21 Shreshth Naariman ki Kahaniyan : Uttar Pradesh (21 श्रेष्ठ नारीमन की कहानियां : उत्तर प्रदेश)
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21 Shreshth Naariman ki Kahaniyan - Rinkal Sharma
डॉ. शशि गोयल
पता : सप्तऋिषि अपार्टमेंट जी-9, ब्लॉक-3, सैक्टर-16 बी, आवास विकास योजना, सिकन्दरा, आगरा - 282010
मो. : 9319943446
डॉ. शशि गोयल जी का जन्म वर्ष 1945, मथुरा में हुआ था। आगरा की प्रमुख साहित्यिक सामाजिक संस्थाओं के प्रमुख पद पर कार्यरत रह चुकीं डॉ. शशि गोयल की अब तक 28 पुस्तकें जैसे- बादल की सैर (सूचना प्रसारण विभाग), ‘सोने का पेड़’, ‘एक फूल का भाग्य’, ‘नटखट चाँद’, श्रेष्ठ बाल कहानियां, मीठे फल , भूत वाले पंडित जी (बाल कथा संग्रह ), बदल गया मन (बाल कथा संग्रह) सींग वाले शैतान (बाल कथा संग्रह ), सूरज को भी लगती सर्दी, चंदामामा लटके , ‘नानी गाना गाये, (बाल गीत संग्रह) ‘मैं अकेली’, ‘एक खिडकी बंद’, ‘नेह बंध की देहरी इत्यादि प्रकाशित हो चुकी हैं।
डॉ. शशि गोयल को उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा सुभद्रा कुमारी चौहान, इन्द्र धनुष साहित्य संस्था द्वारा साहित्य सेवा सम्मान, संगीत कला केन्द्र द्वारा साहित्य मनीषी सम्मान, बाल साहित्य शोघ संस्थान भोपाल द्वारा जगदगुरू बाल साहित्य सम्मान, नाट्याांजलि संस्था द्वारा साहित्य सेवी सम्मान, विश्व मैत्री मंच द्वारा सारस्वत सम्मान और अखिल भारतीय साहित्य संस्थान गाजियाबाद महादेवी स्मृति सम्मान इत्यादी अनेकों सम्मानों से सम्मानित किया गया है।
गुलमोहर
सावित्री देवी की नजरें खिड़की के पार आकाश के दूसरे छोर पर फैले नीले रंग पर टिकी थीं। बादल बार-बार आते और अपने रंग बिखरा कर चले जाते। कभी काला, कभी गहरा स्लेटी-जैसे रंग बादल बिखराते, वैसे ही रंग उनके दिलो-दिमाग को ढकते चले जा रहे थे। तेज-तेज आवाज के बीच में, बच्चों के चेहरे के नकाब खिसक-खिसक कर, बादलों के रूप भरकर, उसके दिल के आकाश को ढक रहे थे।
अरूणा फूले मुँह से छोटी ननद शिप्रा को बता रही थी कि फ्रिज के लिए तो बाबूजी ने खुद भी कहा था कि बड़े बेटे सोमेश के यहाँ भी फ्रिज आ गया, छोटे बेटे राजेश के यहाँ भी, बस बिचले बेटे ब्रजेश के पास फ्रिज नही है तो वह लेकर क्या करेगा, हमारा ले लेगा। लेकिन पिछले साल फ्रिज खराब हुआ तो पैसा बड़े बेटे सोमेश ने लगाया था। अब क्यूंकि सोमेश ने एक बिगड़ा पुर्जा ला दिया था इसलिए सोमेश ने फ्रिज पर अपना हक जता दिया था। कहता था ,इसमें पैसा मैंने लगाया, साथ ही मेरी गृहस्थी बड़ी है और मेरा फ्रिज बहुत छोटा है, इसीलिए फ्रिज वह ले जाएगा और अपना छोटा फ्रिज मां के लिए भेज देगा अकेली माँ इतने बड़े फ्रिज का क्या करेंगी?’ दो दरवाजे का बड़ा विदेशी फ्रिज देखकर हर किसी का मन मचल जाता था। अब तो मिलता भी ही नही, जब पापा ने खरीदा था तब ही दस हजार का था, अब तो बहुत कीमती होगा। फ्रिज क्या है पूरी बड़ी आलमारी है सब रसोई रूठ गई थी, ‘बड़े हैं तो क्या सब चीजों पर उन्हीं का अधिकार बनता है हमें अधिक जरूरत है छोटा फ्रिज लेना होता तो हम पहले नहीं ले सकते थे क्या?’ एक-एक कर घर की सभी वस्तुओं के बंटवारे हो रहे थे लेकिन सावित्री देवी का दिल टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर रहा था। सुधा बीच-बीच में कान में फुसफुसाती, ‘माँ अभी जेवर पर हाथ मत रखने देना, नकद भी मत देना। देखा न! सब बस लेने की सोच रहे हैं कि एक बार भी सोचा है तुम्हारा घर कैसे चलेगा तुम्हारी जिंदगी पड़ी है?’ सुधा की ओर उदास आँखों से देख सावित्री देवी ने नजरें तीनों बेटों और दोनों बेटियों पर डाली। सबके चेहरे उत्तेजना और उत्कंठा से भरे थे कि किसको क्या मिलेगा?
जब-जब घर पर बच्चे आते अपनी पसंद की चीजों पर नजरें गड़ाकर रखते थे। अनन्त बाबू को शाही सामान खरीदने का शौक बहुत था। अखरोट की लकड़ी की नक्काशीदार ड्रेसिंग टेबल, ईरानी कालीन जिसकी मोटाई ही गद्दे जैसी थी इत्यादि। हर शहर की उत्तम वस्तुओं के साथ विदेशी सामान का भंडार जोकि आधुनिक युग में अलभ्य हो गया है। कोई कहता ‘पता है अम्मा, जो तुम्हारे पास पचास कांच की तश्तरियाँ रखी हैं, वैसी तो अब बहुत महंगी हैं।’ कोई कहता ‘संगमरमर की इतनी बड़ी मेज पता है अब तो हजारों में आएगी।’ सावित्री देवी बरामदे में उपेक्षित पड़ी मेज को हैरानी से देखतीं और कहतीं, ‘पता नहीं तब तो तुम्हारे बाबूजी दो सौ रूपये की आगरा से लाए थे।’ ड्राइंगरूम में खड़ी आदमकद संगमरमर की परी के बुत पर तो सब का दिल था, सबने अपने-अपने घर का एक-एक कोना उसके लिए खाली कर रखा था।
सावित्री देवी का मन हुआ कि चीख-चीख कर कहें ‘क्या इस हाड़-माँस की माँ की जरूरत नहीं है। क्या पति के साथ उनकी जिन्दगी भी खत्म हो गई। जब तक वो हैं वो इस घर से कुछ नहीं ले जाने देंगी। ले जाना है तो एक बार तो फूटे मुँह से कहो कि माँ को मैं ले जाऊँगा। पर माँ का घर में क्या होगा? वो कौन-सा कोई सजावटी चीज हैं। पुरानी पाँच शीशे की कटावदार मेज पर पोलिश होकर नायाब चीज बनेगी। माँ तो उस घर को बदसूरत बना देगी। शायद माँ की किसी भी घर में जरूरत नहीं है। सबके घर में अलमारी, मेज, सोफासेट के लिए कोने खाली हैं, पर एक कोना ऐसा खाली नहीं है जिसमें माँ समा सके। उनके घरों की साज-सज्जा से पुराने ढंग की माँ मेल नही खाती।’ दिल की दहकन उमड़ते आँसुओं को छन-छन कर सूखा कर रही थी। ऐसे लोगों की बातों पर क्या रोना? लगता नहीं कि इन्हें एहसास भी है कि माँ नाम का जीव, जिसने कभी दिन-रात का सुख चैन गंवाकर अपने रक्त माँस से इनको गढ़ा, उसने दिल में आशाएं बनाई थी कि ये उनके बुढ़ापे का सहारा बनेंगे। तीन-तीन बेटों की माँ होने पर नाज था उन्हें, पर कौन उनका सहारा है? क्या वह नौकरानी जिसका इंतजाम करके जा रहे हैं या वह चौकीदार जो रात में कोई घर में घुस कर सामान न लूट सके, इसका ख्याल रखेगा। पता नही प्राण छोड़ते समय दो बूंद पानी डालने वाला भी कोई होगा कि नहीं? अगर सोमू के बाबू रहते तो चिंता नही थी।
सुमित्रा देवी फिर बाहर की ओर आंगन में लगे गुलमोहर के पेड़ को देखने लगीं। उसके नीचे अनन्त बाबू की झूलनेवाली आराम कुर्सी पड़ी थी। उन्हें लगा कुर्सी झूल रही है और अनन्त बाबू सिर टिकाये झूलते हुए कह रहे हैं, देखा सोमू की मां बहुत नाज था तुम्हें अपने इन्ही डाक्टर, इंजीनियर पर। कितनी सुखी गृहस्थी थी तुम्हारी, पर क्या सच में यह तुम्हारी गृहस्थी है? तुम तो मात्र आया हो इनकी। पिछले जन्म में कर्ज लिया होगा इनसे, वही चुका रहे हैं हम। कोई किसी का नही होता यहाँ, सब के पीछे होता है स्वार्थ।’ सुबह से शाम का अधिकांश भाग अनन्त बाबू का इसी कुर्सी पर बीतता था और उसके पास छोटी चौकी डालकर सावित्री देवी घर के काम निपटाती रहती थीं। अखबार पढ़ने से लेकर चाय, खाना सब इसी कुर्सी पर होता था। यहाँ तक कि कभी-कभी दोपहर की नींद भी वे इसी कुर्सी पर ले लेते थे। चौकी पर बैठी सावित्री देवी सारे मुहल्ले पड़ोस की बातें सुनाती रहतीं। सब बातों का अंत यही निकलता था कि इनके बच्चे कितने लायक निकले हैं। अनंत बाबू अधिकतर कहते, ‘हाँ जी! तुम्हारे बेटे हैं न, पता लगेगा कौन कितने पानी में हैं। चलो चार-चार महीने रह आते हैं तीनो के घर।’ सावित्री देवी इठलातीं, ‘सो मत कहो सिर आंखों पर रखेंगे, पर सब यहाँ आते रहते हैं तो उनका मन बदल जाता है। वहां तो मां के हाथ की चीजें खाने को भी तरस जाते हैं’। अनंत बाबू- ‘ओ सोमू की माँ, उनका मन बदल जाता है ये तो तुमने सोचा, पर कभी उन्होंने सोचा कि तुम्हारा भी मन बदल जाए, कभी किसी ने कहा कि बाबू अम्मा कुछ दिन रह जाओ। हाँ! जब काम पड़ता है तब झट अम्मा याद आ जाती है। अरे! मैं जमाना देखता हूँ जमाना।’- हम्म! सच ही कहा थाएक गहरी साँस निकल गई।
‘माँ भात-पात की बात कर रहे हैं क्या कहती हो तुम?’ सुधा की फुसफुसाहट से ध्यान बंट गया।
‘किसी को चिंता करने की जरूरत नही है। भाई करते हैं तो ठीक है नहीं तो तुम लोगों को क्या कमी है जो भात-पात की तुम्हें आवश्यकता है? अब कुछ जमाने के साथ चलो’-कहकर वे उठ आई। अवाक् सुधा मुँह देखती रह गई यह भी कैसी बात कर रही हैं?
दूसरे दिन एक-एक कर सब विदा लेने लगे थे. जो सामान साथ जा सकता था, ले जा रहे थे और साथ न जा सकने वाले को, अपने हिसाब से ढक दाब कर बंद कर रहे थे। दबी जुबान से सबने बहुत चाहा था कि माँ गहने, जेवर, नकदी का भी बंटवारा कर दें। कल को उन्हें कुछ हो गया तो सब का क्या होगा? पर सावित्री देवी चुपचाप बिना जबाब दिये अपना काम करती रहीं, हालाँकि मन में ज्वालामुखी धधक रहा था। उनके निर्लिप्त चेहरे को देख अधिक किसी की हिम्मत नही पड़ी। चलते समय सोमेश कह गया, ‘आज से ही बाहर दो जनें सोया करेंगे, मैने इंतजाम कर दिया है माँ’-जैसे बहुत बड़ा एहसान कर दिया। सुधा लिपट कर रोती हुई बोली, ‘माँ अपना ध्यान रखना।’
सावित्री देवी हर किसी की हिदायतों को सुनती, आने वाले भयावह दिनों के लिए सोच रही थीं कि वे आने वाले सन्नाटे को कैसे चीर पायेंगी। जाते समय राजेश ने जैसे ही वह आराम कुर्सी उठाई, वो एकदम जोर से चीख पड़ीं, ‘नहीं उसे वहीं रख, वहीं रख उसे, छूना भी मत’-राजेश सिटपिटा गया। आश्चर्य से माँ की ओर देखता, धीरे से पैर छू बाहर निकल गया। एक-एक कर सब चले गए। सावित्री देवी गुलमोहर के पेड़ के नीचे अपनी पुरानी जगह चौकी पर आ बैठीं और कुर्सी के सहारे सिर टिका कर बोलीं, ‘सोमू के बाबू! वो तुम्हें भी ले जाना चाहते थे और तुम्हारी यादें ले जाना चाहते थे। मैंने ले जाने न दिया, अब वे यादें ही तो मेरा सहारा हैं’- कहकर फफक-फफक कर रो उठी और गुलमोहर के फूल उन पर झड़ते रहे।
डॉ. बीना शर्मा
पता : के, आई 21 कवि नगर गाजियाबाद
मो. : 9873605905
डॉ. बीना शर्मा का जन्म 1 नवम्बर 1963 को गाजियाबाद