Nandita Mohanty ki Shestra Kahaniya
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सात रंगों का अनुभव
जीवन के अर्थ और अनुभवों को ले कर कहानी का सृजन होता है। मैं भी इस अनुभव का अपवाद नहीं हूँ। एक तरफ नौकरी दूसरी ओर घर- संसार के जंजाल के बीच हृदय में सृजनात्मकता की छटपटाहट ही मेरा कथा संसार है। मेरे चारों ओर घूमते मनुष्यों का चरित्र ही मेरी कहानी का चरित्र है। इनमें व्याप्त शून्यभाव, अहंकार, त्याग, प्रेम, तीतीक्षा सब मेरे कथानक के अंश हैं।
कभी-कभी मैं इनके जीवन में स्वयं का अनुभव कर पाती हूँ। कभी इनके हृदय-दर्पण में मुझे अपना प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है। यही अनुभव कभी-कभी शब्दबद्ध होकर मेरे हृदय में उतर आता है। ऐसा लगता है- वे चरित्र, घटनाएँ मेरे द्वारा उकेरे जाने की अपेक्षा रखते हैं अन्यथा क्या मैं उन्हें लिपिबद्ध कर पाती?
आशा-निराशा, हँसने-रोने की लुकाछिपी के खेल में मैं अपने चरित्रों में भी समाहित हो जाती हूँ। कई बार ये चरित्र मुझसे दूर चले जाते हैं और पकड़ के बाहर हो जाते हैं। यह केवल मेरी बात नहीं है, कमोबेश सभी लेखकों की यही स्थिति है।
आरंभिक ओडिआ कहानी के लंबे बाट की मैं भी एक बटोही हूँ। मैं केवल लक्ष्यहीन चल रही हूँ। मेरी कथा मैंने अपनी तरह कही है। यदि मेरी कथा सुनकर कोई पलभर रुका, सुना या समझा तो यही मेरी सार्थकता है। इस संकलन में इसी तरह की कुछ कहानियाँ हैं।
ये कहानियाँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। उन सभी संपादकों के प्रति मैं कृतज्ञ हूँ। कई बार कुछ पाठकों की ओर से मेरे पास पत्र, फोन आदि आते रहते हैं। उन्हें शतशत नमन कि वे मुझे पढ़ते हैं और याद करते हैं।
"सूर्योदय के रंग" के प्रकाशन हेतु पक्षीघर प्रकाशन के सुयोग्य प्रकाशक श्री बनोज त्रिपाठी के आग्रह के लिए मैं उनकी ऋणी हूँ।
मेरा यह द्वितीय कहानी संग्रह यदि पाठकों को एक नई पुलक और सिहरन दे पाए तो मेरा श्रम सार्थक हो जाएगा।
नंदिता मोहंती
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सात रंगों का अनुभव
जीवन के अर्थ और अनुभवों को ले कर कहानी का सृजन होता है। मैं भी इस अनुभव का अपवाद नहीं हूँ। एक तरफ नौकरी दूसरी ओर घर- संसार के जंजाल के बीच हृदय में सृजनात्मकता की छटपटाहट ही मेरा कथा संसार है। मेरे चारों ओर घूमते मनुष्यों का चरित्र ही मेरी कहानी का चरित्र है। इनमें व्याप्त शून्यभाव, अहंकार, त्याग, प्रेम, तीतीक्षा सब मेरे कथानक के अंश हैं।
कभी-कभी मैं इनके जीवन में स्वयं का अनुभव कर पाती हूँ। कभी इनके हृदय-दर्पण में मुझे अपना प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है। यही अनुभव कभी-कभी शब्दबद्ध होकर मेरे हृदय में उतर आता है। ऐसा लगता है- वे चरित्र, घटनाएँ मेरे द्वारा उकेरे जाने की अपेक्षा रखते हैं अन्यथा क्या मैं उन्हें लिपिबद्ध कर पाती?
आशा-निराशा, हँसने-रोने की लुकाछिपी के खेल में मैं अपने चरित्रों में भी समाहित हो जाती हूँ। कई बार ये चरित्र मुझसे दूर चले जाते हैं और पकड़ के बाहर हो जाते हैं। यह केवल मेरी बात नहीं है, कमोबेश सभी लेखकों की यही स्थिति है।
आरंभिक ओडिआ कहानी के लंबे बाट की मैं भी एक बटोही हूँ। मैं केवल लक्ष्यहीन चल रही हूँ। मेरी कथा मैंने अपनी तरह कही है। यदि मेरी कथा सुनकर कोई पलभर रुका, सुना या समझा तो यही मेरी सार्थकता है। इस संकलन में इसी तरह की कुछ कहानियाँ हैं।
ये कहानियाँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। उन सभी संपादकों के प्रति मैं कृतज्ञ हूँ। कई बार कुछ पाठकों की ओर से मेरे पास पत्र, फोन आदि आते रहते हैं। उन्हें शतशत नमन कि वे मुझे पढ़ते हैं और याद करते हैं।
सूर्योदय के रंग
के प्रकाशन हेतु पक्षीघर प्रकाशन के सुयोग्य प्रकाशक श्री बनोज त्रिपाठी के आग्रह के लिए मैं उनकी ऋणी हूँ।
मेरा यह द्वितीय कहानी संग्रह यदि पाठकों को एक नई पुलक और सिहरन दे पाए तो मेरा श्रम सार्थक हो जाएगा।
नंदिता मोहंती
अनुवादक की कलम से
रघुआ के मुख से मणिया भाई की पत्नी की आलोचना सुनकर नानू का भड़कना और नारी को देवी तुल्य बताना, प्रेमिका से मिलने का उतावलापन, छुट्टी के समय कॉलेज गेट पर प्रतीक्षा करना, नियत समय पर प्रेमिका के घर पर मिलन न हो पाने पर खीझ, मन में नकारात्मक बातों का उभरना स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति है जिसे लेखिका ने जख्म कहानी की विषय वस्तु बनाया है।
भूल की कथा वस्तु में कथनी और करनी की विसंगति को विषय वस्तु बनाया गया है। स्वार्थ लोलुपतावश जिस श्री हरिविष्णु की आराधना की जाती है, वह दिखावे के अतिरिक्त कुछ और नहीं है। श्रीहरिविष्णु के साक्षात दर्शन पाकर पुजारी पूजन सामग्री लेकर आने का बहाना बनाता है और अपनी रोजी रोटी छिन जाने के डर से उन्हे एक कमरे में कैद कर बाहर से ताला लगा देता है ताकि न तो लोग श्रीहरिविष्णु के दर्शन पा सकें और न श्रीहरिविष्णु उनके कष्टों को दूर कर सकें। इसके पीछे पुजारी जी का क्षुद्र स्वार्थ है- कहीं उसकी रोजी रोटी न छिन जाए और बाल बच्चों को भूखे मरने को विवश न होना पड़े क्योंकि पुजारी ईश्वर और भक्त का मिलन कराने के सेतु हैं और सेतु पर चलने के लिए भक्तों द्वारा पुजारी को टोल टैक्स देना होता है। वही पुजारी जी की आय का साधन होता है।
नर्कवास में धनी मौसा धार्मिक प्रवृत्ति के वृद्ध हैं, जिनकी ईश्वर में आस्था और विश्वास है वहीं निताई नितांत शरारती एवं आधुनिक युवा पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता है। अपने कुतर्कों से धनी मौसा की हर बात का विरोध करना जैसे उसका लक्ष्य है। कहानी में नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के बीच जीवन लक्ष्यों, आस्था और विश्वास तथा परंपरागत वैचारिक मतभेद को बखूबी उकेरने का प्रयास किया गया है।
कुर्सी की कथा में कुर्सी के मानवीकरण का सुंदर प्रयास किया गया है साथ ही सांकेतिक रूप में यह बताने का प्रयास किया गया है कि कुर्सी हो या व्यक्ति घर और समाज में उसकी तब तक उपियोगिता है तभी तक वे स्वीकार्य हैं। अनुपयोगी होते ही वे तिरस्कृत हो जाते हैं।
संयोग में घरेलू हिंसा, दफ्तर में नारियों के प्रति अशोभनीय व्यवहार, उन पर अत्याचार आदि विषयों को उजागर किया गया है मीनाक्षी द्वारा बाएँ कान के पास स्थित मस्से को चिकित्सक से निकलवा देने मात्र की घटना से डॉक्टर साहू आत्म नियंत्रण खो बैठता है परिणामस्वरूप मीनाक्षी बाध्य हो कर उनसे संबंध विच्छेद कर लेती है।
तलाक़शुदा, भीमकाय कालाकलूटा रंग, थुलथुल शरीर, मोटी-मोटी बाहें, बड़ी-बड़ी मूंछ तथा लाल आँखों वाले डॉक्टर साहू को देखते ही अधीनस्थ नर्स सरिता डर से काँपने लगती है। उसके साथ ड्यूटी लगते ही बाहाने बना कर वह अन्यत्र अपनी ड्यूटी लगवा लेने में ही अपनी भलाई समझती है। यह बात डॉक्टर साहू स्वयं भी जानते थे किन्तु उनका स्वयं पर नियंत्रण न था और वे बेवश थे। उनकी आँखें बेलगाम एवं नियंत्रण मुक्त थीं।
माता-पिता जैसे बच्चों के उज्ज्वल भविष्य, सुशिक्षा, सुसंस्कार, उनकी आत्मनिर्भरता तथा उनके लिए सुपात्र, जीवनसाथी के लिए चिंतनशील रहते हैं वैसे ही सिंगल पैरेंट बच्चों के मन में भी किसी एक पैरेंट की कमी हमेशा खलती रहती है और अनुकूल परिस्थिति पा कर वह फूलने-फलने लगती है। प्रस्तुत कहानी में इरा और अरूप के मन में भी इसी प्रकार की मधुर कल्पना हिलोरें लेने लगती हैं। दोनों बच्चों ने सामाजिक, धार्मिक, जातीय भेदभाव को नकारते हुए अपने माता-पिता शोभना देवी और फिलिप का विवाह करवा कर विधवा तथा विधुर पुनर्विवाह का एक अनूठा एवं मानवीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। सूर्योदय का रंग कहानी में लेखिका का यह प्रयास एक अनूठी पहल है। इसके लिए उन्हें साधुवाद।
एक विडंबित जीवन की इतिकथा में वयस्कों के मनोभावों का मनोवैज्ञानिक चित्र प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है साथ ही कार्यालय में कम करने की नीयत में आई विकृति, परिवार में पुरुषों का वर्चस्व, नारी के प्रति हीन मानसिकता को उकेरने का सफल प्रयास किया गया है। पात्रों के कथोपकथन और स्वकथन के द्वारा कर्मचारिओं के अंदर कार्यालय में काम न करना, समय बिताने के लिए अलग-अलग तरह के बहाने बनाना, स्वयं काम न करना तथा सहकर्मियों को काम करने के लिए होतोत्साहित करना एक फैशन-सा बन गया है।
बच्चों के मन में नाटक देखने के प्रति आकर्षण, बिना अनुमति के चोरीछिपे घर, हॉस्टल से बाहाने बना कर नाटक देखने का मोह त्याग नहीं कर पाते भले ही इसमें पिता का कोपभाजन होना पड़े पढ़ाई का हर्ज हो अथवा अस्वस्थ हो जाएँ।
सेतु में युवावों के अंदर विदेश जा कर धन अर्जित करने का एक अलग ही आकर्षण है। परिवार का इकलौता पढ़ा लिखा तथाकथित सुशिक्षित एवं सुयोग्य इंजीनिर अनुराग के लिए देश, देश की मिट्टी, माता-पिता के प्रति प्रेम और यहाँ तक की अपनी पत्नी के आँसुओं का कोई मोल नहीं। दुनियाँ की हर खुशी वह धन बल से प्राप्त करना चाहता है। भौतिकतावादी सोच ने उसके जीवन को नर्क बना दिया है। कहाँ अपनी चाहत समिता को पत्नी रूप में पा कर अनुराग अपने भाग्य को सराहते-सराहते नहीं थक रहा था कहाँ आज भौतिक सुखों के पीछे अंधी दौड़ में विदेश जाने तथा उसका परित्याग करने से भी पीछे नहीं हटा और जब सपनों का शीशमहल टूटा तो काफी देर हो चुकी थी। शिवाय पछतावे के उसके पास कुछ न बचा।
अंतिम हँसी का बरेश अत्यंत हँसमुख एवं ज़िंदादिल व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करता है। उसकी वाकपटुता, तार्किकता देखते ही बनती है। वह जीवन की हर समस्या का अपने तर्कों से समाधान खोजने में माहिर है। उसके विरोधी तक उसकी तर्कक्षमता के आगे नतमस्तक हो जाते हैं। हार को जीत में बदलने की उसके पास अद्भुत कला है।
मुक्ति में शहरी और ग्रामीण जीवन के बीच बढ़ती खाई को बहुत ही बेवाकी से उद्घाटित किया गया है। सरकारी सेवा में आ जाने के उपरांत पारिवारिक सदस्यों के प्रति (विशेष रूप से महिलाओं में) हीन भावना हिलोरें लेने लगती हैं। वहाँ की सरलता, त्याग, सेवा-भावना, घरेलू कार्यों के प्रति प्रतिबद्धता उन्हे रास नहीं आती। पहले तो वे गाँव आना ही नहीं चाहते और विपरीत परिस्थितियों में लोकलाजवश आने का काम पड़ जाए तो वापस लौटने के लिए तड़पते रहते हैं। अस्पताल में भर्ती अस्वस्थ माता की सेवा में कुछ समय बिताना हड़ीबंधु और उसकी पत्नी को स्वीकार नहीं। उनके लिए दक्षिण भारत भ्रमण करना माता की सेवा से अधिक महत्वपूर्ण है। दो-चार बार भुवनेश्वर से गाँव आ कर ऊब चुके हैं। अब उन्हें इससे मुक्ति चाहिए किन्तु तुर्रा यह कि माँ की मुक्ति के लिए दान-पुण्य का बाहाना बना कर उसे सांसरिक कष्टों से मुक्ति दिलाना चाहते हैं। लेखिका ने इसी मानसिकता पर व्यंग किया है- किसकी मुक्ति? किससे मुक्ति? कर्तव्य का इतिश्री कर कर्तव्य से मुक्ति? माता की सेवा से मुक्ति अथवा माँ की मुक्ति? इसका उत्तर सुधी पाठकों पर छोड़ दिया है।
यक्ष प्रश्न में सरिया की माँ लक्ष्मी को बहू के रूप में पाकर अपने भाग्य पर इठला रही थी। गाँव और पड़ोस की महिलाएँ जिसने भी उसे देखा प्रशंसा के पुल बांधने लगतीं। घर सम्हालने में लक्ष्मी की लगन, त्याग व साधना पर स्वयं सास (सरिया की माँ) गदगद थी। बेटा मुंबई की एक फैक्ट्री में कम करता है। विवाह के उपरांत शीघ्र ही आवास की व्यवस्था कर पत्नी को साथ ले जाने का वचन दे कर मुंबई कम पर लौट जाता है। सुमंत के मुंबई में अन्य महिलाओं से संबंध हो गए और वह एड्स से संक्रमित हो गया। कई महीनों के उपरांत जब वह घर लौटा तो वह स्वयं न हो कर उसका मृत शरीर ही मिलता है। यहीं से लक्ष्मी पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ता है। वैधव्य के दुख में सांत्वना देना तो दूर चैबीसों घंटे सास के ताने सुन-सुन कर दिन में अट्ठाईस बार मरती। ग्रामवासियों को सुमंत की बीमारी का पता लगते ही पंचायत बुलवाई जाती है। जबरदस्ती लक्ष्मी के खून की जाँच करवाई जाती है। जाँच रिपोर्ट ठीक होने के बावजूद गाँव से दूर एक तम्बू में जीवनयापन करने को विवश कर दिया जाता है। लेखिका ने इसी यक्ष प्रश्न को पाठकों के समक्ष उठाया है और यह कहने का प्रयास किया है की कुकर्म किसी और का सजा किसी और को। यह कैसी मानसिकता है?
नारी चाहे कितनी भी पढ़ी लिखी क्यों न हो भारतीय समाज में सम्मान की अधिकारिणी वही बनती है जो पारिवारिक कर्तव्यों को कुशलता के साथ पूरा करती है। व्यक्तिगत शारीरिक मानसिक पीड़ा की उपेक्षा कर पारिवारिक खुशी में अपनी खुशी की खोज करने वाली भारतीय नारी ही प्रशंसा की पात्र बनती है। एक दिन की कहानी और दाम्पत्य में लेखिका ने स्वर्णमयी तथा शांति के माध्यम से भारतीय परिवार में नारी की इसी नियति को उद्घाटित करने का सफल और सार्थक प्रयास किया है।
कल तक अच्छा लगाने वाला सौभाग्य सूचक एवं अपनी ओर आकृष्ट करने वाले चेहरे पर बना मस्सा (दाग) परिवर्तित समय और परिस्थितियों में अपने नाम दाग के अनुरूप ही पीड़ा दायी बन जाता है। कोई भी वस्तु या विचार अपने आप में न तो अच्छा होता है और न बुरा। एक समय अपार खुशियों का प्रदाता विचार विपरीत परिस्थितियों में नश्तर की तरह पीड़ादायी बन जाता है। दाग में लेखिका ने जीवन के इसी सत्य पर अपनी लेखनी चलाई है।
आज की पीढ़ी में विशेषकर शहरी तथाकथित उच्चशिक्षित नवयुवकों में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति दिन प्रतिदिन बढ़ रही है। तार्किक क्षमता और ज्ञान तो उनमें है किन्तु कोई भी काम करने से पूर्व उसकेपरिणामों पर विचार करने के लिए उनके पास अवकाश नहीं है। अपराध बोध और आत्मग्लानि संभवतः सुसाइड का कारण बनता है। सुसाइड कहानी में शोभेश के माध्यम से लेखिका ने इसी ओर इशारा करने का प्रयास किया है।
डॉ. हरिचंद्र शर्मा
अनुक्रमणिका
1.दाग
2.सुसाइड
3.दाम्पत्य
4.जख्म
5.भूल
6.नर्कवास
7.कुर्सी
8.संयोग
9.सूर्योदय का रंग
10.एक विडंबित जीवन की इति कथा
11.सेतु
12.अंतिम हँसी
13.मुक्ति
14.यक्ष प्रश्न
15.एक दिन की कहानी
दाग
यह मेरा दाग है।
लंबे समय से यह मेरे साथ में है, जन्म से अथवा बाद में कब से मेरे शरीर पर यह दाग बन गया, मुझे मालूम नहीं। चालीस साल से अधिक समय हो गया, यह मेरे शरीर पर चिपका हुआ है। एक दिन नहीं, अनेक सालों से मैं इसे ढोते जा रही हूँ। एक पल के लिए भी वह मुझसे दूर नहीं हुआ। यह दाग न तो मेरे हाथों पर था और न ही पैरों पर। यह था मेरे चेहरे पर, दाएं गाल पर होठ के पास। भले वह छोटा था, मगर सूरज में ब्लैक-होल की तरह दिखाई दे रहा था। सूरज के ब्लैक-होल में सारे संसार को निगलने की क्षमता होती है। एक बार जो कोई उसके आकर्षण-वलय में फंस गया तो उसका सब-कुछ समाप्त। मेरे दोस्त कहते थे, जो मुझे पहली बार देखेगा, मेरे गाल का दाग उसे मोहित कर देगा और फिर वह उसके बंधन से नहीं निकल पाएगा। हो-न-हो, उस दाग में एक अनन्य आकर्षण क्षमता थी।
उस दाग को लेकर बुनी गई थी कई कहानियां, अकहानियां और सपनें।
शरीर के अनेक कॉकटेल अंगों की तरह। सभी अंग मिलकर एक सुंदर और सुगठित शरीर बनाते हैं। क्या हम उनकी कार्यप्रणाली के बारे में जानते हैं? किस तरह हृदय अपना काम करता है, फेफड़े अपना काम करते हैं, हाथ पैर, कान, नाक, नाखून सभी अपना-अपना काम करते रहते हैं? जब तक कोई घटना नहीं घटती है, चाहे दुर्घटना ही क्यों न हो, हम उनके बारे में सचेतन नहीं रहते हैं। मेरे शरीर पर आधे इंच की जगह दखल कर यह दाग अपना अस्तित्व जाहिर कर रहा था। इस घटना के घटने के पूर्व सब कुछ ठीक-ठाक था, पूर्व निर्धारित समय की तरह।
गर्मी की छुट्टी थी, हर साल गर्मी की छुट्टी में हम घर जाते थे। उस समय गांव का आकर्षण प्रबल हुआ करता था। वर्ष में एक बार ट्रेन में बैठने का मौका मिलता था। साल में एक-दो बार हम अपने नाना के घर अवश्य जाते थे। मगर वहाँ कोई आकर्षण नहीं था। नाना का घर शहर में था फिर बस की मात्र दो-ढाई घंटे की यात्रा में वहाँ पहुँच जाते थे। ऐसा लगता था, जैसे अभी बैठे ही नहीं कि हमें उठना पड रहा हैं। वह शहर हमारे शहर से छोटा जरूर था, मगर उसमें भी तेजी से बदलाव आ रहा था। उस घर की चारदीवारी के भीतर खेलकूद करने के सिवाय कुछ नहीं था, ज्यादा से ज्यादा शाम को नए कपड़े पहनकर बाहर घूम सकते थे, भेलपुडी और चाट खा सकते थे। ये चीजें तो हमारे शहर में भी प्रचुर मात्रा में मिलती है। अच्छा, आप ही बताइए कि क्या हमेशा खीर और खिचड़ी अच्छी लग सकती है? कभी-कभी पखाल, आलू-चोखा और साग-भाजी भी तो बहुत अच्छी लगती हैं। जो गांव में मिलते थे।
मगर माँ गांव नहीं जाना चाहती थी, क्योंकि वहाँ उनके लिए अनेक अलिखित कानून-कायदे और प्रतिबंध थे जैसे सुबह उठकर नहाओ, वह भी नदी के ठंडे पानी से। हमेशा घूंघट लगाए रखो, धीरे-धीरे बातचीत करो। दिन-रात रसोई घर में चूल्हे को फूंकते रहो। थोड़ा इधर-उधर होने से दादी ‘बाप-भाई’ की गाली देती थी। इन सारी बातों के कारण मां की गांव जाने की कभी भी इच्छा नहीं होती थी।
मगर पिताजी ने एक दिन टिकट लाकर मां को देते हुए कहा, स्वर्ण,अमुक तारीख का टिकट कटाया हूँ। अपना सामान पैक कर लेना। हां, दस्त, बुखार और सर-दर्द की दवाई साथ लेना मत भूलना। तीन-चार एविल की गोलियां भी ले लेना। मोना को गांव के पानी में नहाने से एलर्जी हो सकती है।
भले ही, मां का चेहरा उतर