस्था तुलनात्मक वर्णन मेरे अपने अनुभवों पर आधारित है, औरों के लिए यह अलग हो सकता है।
पुस्तक का उत्तरार्ध रंगमंच और फिल्मों के क्षेत्र में मेरे अनुभव तथा सृजन के सुख दुःख का लेखा-जोखा है। छोटे शहर के रंगकर्मी और कलाकार की मजबूरियों की कहानी है और निहित स्वार्थ के द्वारा उनके शोषण की व्यथा-कथा है।
मुझे यह स्वीकार करने में तनिक भी संकोच नहीं कि मैं कोई लेखक नहीं हूँ तथा साहित्यकार वाली पारंपरिक परिभाषा की कसौटी पर खरा उतर पाने की योग्यता नहीं है। अंतर्मन में सतत उमड़ते-घुमड़ते तूफ़ान से निजात पाने का इससे बेहतर कोई विकल्प नहीं मिला, सो यह अनगढ़ प्रयास कर डाला।
- हरि मित्तल
स्मृतियों के गुल्लक में संचित गिन्नियों का शाब्दिक रूपांतरण
- जयनंदन
हरि मित्तल की सबसे बड़ी खूबी और भलमनसाहत है कि मित्र बनाने में वे उम्र नहीं देखते। मैं उनसे 15 साल छोटा हूँ, लेकिन पिछले 35-37 वर्षों से हम अंतरंगता की हद तक एक-दूसरे के निकट बने हुए हैं। थियेटर तथा साहित्य के प्रति उनका लगाव ही वह माध्यम रहा, जिसने हमें एक वृत्त में ला दिया। हम चार साथी हैं शिवकुमार प्रसाद, द्वारिकानाथ पांडेय, हरि मित्तल और मैं, जो वर्षों से आठ-दस दिनों में विचार विनिमय की एक अनौपचारिक बैठकी जरूर संपन्न करते हैं। हमारे बीच कई मुद्दों पर घनघोर वैचारिक मतभेद बने रहते हैं, लेकिन उससे हमारी आत्मीयता जरा भी प्रभावित नहीं होती। बैठकी हमें एक-दूसरे को नापने, परखने, समझने, अवसादमुक्त और जीवंत बनाये रखने के पर्याप्त अवसर उपलब्ध करवा देती है।
हरि मित्तल को हम तीनों साथी भैया कहकर ही संबोधित करते हैं। टुकड़ों-टुकड़ों में हम एक-दूसरे की जीवन-यात्रा से काफी कुछ परिचित होते चले गये। जीवन की लंबी पारी में हरि भैया ने सबसे ज्यादा श्वेत और श्याम दिनों को जिया है। ऐसे कई मौके आये जब उन्हें कठिन चुनौतियों और विपरीत परिस्थितियों से लड़ाई में कभी हारना पड़ा, कभी टूटना पड़ा और कभी निराश व हताश भी होना पड़ा। फिर भी संघर्ष करते हुए उन्होंने अपना पैर जमीन पर टिकाये रखा। चूंकि उनके अंदर एक संवेदनशील कलाकार और ऊँची तालीम की सलाहियत विद्यमान थी, इसलिए बिखरने से उन्होंने खुद को बचा लिया।
उनकी स्मृतियों में दर्ज इन तथ्यपरक प्रसंगों से गुजरते हुए मैं मन ही मन महसूस करने लगा कि इनके जीवन में व्याप्त उतार-चढ़ाव में वो कथानक है, जो पन्नों पर दर्ज हो तो एक प्रेरक आपबीती बन सकती है। खासकर अमेरिका के लंबे प्रवास की जीवन-शैली का सुदीर्घ अनुभव तथा रंगकर्म के प्रति इनके जुनून और जिद तो किसी के लिए भी जानने योग्य है और एक सबक देने की अर्हता से परिपूर्ण भी। थियेटर से संबंधित इनके आलेखों को अखबारों में पढ़ते हुए भाषा पर इनकी पकड़ तथा अभिव्यक्ति की शालीनता से मैं पहले से ही अवगत था। हमलोग इन्हें इस बाबत लिखने का सुझाव देकर इनके भीतर छिपे सर्जक को जगाने के प्रयत्न करने लगे। प्रयत्न फलित हुआ और ये लिखने लगे और मैं पढ़-पढ़ कर और-और लिखने के लिए इन्हें जगाना जारी रखा ताकि सामग्रियाँ एक मुकम्मल किताब के आकार में ढल जाये। आज मुझे बेहद खुशी हो रही है कि इन्होंने स्मृतियों के गुल्लक में संचित गिन्नियों को जिस तरह शब्दों में रूपांतरित किया है वह किताब बनकर हमारे बीच आ रही है। इस किताब में जो चीजें आ गयीं, उसके अलावा भी इनमें अभी बहुत बचा हुआ है जिनसे दूसरी बन सकती है।
भैया को मेरी असीम शुभकामनायें कि 81 वर्ष की उम्र में भी इन्होंने सृजन की साधना से धैर्य पूर्वक गुजरने में सफलता प्राप्त की। मेरा विश्वास है कि निश्चय ही यह पुस्तक सबके लिए पठनीय साबित होगी और शीघ्र ही इनकी दूसरी किताब भी आ सकेगी।
उलझे दोराहे
का सफर
भूलभुलैया के द्वार पर:
मेरा जन्म झारखण्ड (तत्कालीन बिहार) के औद्योगिक शहर जमशेदपुर में हुआ। तारीख का ठीक-ठीक हिसाब किसी के पास नही था। इन्टरनेट से एक लाभ ये हुआ कि मैं अपनी सही-सही जन्मतिथि का पता लगाने में सफल रहा। हमारे बुज़ुर्गों को अपने बच्चों के जन्म की अंग्रेजी तारीख तो याद नहीं रहती थी, पर इतना ज़रुर याद होता था किस पर्व-त्यौहार के आस-पास जन्म हुआ। मां से सुना था कि मेरा जन्म अहोई अष्टमी
के दिन हुआ था। इन्टरनेट में 1941 का विक्रम संवत् वाला कैलेंडर मिल गया और उससे अहोई अष्टमी की सही तारीख, इस तरह मेरी सही जन्म तिथि ज्ञात हो गई।
परिवार में सबसे बड़े एक भाई और दो बहनों के बाद मैं चौथे नम्बर पर था। दो भाई मुझसे छोटे थे। दो बेटियों के बाद बेटा होना विशेष होता है, इसलिए परिवार में कुछ ज्यादा ही लाड-प्यार मिलता था। सब मुझे बाबू कह कर बुलाते थे।
वैसे मेरा नाम हरिकृष्ण मित्तल है लेकिन मुझे हरि मित्तल
के नाम से बुलाया जाता है। मेरे नाम का मेरी ज़िन्दगी के उतार-चढाव में काफी योगदान है। मेरे बड़े भाई साहब मुझसे उम्र में 12 साल बड़े थे और हमारे अग्रवाल
समाज में काफी रूतबा रखते थे। मुझे बहुत चाहते थे। सरकारी विद्यालय में मेरा नामांकन करवाते समय उन्होंने मेरा नाम लिखवाया हरिकृष्ण अग्रवाल
। परिवार के सभी अन्य सदस्य मित्तल
थे, परिवार भी मित्तल परिवार के नाम से जाना जाता था। इस मित्तल
और अग्रवाल
के बीच की कशमकश ने मेरी आने वाली ज़िन्दगी को काफी प्रभावित किया।
मोहल्ले के एक सरकारी विद्यालय में मेरा नामांकन हुआ। उन दिनों सरकारी विद्यालयों में भी पठन-पाठन का स्तर अच्छा था। वर्तमान की अपेक्षा सरकारी शिक्षकों का वेतन बहुत ही कम हुआ करता था। यहाँ तक कि शिक्षक को गरीबी का पर्याय माना जाता था जबकि आजकल सरकारी शिक्षक सम्पन्नता का प्रतीक होते हैं। ये बात और है कि अब अधिकतर सरकारी शिक्षक और विद्यालय, दोनों का स्तर अत्यंत दयनीय है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो सरकारी विद्यालयों में बच्चों को पढ़ाई के नाम पर केवल मुफ्त का मध्यान्ह भोजन मिलता है, कभी कभी वो भी नसीब नहीं होता।
सरकारी विद्यालय में मैंने मैट्रिक तक की शिक्षा प्राप्त की। आरंभिक कुछ वर्षों तक मैं एक औसत दर्जे का छात्र था लेकिन आठवीं कक्षा में पहली बार प्रथम स्थान प्राप्त किया। खेल-कूद में भी मेरी रूचि थी। नाटक में अभिनय करने का प्रथम अवसर भी विद्यालय में ही मिला। मैट्रिक की परीक्षा में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुआ था और इसी कारण रांची स्थित प्रतिष्ठित सेंट जेविएर्स कॉलेज में आसानी से प्रवेश मिल गया।
पहली ठोकर- सत्य से साक्षात्कार:
उन दिनों रांची शहर को हिल-स्टेशन का दर्जा प्राप्त था। साफ़-सुथरा छोटा सा क़स्बा–नुमा शहर। गर्मियों में भी मौसम इतना ख़ुशनुमा रहता था कि हमारे कॉलेज के किसी भी कक्ष में पंखे नहीं थे। पूरे शहर की रौनक एक मुख्य सड़क तक सीमित थी। रांची में पहली बार साइकिल रिक्शा देखा था। जमशेदपुर में सड़कों की बनावट के कारण तब तक वहां साइकिल रिक्शों का चलन नहीं था। राँची एक आदिवासी बहुल क्षेत्र है। वहां के गाँवों में अत्यधिक गरीबी के कारण इसाई मिशनरी ने बड़े पैमाने पर धर्मांतरण कर रखा था। अधिकतर शिक्षा संस्थान मिशनरी द्वारा संचालित थे जहाँ आदिवासी इसाई विद्यार्थिओं के लिए विशेष सुविधाएं उपलब्ध थीं। आदिवासी उपनाम भी पहली बार सुने; टोप्पो, टोपनो, खालको, टिर्की, टुड्डू, मुर्मू वगैरह।
राँची का सेंट जेविएर्स कॉलेज तत्कालीन बिहार का सर्वश्रेष्ठ संस्थान माना जाता था। अनुशासित शिक्षा के साथ-साथ खेलकूद और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का नियमित आयोजन होता था। यहाँ मुझे एक नाटक में अभिनय करने का अवसर मिला। हिंदी विभाग में फादर कामिल बुल्के जैसे विद्वान के सान्निध्य का सौभाग्य मिला। कई प्राध्यापक विदेशी जेसुइट थे लेकिन अपने अपने विषय के विद्वान। सब मिला कर दो वर्ष का समय कब गुज़र गया, पता ही नही चला। लेकिन तभी एक दुर्घटना हो गई।
द्वितीय वर्ष में अग्रेषण (सेंट-अप) परीक्षा होती थी और उसके नतीजे के आधार पर वार्षिक परीक्षा में बैठने की अनुमति मिलती थी। उस दिन रिजल्ट आने वाला था। चूँकि मेरे सभी पर्चे काफी अच्छे गए थे, इसलिए प्रथम श्रेणी के लिए आश्वस्त था। तभी किसी मित्र ने पूछा कि मेरा रिजल्ट कैसा रहा। मैंने मज़ाक के लहजे में कह दिया- फेल हो गया यार! उस दिन मुझे एहसास हुआ कि कभी अशुभ नही बोलना चाहिये। सुना है कि 24 घंटे में कम से एक बार जीभ पर सरस्वती विराजमान होती हैं और उस समय जो कुछ भी शुभ-अशुभ बोला जाता है, वह घटित होकर रहता है। उत्तीर्ण सूची से मेरा नाम गायब था। थोड़ी देर बाद मुझे प्राचार्य कक्ष में बुलाया गया और बताया गया कि सभी विषयों में प्रथम श्रेणी के अंक होने के बावजूद मुझे फेल कर दिया गया है।
हुआ ये था कि भौतिकी की परीक्षा के समय मेरे बगल की सीट पर बैठे छात्र ने मेरी उत्तर पुस्तिका से देख कर एक प्रश्न के उत्तर को हूबहू नकल कर लिया। मूल्यांकन के दौरान संयोगवश दोनों पुस्तिकाओं का मिलान हो गया और हमदोनो को वार्षिक परीक्षा के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया। मेरी उत्तर पुस्तिका के हाशिये में आवश्यक गुणा-भाग किये हुए थे, जबकि उसकी उत्तर पुस्तिका में ऐसा कुछ नहीं था। लेकिन मेरी इस दलील को नहीं माना गया और कहा गया कि नक़ल करने और करवाने वाले, दोनों बराबर के दोषी हैं।
कॉलेज के तत्कालीन प्राचार्य फादर प्रूस्ट थे। उच्च स्तर की पैरवी लगाने के बाद भी वो नही माने और मुझे पूरक परीक्षा में बैठना पड़ा। पूरक परीक्षा में यद्यपि मैंने प्रथम श्रेणी प्राप्त की पर जब तक परिणाम आये, सभी इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिले बंद हो चुके थे। बाध्य होकर मैंने स्थानीय को-ऑपरेटिव कॉलेज
में बी.एस.सी. में दाखिला ले लिया और अगले वर्ष का इंतज़ार करने लगा।