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Bharat Ke 1235 Varshiya Swatantra Sangram Ka Itihas - Weh Ruke Nahin Hum Jhuke Nahin : Bhag - 2
Bharat Ke 1235 Varshiya Swatantra Sangram Ka Itihas - Weh Ruke Nahin Hum Jhuke Nahin : Bhag - 2
Bharat Ke 1235 Varshiya Swatantra Sangram Ka Itihas - Weh Ruke Nahin Hum Jhuke Nahin : Bhag - 2
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Bharat Ke 1235 Varshiya Swatantra Sangram Ka Itihas - Weh Ruke Nahin Hum Jhuke Nahin : Bhag - 2

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हिन्दुस्थान के गौरव की अनूठी झांकी का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है- ‘भारत के 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास (भाग-2)’। पुस्तक हर देशभक्त को झकझोरती है और एक ही प्रश्न उससे पूछती है कि इतिहास की जिस गौरवमयी परंपरा ने हमें स्वतंत्र कराया, उस इतिहास को आप कब स्वतंत्र कराओगे ? इतिहास को उसकी परिभाषा और उसकी भाषा कब प्रदान करोगे ? लेखक राकेश कुमार आर्य हिन्दी दैनिक ‘उगता भारत’ के मुख्य संपादक हैं। 17 जुलाई 1967 को उत्तर प्रदेश के गौतमबुद्ध नगर जनपद के महावड़ ग्राम में जन्मे लेखक की अब तक दो दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिन पर उन्हें राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित विभिन्न सामाजिक संगठनों की ओर से देश में विभिन्न स्थानों पर सम्मानित भी किया जा चुका है। उनका भारतीय संस्कृति पर गहन अधययन है, इसलिए लेखन में भी गंभीरता और प्रामाणिकता है। उनका लेखन निरंतर जारी है पुस्तक को आद्योपांत पढने से ज्ञात होता है कि भारत में विदेशी सत्ता को उखाड़ फेंकने का अभियान 712 ई- से 1947 तक के 1235 वर्षीय कालखण्ड में एक दिन के लिए भी बाधित नहीं हुआ। भारत लड़ता रहा-गुलामी से, लूट से, अत्याचार से, निर्ममता से, निर्दयता से, तानाशाही से, राजनीतिक अन्याय से, अधर्म से और पक्षपात से। भारत क्यों लड़ता रहा ? क्योंकि गुलामी, लूट, अत्याचार, निर्ममता, निर्दयता, तानाशाही, राजनीतिक, अन्याय, अधर्म और पक्षपात उसकी राजनीति और राजधर्म के कभी भी अंग नही रहे। यहां तो राजनीति और राजधर्म का पदार्पण ही समाज में आयी इन कुरीतियों से लड़ने के लिए हुआ था। इस प्रकार भारत की राजनीति का राजधर्म शुद्ध लोकतांत्रिक था। एक शुद्ध लोकतांत्रिक समाज और लोकतांत्रिक राजनीति अधर्म, अन्याय और पक्षपाती विदेशी राजनीतिक व्यवस्था को भला कैसे स्वीकार करती? इसलिए संघर्ष अनिवार्य था। अतः आज भारत के 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम को विश्व में लोकतंत्र के लिए लड़ा गया संघर्ष घोषित करने की आवश्यकता है। इस पुस्तक में राष्ट्र की तर्क संगत व्याख्या करते हुए भारत के इतिहास का पुनर्लेखन करने की दिशा में भारत का 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम का यह दूसरा खण्ड लिखकर ठोस कार्य किया है। उन्होंने भारत को बहुलतावादी सामाजिक व्यवस्था को भारत की एक अनिवार्यता माना है और उसे किसी भी प्रकार से आघात न पहुंचाते हुए सर्व—पन्थ—समभाव की भावना पर बल दिया है।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateAug 25, 2021
ISBN9789352611027
Bharat Ke 1235 Varshiya Swatantra Sangram Ka Itihas - Weh Ruke Nahin Hum Jhuke Nahin : Bhag - 2

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    Bharat Ke 1235 Varshiya Swatantra Sangram Ka Itihas - Weh Ruke Nahin Hum Jhuke Nahin - Rakesh Kumar Arya

    दास वंश के हाथों

    घायल हमारी स्वतंत्रता

    दिल्ली ने भारत के उत्थान-पतन के कई पृष्ठों को खुलते और बंद होते देखा है। कई राजवंशों ने यहां लंबे समय तक शासन किया, पर समय वह भी आया कि जब उनका इतिहास सिमट गया और उनके सिमटते इतिहास के काल में ही किसी दूसरे राजवंश ने दिल्ली की धरती पर आकर अपने वैभवपूर्ण उत्थान का मधुर गीत गाना आरंभ कर दिया।

    विदेशी और विधर्मी शासक

    पर अब परिस्थितियां कुछ दूसरी थीं। अब दिल्ली पर एक विदेशी आक्रांता शासक बन बैठा था। वह ऐसा शासक था जिसका धर्म विदेशी था, सोच विधर्मी थी, भावों में हिंसा थी, विचारों में घृणा थी और कार्यों में निर्दयता का पूर्ण समावेश था। जिस समय यह विदेशी-विधर्मी शासक कुतुबुद्दीन भारत में अपने पैर जमा रहा था। उस समय के दिल्ली के तत्कालीन वैभव, इतिहास और सांस्कृतिक विकास को उसी प्रकार इतिहासकारों ने उपेक्षित और दृष्टि से ओझल किया है जैसे मध्यकालीन इतिहास के विध्वंसित मंदिरों के ध्वंसावशेषों से निर्मित किसी मस्जिद, मीनार या मकबरे आदि की अब जांच-पड़ताल करने की बात को दृष्टि से ओझल किया जाता है।

    स्वतंत्रता के द्वीप बुझाकर जलाये ‘गुलामी के दीये’

    यदि हम तत्कालीन दिल्ली के विषय में उपलब्ध साक्ष्य, प्रमाण एवं ऐतिहासिक महत्व के पुरातात्विक अवशेषों की भी उपेक्षा कर दें, तो भी दिल्ली जैसे प्राचीन और ऐतिहासिक महत्व के नगर के विषय में यह नहीं माना जा सकता कि यहां इतनी सदियों के इतिहास काल में ऐसा कुछ भी नहीं किया गया होगा या कुछ भी नहीं बनाया गया होगा जिसका ऐतिहासिक महत्व हो और जो एक भव्य स्मारक के रूप में एक दिव्य देश के सांस्कृतिक गौरव के इतिहास को ऊंचा मस्तक करके वर्णित करने की योग्यता रखता हो। निस्संदेह ऐसे कितने ही प्रमाण रहे होंगे जिन्हें मिटाकर और स्वतंत्रता की ज्योति को बुझाकर ‘गुलामी का दीया’ जलाने का प्रयास किया गया होगा। यह सर्वमान्य और सार्वभौम सत्य है कि ‘गुलामी का दीया’ सदा ही स्वतंत्रता की कब्र पर ही जलाया जाया करता है।

    मिहिरावली की वेधशाला कुतुबमीनार

    भारत के तत्कालीन इतिहास की समीक्षा करने पर हमें ऐसे बहुत से प्रमाण और अवशेष या ऐतिहासिक महत्व के भव्य भवन, मीनारें इत्यादि मिलते हैं, जिन्हें देखकर कहा जा सकता है कि कभी यहां उजालों ने आत्महत्या की है अवश्य। इन प्रमाणों में सबसे प्रमुख स्थान कुतुबमीनार का है। यह मीनार हमारी स्वतंत्रता के वैभवपूर्ण कालखण्ड का एक ऐसा प्रमाण है जिस पर किसी भी देश को गर्व और गौरव की अनुभूति हो सकती है क्योंकि यह मीनार केवल एक मीनार ही नहीं है, अपितु यह भारत की स्थापत्य कला का एक ऐसा बेजोड़ नमूना भी है जिसके अवलोकन से भारत के ज्ञान-विज्ञान के गांभीर्य का भी हमें पता चलता है कि जिस समय इस मीनार का निर्माण हुआ था, उस समय हमारे पूर्वजों का नक्षत्रादि के विषय में भी गहरा ज्ञान था।

    वराहमिहिर की वेधशाला

    यह मीनार दिल्ली के मिहिरावली (महरौली) क्षेत्र में स्थित है। इस क्षेत्र में भी कभी मिहिरावली के नाम से ही दिल्ली ख्यात रही है, अर्थात कभी मिहिरावली दिल्ली का ही नाम रहा है। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के शासनकाल में भारत के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक वराहमिहिर (गणितज्ञ) ने अपने नक्षत्रीय ज्ञान-विज्ञान के परीक्षण के लिए यहां एक वेधशाला बनायी थी। उसी वेधशाला को अरबी में कुतुबमीनार कहा गया। कुतुबुद्दीन नाम के मुस्लिम सुल्तान के विषय में पी.एन. ओक कहते हैं कि उसने इस मीनार को देखकर कहा था कि-‘यह क्या है?’ तब उसे बताया गया था कि यह कुतुबमीनार है। सुल्तान ने इस कुतुबमीनार के पास कुछ निर्माण कार्य कराया जो वहीं बने मंदिरों को तोड़कर उन्हीं के अवशेषों से बनाने का प्रयास था।

    कुतुबुद्दीन ने कुतुबमीनार बनाने का नहीं किया दावा

    कुतुबमीनार भारत के वैभव की कहानी का प्रतीक है। कुतुबुद्दीन के विषय में एक सर्वमान्य सत्य यह है कि उसने स्वयं या उसके किसी लेखक ने कहीं भी दावा नहीं किया कि कुतुबमीनार कुतुबुद्दीन ऐबक ने बनवाई थी। वैसे भी उस सुल्तान को भारत में स्वतंत्र शासन करने के लिए मात्र साढ़े-तीन चार वर्ष का ही समय मिला था। इस अवधि में भी वह भारत में होने वाले विद्रोहों की चुनौती से जूझता रहा। मोहम्मद गोरी के समय में तो उसने भारत में अपना विजय-यात्रा अभियान जारी रखा था, परंतु जब वह भारत के कुछ भू-भाग का स्वतंत्र शासक बना तो एक भी विजय-यात्रा अभियान नहीं चला पाया क्योंकि अब उसे पता चल गया था कि किसी बाहरी देश में जाकर उस देश की स्वतंत्रता प्रेमी जनता पर अपना शासन थोपना कितना चुनौतीपूर्ण होता है। ऐसी परिस्थितियों में उससे किसी नये भवन या मीनार के बनाने की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

    सर सैयद अहमद खान की टिप्पणी

    पी.एन. ओक लिखते हैं कि सर सैयद अहमद खान एक कट्टर मुस्लिम विद्वान थे, जिन्होंने यह स्वीकार किया था कि यह स्तंभ एक हिंदू भवन है।

    हमारी उपेक्षापूर्ण नीतियां

    यह स्तंभ सदियों से भारत को नक्षत्र विद्या का ज्ञान कराता आ रहा था, परंतु कुतुबुद्दीन जैसे लोगों ने इसका महत्व नहीं समझा और इसे भारी क्षति पहुंचायी। आज स्वतंत्र भारत में यह मीनार अपने गौरवपूर्ण अतीत पर खड़ी-खड़ी आंसू बहा रही है, और हमें इसके आंसू पोंछने तक का समय नहीं है। हमारा अपना इतिहास और उसका गौरव हमारे सामने एक स्वर्णिम पृष्ठ के रूप में खड़ा है और हम उसकी ओर पूर्णतः उदासीनता का भाव प्रकट कर रहे हैं। हमने कुतुबमीनार, महरौली, वराहमिहिर आदि के अतीत को समीक्षित और निरीक्षित करने का प्रयास नहीं किया।

    दिल्ली का लालकोट

    ‘दिल्ली : प्राचीन-इतिहास’ के लेखक उपिन्दर सिंह ने प्रमाणों के आधार पर लिखा है कि (गुर्जर) तोमर राजा अनंग पाल द्वितीय, जिसको प्रायः 1052 से 1060 के बीच दिल्ली की स्थापना (पुराने अवशेषों पर नया शहर बसाने के अभिप्राय से है) का श्रेय दिया जाता है, इसके काफी पहले इंद्रप्रस्थ अपनी पहचान खो चुका था (कनिंघम) तब पहली बार इस शहर का अस्तित्व महरौली के निकट लालकोट के इर्द-गिर्द प्रकट होता है।

    अनंगपुर का राजा अनंगपाल

    इस गुर्जर राजा अनंगपाल तोमर ने ही दिल्ली का लालकोट नामक किला बनवाया था। इसका निर्माण काल 11वीं शताब्दी को माना गया है। इस किले का कुल क्षेत्रफल लगभग सात लाख चौंसठ हजार वर्गमीटर माना जाता है। गढ़वाल कुमायूं क्षेत्र से मिली पाण्डुलिपियों के अनुसार मार्गशीर्ष महीने के दसवें दिन 1117 संवत् या 1060 ई. में अनंगपाल ने दिल्ली का किला बनवाया और उसका नाम उसने लालकोट दिया। अनंगपुर गांव इसी राजा अनंगपाल के नाम से है। वस्तुतः यह अनंगपुर भी कभी दिल्ली का ही पुराना नाम है। इस क्षेत्र में स्थित लालकोट को तोमर राजाओं ने अपनी राजधानी बनाया था। यह भी माना जाता है कि तोमर शासक गुर्जर प्रतिहारों के सामंती शासक थे परंतु ग्यारहवीं शताब्दी में ये स्वतंत्र शासक थे। इनकी नगरी के और इनके राजकीय वैभव के अवशेष कुतुब पुरातात्त्विक क्षेत्र में आज भी मिलते हैं परंतु दुःख की बात यह है कि इन क्षेत्रों को केवल पुरातात्विक होने का ही महत्व दिया गया है, इससे अधिक कुछ नहीं किया गया। होना यह चाहिए था कि इन क्षेत्रों का इतिहास खोजा जाता और इनके शासकों के लिए देश के राष्ट्रीय इतिहास में स्थान सुरक्षित किया जाता।

    यह सचमुच दुर्भाग्य का विषय है कि जिस व्यक्ति ने देश के दैदीप्यमान इतिहास दिवाकरों का गौरवपूर्ण इतिहास मिटाने का घृणित कार्य किया उस कुतुबुद्दीन के साढ़े तीन-चार वर्षों को भी देश के इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना के रूप में महिमामंडित किया जाता है और जिन राजाओं ने देश के लिए और देश की महान परंपराओं की सुरक्षा के लिए अपना जीवन होम कर दिया या जिन्होंने अपने महान कृतित्व के कीर्तिमान स्थापित किये उनका कहीं कोई अता-पता नहीं है। अतः कुतुबुद्दीन ऐबक के समय के लालकोट और उसके निर्माता का उल्लेख कहीं नहीं किया जाता।

    महरौली लौह स्तंभ व रायपिथौरा

    सदियों से आंधी, बरसात और तेज धूप को सहन करता महरौली लौह स्तंभ इस बात के लिए जगविख्यात है कि इसमें आज तक जंग नहीं लगा। आज का वैज्ञानिक युग भी इसे कौतूहल और आश्चर्य की दृष्टि से देखता है।

    कुतुबमीनार के पास आज भी एक किले के अवशेष हमें मिलते हैं जिसे रायपिथौरा के नाम से जाना जाता है। लालकोट की ही भांति इस किले को भी मुस्लिम आक्रमणों से देश की सुरक्षार्थ बनाया गया था। इसके निर्माण की अवधि 12वीं शताब्दी के मध्य में मानी जाती है। स्पष्ट है कि जिस समय कुतुबुद्दीन ने दासवंश की स्थापना की थी, उस समय यह किला निश्चित रूप से अस्तित्व में रहा होगा परंतु जब कुतुबुद्दीन का शासन दिल्ली पर स्थापित हो गया तो लालकोट की भांति रायपिथौरा को भी ‘हिंदू अवशेष मिटाओ’ अभियान के अंतर्गत समाप्त करने या इतिहास से ओझल करने का प्रयास किया गया होगा।

    कर दिया ‘रायपिथौरा’ का बलिदान

    फलस्वरूप हिंदू गौरव के वे अवशेष जो हिंदुत्व को गौरवान्वित कर सकते थे या किसी भी प्रकार से हिंदू समाज में अपने अतीत के प्रति स्वाभिमान का भाव भर सकते थे, एक सुनियोजित अभियान के अंतर्गत मिटाये जाने लगे। आज लौहस्तंभ तो यहां खड़ा है, परंतु रायपिथौरा का बलिदान भूला दिया गया। कुतुबुद्दीन के विषय में अनेक मुस्लिम इतिहासकारों ने भी यह तथ्य स्पष्ट किया है कि उसने कुतुबमीनार के निकटवर्ती क्षेत्र में स्थित 27 हिंदू मंदिरों को तोड़कर अपनी मस्जिद बनायी।

    तनिक कल्पना करें कि जब आज की महरौली के पास दो किले होते होंगे, उनमें से एक के भीतर 27 भव्य मंदिरों की जगमगाहट होती होगी, वेदमंत्रों से जहां यज्ञादि होते होंगे। कुतुबमीनार का प्रयोग नक्षत्रादि का ज्ञान कराने के लिए देश की युवाशक्ति को उसके माध्यम से ज्ञान-विज्ञान से जोड़ा जाता होगा, तो दृश्य कितना मनोरम, वैज्ञानिक और आध्यात्मिक बनता होगा।

    कहां गये वे लोग, कहां गयीं उनकी भव्य राजधानियां और कहां गया उनका राजकीय वैभव? ये सभी जिस संप्रदाय के दुष्टदावानल की भेंट चढ़ गये। इसे आज धर्मनिरपेक्षता कहा जाता है और हम इसी धर्म निरपेक्षता के नाम पर ही अपने हृदय में इस सुप्त दावानल को आज भी इन ऐतिहासिक भव्य भवनों, स्तंभों व मंदिरों पर अत्याचार करने दे रहे हैं। जबकि इनकी पूजा हमारी स्वतंत्रता के महान स्मारकों के रूप में होनी चाहिए थी।

    लौह स्तंभ के जंगरोधी होने का रहस्य

    जहां तक लौहस्तंभ के जंगरोधी होने की बात है तो इसके लिए यह स्पष्ट करना उचित होगा कि प्राचीनकाल में भारत में लोहे को जंगरोधी बनाने के लिए विभिन्न तकनीकों का प्रयोग किया जाता था। जिनमें से एक थी कि केले के क्षार को दही के साथ अच्छी प्रकार गूंथना फिर तैयार की गयी इस सामग्री को कुछ दिनों तक संरक्षित रखा जाना। उसके बाद उसे लोहे पर लगा देना। इस लेप को लगाने से लोहे को आवश्यकतानुसार कड़ापन प्रदान करना चाहिए। वराहमिहिर का कहना है कि इस प्रकार तैयार किये गये लोहे को न तो पत्थर पर तोड़ा जा सकता है और न ही लोहे के हथौड़े से पीटकर तोड़ा जा सकता है।

    संदर्भ : ‘दिल्लीः प्राचीन इतिहास’ सचमुच हमें गर्व है अपने मेधा संपन्न पूर्वजों पर, जिनके कारण हमारी संस्कृति आज तक विश्व में अनुपम और अद्वितीय मानी जाती है।

    अध्याय 2

    कुतुबुद्दीन ऐबक, जयचंद और

    बनारस के वो बलिदान

    जब पृथ्वीराज चौहान का तेजोमयी पुण्य प्रताप मां भारती के लिए अपना बलिदान देकर मां के श्री चरणों में विलीन हो गया और जब ‘जयचंदी-छलप्रपंचों’ के कारण कई दुर्बलताओं ने मां के आंगन में विदेशी आक्रांता को भीतर तक घुसने का अवसर उपलब्ध करा दिया तो मोहम्मद गोरी की मृत्यु के पश्चात उसके द्वारा भारत के कुछ विजित क्षेत्र का स्वतंत्र शासक गौरी का एक गुलाम बन बैठा, जिसका नाम था-कुतुबुद्दीन ऐबक।

    ‘गुलाम’ ने बनाया गुलाम?

    कई इतिहासकारों ने इस बात के लिए कुतुबुद्दीन का विशेष गुणगान किया है कि वह एक गुलाम होकर भी भारत को ‘गुलाम’ बनाने में सफल रहा। इस बात का अर्थ कुछ यूं प्रकट किया जाता है कि जैसे भारत तो ‘गुलामों का भी गुलाम’ रहा है। ऐसी मान्यता या अवधारणा को आरोपित करने के पीछे का मंतव्य केवल हमें अपने ही विषय में हीन भावना से भर देना है।

    ‘तबकात’ के अनुसार- ‘वह (कुतुबुद्दीन) एक बहादुर और उदार राजा था। पूर्व से पश्चिम तक उस समय उसके समान कोई राजा नहीं था। जब भी सर्वशक्तिमान खुदा अपने लोगों के सामने महानता और भव्यता का नमूना पेश करना चाहते हैं, वे वीरता और उदारता के गुण अपने किसी एक गुलाम में भर देते हैं। अतः यह शासक दिलेर और दरियादिल था।’

    कुतुबुद्दीन ऐबक अपने प्रारम्भिक जीवन में कई हाथों में बिका। वह कई स्वामियों का सेवक रहा। अंत में जब वह गौरी का गुलाम बनकर उसकी सेवा में पहुंचा तो उसने अपने स्वामी के भारत विजय अभियान में और यहां मूर्तिपूजक हिंदुओं के विनाश कराने में विशेष रुचि दिखाई। जिसका स्वामी ही घोषित क्रूर और निर्दयी शासक रहा हो, उसके सेवक से आप दयालुता या दरियादिली की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं? यदि वह स्वयं क्रूर और निर्दयी न होता, या हिंदू विनाशक न होता तो वह सत्य है कि मोहम्मद गोरी जैसे शासक का वह कभी भी प्रिय न रहा होता।

    आतंक और अत्याचार का पर्याय

    ‘तबकात’ के उपरोक्त कीर्तिमान को असत्य सिद्ध करने के लिए हसन निजामी जैसे मुस्लिम लेखक द्वारा लिखित इतिहास ताजुलमा-आसीर (पृष्ठ 229 इसलिए एण्ड डॉसन) का यह उद्धरण ही पर्याप्त है। वह लिखता है-‘कुतुबुद्दीन ऐबक इस्लाम और मुसलमान का स्तम्भ है, काफिरों का विध्वंसक है।

    अपनी स्वतंत्रता के लिए हिंदू का सतत संघर्ष

    हसन निजामी के इसी कथन पर थोड़ा और विचार किया जाना चाहिए कि इतनी क्रूरताओं के मध्य भी हिंदू अपने देश धर्म की रक्षा के लिए तथा अपनी स्वतंत्रता के लिए सतत संघर्षशील रहा। उसने जहन्नुम की आग की परवाह नहीं की और धड़ाधड़ कटते सिरों को देखकर कभी आह नहीं की। उसकी चाह देशधर्म की बलिवेदी पर शीश चढ़ाना थी और उसकी राह मां के लिए स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त करना था। उसे परवाह थी तो मां की स्वतंत्रता की। आह निकली तो मां के लिए बलिदान होते समय केवल इसलिए कि अभी मैं मां की सेवा और क्यों नहीं कर सका? उत्कृष्ट देशभक्ति के इस भाव ने हिन्दू को उस आवारा बादल का सा रूप दे दिया था जो आकाश में ऊपर घूमता रहता है, पर जब उसे अपने शत्रु का नाश या संहार करना होता है तो उस पर बिजली भी गिराता है और फटकर उसे बहा ले जाने का कारण भी बनता है। देशभक्ति के इस बादल ने कुतुबुद्दीन को पहले दिन से ही चुनौती देने का कार्य किया।

    तुर्क साम्राज्य का संस्थापक

    कुतुबुद्दीन ऐबक भारत में तुर्क सल्तनत का संस्थापक माना जाता है। उसने भारत में इस्लामिक साम्प्रदायिक राज्य की स्थापना की। वास्तव में इसी इस्लामिक साम्प्रदायिक राज्य की स्थापनार्थ ही पिछले पांच सौ वर्षों से विभिन्न मुस्लिम आक्रांता भारत पर आक्रमण करते आ रहे थे, जिनका सफलतापूर्वक प्रतिकार भारत के स्वतंत्रता प्रेमी राजाओं और उनकी प्रजा के द्वारा किया जा रहा था। इस प्रतिकार के विषय में रामधारी सिंह दिनकर अपनी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ के पृष्ठ 237 पर लिखते हैं- ‘इस्लाम केवल नया मत नहीं था। यह हिन्दुत्व का ठीक विरोधी मत था। हिंदुत्व की शिक्षा थी कि किसी भी धर्म का अनादर मत करो। मुस्लिम मानते थे कि जो धर्म मूर्ति पूजा में विश्वास करता है, उसे विनष्ट कर देना धर्म का सबसे बड़ा काम है।’ इस मौलिक मतभेद के कारण इस्लाम और हिन्दू में संघर्ष होना निश्चित था।

    जयचंद से युद्ध की तैयारी

    कुतुबुद्दीन ऐबक ने जब भारत में प्रवेश किया तो उसने भी इसी परंपरा का निर्वाह किया और भारतीय धर्म का सर्वनाश कर इस्लाम का परचम फहराना अपना उद्देश्य घोषित किया। अपने इस उद्देश्य की प्राप्ति में उसे जयचंद बाधा दिखाई दिया, तो उसके नाश के लिए उसने गोरी के आदेशानुसार योजना बनानी आरंभ की। गोरी ने उसकी योजना से सहमत होकर एक सेना जयचंद के नाश के लिए भेजी। कन्नौज का शासक जयचंद उस समय कन्नौज से लेकर वाराणसी तक शासन कर रहा था। वाराणसी की पवित्र भूमि के रजकणों की देश और धर्म के प्रति पूर्णतः निष्ठावान धूलि भी उस पापी जयचंद का हृदय परिवर्तन नहीं कर पायी थी और वह देश धर्म के प्रति कृतघ्नता कर गया था। मां भारती का श्राप उसे लगा और उसे अपने किये गये पापकर्म का दण्ड देने के लिए क्रूर काल ने अपने पंजों में कसना आरंभ कर दिया।

    जयचंद की सुखानुभूति और युद्ध में समाप्ति

    जयचंद पृथ्वीराज चौहान को समाप्त कराने के पश्चात ये सुखानुभूति कर रहा था कि संभवतः मुस्लिम आक्रांता उसके साथ तो सदा ही दयालुता का व्यवहार करेंगे। जब उसने देखा कि कुतुबुद्दीन ऐबक जैसे गुलाम और उसके स्वामी मोहम्मद गोरी ने उसके विरुद्ध उसके विनाश की योजना बना ली है तो उस योजना के तहत कुतुबुद्दीन ऐबक उसके राज्य की ओर बढ़ता आ रहा है तो वह पूर्णतः अचम्भित और आश्चर्यचकित रह गया। कुतुबुद्दीन ऐबक से युद्ध करना उसकी विवशता थी। उसकी सेना व प्रजा भी उससे यही अपेक्षा करती थी कि उनका राजा भागे नहीं अपितु शत्रु से युद्ध करे।

    फलस्वरूप कुतुबुद्दीन ऐबक और जयचंद के मध्य भयंकर युद्ध हुआ। युद्ध के समय किसी मुस्लिम सैनिक का विषयुक्त बाण जयचंद को लगा और वह अपने हाथी से नीचे आ गिरा। नीचे गिरते ही उसका पापक्षय हो गया और शत्रु की जय हो गयी।

    श्री पी.एन. ओक अपनी पुस्तक ‘भारत में मुस्लिम सुल्तान’ के पृष्ठ 132 पर किसी मुस्लिम लेखक को उद्धृत करते हुए लिखते हैं- ‘भाले की नोंक पर उसके (जयचंद) सिर को उठाकर सेनापति के पास लाया गया, उसके भीतर को घृणा की धूल में मिला दिया गया। तलवार के पानी से बुतपरस्ती के पाप को उस जमीन से साफ किया गया और हिंद देश को अधर्म और अंधविश्वास से मुक्त किया गया।’

    बढ़ गयीं काशी की चिंताएं

    इस प्रकार जयचंद को अपने किये का फल मिल गया। पर उसकी मृत्यु ने देश की धार्मिक राजधानी के नाम से विख्यात रही काशी की चिंताएं बढ़ा दीं। हर देशभक्त भारतीय अब इस नगरी की सुरक्षा को लेकर चिंतित था। मुस्लिम सेना ने कुतुबुद्दीन ऐबक के नेतृत्व में अब इस धार्मिक नगरी की ओर प्रस्थान कर दिया। जहां, पवित्र प्यारा भगवाध्वज फहरा रहा था और अपने यश एवं कीर्ति की गाथा गा रहा था। उसे नहीं पता था कि नियति का दुष्चक्र कितनी तेजी से घूम रहा है और अगले क्षण क्या होने वाला है?

    पलक झपकते ही विदेशी आक्रांता ऐबक का दुष्ट-दल इस ऐतिहासिक पावन धार्मिक नगरी में प्रवेश कर गया। व्यापक जनहानि का अनुमान आप इसी बात से लगा सकते हैं कि जहां एक हजार हिंदू मंदिर तोड़े गये हों, वहां कितने लोगों का संहार करना पड़ा होगा? धर्म पर अधर्म का, आस्था पर अनास्था का, श्रद्धा पर अश्रद्धा का और नैतिकता पर अनैतिकता का आक्रमण था यह। जिसे कुछ इतिहासकारों ने एक सहज सी बात कहकर उपेक्षित किया है। वाराणसी की जनता ने सत्याग्रह रूपी हथियार से युद्ध किया और अपने मंदिरों की सुरक्षार्थ बड़ी संख्या में बलिदान दिये। आज उन सत्याग्रहियों के मौन बलिदान निश्चय ही स्वतंत्र भारत के लोगों से अपना सम्मान चाहते हैं।

    अध्याय 3

    ऐबक नहीं कर पाया था

    एक दिन भी निष्कंटक राज्य

    संसार में दो प्रकार का ज्ञान मिलता है-एक है नैसर्गिक ज्ञान और दूसरा है नैमित्तिक ज्ञान। नैसर्गिक (निसर्ग अर्थात प्रकृति, इसी शब्द से अंग्रेजी का ‘नेचर’ शब्द बना है) ज्ञानान्तर्गत आहार, निद्रा, भय और मैथुन आते हैं, जबकि नैमित्तिक ज्ञानान्तर्गत संसार के प्राणियों के संसर्ग और संपर्क में आने से मिलने वाला ज्ञान सम्मिलित है। नैसर्गिक ज्ञान संसार के हर प्राणी को जन्मजात मिलता है। यह ज्ञान संसार की भोग-योनियों के समस्त प्राणियों को तथा कर्मयोनि के मनुष्य नामक प्राणी को समान रूप से उपलब्ध होता है। एक सीधी-सादी गाय भी किसी हिंसक प्राणी या मनुष्य को अपने नुकीले सींगों से उस समय मार सकती है, जब मनुष्य उसके प्रति हिंसक हो उठा हो। इसका अभिप्राय है कि गाय को अपने प्राणों का भय है और प्राणसंकट में देख वह आत्मरक्षा के लिए दिये गये अपने नैसर्गिक अस्त्रों अर्थात सींगों का तुरंत प्रयोग करती है।

    प्राणियों के हथियार

    संसार में जितने भी प्राणी हैं, वे सभी इसी प्रकार के किसी न किसी नैसर्गिक हथियार से सुसज्जित है, चींटी अपनी आत्मरक्षा में आप पर आक्रमण कर सकती है, तो हाथी भी आपातकाल में अपनी सूंड का प्रयोग कर सकता है पर एक मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जिसे ईश्वर ने कोई नैसर्गिक हथियार देकर नहीं भेजा है। उसके हाथ-पांव यद्यपि कई बार हथियार का काम तो करते हैं, परंतु ऐसा नहीं है कि वह उनके प्रयोग से ही अपना अस्तित्व बचाये रखने में सफल हो सके।

    इसलिए मनुष्य को आत्मरक्षार्थ कृत्रिम हथियारों का आविष्कार करना ही होगा। आपातकाल में एवं प्राण रक्षार्थ इन हथियारों के प्रयोग की अनुमति भारत के सभी शास्त्र प्राचीन काल से ही देते आये हैं। यहां तक कि आपद्-धर्म में तो जैन और बौद्ध धर्म ने भी हिंसा को अहिंसा ही माना है।

    विधि-क्षेत्र को भारत की देन

    हां, इतना अवश्य है कि भारत ने शस्त्र प्रयोग में बड़ी सावधानी बरती और ऐसी ही सावधानी बरतने की अपेक्षा हर देश और जाति से की। अतः ‘एक दोषी को फांसी चढ़ाने के लिए चाहे सौ दोषी छूट जायें पर एक निर्दोष न मारा जाए।’ वर्तमान विधि क्षेत्र की इस व्यवस्था का जनक पश्चिमी जगत न होकर भारत है।

    खड्ग साधक रहा है भारत

    भारत खड्ग का उपासक नहीं, साधक देश रहा है। यह बात रहस्यपूर्ण है, पर भारत के विषय में है सौ प्रतिशत सत्य। उपासक से कोई त्रुटि होने की या शस्त्र प्रयोग में असावधानी बरतने की अपेक्षा की जा सकती है, परंतु एक साधक से ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती। यही कारण है कि विश्व की अन्य जातियों ने खड्ग का दुरुपयोग किया, सभ्यताएं मिटाकर और वैश्विक संस्कृति का विनाश करके जबकि भारत ने सभ्यता और संस्कृति का विस्तार किया। इसीलिए भारत का इतिहास साधना का इतिहास है, शांति का इतिहास है, संस्कृति का इतिहास है, विकास का इतिहास है। जबकि विश्व की अन्य जातियों या देशों का इतिहास सर्वथा रक्तरंजित विनाश का इतिहास है।

    हमारा घोर अपराध

    हमारे पूर्वजों ने इस रक्तरंजित विनाश के प्रवाह को रोकने के लिए अनथक प्रयास किये। इस अर्थ में उनके अनथक प्रयासों का लाभ केवल भारत को ही नहीं, अपितु संपूर्ण मानव जाति को मिला। इतिहास के इस अकाट्य सत्य की उपेक्षा करके हमने अपने वैश्विक स्वतंत्रता के अमर सेनानी पूर्वजों की उपेक्षा कर घोर अपराध किया है। क्या यह सत्य नहीं है कि अपने शस्त्र प्रयोग की मर्यादा की रक्षार्थ अवसर उपलब्ध होने पर भी किसी भारतीय रणबांकुरे ने मुस्लिम जनता का कहीं भी नरसंहार नहीं किया? एक भी प्रमाण नहीं मिलेगा।

    पैर जमाते कुतुबुद्दीन को चुनौती दे रहा था भारत

    कुतुबुद्दीन ऐबक अपने पांव जमा रहा था और भारतीय स्वाभिमान का आक्रोश उसके पैर उखाड़ने में लगा था। हम पूर्व में भी उल्लेख कर चुके हैं कि ऐबक ने अपने स्वामी मुहम्मद गोरी के जीवन काल में तो विजय अभियान चलाये पर उसकी मृत्यु के उपरांत एक भी विजय अभियान नहीं चला पाया, क्यों? क्या वह महात्मा हो गया था या भारत में उसे जितना भू-भाग राज्य करने के लिए मिला वह उसी से संतुष्ट हो गया था? इन दोनों प्रकार के भ्रमों को पालने में ही दोष हैं। भारत की खड्ग ऐबक की धमक से अप्रसन्न थी, असंतुष्ट थी और कहीं न कहीं आंदोलित भी, क्योंकि वह वैश्विक संस्कृति की रक्षार्थ शत्रुनाश को अपना अंतिम उद्देश्य मानती थी और स्वप्राण रक्षार्थ शत्रुहन्ता हो जाना उसका धर्म था।

    भारत की खड्ग से भयग्रस्त रहा कुतुबुद्दीन ऐबक

    अपने इस राष्ट्रधर्म के प्रति सचेत भारत की खड्ग को भी अपमानित और पराजित दिखाने का प्रयास विदेशी इतिहासकारों ने किया है। जबकि सिक्के का एक दूसरा पहलू यह है कि कुतुबुद्दीन ऐबक भारत के बहुत ही छोटे से भूभाग पर शासन करने में सफल रहा था। (वह भी निष्कंटक नहीं) उसे उस अपराजित 90 प्रतिशत भारत की लपलपाती खड्ग सपने में भी दीखती थी जिसका स्वाद वह कई बार युद्धों में चख चुका था। इसलिए उसने कोई अन्य सैन्य अभियान भारत को जीतने के लिए न चलाना ही उचित समझा। भारत की तेजस्विनी और प्रतापिनी खड्ग की इस उपलब्धि को उपेक्षित किया गया है और एक झटके में ही ऐबक को संपूर्ण भारत का सुल्तान घोषित कर दिया गया। निश्चित रूप से यह मान्यता भारत की खड्ग का अपमान है और भारत के प्रचलित इतिहास का एक सफेद झूठ भी है।

    पी.एन. ओक लिखते हैं- ‘भारत के इतिहास का वह दिन कलंक से नितांत काला है, जिस दिन प्राचीन हिंदू राजसिंहासन को, जिसे पाण्डव, भगवान कृष्ण और विक्रमादित्य जैसे नर रत्नों ने पवित्र और सुशोभित किया था, एक घृणित विदेशी मुस्लिम ने, जिसे कई बार पश्चिम एशिया के गुलामों के बाजारों में खरीदा और बेचा गया, अपवित्र और कलंकित कर दिया। नवंबर 1210 ई. के प्रारंभिक दिनों में लाहौर में चौगान (पोलो) खेलते समय कुतुबुद्दीन ऐबक घोड़े से गिर गया। घोड़े की जीन के पायदान का नुकीला भाग उसकी छाती में धंस गया और वह मर गया।’

    जिन्हें बगावत कहा गया वही तो स्वतंत्रता आंदोलन थे

    कुतुबुद्दीन ने 26 जून, 1206 ई. से नवंबर 1206 ई. तक शासन किया। इस अवधि में वह भारतवर्ष के देशभक्तों के स्वतंत्रता आंदोलनों को शांत करने में ही लगा रहा, यद्यपि इन स्वतंत्रता आंदोलनों को मुस्लिम लेखकों ने ‘बगावत’ या ‘विद्रोह’ का नाम दिया है जो कि वस्तुतः भारतीयों के आक्रोश को या उनकी देशभक्ति को कम करके आंकने का ही एक प्रयास है। यह ‘बगावत’ शब्द भारत के 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संघर्ष के काल में जहां-जहां प्रयोग किया गया है, वहां-वहां ही मान लीजिए कि ये भारत के स्वतंत्रता संघर्ष की अदम्य ज्वाला के लिए प्रयोग किया गया है। इसी रास्ते पर चलते हुए 1857 की क्रांति को अंग्रेजों ने भी ‘बगावत’ कहकर शांत करने का पूरा प्रबंध कर लिया था, परंतु उसे ‘भारत का प्रथम स्वातंत्र्य समर’ वीर सावरकर जैसे स्वतंत्रता प्रेमी इतिहास लेखकों ने सिद्ध कर दिया।

    हिंदुओं के प्रति ऐबक की नीति

    कुतुबुद्दीन ऐबक ने जब इस देश के कुछ भू-भाग पर मुस्लिम साम्प्रदायिक शासन स्थापित कर दिया तो उसके शासन काल में हिंदुओं के प्रति शासन की नीतियां साम्प्रदायिक रहीं। मुस्लिम राज्य के हिंदुओं की स्थिति कैसी होती थी इस पर प्रकाश डालते हुए रामधारी सिंह दिनकर अपनी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ के पृष्ठ 239 पर लिखते हैं-‘मुस्लिम राज्य की गैर मुस्लिम प्रजा, इस्लाम के कानून की दृष्टि में जितनी हेय समझी जाती थी, इसका अनुमान नीचे लिखे कुछ प्रतिबंधों से किया जा सकता है-

    मुस्लिम राज्य में कोई भी प्रतिमालय नहीं बनाया जा सकता।

    जो प्रतिमालय तोड़ दिये गये हैं, उनका नवनिर्माण नहीं किया जा सकता।

    कोई भी मुस्लिम यात्री प्रतिमालय में ठहरना चाहे तो बेरोकटोक ठहर सकता है।

    सभी गैर मुस्लिम लोग मुसलमानों का सम्मान करेंगे।

    गैर मुस्लिम प्रजा मुसलमानी पोशाक नहीं पहनेगी।

    मुसलमानों के सामने गैर मुसलमान जीन और लगाम लगाकर घोड़ों पर नहीं चढ़ेंगे।

    गैर मुस्लिमों के लिए तीर, धनुष और तलवार लेकर चलना मना है।

    गैर मुस्लिम जनता मुसलमानों के मुहल्लों में न बसे।

    गैर मुस्लिम प्रजा अपने मुर्दों को लेकर जोर से विलाप न करे।

    दिनकर जी ने जिन उपरोक्त बिंदुओं को इंगित किया है, वे वास्तव में वे अपमानजनक शर्तें हैं, जिन्हें कोई भी स्वाभिमानी जाति अपने ऊपर आरोपित होने देना नहीं चाहेगी। ये शर्तें किसी एक समुदाय को शासक तो दूसरों को शासित अथवा एक को शोषक तो दूसरे को शोषित सिद्ध करती हैं। ‘इस्लाम का भाईचारा’ भी इस समस्या का कोई निदान नहीं कर पाया, क्योंकि वह भाईचारा समग्र मानव समाज के लिए नहीं था। इसलिए शोषक और शोषित के मध्य संघर्ष होना अनिवार्य था। पिछले पांच सौ वर्षों से भारत की वीर जनता ने अपनी स्वतंत्रता की रक्षार्थ लाखों बलिदान दिये। लाखों ने अपना घरबार छोड़ा, परिवार छोड़ा और बस, सबकी एक ही जिद थी कि साम्प्रदायिक विदेशी शासन को न तो मानेंगे और न ही स्थापित होने देंगे। कदाचित यही कारण था जिसने भारतीयों को प्राण ऊर्जा प्रदान की और वे विदेशियों के विरुद्ध सदियों तक संघर्ष करने के लिए चैतन्य रहे।

    डॉ. शाहिद क्या कहते हैं

    इसलिए डॉ. शाहिद अहमद अपनी पुस्तक ‘भारत में तुर्क एवं गुलाम वंश का इतिहास’ में लिखते हैं-‘कुतुबुद्दीन ऐबक की दूसरी कठिनाई यह थी कि प्रमुख हिन्दू सरदार जिन्हें गोरी ने परास्त किया था, अपनी खोई हुई स्वतंत्रता को उसकी मृत्यु के बाद पुनः प्राप्त करने के लिए उत्सुक हो रहे थे। 1206 ई. में चंदेल राजपूतों ने हरीशचंद्र के नेतृत्व में फर्रूखाबाद तथा बदायूं में अपनी सत्ता फिर से प्राप्त कर ली थी। ग्वालियर प्रतिहार राजपूतों के हाथ में चला गया था। अंतर्वेद में भी कई छोटे राज्यों ने कर देना बंद कर दिया था और तुर्कों को निकाल बाहर किया। केन वंशी शासक पूर्वी बंगाल से पश्चिम की ओर चले गये थे परंतु अपने राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिए वे भी सचेष्ट थे। बंगाल तथा बिहार में भी इख्तियारूद्दीन के मर जाने के बाद विद्रोह (स्वतंत्रता संघर्ष) आरंभ हो गया।’

    डॉ. हुसैन का यह वर्णन हमें बताता है कि गोरी की मृत्यु के पश्चात 1206 ई. से ही भारत के वे क्षेत्र अपनी स्वतंत्रता के लिए किस प्रकार सक्रिय हो उठे थे जिनमें किसी भी प्रकार से तुर्क साम्राज्य स्थापित करने का तानाबाना बुन लिया गया था। इन प्रमाणों के रहते भी हसन निजामी जैसे लेखकों ने यह भ्रांति फैलाई- ‘कुतुबुद्दीन की आज्ञा से इस्लाम के सिद्धांतों का बड़ा प्रचार किया गया और पवित्रता के सूर्य का प्रकाश सारे हिंद में फैल गया।’ हसन निजामी जैसे मुस्लिम लेखकों की इस भ्रांतिपूर्ण अवधारणा को पंख लगाये डॉ. आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव जैसे भारतीय लेखकों ने जिन्होंने लिख दिया कि- ‘ऐबक भारत में तुर्की राज्य का वास्तविक संस्थापक था और लगभग संपूर्ण हिन्दुस्तान का वास्तविक सुल्तान था।’

    वास्तव में डॉ. श्रीवास्तव जैसे लोगों के विषय में यही कहा जा सकता है-

    ‘खुदा के बंदों को देखकर ही खुदा से मुनकिर हुई है दुनिया।

    कि ऐसे बंदे हैं जिस खुदा के वो कोई अच्छा खुदा नहीं है।’

    प्रमाणों के रहते भी आत्म प्रवंचना में जीना ही राष्ट्र के साथ छल कहा जाता है।

    अध्याय 4

    अल्तमश को गद्दी पर बैठते

    ही मिली चुनौती

    प्रसिद्ध इतिहासकार एच. जी. वेल्स ने कहा है- ‘शिक्षा समाज के हित का एक सामूहिक कार्य है, केवल एक व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं है। मानव इतिहास शिक्षा और विनाश के बीच होने वाली दौड़ है।’

    इस इतिहासकार का यह कथन विचार करने योग्य है कि मानव इतिहास शिक्षा और विनाश के बीच होने वाली दौड़ है। भारत के संदर्भ में यदि इस बात को तर्क की कसौटी पर कसकर देखें तो उपलब्ध इतिहास के प्रमाण यही बताते हैं कि एक सुसभ्य और सुसंस्कृत समाज को नष्ट करने के लिए मचाए गये रक्तिम ताण्डव ने इतिहास को कंपा कर रख दिया है। यद्यपि कार्लाइल जैसे विद्वानों का मानना है कि इतिहास-महान पुरुषों द्वारा ‘इतिहास रचने वालों की जीवन गाथा है।’ परंतु भारत में तो इतिहास रचने वालों को मिटाने वालों की जीवन गाथा बना जान पड़ता है। शाहिद रहीम अपनी पुस्तक ‘संस्कृति और संक्रमण’ में उल्लेख करते हैं- ‘आज पूरे विश्व में इस्लाम की दो धाराएं सुसंस्कृत हैं। पहली ईश्वरीय आस्था में विश्वास रखने वाली आध्यात्मिक प्रभुता को स्वीकार करने वाली अवधारणा और दूसरी आस्था के नकाब में ईश्वरीय अनास्था की वह अवधारणा जो इस्लाम की मूल अवधारणा मानवता की रक्षा के प्रतिकूल भौतिकवादी अवधारणा है, जो सत्तात्मक प्रभुता के लिए मानवीय विनाश को उचित ठहराती है।’ कोई भी मानवाधिकारों का पक्षधर होगा, यही मानेगा।

    शाहिद महोदय उसी पुस्तक में यह भी स्वीकार करते हैं- ‘मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि भारत की वैदिक संस्कृति को यजीद की ईश्वरीय अनास्था वाली शासन प्रणाली ने ही (अर्थात सत्ता के लिए संप्रदाय-मजहब का आश्रय लेकर रक्तिम संघर्ष के माध्यम से लोगों का संहार करना) प्रदूषित करने का काम किया है।’

    भारत की आत्मा ने जलाए रखी अपनी ज्योति

    भारत की आत्मा ने इस रक्तिम संघर्ष के मध्य भी अपनी ज्योति को सदैव आलोकित रखा और सारा भारत उस ज्योति से ज्योतित होकर अपनी स्वतंत्रता का साधक बना रहा। इस बात को अपने शब्दों में शाहिद साहब ने इस प्रकार स्वीकार किया है-‘भारतीय संस्कृति में ईश्वरीय आस्था को पराजय का सामना नहीं करना पड़ा, उसकी प्रभुता अक्षुण रही। जबकि इस्लामी इतिहास में ईश्वरीय आस्था वाले आध्यात्मिक नेतृत्व को कर्बला (इराक) के मैदान में गंभीर भौतिक पराजय का सामना करना पड़ा। उमैया राजवंश की साम्राज्यवादी शासन प्रणाली जो इस्लाम के नाम पर लोकप्रिय हुई और अरब से निकलकर विश्व के कई महत्वपूर्ण महाद्वीपों में पहुंचकर स्थापित हुई और सीरिया से स्पेन तथा फिर हिंदुस्तान तक आयी उसमें सत्तात्मक प्रभुता के लिए मानवीय विनाश को उसी प्रकार उचित माना गया था जिस प्रकार यहूदी संस्कृति में आदेशित है। महमूद गजनवी- औरंगजेब इतिहास के अंधेरे में जब भी चमकते हैं, बका-ए-बशरीयत या मानवता की रक्षा के प्रति नकारात्मक चरित्र के रूप में नजर आते हैं और ईश्वरीय आस्था का उपहास उड़ाते हुए नजर आते हैं।’

    बगावत के भय से गढ़े गये मिथक

    शाहिद साहब अपनी उक्त पुस्तक में यह भी स्पष्ट करते हैं कि आर्यों का आदि देश भारत के बाहर खोजने जैसे मिथक भारत में केवल इसलिए गढ़े गये कि यदि भारतीयों को उनका शेरत्व बता दिया गया तो कहीं ऐसा न हो कि वे बगावत पर उतारू हो जाएं। वह भारत की गौरवमयी सांस्कृतिक विरासत को अपने शब्दों के मोतियों में यूं गूंथते हैं:-

    ‘मैं हिंदू संस्कृति को अविभाजित एशिया महादेश की प्राचीन संस्कृति के रूप में उत्पन्न होते हुए देख रहा हूं। जब हमारे संपूर्ण राष्ट्र महाराष्ट्र की भौगोलिक सीमा संगठित एशिया तक फैली हुई थी और महाभारत नामक देश की पहचान सुमेर तथा असीरिया से आरंभ कर इराक, ईरान, फारस होते हुए कच्छ, सिंध, बेबीलोन, अफगानिस्तान, बलूचिस्तान, पंजाब पहुंचकर हड़प्पा मोहनजोदड़ों से गुजरते हुए अगर हम अंडमान निकोबार, स्याम, बर्मा, जावा, सुमात्रा, इंडोनेशिया बेस्तिनिया और सीलोन तक पहुंचकर अखण्ड भारत की या आर्यावर्त्त की कल्पना करें तो स्पष्ट अनुभूति होती है कि यह द्वीप वही जम्बू द्वीप है जहां कश्यप के रूप में अदिति संतति विष्णु बैठे हुए हैं। यहीं कश्यप के कैस्यिपन सागर के जल में उनका सिंहासन है।.....इसलिए आर्यों के कहीं बाहर से आने अथवा भारत पर आक्रमण करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। आर्यों को भारत पर आक्रमणकारी के रूप में रेखांकित करने की यूरोपीय और पाश्चात्य मंशा के पीछे सदा एक ‘भय’ छिपा हुआ था कि कहीं यहूदी (पवन) आक्रमणों का हिसाब मांगने के लिए ‘हिन्दू संस्कृति’ के शांतिवादी लोग बगावत न कर दें।’

    यह था वह षड्यंत्र और यह थी वह आपराधिक मानसिकता जिसने हम भारतीयों को सामूहिक रूप से सतत स्वतंत्रता संघर्ष के अथक सैनानी न कहलाकर गुलाम कहलवाया। इस सत्य को बड़े सटीक शब्दों में सप्रमाण शाहिद साहब ने हमारे सामने रखा, इसके लिए उनके साहस को साधुवाद देना होगा। उनके लंबे उद्धरण से इस लेख को प्रामाणिकता मिली-इसलिए लेखक उनके प्रति आभारी है।

    अब आया अल्तमश

    भारत में सत्तावादी संघर्ष को मूर्तरूप देने के लिए कुतुबुद्दीन ऐबक ने यहां गुलाम वंश के प्रथम शासक के रूप में 1206 ई. से 1210 ई. तक शासन किया। जिस पर हम पूर्व में प्रकाश डाल चुके हैं। उसकी मृत्यु के उपरांत सत्तात्मक प्रभुता के लिए मानवीय विनाशों का खेल खेलने के लिए अल्तमश नामक व्यक्ति ने सत्ता संभाली। यह भी अपने पूर्ववर्ती कुतुबुुद्दीन ऐबक की भांति ही एक गुलाम रहा था, वैसे ही जैसे कुतुबुद्दीन अपने पूर्ववर्ती स्वामी गोरी का गुलाम था, वैसे ही ये अल्तमश भी ऐबक का गुलाम रहा था। यद्यपि अपने इस गुलाम पर विशेष कृपा-दृष्टि करते हुए ऐबक ने उसे अपना दामाद भी बना लिया था। 1210 ई में ऐबक की मृत्यु के उपरांत वह भारत के क्षेत्र का सुल्तान बना जो मोहम्मद गोरी के शासन काल में विजित कर लिया गया था। उसने भारत पर 25 वर्ष तक शासन किया।

    सिर मुंडाते ही ओले पड़े

    जैसे ही कुतुबुद्दीन ऐबक के पश्चात भारत के गोरी द्वारा विजित क्षेत्र का सुल्तान बनने की सूचना भारत का राजनीतिक नेतृत्व करने के लिए प्रसिद्ध रही दिल्ली और उसके आसपास के लोगों को (वर्तमान में एन.सी.आर.) हुई तो उन्होंने नये सुल्तान के विरुद्ध बगावत अर्थात सशस्त्र क्रांति का स्वतंत्रता आंदोलन आरंभ कर दिया। इस बात की सूचना हमें ‘तबकात-ए-नासिरी’ से मिलती है। जिसका लेखक स्पष्ट रूप से स्वीकार करता है कि-‘दिल्ली और उसके आसपास के स्थानीय हिंदू सरदारों ने (सुल्तान की) राजभक्ति स्वीकार नहीं की और विद्रोह करने का निश्चय कर लिया। दिल्ली से बाहर आकर और गोलाकार रूप में एकत्रित होकर उन लोगों ने बगावत का झण्डा बुलंद कर दिया।’

    इस साक्षी से स्पष्ट होता है कि अल्तमस के लिए हिंदूवीरों का यह स्वतंत्रता प्रेम सिर मुंडाते ही ओले पड़ने वाली स्थिति को बताता है।

    हिंदुओं ने जो किया सोच समझकर किया

    हिंदुओं ने अपने स्वतंत्रता संघर्ष को बड़ी गंभीरता से सही समय पर प्रबलता से लड़ना आरंभ किया। क्योंकि वह जानते थे कि नये तुर्क शासक को राजसिंहासन पर यदि बैठते-बैठते ही लपेट दिया तो वह अपनी शक्ति का संचय नहीं कर पाएगा और भारतवर्ष में अपने साम्राज्य विस्तार के विषय में भी एक बार नहीं अपितु सौ बार सोचेगा। इसलिए उन लोगों ने नये सुल्तान को गद्दी पर बैठते ही अपनी स्वतंत्रता प्रेमी भावना से अवगत करा दिया और विद्रोह की राह पकड़ ली। ‘तबकात-ए-नासिरी’ के लेखक से हमें पता चलता है कि हिंदुस्तान के विभिन्न भागों के नायकों और तुर्कों के साथ अल्तमश का बराबर युद्ध चलता रहा।’

    विद्रोह की जन्मस्थली दिल्ली

    अल्तमश के विरुद्ध दिल्ली ने ही विद्रोह की पताका क्यों उठाई? जब हम इस प्रश्न पर चिंतन करते हैं तो दिल्ली का सदियों का ही नहीं अपितु बीती हुई सहस्राब्दियों का वह गौरवमयी इतिहास हमारे सामने आ उपस्थित होता है जिसमें यह भारत के लिए राजनीतिक और राष्ट्रीय चेतना के केन्द्र के रूप में खड़ी दिखती है। इसने इतिहास को रचनात्मक रूप से गढ़ना और आगे बढ़ाना सीख लिया था। अतः जब इसकी उस रचनात्मकता को विध्वंस में परिवर्तित करने वालों का समय आया तो अपने अतीत पर इतराती दिल्ली उसे भला सहजता से क्यों स्वीकार करती? दिल्ली में भारत झलकता है-यह कहावत यूं ही आत्मा की आवाज को पहचानती है और यह वह पावन भूमि है जो आज भी देश की केन्द्र की सत्ताधारी पार्टी के विरोध या समर्थन का आकलन अपने निवासियों के मतों से करा देती है। बस, देश के उस समय के परिवेश में भी विदेशियों के विरुद्ध जो कुछ व्याप्त था, उसे दिल्ली (एनसीआर) के लोगों के विद्रोही तेवरों ने स्पष्ट कर दिया कि अल्तमश को भारत का सुल्तान नहीं माना जा सकता। उसके लिए सत्ता सस्ता सौदा नहीं है, अपितु एक कटु अनुभव होगी और कांटों का ताज ही सिद्ध होगी। दिल्ली के विद्रोह ने बता दिया कि अल्तमश दिल्ली का हृदय सम्राट नहीं हो सकता। हां, वह बलात शासन करने वाला ‘दर्द सम्राट’ अवश्य हो सकता है।

    देश के तत्कालीन राष्ट्रीय राजधानी निवासियों ने दिल्ली के बाहर यमुना तट पर अल्तमश को टक्कर दी थी, जिसमें वे लोग यद्यपि पूर्णतः सफल नहीं रहे, परंतु अल्तमश भी उनकी शक्ति को पूर्णतः कुचलने में सफल नहीं हो सका था, इसलिए ‘सांप, छछूंदर का संघर्ष उसके पूरे शासनकाल में निरंतर बना रहा और वह दिल्ली और उसके आसपास के लोगों से निष्कंटक नहीं रह पाया।

    अपनों से भी मिली चुनौती

    अल्तमश नामक इस सुल्तान को केवल भारतीयों से ही चुनौती नहीं मिली अपितु उसे अपने लोगों से भी चुनौती मिली। जो हमें बताती हैं कि मुस्लिम भाईचारा एक मति भ्रम है, क्योंकि यदि वास्तव में मुस्लिम भाईचारे का उद्देश्य इस्लामिक राज्य या शासन की स्थापना करना है तो किसी भी मुस्लिम शासक सुल्तान या बादशाह को कम से कम अपने मुस्लिम साथियों से तो निष्कंटक हो ही जाना चाहिए।

    अल्तमश को 1215 ई. में गजनी की गद्दी के उत्तराधिकारी ताजउद्दीन ने नारायण मैदान में चुनौती दी। जिसमें ताजुउद्दीन की पराजय हुई। सुल्तान ने ताजुउद्दीन और उसके सहयोगी यल्दौज को गिरफ्तार कर बदायूं के किले में बंद कर दिया। कहते हैं कि अल्तमश ने इन दोनों को वहीं चुपके से मारकर दफन कर दिया था। तदुपरांत नासिरूद्दीन कबाचा जो पंजाब का शासक और अल्तमश का पुराना शत्रु था, से अल्तमश का संघर्ष हुआ। उसने 1216 ई. में कबाचा को परास्त कर दिया।

    देश की पश्चिमोत्तर सीमा से उसे चंगेज खां ने ललकारा, तभी ख्वारिज्म के शासक जलालुद्दीन ने भी अल्तमश को चुनौती दे डाली। इतना ही नहीं, इसी समय अल्तमश के लिए बंगाल के खिल्जियों ने भी विद्रोह के स्वर निकालने आरंभ कर दिये।

    राजपूतों ने भरी हुंकार

    जब अल्तमश अपने लोगों के विद्रोह से निपटने के लिए चारों ओर आग बुझाता भाग रहा था और अपने सिंहासन की सुरक्षा का उसे कोई उपाय नहीं सूझ रहा था, तभी देश में अपनी वीरता और साहस के लिए प्रसिद्ध रहे राजपूतों ने हिंदू शक्ति को अपनी खोयी प्रतिष्ठा और स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए ‘हिंदू शक्ति’ की ध्वजा के नीचे एकत्र करना आरंभ कर दिया। यह तैयारी बड़ी तत्परता और प्रबलता से की गयी। इसकी तत्परता और प्रबलता का अनुमान आप इसी बात से लगा सकते हैं कि जब राजपूतों के इस संगठित प्रयास की सूचना अल्तमश को मिली तो बताते हैं कि वह घबरा उठा था। वह अपने जिन मुस्लिम खिल्जी शासकों के साथ युद्धरत था, उनसे शीघ्रता से संधिकर दिल्ली की ओर लपका, क्योंकि उसे भय था कि बड़े यत्न से दिल्ली के जिस सिंहासन पर नियंत्रण किया है, यदि वह एक बार निकल गया तो उस पर पुनः नियंत्रण करना लगभग असंभव हो जाएगा। दूसरे वह राजपूतों की वीरता से भी परिचित था। साथ ही दिल्ली खो जाने से उत्पन्न हुई भारतीयों के भीतर की ग्लानि की प्रतिक्रिया को भी बह जानता कि यह उसके और उसके साम्राज्य के लिए कितनी घातक सिद्ध हो सकती है।

    जब हम इतिहास का अध्ययन करते हैं तो कई घटनाओं को सहज समझकर उनके परिणामों पर कोई विचार नहीं करते कि यदि यह घटना हुई तो इसका परिणाम क्या होगा और यदि न होती तो क्या होगा?

    बात उन मुस्लिम विद्रोही खिल्जियों की करें कि जिनसे अल्तमश को उस समय जूझना पड़ रहा था, और उनसे उसे कुछ संधि समझौते करके दिल्ली की राजपूत शक्ति के पराभव के लिए प्रस्थान करना पड़ा, तो विचारणीय बात यह है कि इन समझौतों से उस पर क्या प्रभाव पड़ा? सामान्यतः हमें यह अनुभूति करायी जाती है कि इन समझौतों से उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

    परंतु सच यह नहीं था। सामान्य परिस्थितियों में अल्तमश खिल्जियों को कुछ भी देने वाला नहीं था, परंतु राजपूतों की चुनौती का समाचार मिलते ही उन्हें ‘कुछ देकर’ दिल्ली की ओर चला। यह ‘कुछ देकर’ चलना भी उसकी शक्ति को दुर्बल कर गया। यदि उसे चुनौतियां न मिलतीं और वह निरंतर इस्लाम के लिए काम करता तो उसे भारत में इतनी सफलता मिल सकती थी जिसे भारत के लिए दुखद ही कहा जा सकता था।

    अध्याय 5

    स्वतंत्रता के महायोद्धा : उदयसिंह, भरतपाल,

    वाग्भट, जैत्रसिंह एवं वीर नारायण

    पिछले पृष्ठों पर हमने शाहिद रहीम का उद्धरण प्रस्तुत किया था, जिसमें उन्होंने भारत के आर्यावर्त्तीय स्वरूप का उल्लेख किया है। अपने अतीत के गौरवमयी पृष्ठों के आख्यान के लिए उनका वह उद्धरण बड़ा ही अर्थपूर्ण और तर्कपूर्ण है। उनके इस तथ्य की पुष्टि के लिए मनुस्मृति (1.2.22.29) का यह श्लोक भी उल्लेखनीय है-

    आ समुद्रात् वै पूर्वाद् समुद्रात पश्चिमात ।

    तयोरेवान्तरे गिर्योराय वर्त्तेतिविदुर्बुधाः ।।

    सरस्वती कृष द्वत्पोर्देवनद्योरन्तरम् ।

    तं देवनिर्मितः देशमार्यवर्तेति प्रचक्षते ।।

    यहां मनुमहाराज आर्यावत्त देश का पूरा मानचित्र प्रस्तुत करते हुए उसकी भौगोलिक सीमाओं का चिन्हीकरण कर स्पष्ट कर रहे हैं कि पश्चिमी भूमध्य सागर तथा पूर्वी प्रशांत महासागर के मध्य स्थित, पर्वतों से घिरे हुए सरस्वती तथा दृृष्द्वती देवनदियां जिसके अंदर बहती हैं, उस सृष्टि के प्रारंभ में उत्पन्न मानवों अर्थात देवपुरुषों द्वारा निर्मित देश को आर्यवर्त्त कहते हैं।

    इस आर्यावर्त्तीय भौगोलिक मानचित्र की आज देश में अंगुलिगणेय मात्र लोगों को ही जानकारी है। यद्यपि किसी भी प्रगतिशील देश और समाज के लोगों को अपने इतिहास के सार्थक बोध के दृष्टिगत अपने अतीत का यथार्थ ज्ञान होना अपेक्षित है।

    पर जब अल्तमश जैसे तुर्क सुल्तान इस देश पर अपना राजनैतिक प्रभुत्व स्थापित कर, इसके आर्थिक संसाधनों को हड़प कर इसे धर्मभ्रष्ट और संस्कृति भ्रष्ट करने का अमानुषिक प्रयास कर रहे थे, उस समय हमें अपने अतीत का यथार्थ ज्ञान था। इसलिए हम स्वयं को पतित कहलाने के स्थान पर देशधर्म के ‘पथिक’ कहलाना अधिक श्रेयस्कर मान रहे थे।

    जालौर ने चलाया स्वतंत्रता आंदोलन

    अल्तमश के पैर उखाड़कर खोए हुए हिंदू साम्राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिए जैसे दिल्ली और उसका निकटवर्ती क्षेत्र विद्रोहपूर्ण स्वतंत्रता संग्राम पर उतर आया था, उसी का अनुकरण देश के अन्य राजे-रजवाड़ों ने करना आरंभ किया। आजकल का जालौर उस समय का जावालिपुर बाड़मेर-वाग्भटमेरू, मण्डोर-माण्डव्यपुर, सांचोर-सत्यपुर था। यहां का शासक उदयसिंह था। उसके अपने साम्राज्य की इस वृद्धि को विदेशी शासकों से ‘मुक्त भारत’ करने के अभियान के रूप में देखा जाना चाहिए। अपने इस अभियान के अंतर्गत हिंदू राजा उदयसिंह ने अल्तमश के किसी सेनापति को पराजित कर दिया था, जो किसी सीमावर्ती क्षेत्र का शासक बन गया था। हिंदू राजा के इस कृत्य का दण्ड देने के लिए अल्तमश ने जालौर पर हमला कर दिया। जिसमें उसके कई उच्च सैन्याधिकारी भी सम्मिलित थे।

    जब राजा उदयसिंह को इस हमले का ज्ञान हुआ, तो वह निस्संकोच अपने दुर्ग में ही रहकर युद्ध का सामना करने के लिए उद्यत हो गया। कई मुस्लिम इतिहासकारों ने राजा उदयसिंह द्वारा क्षमायाचना कर अल्तमश से संधि करने का विभ्रम उत्पन्न करते हुए कहा- उसने सौ ऊंट तथा 20 घोड़े देकर अल्तमश से संधि कर ली परंतु इतना बड़ा सैन्य दल लेकर जो मुस्लिम शासक जालौर में एक आक्रांता के रूप में पहुंचा वह मात्र सौ ऊंट और 20 घोड़े लेकर ही संधि करने को तैयार हो गया हो, यह उपहासास्पद सा लगता है। कई लोगों को इस पर विश्वास नहीं है। अल्तमश ने कभी भी किसी हिंदू शासक को इतनी छोटी सी भेंट लेकर उसका राज्य नहीं लौटाया। इससे यही सिद्ध होता है कि दोनों पक्ष युद्ध में या तो बराबर की शक्ति वाले प्रमाणित हुए या हिंदू राजा ने अल्तमश की सेना को परास्त किया। यह घटना 1215 ई. की है।

    उदयसिंह ने बनाया हिंदू संघ

    अल्तमश की पराजय का संदेह तब और बढ़ जाता है जब हम देखते हैं कि उसी जालौर नरेश उदयसिंह ने 1221 ई. में अल्तमश के विरुद्ध तब एक हिंदू संघ बनाया था जब वह नागदा अर्थात मेवाड़ पर चढ़ाई करने जा पहुंचा और उसके पश्चात गुजरात की ओर बढ़ने लगा था। तब उदयसिंह ने मारवाड़ शासक सोमसिंह सहित छोटे-2 सामंतों व प्रमुख लोगों को लेकर धारा वर्ष के धोलका के वीर

    धवल और उसके मंत्री वस्तुपाल के साथ मिलकर एक संयुक्त सेना बनायी, जिससे विदेशी आक्रांता का विरोध किया जा सके। सभी इतिहासकार इस बात से सहमत हैं कि अल्तमश इस संघ का सामना किये बिना ही अपनी राजधानी लौट आया था। अब यदि वह बिना सामना किये ही अपनी राजधानी लौट गया था, तो यह भी सत्य है कि इसके पश्चात उसने कभी पुनः गुजरात जाने का संकल्प नहीं लिया? एक विदेशी शासक को (जिसे विजेता जाति का माना जाता रहा है) इतना भयभीत कर देना कम गौरव की बात नहीं है।

    भरतपाल ने ली सवा लाख तुर्क सेना की बलि

    चौहान वंशी लोगों ने अपनी पराजय को अभी तक भुलाया नहीं था, उन्हें तरायन का अपमान रह-रहकर दुःखी व त्रस्त कर रहा था। अतः उन लोगों ने अजमेर से हटकर गढ़वाल राज्य के चंदवाड़ नामक स्थान पर अपनी शक्ति का संचय किया और वहीं एक शक्ति के रूप में स्थापित हो गये। ‘चंदवाड़ का चौहान राज्य’ नामक पुस्तक के लेखक दशरथ शर्मा के शोध से हमें इस तथ्य का पता चलता है। शक्ति का यह संचय भी ये अवशिष्ट चौहान स्वतंत्रता की साधना के रूप में इसे एक समुचित उपाय मानकर कर रहे थे। उन्हें स्वतंत्रता प्रिय थी और वे अपने प्रतापी एवं पराक्रमी राजा पृथ्वीराज चौहान की यश पताका को किसी प्रकार से भी कलंकित या अपमानित होने देना नहीं चाहते थे। इसलिए शीघ्र ही उनके वास्तविक उद्देश्य का पता चलने लगा कि वे अंततः किस उद्देश्य से प्रेरित होकर अपनी शक्ति का संचय कर रहे थे। उन्होंने अपने शासक भरतपाल के नेतृत्व में अपने आसपास से मुसलमानों को भगाना आरंभ कर दिया।

    महान स्वतंत्रता प्रेमी भरतपाल

    राजा भरतपाल की इस स्वतंत्रता प्रेमी भावना को कुचलने के लिए उधर अल्तमश भी सावधान हुआ। उसने अवध प्रांत का अधिपति बनाकर 1226 ई. में अपने लड़के नासिरूद्दीन को भेजा। अब नासिरूद्दीन का सामना भरतपाल से होना निश्चित हो गया। ‘तबकाते नासिरी’ का लेखक मिनहाज हमें बताता है कि पृथ्वीराज चौहान के इस यशस्वी उत्तराधिकारी ने हिंदू अस्मिता का प्रतिशोध लेने के लिए एक लाख बीस हजार मुस्लिम सेना का अंत कर दिया था।

    यह प्रतिशोध बहुत बड़ी उपलब्धि थी और यदि मध्यकालीन विश्व इतिहास को समीक्षित, निरीक्षित और परीक्षित करने का महाभियान चलाया जाए तो यह घटना अपने ढंग की अनुपम भी सिद्ध हो सकती है कि जब किसी पराजित योद्धा के वीर वंशजों ने अपने खौलते रक्त को शांत करने के लिए अपनी सर्वथा विनष्ट हुई शक्ति का इस प्रकार संचय किया हो और इतने बड़े स्तर पर शत्रु सेना का संहार कर अपनी प्रतिशोधाग्नि को शांत किया हो। इस पर भी हम अपने आपको ‘कायर’ मानते रहें तो इन वीर कृत्यों की समाधि पर पुष्प कौन चढ़ाएगा?

    भरतपाल ने भी दिया बलिदान

    जब नासिरूद्दीन महमूद भरतपाल के क्षेत्र में घुसा तो यह तो स्पष्ट हो ही गया था कि अब उसका संघर्ष भरतपाल से होना निश्चित है। अतः चंदवार के प्रसिद्ध रणक्षेत्र में दोनों सेनाओं का आमना-सामना हो ही गया। भरतपाल ने अपने पूर्वजों का ‘श्राद्ध तर्पण’ तो सवा लाख मुस्लिम सेना के विनाश के साथ कर ही दिया था जो उसका प्रमुख उद्देश्य था। इसके पश्चात भी साहस के साथ शत्रु सेना से जा भिड़ा। शत्रु से सीधे-सीधे होने वाले युद्ध का परिणाम वह रणबांकुरा जानता था, पर युद्ध से भागना भी वह चौहान परंपरा और अपने पूर्वज या अपने चौहान वंश के सिरमौर पृथ्वीराज चौहान के यश पर धब्बा ही मानता था, इसलिए शत्रु की ललकार पर उसका सामना करना ही उसने वीरोचित परंपरा के अनुकूल समझा। युद्ध में भयंकर रक्तपात करते हुए वह रणबांकुरा भरतपाल अदम्य शौर्य एवं साहस के साथ युद्ध करता हुआ ‘वीरगति’ को प्राप्त हो गया। कहते हैं कि भरतपाल का एक पुत्र भी मुस्लिम तुर्क सेना द्वारा कैद कर लिया गया, जिसे दिल्ली ले जाया गया।

    संघर्ष फिर भी नहीं रुका

    पृथ्वीराज चौहान की वीरता और युद्धभरी परंपरा को और भरतपाल की ‘शहादत’ को सम्मानित करने के लिए उसकी समाधि पर दीप जलाकर उस समाधि से प्रकाश पाने वाले भरतपाल के लोगों ने भी इस शहीदी परंपरा को निरंतर जीवित रखा। यह अलग बात है कि हम उस परंपरा को इतिहास के पन्नों में समुचित स्थान देकर समाप्त नहीं कर सके। दशरथ शर्मा

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