Mewad Ke Maharana Aur Unki Gaurav Gatha (मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा)
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इस पुस्तक के अध्ययन से यह पूर्णतया स्पष्ट हो जाता है कि भारत को समझने के लिए वर्तमान में प्रचलित इसके इतिहास के हर पृष्ठ पर बिखरी उस काली स्याही को साफ करने की आवश्यकता है जो हमारे बलिदानों के इतिहास को नष्ट करने का काम करती रही है। पुस्तक स्पष्ट करती है कि राज भी गहरे हैं और दाग भी गहरे हैं। जिन्हें खोलने के लिए परिश्रम, पुरुषार्थ, विवेक और संयम की आवश्यकता है।
डॉ. आर्य अपनी गंभीर चिंतन शैली में जब लिखते हैं तो वह गहरे गहरे राजों को और गहरे गहरे दागों को साफ करते चलते हैं। अपनी इसी विशिष्ट शैली के माध्यम से उन्होंने भारत के सुप्रसिद्ध राष्ट्रवादी इतिहासकारों में अपना स्थान बनाया है। डॉ आर्य एक जीवंत और सनातन विश्वगुरु भारत के उपासक हैं और इसी के लिए संकल्पित होकर वह अपना लेखन कार्य कर रहे हैं। इसी दिशा में यह पुस्तक आज की युवा पीढ़ी के लिए निश्चय ही एक ऐसा ज्योति स्तंभ है जिसके आलोक में वह अपने अतीत और आगम को बड़ी दूर तक देख सकती है।
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Mewad Ke Maharana Aur Unki Gaurav Gatha (मेवाड़ के महाराणा और उनकी गौरव गाथा) - Rakesh Kumar Arya
अध्याय-1
रावल बप्पा (काल भोज)
भारत के क्रांतिकारी और रोमांचकारी स्वाधीनता संग्राम को अपने बाहुबल और बुद्धि बल से सुशोभित करने वाले बप्पा रावल हम सबके लिए प्रात:स्मरणीय हैं। उन्होंने समकालीन इतिहास को नई दिशा और नई ऊंचाई प्रदान की । जिस समय विदेशी आक्रमणकारियों के लुटेरे दल गिद्धों की भांति भारत भूमि पर उतर रहे थे, उस कालखंड में स्वतंत्रता की सतत साधना करने वाले बप्पा रावल का भारतीय स्वाधीनता संग्राम को गतिशील बनाने में अनुपम और अवर्णनीय योगदान है।
उनके अनुपम योगदान के चलते भारत की स्वाधीनता की समकालीन परिस्थितियों में रक्षा होना संभव हुआ।
योगदान अनुपम दिया, रचा दिया इतिहास ।
भारत के सम्मान हित, किया शत्रु का नाश ॥
इतिहास में बप्पा रावल को कालभोज के नाम से भी जाना गया है। उन्होंने प्राणों को संकट में डाल कर मां भारती के सम्मान की रक्षा की थी। आक्रमणकारी मुसलमानों को घर में जाकर मार लगाने का कीर्तिमान यदि किसी के पास में है तो वह बप्पा रावल के पास ही है। उन परिस्थितियों में उनके द्वारा किया गया यह कार्य उनको अमर बनाने के लिए पर्याप्त है।
जन्म के बारे में विवाद
भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इस अमर नायक बप्पा रावल के जन्म पर विवाद है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि उनका जन्म 713-14 ईसवी में चित्तौड़ में हुआ था। उस समय चित्तौड़ पर मौर्य शासक मान मोरी का राज्य था। जहां कुछ इतिहासकार उनका जन्म 713-14 ईसवी में मानते हैं वहीं सावरकर जी का मत इन सबसे भिन्न है। इस संबंध में अखिल भारत हिंदू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे सुप्रसिद्ध राष्ट्रवादी चिंतक और विचारक दिनेश चंद्र त्यागी जी ने लिखा है कि हिंदुओं की पराजय का काला इतिहास पढ़ने लिखने वाले कृपया यह भी विचार करें, जिसे स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने लिखा- ‘भयानक आक्रमणों के बाद भी हम हिंदू जीवित रहे, क्योंकि हम जीवित रहने योग्य थे।’ यहां प्रस्तुत है इतिहास के कुछ अध्याय जिन पर पाठकगण अवश्य विचार करें
(क) सन 712 में मोहम्मद बिन कासिम ने पूरे सिंध प्रांत को लूटा और फिर सिंध को इस्लामी राज्य बना डाला। यह इतिहास का एक पृष्ठ है। जिसे अवश्य पढ़ना चाहिए।
(ख) परंतु इसके 2 वर्ष बाद ही सिंध पर मेवाड़ नरेश बप्पा रावल ने आक्रमण किया और कासिम के इस्लामी राज्य को कब्र में सुला दिया। 468 वर्ष तक फिर सिंध में हिंदू राज्य स्थित बना रहा। महाराणा प्रताप के 800 वर्ष से अधिक पहले उनके पूर्वज थे महाराणा बप्पा रावल । इस इतिहास का विंसेंट स्मिथ जैसे प्रख्यात इतिहासकार ने भी उल्लेख किया है। इन्हीं बप्पा रावल ने बसाई थी रावलपिंडी ।
इस प्रकार के उल्लेख से स्पष्ट होता है कि बप्पा रावल 713-14 ई. में तो शासन कर रहे थे। अतः उनका जन्म इससे पूर्व ही हुआ होगा ।
कई इतिहासकारों की मान्यता है कि बप्पा रावल ( जिन्हें कालभोज भी कहा जाता था) का जन्म 713-14 ई. में हुआ। यहां पर यह बात विचारणीय है कि यदि मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण के 2 वर्ष पश्चात ही उसके आक्रमण का प्रतिशोध बप्पा रावल के नेतृत्व में ले लिया गया था तो या तो यह तिथि कुछ आगे की है या फिर मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से वर्षों पहले बप्पा रावल का जन्म हो चुका था । हमारा मानना है कि मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण का प्रतिशोध माउंट आबू पर उस समय शंकराचार्य देवलाचार्य द्वारा आहूत राजाओं की बैठक के पश्चात ही लिया गया था। यह घटना भी 720 ई. या उससे बाद की ही है।
यह तथ्य भी सर्वमान्य है कि गुर्जर प्रतिहार वंश के संस्थापक नागभट्ट प्रथम के साथ मिलकर बप्पा रावल ने अरब आक्रमणकारियों से मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण का प्रतिशोध लिया था। गुर्जर प्रतिहार वंश की स्थापना पर भी अधिकांश इतिहासकारों की मान्यता है कि यह घटना भी 730 ई. (कहीं-कहीं यह 725 ई. भी लिखी गई है) की है। इससे भी यह स्पष्ट होता है कि बप्पा रावल ने मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण का प्रतिशोध उसके आक्रमण के 2 वर्ष पश्चात तो कम से कम नहीं लिया था । हमारा मानना है कि नागभट्ट प्रथम ने बप्पा रावल के साथ मिलकर इस कार्य को 724-25 ई. में ही संपन्न किया था। उस समय नागभट्ट युवा थे और इस प्रकार के कार्यों में वह बढ़-चढ़कर भाग ले रहे थे जो राष्ट्रवादी शक्तियों को प्रोत्साहित करने वाले हों। अपने इस प्रकार के कार्यों में मिली सफलता के पश्चात ही उन्होंने उसी प्रकार प्रतिहार गुर्जर वंश की स्थापना की थी, जिस प्रकार आगे चलकर कई किलों को जीतने के पश्चात शिवाजी महाराज ने हिंदवी स्वराज्य
की स्थापना की थी।
जन्म के समय चित्तौड़ की स्थिति
बप्पा रावल के जन्म के समय चित्तौड़ पर मौर्य शासक मान मोरी का शासन था। बप्पा रावल ने मान मोरी को पराजित कर उसका मान मर्दन किया और चित्तौड़ के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। बप्पा रावल एक बड़ा लक्ष्य लेकर चल रहे थे। इसके लिए उन्होंने बड़ी ही तैयारी करनी आरंभ की। उन्होंने इस बात को भली प्रकार समझ लिया था कि इस समय दुर्बल शासकों का रहना राष्ट्रहित में उचित नहीं है। उनका मानना था कि राष्ट्रहित में एक बड़ी शक्ति तैयार की जाए और ऐसी सैन्य योजना पर कार्य किया जाए, जिससे भारत के सम्मान और संस्कृति की रक्षा हो सके। वह लंबी दौड़ के घोड़े बन चुके थे।
लक्ष्य बड़ा लेकर चला, बढ़ा भव्य की ओर।
वह शत्रु का संताप था, शांत किया था शोर ।।
बप्पा रावल प्रारंभ से ही अपनी देशभक्ति के कारण प्रसिद्धि के शिखर पर चढ़ने लगे थे। विदेशी मुसलमान आक्रमणकारी जिस प्रकार उस समय भारत की सीमाओं पर उत्पात मचा रहे थे या मोहम्मद बिन कासिम जैसा लुटेरा भारत के भीतर तक आने में सफल हो गया था, उन सारी परिस्थितियों से यह महान देशभक्त योद्धा पूर्णतया परिचित था । वह नहीं चाहते थे कि भारत की पवित्र भूमि को चोर उचक्के शासक बन कर अपमानित करें। उन्हें इन विदेशी आक्रमणकारियों के नामोनिशान तक को भारत की पवित्र धरती से मिटा देने की प्रबल इच्छा भीतर से उद्वेलित कर रही थी ।
भारत के इतिहास में ऐसे महान योद्धाओं की ऐसी देशभक्ति पूर्ण सोच या मानसिकता या आंदोलित मनःस्थिति को जानबूझकर प्रकट नहीं किया गया है। जिससे ऐसा लगे कि भारतवासियों के भीतर मोहम्मद बिन कासिम या उसके पूर्ववर्ती या पश्चातवर्ती किसी भी विदेशी आक्रमणकारी के आने पर और यहां पर किसी भी प्रकार के अत्याचार करने पर किसी भी प्रकार की कोई प्रतिक्रिया नहीं हो रही थी । वे सब शांत थे। वे या तो विदेशी आक्रमणकारियों के आक्रमण के समक्ष असहाय थे या फिर उन विदेशी आक्रमणकारियों की उदारता, पवित्रता हृदय की विशालता और उनके अच्छे विचारों के कारण उन्हें सहज रूप में स्वीकार कर रहे थे। हम लोगों के मन मस्तिष्क में ऐसे विचार को स्थापित करने के लिए हमारे तत्कालीन पूर्वजों या उससे पूर्व के महान ऋषियों तक को भी अज्ञानी, पाखंडी या ढोंगी दिखाया जाता है।
इतिहासकारों की मक्कारी
इतिहासकारों की इस प्रकार की मक्कारी से बड़ी सहजता से यह बात स्थापित करने में मुस्लिम विद्वानों को सफलता मिल जाती है कि भारत के लोगों ने उस समय इस्लाम और कुरान की शिक्षाओं का स्वागत किया था। पर सच यह नहीं था । सच यह था कि उस समय बप्पा रावल जैसे क्रांतिकारी लोग विदेशी आक्रमणकारियों से लोहा लेने की तैयारी कर रहे थे। बप्पा रावल और उनके साथी भारत की परंपरा का प्रतीक बन चुके थे जो राष्ट्र, राष्ट्रवासियों और हमारी राष्ट्रीयता का विनाश करने के लिए या ऐसा करने के उद्देश्य से प्रेरित होकर भारत की ओर देखने का दुस्साहस करने वालों के विनाश के लिए प्राचीन काल से काम करती आ रही थी ।
शत्रु विनाश के लिए प्राचीन काल से काम करते रहने वाली इसी परंपरा के प्रतीक बने उन्हीं क्रांतिकारियों के कारण उस समय विदेशी आक्रमणकारियों को भारत की भूमि से खदेड़ने का संकल्प लिया गया था। बप्पा रावल का समकालीन गुर्जर प्रतिहार वंश का संस्थापक नागभट्ट प्रथम भी इसी प्रकार के क्रांतिकारी भावों से भरा हुआ महान योद्धा था। दोनों भारत भक्त वीर योद्धाओं ने उस समय अपने बाहुबल से मिट्टी से साम्राज्य खड़ा किया और विशाल सेना का गठन कर विदेशी आक्रमणकारियों को भारत की भूमि से खदेड़ने में सफलता प्राप्त की थी । यदि सूक्ष्मता से अवलोकन किया जाए तो नागभट्ट प्रथम, बप्पा रावल और उन जैसे अन्य अनेक देशभक्तों के माध्यम से उस समय जो कुछ भी घटित हो रहा था वह भारत भूमि पर होने वाली बहुत बड़ी राष्ट्रवादी क्रांतिकारी हलचल थी। इस हलचल के कारण भारत में उस समय ही नहीं उसके बाद भी अनेक क्रांतिकारी भूकंप आते रहे। जिनके झटके दूर-दूर तक और देर तक अनुभव किए गए। यह अलग बात है कि भूकंप के उन केंद्रों और उन झटकों को मिटाने का भी बहुत बड़ा घातक प्रयास देश में किया गया है।
हलचल पैदा की देश में, ला दिया भूकंप ।
शत्रु भागा देश से काट दिया अवलंब ॥
यह बात ध्यान देने योग्य है कि बप्पा रावल और नागभट्ट प्रथम जैसे जिन योद्धाओं के पास एक इंच भूमि भी राज्य के नाम पर नहीं थी, उन्होंने अपना साम्राज्य स्थापित करने का संकल्प लेकर भारत भक्ति का प्रदर्शन करते हुए जिस प्रकार विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारियों को भारत भूमि से खदेड़ने का क्रांतिकारी कार्य उस समय किया था, उसका तो इतिहास को अभिनंदन करना चाहिए था। इस अभिनंदन का कारण केवल यह है कि हमारे इन वीर योद्धाओं ने मां भारती के सम्मान के लिए अपनी वीरता और पराक्रम का परिचय देते हुए अपने साम्राज्यों का निर्माण किया था। उन्होंने विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारियों की भांति दूसरों के अधिकारों को छीनने, उनकी महिलाओं के साथ अत्याचार करने या उनके धन आदि को लूट कर नरसंहार करने के लिए साम्राज्य खड़े नहीं किए थे। पर विदेशी शत्रु लेखकों के द्वारा लिखे गए इतिहास में इन महान क्रांतिकारियों के लिए इस प्रकार के अभिनंदन के शब्द ढूंढने के लिए आपको बहुत परिश्रम करने के उपरांत भी निराशा ही हाथ लगेगी। भारतीय इतिहास का यह एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि इसमें लुटेरों को सम्मान देते-देते लुटेरों से लोगों की रक्षा करने वालों को ही लुटेरा दिखा दिया गया है।
सिकंदर, मोहम्मद बिन कासिम, गजनी या गोरी या बाबर जैसा बर्बर विदेशी आक्रमणकारी यदि दूसरे देशों की संस्कृति को मिटाने के लिए सेनाएं सजाता है या मिट्टी से साम्राज्य खड़ा करने का संकल्प लेता है तो वह अभिनंदन का पात्र हो जाता है और अपनी संस्कृति, अपने देश और अपने धर्म को बचाने के लिए यदि बप्पा रावल और नागभट्ट प्रथम जैसे लोग मिट्टी से साम्राज्य खड़ा करते हैं तो वे या तो भुला दिए जाते हैं या उपेक्षा का पात्र बना दिए जाते हैं?
देवदूत बप्पा रावल
बप्पा रावल और नागभट्ट प्रथम जैसे वीर योद्धाओं को हमें इस दृष्टिकोण से देखना चाहिए कि वह उस समय भारत के पराक्रम में आई शिथिलता को दूर करने के लिए धरती पर भेजे गए देवदूत थे। जिन्होंने भारत के लोगों के भीतर देश भक्ति का संचार कर उन्हें अपने प्राचीन गौरव का स्मरण दिलाया और यह बताया कि विदेशी आक्रमणकारी जिस प्रकार की संस्कृति को लेकर यहां आ रहे हैं वह हमारे लिए घातक सिद्ध होगी। उनके इस प्रकार के आवाहन ने लोगों को आंदोलित किया और वे स्वेच्छा से अपने इन महान देशभक्तों के द्वारा तैयार की जा रही सेना में स्वेच्छा से सम्मिलित हो गए। हमें यह बात भी ध्यान रखनी चाहिए कि इस प्रकार की सेनाएं उस समय वेतन लेकर पेट भरने के लिए नहीं बनाई जाती थीं अपितु देश के लिए सिर देने के लिए बनाई जाती थीं । उन सेनाओं में सम्मिलित होने का अर्थ किसी दूसरे की धन संपदा को लूटना नहीं था, ना ही महिलाओं के सम्मान के साथ खिलवाड़ करना था अपितु इसका उद्देश्य केवल और केवल देशभक्ति था ।
इसके विपरीत विदेशी आक्रमणकारियों की सेनाएं उस समय हमारे लूट के माल
को बांटने के स्वार्थ से प्रेरित होकर बनाई जाती थीं। आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि महानता किस के विचारों में झलकती थी? विदेशी आक्रमणकारियों की लुटेरी सेना के विचारों में या देश की रक्षा के लिए संकल्पित होकर सिर देने की परंपरा का निर्वाह करने वाली भारतीय वीर योद्धाओं की सेना के विचारों में? दानवतावादी शक्तियों से बचाने के लिए जो अपने आपको प्रस्तुत कर देता है, वह देवदूत होता है। यह आवश्यक नहीं कि ऐसा देवदूत बड़े-बड़े ग्रंथों का ज्ञाता हो, वह यदि बड़े-बड़े ग्रंथों की शिक्षाओं की रक्षा के लिए भी अपने आप को समर्पित करता है तो भी उसका होना किसी देवदूत से कम नहीं होता । कथा में कितने लोग आए, यह देखना आवश्यक नहीं। देखना यह आवश्यक है कि कथा कितने लोगों में आई अर्थात सम्मान भाव का होता है। किसी भी कार्य करने के पीछे भाव कैसा था ? यह देखा जाता है।
गुहिल वंश का वास्तविक संस्थापक
गुहिलादित्य या गुहिल को गुहिल वंश का संस्थापक माना जाता है । पर अपने शौर्य और पराक्रम से अपनी वीरता की धाक जमाने वाला बप्पा रावल ही गुहिल वंश का वास्तविक संस्थापक है। बप्पा रावल के गुरु हारीत ऋषि थे। बप्पा रावल के द्वारा ही उदयपुर के उत्तर में कैलाशपुरी में स्थित एकलिंग जी के मन्दिर का निर्माण 734 ई. में करवाया गया था। उनके साथ गुरु हारीत का होना बड़े सौभाग्य की बात थी । हमारे प्रत्येक राजा के साथ किसी ना किसी ऐसे ही महान विचारक संत का समागम अवश्य है, जो अपने राष्ट्रवादी चिंतन के लिए जाना जाता रहा हो। वास्तव में मध्यकालीन भारत के इतिहास लेखकों ने द्वेषभाव के वशीभूत होकर ऐसे गुरुओं को उपेक्षित किया है, और भारत की प्राचीन परम्परा की उपेक्षा करते हुए ब्रह्मबल और क्षत्रबल के परस्पर समन्वय का उपहास उड़ाया है। ये गुरु या आचार्य लोग किसी भी राजा को उसके राजधर्म का सम्यक पाठ पढ़ाने का काम करते थे। किसी भी राजा को अपने राजधर्म से पतित नहीं होने देते थे।
नागादित्य के पुत्र कालभोज ने 727 ई. में गुहिल राजवंश का शासन भार संभाला। अपने शासनकाल के दौरान काल पहुंचने जिस प्रकार मुसलमानों को भारत भूमि से खदेड़ कर बाहर निकालने का काम किया था उसके दृष्टिगत उन्हें धर्म रक्षक और संस्कृति रक्षक होने के कारण बप्पा रावल की उपाधि दी गई थी। संस्कृत के वापः
शब्द से बिगड़ कर बाप, बप्पा और बापू शब्द की उत्पत्ति हुई है। इस प्रकार बप्पा रावल का अभिप्राय एक प्रकार से उस समय राष्ट्रपिता था। पर यह ध्यान रखने की बात है कि हम राष्ट्रपिता उसी को मानते थे जो विदेशी धर्म, विदेशी सोच और विदेशी लोगों को भारत भूमि से खदेड़ने का काम करता था । ऐसा कोई भी व्यक्ति हमारा राष्ट्रपिता नहीं हो सकता जो विदेशी धर्म अथवा संप्रदाय का पक्ष पोषण करे, और अपने धर्म की उपेक्षा करे ।
अपने गुरु हारीत ऋषि के प्रति बप्पा रावल सदैव ऋणी रहे। इसका कारण केवल एक था कि राष्ट्रभक्ति की पवित्र भावना को उनके भीतर कूट कूटकर भरने का काम उनके गुरु ने ही किया था। भारत की इस गुरु शिष्य परंपरा के बारे में हमें यह भी जानकारी होनी चाहिए कि कोई भी गुरु अपने शिष्य की पात्रता को देखकर ही उसके भीतर राष्ट्रभक्ति के पवित्र भावों को भरता था। कहने का अभिप्राय है कि हर किसी ऐरे गैरे नत्थू खैरे को राष्ट्रभक्ति के पवित्र भाव को निभाने का दायित्व नहीं दिया जाता था ।
विकिपीडिया के अनुसार मेवाड़ का शक्तिशाली राजवंश गुहिल के नाम से जाना जाता है। इसका प्रारंभिक संस्थापक राजा गुहादित्य थे, जिन्होंने 566 ई. के आसपास मेवाड़ में गुहिल वंश की नींव रखी। इनके पिता का नाम शिलादित्य और माता का नाम पुष्पावती था।
इस्लाम के प्रति बप्पा रावल का दृष्टिकोण
मुसलमानों के इस्लाम संप्रदाय को पहले दिन से ही बप्पा रावल ने नकार दिया था। इस मजहब की सोच, चिंतन और विचारधारा सभी भारत के वैदिक धर्म से ना तो मेल खाती थी और ना ही उसके समान पवित्र भावों से युक्त थी । बप्पा रावल अपने वैदिक धर्म और संस्कारों से बड़ी गहराई से जुड़े हुए थे । यही कारण था कि वह अपने धर्म और संस्कृति को विश्व के सबसे महान धर्म और संस्कृति के रूप में जानते पहचानते थे। यदि उस संस्कृति को या उस धर्म को नष्ट करने का संकल्प लेकर कोई भारत भूमि पर आए तो उसे बप्पा रावल जैसे वीर योद्धा के द्वारा भला कैसे स्वीकार किया जा सकता था?
इस्लाम दूसरे संप्रदाय के लोगों को मारने- काटने का काम कर रहा था। जो लोग मारने- काटने से भयभीत होकर इस्लाम को ग्रहण कर लेते थे, उन्हें अपने संप्रदाय में लेकर अपने मजहब की संख्या बढ़ाना भी इस्लाम के आक्रमणकारियों का एक प्रमुख उद्देश्य था । संसार भर में इस्लामिक विचार को फैलाना और संसार भर के अधिकांश क्षेत्र पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लेना इस्लाम का उद्देश्य था । इस प्रकार की सोच न्यायपरक नहीं कही जा सकती । संसार में ईसाई लोगों के बाद यह दूसरा ऐसा मजहबी तूफान था जो अन्य धर्मावलंबियों को समाप्त करने पर तुला हुआ था।
बप्पा रावल इस बात को भली प्रकार समझ रहे थे संसार में अब तक जितनी क्षति ईसाई समुदाय ने वैदिक धर्मावलंबियों की की है उतनी किसी अन्य संप्रदाय वालों की नहीं की। जब ईसाई धर्म की मत की शिक्षाओं को मानकर इसाई लोग संसार में अपने संप्रदाय की संख्या बढ़ा रहे थे तो उस समय संसार का सबसे बड़ा धर्म वैदिक धर्म था। अब इस मानव धर्म अर्थात वैदिक धर्म को समाप्त कर अपने अपने पंथ की संख्या बढ़ाने के लिए ईसाइयत के बाद इस्लाम भी मैदान में आ चुका था। कहने का अभिप्राय है कि अब संसार भर से वैदिक धर्मावलंबियों को समाप्त करने के लिए दो शत्रु मैदान में थे। हमारे वैदिक धर्म के रक्षक बप्पा रावल और उन जैसे देशभक्त और धर्म भक्त शासक या क्षत्रिय समाज के लोग अपने धर्म की रक्षा के लिए रणक्षेत्र में उतर गए। इस प्रकार इस्लाम के प्रति बप्पा का दृष्टिकोण बड़ा स्पष्ट था। वह मानते थे कि यह संप्रदाय वैदिक धर्मावलंबियों को समाप्त करने के लिए काम कर रहा है। यही कारण था कि वह इस्लाम को मानने वालों के द्वारा भारत पर हो रहे आक्रमणों को रोकने के लिए कटिबद्ध हो गए। उनका यह भाव देश भक्ति से भरा हुआ था, इसलिए उन्हें देश, धर्म व संस्कृति का रक्षक माना जाना चाहिए ।
बप्पा ने चित्तौड़ के शासक मानमोरी की ओर से सब अरबी आक्रमणों को निष्फल कर दिया था। अपनी योजना को फलीभूत करने के लिए उसने मानमोरी से चित्तौड़ का किला अधिकार में ले लिया।
बप्पा शब्द व्यक्तिवाचक नहीं
इतिहास के विद्वानों का मानना है कि बप्पा
रावल बप्पा या बापा वास्तव में व्यक्तिवाचक शब्द नहीं है, अपितु जिस प्रकार बापू
शब्द महात्मा गांधी के लिए रूढ़ हो चुका है, उसी प्रकार आदरसूचक बापा
शब्द भी मेवाड़ के एक नृपविशेष के लिए प्रयुक्त होता रहा है। सिसौदिया वंशी राजा कालभोज का ही दूसरा नाम बापा मानने में कुछ ऐतिहासिक असंगति नहीं होती।
इसके प्रजासंरक्षण, देशरक्षण आदि कामों से प्रभावित होकर ही संभवतः जनता ने इसे बापा पदवी से विभूषित किया था। महाराणा कुंभा के समय में रचित एकलिंग महात्म्य में किसी प्राचीन ग्रंथ या प्रशस्ति के आधार पर बापा का समय संवत् 810 ( सन् 753) ई. दिया है। एक दूसरे एकलिंग माहात्म्य से सिद्ध है कि यह बापा के राज्यत्याग का समय था।
यदि बापा का राज्यकाल 30 साल का रखा जाए तो वह सन् 723 के लगभग गद्दी पर बैठा होगा। उससे पहले भी उसके वंश के कुछ प्रतापी राजा मेवाड़ में हो चुके थे, किंतु बापा का व्यक्तित्व उन सबसे बढ़कर था । चित्तौड़ का मजबूत दुर्ग उस समय तक मोरी वंश के राजाओं के हाथ में था । परंपरा से यह प्रसिद्ध है कि हारीत ऋषि की कृपा से बापा ने मानमोरी को मारकर इस दुर्ग को हस्तगत किया। टॉड को यहीं राजा मानका वि. सं. 770 ( सन् 713 ई.) का एक शिलालेख मिला था जो सिद्ध करता है कि बापा और मानमोरी के समय में विशेष अंतर नहीं है ।
बप्पा रावल ने पूरी न्याय प्रियता दिखाते हुए 20 वर्ष तक मेवाड़ पर शासन किया था। इसके पश्चात उन्होंने वैराग्य ले लिया था और वनों में जाकर साधना की थी। इस प्रकार भारत की प्राचीन परंपरा का निर्वाह करते हुए उन्होंने संन्यासी वेश में आकर आत्म कल्याण के मार्ग को चुना । बप्पा रावल का भारत की प्राचीन परंपरा के प्रति इस प्रकार का समर्पण का भाव भी प्रकट करता है कि वह भारत और भारतीयता में गहरी निष्ठा रखते थे। भारत के प्राचीन राजनीतिक मूल्यों को वह अपने समय में भी स्थापित करने की प्रक्रिया में लगे हुए थे। उनका विश्वास था कि संसार वास्तव में उन्नति और प्रगति की ओर तभी बढ़ सकता है जब वैदिक व्यवस्था को पूर्णतया लागू कर दिया जाए।
भारतीय राष्ट्रवाद और बप्पा रावल
गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने अजमेर के सोने के सिक्के को बापा रावल का माना है। इस सिक्के का तोल 115 ग्रेन है। इस सिक्के में सामने की ओर ऊपर के हिस्से में माला के नीचे श्री बोप्प लेख है, बाई ओर त्रिशूल है और उसकी दाहिनी ओर वेदी पर शिवलिंग बना है। इसके दाहिनी ओर नंदी शिवलिंग की ओर मुख किए बैठा है। शिवलिंग और नंदी के नीचे दंडवत् करते हुए एक पुरुष की आकृति है। सिक्के के पीछे की तरफ चमर, सूर्य, और छत्र के चिह्न हैं । इन सबके नीचे दाहिनी ओर मुख किए एक गौ खड़ी है और उसी के पास दूध पीता हुआ बछड़ा है। ये सब चिह्न बप्पा रावल की शिवभक्ति और उसके जीवन की कुछ घटनाओं से संबद्ध हैं।
आरवी सोमानी और रमेश चन्द्र मजूमदार ने अपने इतिहास लेखन के माध्यम से बप्पा रावल के महान कार्यों की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। उनके ऐतिहासिक संस्मरणों के अनुसार, अरबों ने जब उत्तर पश्चिमी भारत में शासन कर रहे मोरी यानि मौर्य शासकों को पराजित किया, तो वर्षों से सुप्त भारतीय राष्ट्रवाद का उदय हुआ। उसे ज्ञात हुआ कि यह वह शत्रु नहीं, जिसे युद्ध के आचरण या शत्रु की संस्कृति का सम्मान करना आता हो। ये वो यवन (यूनानी) भी नहीं, जिनके लिए युद्धनीति के भी अपने शास्त्र हों ।
जिस समय बप्पा रावल और गुर्जर प्रतिहार वंश के संस्थापक राजा नागभट्ट प्रथम के द्वारा अरब आक्रमणकारियों को भारत भूमि से खदेड़ा जा रहा था, उस समय कश्मीर पर भी एक वीर हिंदू राजा का शासन था। उस हिंदू राजा का नाम ललितादित्य मुक्तापीड़ था। यह राजा बहुत ही पराक्रमी, देशभक्त और साहसी था । इस प्रकार बप्पा रावल नागभट्ट प्रथम और ललितादित्य मुक्तापीड़ उस समय राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रतीक बन चुके थे। इन राजाओं के भीतर देशभक्ति का लावा धधकता था। भारत के स्वाभिमान की रक्षक इस तिक्कड़ी ने तत्कालीन विश्व समाज में भारत का नाम रोशन करने में किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी थी। उस समय संसार के अन्य क्षेत्रों में इस्लाम के खूंखार आतंकवादी शासक चाहे कितना ही आतंक और उत्पात क्यों न मचा रहे थे पर भारत की ओर पैर करके सोना भी उन्होंने छोड़ दिया था। इसका कारण केवल एक था कि भारत की एकता और अखंडता को बनाए रखने के प्रति संकल्पित इन तीनों राजाओं के होने का भय और अरबवासियों को अपने घरों में भी सताता था ।
बप्पा रावल और इस्लामिक इतिहासकार
इतिहास लेखन की प्रचलित परंपरा कुछ ऐसी है जो हमें कुछ ऐसा आभास कराती है कि इन तीनों शासकों में परस्पर संवादहीनता थी। जिसके चलते राष्ट्र धर्म के प्रति ये तीनों ही संवेदनाशून्य थे। जबकि ऐसा नहीं है। इनके व्यक्तित्व और कृतित्व से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे तीनों राष्ट्र, धर्म व संस्कृति की रक्षा के बिंदुओं पर एकमत थे । यही कारण था कि इन तीनों का सम्मिलित शत्रु इस्लाम था। ऐसे में इस्लाम के लेखकों से इन तीनों का वास्तविक उल्लेख करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। जिन लोगों ने अपने व्यक्तिगत स्तर पर या सामूहिक स्तर पर इस्लाम का विरोध किया हो, उन्हें इस्लाम का कोई भी लेखक सही ढंग से चित्रित नहीं कर सकता।
प्रसिद्ध इतिहासकार रमेश चन्द्र मजूमदार की पुस्तक ‘प्राचीन भारत’ के अनुसार ललितादित्य यशोवर्मन को परास्त करने के पश्चात विंध्याचल की ओर निकल पड़े, जहां उन्हें कर्णात वंश की महारानी रत्ता मिली । रत्ता की समस्या को समझते हुए कर्णात वंश की ललितादित्य ने न केवल विदेशी आक्रमणकारियों से रक्षा की, अपितु उनके समक्ष मित्रता का हाथ भी बढ़ाया। कई लोगों के अनुसार रत्ता कोई और नहीं वरन राष्ट्रकूट वंश की रानी भवांगना ही थी, और इसी बीच उनकी मित्रता मेवाड़ के वीर योद्धा बप्पा रावल से हुई जो ललितादित्य के परम मित्र हुआ करते थे। दोनों ने साथ मिलकर कई विदेशी आक्रांताओं को धूल भी चटाई थी। इन तीनों राजाओं की वीर परंपरा का निर्वाह भारत के अगले शासक भी करते रहे। जिसके कारण आने वाले 300 वर्ष तक मुस्लिम अरब आक्रमणकारियों को भारत में किसी भी प्रकार का उत्पात मचाने से रोके जाने में बड़ी महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक सफलता हमें प्राप्त हुई । निरंतर 300 वर्षों तक विदेशी आक्रमणकारियों को भारत की पवित्र भूमि पर उत्पात मचाने से रोका जाना अपने काले की बहुत बड़ी घटना है। इस घटना के महत्व को हमने समझा नहीं है या हमें समझाया नहीं गया है। इसके विपरीत भारत के कुछ भाग पर मात्र डेढ़ सौ से पौने दो सौ वर्ष तक जबरन शासन करने वाले मुगलों को तो महिमामंडित किया गया है पर जिन लोगों ने भारत भूमि की रक्षा का संकल्प लेकर विदेशी आक्रमणकारियों को दीर्घकाल तक आक्रमण करने से रोकने में सफलता प्राप्त की, उन्हें उपेक्षित कर दिया गया।
निश्चय ही बप्पा रावल का महान कार्य हमारे लिए वंदनीय, अभिनंदनीय और नमनीय है। इतिहास के इस महान योद्धा को आने वाली पीढ़ियां इस बात के लिए स्मरण करती रहेंगी कि उन्होंने अपने समय में मां भारती की रक्षा के लिए बढ़-चढ़कर अपना योगदान दिया था।
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अध्याय-2
24 युद्धों का विजेता : रावल खुमाण सिंह
बप्पा रावल ने शौर्य और साहस के साथ मां भारती की सेवा करते हुए और अपने राष्ट्रभक्ति पूर्ण कार्यों का कीर्तिमान स्थापित किया था। बप्पा रावल ने ऐसा करके मानो आने वाले भविष्य का आगाज दे दिया था। उसके परिश्रम और पुरुषार्थ का ही परिणाम था कि इस शौर्य संपन्न राजवंश में एक से बढ़कर एक हीरा आगे चलकर हमें प्राप्त होता रहा। जिन्होंने अपने अपने समय में देश की अप्रतिम सेवा की। वास्तव में जैसा बीज होता है वैसा ही पेड़ बनता है। कहा भी जाता है कि जैसा बोओगे वैसा काटोगे ।
जैसा डाला बीज है, वैसा ही फल होय ।
करनी का फल ही मिलै, टाल सके ना कोय ।
बप्पा रावल यदि महाराणा वंश का मूल बीज था तो उस बीज से वैसे ही वृक्ष का निर्माण होना स्वाभाविक था । वास्तव में महाराणा वंश के लिए बप्पा रावल क्रांतिवीर था। जिसने सदियों के लिए क्रांति के फल देने वाला वृक्ष बनकर देश की सेवा की। जैसे जौहरी को हीरे की परख होती है, वैसे ही अनुभवी, पारखी और देशभक्त लोगों को क्रांति बीज की परख होती है। जो फल को देखकर उसके मूल को पहचान लेते हैं। जितनी ऊंची साधना होती है उतना ही ऊंचा व्यक्तित्व बनता है और जितना ऊंचा व्यक्तित्व बनता है उसका उतना ही व्यापक प्रभाव होता है । यह रामचंद्र जी की साधना है कि वे युगों के गुजर जाने के उपरांत भी आज तक हमारे आदर्श बने हुए हैं। बस, यही बात हमें बप्पा रावल जैसे लोगों के बारे में समझनी चाहिए कि उनकी भी साधना ऊंची ही थी, जिसके कारण सदियों तक उनके वंश वृक्ष से देशभक्ति के फल हमें मिलते रहे।
रावल खुमाण
इतिहासकारों की मान्यता है कि 753 ई. के लगभग बप्पा रावल ने संन्यास ग्रहण कर लिया था। उनके उपरांत इस राजवंश के शासन की बागडोर एक बहुत ही प्रतापी शासक रावल खुमाण के हाथों में आई । इतिहासकारों को रावल खुमाण के बारे में कोई स्पष्ट उल्लेख किसी प्रकार का नहीं मिलता। ना ही किसी स्थान से उनके शासन काल के सिक्के या कोई शिलालेख प्रमाण के रूप में मिले हैं। इनके बारे में ‘खुमाण रासो’ नाम का एक ग्रंथ अवश्य मिलता है । उसमें भी तीन खुमाण राजाओं के बारे में उल्लेख किया गया है। जिससे इतिहासकारों के सामने पुनः यह समस्या खड़ी हो जाती है कि इस पुस्तक का लेखक कौन से खुमाण की बात कर रहा है?
‘खुमाण रासो’ के लेखक का नाम दलपति विजय है। इस बात से असहमति व्यक्त करते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में लिखा है कि शिवसिंह सरोज के कथनानुसार एक अज्ञात नामा भाट ने ‘खुमाण रासो’ नामक ग्रंथ लिखा था।
हमारा मानना है कि जब सब इस बात पर सहमत हैं कि बप्पा रावल के पश्चात देश के महानायक के रूप में रावल खुमाण सामने आए तो हमें उन्हीं की महानता और देशभक्ति पर अपने आप को केंद्रित करना चाहिए। हमें इतने से ही संतोष कर लेना चाहिए कि जब हमारे पास में एक नायक है तो अपने उस नायक के विषय में अधिक से अधिक जानकारी हम अपनी युवा पीढ़ी को दें। यह तब और भी आवश्यक है कि जब अपने ऐसे महानायकों के इतिहास को सम्मानित करना समय की आवश्यकता हो चुकी है।
मेवाड़ के महाराणा परिवार में एकलिंग जी की पूजा पर विशेष बल दिया गया है । एकलिंग महात्म्य में बहुत कुछ ऐसा लिखा है जो इस राजवंश के बारे में प्रमाणिक माना जा सकता है। इस ग्रंथ के अवलोकन से पता चलता है कि बप्पा रावल का संन्यास 753 ई. में ही हुआ। बप्पा रावल ने जब सन्यास लिया होगा तो उस समय उन्होंने यह भी अच्छी प्रकार समझ व परख लिया होगा कि उनका उत्तराधिकारी उन सभी गुणों से विभूषित है या नहीं जो इस समय देश के लिए आवश्यक हैं? ऐसे में ‘खुमाण रासो’ का लेखक कौन से रावल खुमाण की ओर संकेत कर रहा है? यह रहस्य अपने आप सुलझ जाता है। विशेष रूप से तब जब हम यह देखते हैं कि बप्पा रावल के पश्चात रावल खुमाण ने बप्पा रावल की परंपरा को और उनकी विजय पताका को झुकने नहीं दिया था।
रावल खुमाण के बारे में कर्नल टॉड का मत
कर्नल टॉड के वर्णन से हमको पता चलता है कि काल भोज के पीछे खुम्माण नामक शासक राजसिंहासन पर बैठा। कर्नल टॉड ने यह भी लिखा है कि इस शासक का नाम मेवाड़ के इतिहास में बड़ा प्रसिद्ध है। इसके समय में बगदाद के खलीफा अलमामून ने चित्तौड़ पर चढ़ाई की थी। यह आक्रमण बड़ा भयंकर था । निश्चित रूप से यह आक्रमण भारत की समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा को नष्ट करने और भारत का इस्लामीकरण करने के लिए किया गया था। लूट, हत्या, डकैती, बलात्कार सभी कुछ इस आक्रमण के एक आवश्यक भाग थे। यदि इस प्रकार की मानसिकता से ग्रसित होकर यह आक्रमण तत्कालीन खलीफा ने किया था तो हमें इसके संदर्भ में यह भी समझ लेना चाहिए कि मां भारती का सच्चा सेवक रावल खुम्माण इस आक्रमण का प्रतिशोध करने के लिए पूरी तैयारी के साथ सीना तान कर खड़ा था।
बस, यही वह बात है जो हमें अपने इतिहास के इस महानायक के प्रति सम्मान भाव से भरती है । अत्यंत विषम परिस्थितियों में विदेशी आक्रमणकारी को सबक सिखाने के लिए तैयार रहना और देश, धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर देना भारत के वीर नायकों की परंपरा रही है। उसी परंपरा के निर्वाह के लिए खुमाण ने अपने आप को उस समय समर्पित किया । जिससे देश की संस्कृति और धर्म की रक्षा हो पाना संभव हुआ।
वास्तव में रावल खुम्माण जैसे महावीर हमारी इतिहास परंपरा के ज्योति स्तंभ हैं। इन ज्योति एस स्तम्भों से देश की आने वाली पीढ़ियां ऊर्जा लेती रहेंगी । इतिहास का लोकपथ जिन बीहड़ जंगलों से निकलता हुआ आया है, उस पर अनेक प्रकार के संकट समय-समय पर आए हैं। उन संकटों के बीच इन ज्योति स्तंभों ने ही हमें मार्ग दिखाया है, हमारा मार्ग प्रशस्त किया है।
विदेशी हमलावर और रावल खुमाण
जब खुम्माण पर विदेशी क्रूर हमलावर खलीफा की विशाल सेना ने आक्रमण किया तो रावल तनिक भी विचलित नहीं हुए । उनके भीतर निडरता, निर्भीकता और देशभक्ति की त्रिवेणी बहती थी। उन्होंने एक शूरवीर देशभक्त की भांति उस हमला का सामना किया। हमारे देश में जिस फूट का रोना रोया जाता है कि एक राजा पिट रहा था तो दूसरे ने उसकी सहायता नहीं की, इस भ्रांति को हमने एक बार नहीं अनेक बार तोड़ने का प्रशंसनीय कार्य किया है।
उस समय भी इस विदेशी आक्रमणकारी के विरुद्ध मेवाड़ के महानायक को अपनी सहायता देकर अनेक राजाओं ने राष्ट्रभक्ति पूर्ण कार्य किया। उन्होंने यह दिखाया कि अपने पूर्वाग्रह या राजनीतिक मतभेद हमारे लिए बाद में हैं, देश हमारे लिए पहले है। राष्ट्र प्रथम का यह पवित्र भाग ही हमें प्रत्येक विदेशी हमलावर के विरुद्ध एक होकर काम करने के लिए प्रेरित करता रहा । माना कि कई बार ऐसे अवसर भी आए जब हमारी शक्ति बिखर गई पर इसे राष्ट्रीय भावनाओं की कमी न समझ कर राजनीति का दुर्गुण मानना चाहिए, जिसमें निहित स्वार्थ कभी - कभी व्यक्ति के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाते हैं।
जब भारत की इस राष्ट्रीय सेना ने विदेशी आक्रमणकारी का मिलकर सामना किया तो परिणाम भी वैसे ही आए जैसी अपेक्षा थी अर्थात उस समय हम अपने देश के सम्मान की रक्षा करने में सफल हुए और विदेशी हमलावर चित्तौड़ का बाल भी बांका नहीं कर पाया। दलपत विजय नामक कवि के द्वारा लिखे गए इस वर्णन से हमें अपने तत्कालीन नेतृत्व पर निश्चय ही गर्व करना चाहिए । इतिहासकारों में इस ग्रंथ के आधार पर घटनाओं की तिथियों के निर्धारण को लेकर मतभेद है। इसका कारण यह है कि यह ग्रंथ बहुत बाद में लिखा गया है।
इसमें खुम्माण नामक तीन राजाओं का वर्णन किया गया है। अतः कई बार स्पष्ट नहीं हो पाता है कि ग्रंथ का लेखक कौन से खुम्माण के बारे में बात कह रहा है?
देशभक्त राजाओं की सूची
हमारा मानना है कि इसके उपरांत भी हमें यह देखना चाहिए कि उस समय एक विदेशी आक्रमणकारी ने भारत पर भारी हमला किया, जिसका सामना मेवाड़ के इस महानायक और उसके साथी राजाओं ने मिलकर किया। इतना ही नहीं, अपने देश के सम्मान को सुरक्षित करने में भी ये लोग सफल हुए। कर्नल टॉड ने इस राणा खुमाण का शासन 812 ई. से 836 ई. तक माना है। कर्नल टॉड की बात को मानें तो यह राणा खुम्माण द्वितीय है । उस आक्रमणकारी के विरुद्ध जिन राजाओं ने राणा का साथ दिया था, उनमें से कुछ के नाम कर्नल टॉड ने उल्लिखित किए हैं:-
‘गजनी के गुहिलौत, असीर के टॉक, नादोल के चौहान, रहिरगढ़ के चालुक्य, सेतबंदर के जीरकेड़ा, मंदोर के खैरावी, मगरौल के मकवाना जेतगढ़ के