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Chhatrapati Shivaji
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Chhatrapati Shivaji

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छत्रपति शिवाजी को एक साहसी, चतुर व नीतिवान हिन्दू शासक के रूप में सदा याद किया जाता रहेगा । यद्यपि उनके साधन बहुत ही सीमित थे तथा उनकी समुचित ढंग से शिक्षा-दीक्षा भी नहीं हुई थी, तो भी अपनी बहादुरी, साहस एवं चतुरता से उन्होंने औरंगजेब जैसे शक्तिशाली मुगल सम्राट की विशाल सेना से कई बार जोरदार टक्कर और अपनी शक्ति को बढ़ाया । छत्रपति शिवाजी कुशल प्रशासक होने के साथ-साथ एक समाज सुधारक भी थे । उन्होंने कई लोगों का धर्म परिवर्तन कराकर उन्हें पुनः हिन्दू धर्म में लाए । छत्रपति शिवाजी बहुत ही चरित्रवान व्यक्ति थे । वे महिलाओं का बहुत आदर करते थे । महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करने वाली और निर्दोष व्यक्तियों की हत्या करने वालों को कड़ा दंड देते थे ।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateSep 15, 2022
ISBN9789352785940
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    Chhatrapati Shivaji - Bhawan Singh Rana

    छत्रपति शिवाजी

    वंश परिचय तथा प्रारम्भिक जीवन

    वंश परम्परा

    विश्व में कुछ व्यक्ति अपने वंश के कारण प्रसिद्धि पाते हैं, किन्तु कुछ अपने वंश को विख्यात कर देते हैं । छत्रपति महाराज शिवाजी एक ऐसे ही व्यक्ति हैं, जो अपने वंश भोसले की प्रसिद्धि का कारण बने । भोसले वंश की उत्पत्ति कब, कहां और किससे हुई, इस विषय में इतिहासकारों में मतभेद हैं, भोसले स्वयं को मेवाड़ के सिसौदियों का वंशज मानते हैं । कहा जाता कि जब महाराणा उदयसिंह ने चित्तौड़ की सत्ता संभाली, तो बनवीर जो उनसे पूर्व चित्तौड़ का राजा था (और उसने उदयसिंह के बाल्यकाल में उनकी हत्या का भी प्रयत्न किया था, किन्तु पन्ना धाय ने अपने की बलि देकर उनकी रक्षा की थी ।), चित्तौड़ छोड़कर दक्षिण की ओर भाग गया था । वह महाराणा सांगा के भाई का दासी से उत्पन्न था और उसी से महाराष्ट्र में भोसलों की उत्पत्ति हुई । दूसरा मत है कि 1303 में चित्तौड़ पर अलाउद्दीन खिलजी ने अधिकार कर लिया था । उसी समय राज परिवार का एक व्यक्ति सज्जन सिंह अथवा सिंह भागकर दक्षिण की ओर चला गया था । उसकी मृत्यु 1350 ई. आस-पास हुई । उसकी पांचवीं पीढ़ी में उग्रसेन का जन्म हुआ, जिसके कर्णसिंह तथा शुभकृष्ण नामक दो पुत्र हुए । कर्णसिह के भीमसिंह को बहमनी सुल्तान द्वारा ‘‘राजा घोरपड़े बहादुर’’ की उपाधि तथा 84 गांवों की जागीर मिली । तब से भीमसिंह के वशज घोरपड़े कहे जाते हैं । शुभकृष्ण के वंशजों की भी उपाधि भोसले है ।

    शुभकृष्ण के पौत्र का नाम बाबाजी भोसले था, जिसका देहावसान 1597 में हुआ । बाबाजी भोसले के मालोजी तथा बिठीजी नाम के दो पुत्र थे । कहा जाता है कि ये दोनों भाई इतने स्वस्थ और विशालकाय थे कि दक्षिण के घोड़े इन्हें उठा भी नहीं पाते थे । दोनों भाई सिन्दखेडा के सरदार लुकजी जाधवराज के अंगरक्षक और दौलताबाद के पास के एक गांव के पाटिल थे । अहमद नगर राज्य के पतन के बाद दौलताबाद निजामशाही राज्य की राजधानी बना। लुकजी जाधवराव इस वंश की सेवा में प्रथम श्रेणी का सामन्त बना । स्मरणीय है कि वह (लुकजी जाधवराव) देवगिरी के पूर्व यादव राजवंश की सन्तान था । मालोजी एवं बिठीजी लुकजी जाधवराव की सेवा के साथ ही अपनी पैतृक भूमि का भी प्रबन्ध करने लगे थे ।

    शाहजी भोंसले

    मालोजी के बड़े पुत्र का नाम शाहजी तथा छोटे का शरीफजी था । एक बार होली अथवा बसन्त पंचमी के अवसर पर मालोजी अपने दस-बारह वर्षीय पुत्र शाहजी को लेकर लुकजी जाधवराव के यहां निमन्त्रण में गये । उत्सव में सभी लोग उल्लास के साथ एक-दूसरे पर रंग डाल रहे थे । जाधवराव की पुत्री जीजाबाई भी शाहजी के साथ ही बैठी थी उसकी अवस्था भी लगभग शाहजी के ही बराबर थी । बड़ों को रंग से खेलते देख दो बच्चे भी एक-दूसरे पर रंग डालने लगे । बच्चों के इस निश्छल खेल को देखकर जाधवराव के मुंह से अनायास ही निकल पड़ा-‘‘इन दोनों जोड़ी की कैसी सुन्दर लगती है ।’’

    इतना सुनते ही मालोजी ने उच्च स्वर में घोषणा कर दी-‘‘आप सब लोग साक्षी हैं, लुकजी जाधवराव ने मेरे पुत्र के साथ अपनी पुत्री की सगाई कर दी है ।’’

    मालोजी के इस कथन का लुकजी ने तीव्र विरोध किया । उनका कहना था कि उन्होंने ये शब्द किसी उद्देश्य को सामने रख कर नहीं अपितु यों ही सहज भाव से कह दिये थे । वस्तुतः मालोजी, लुकजी जाधवराज के एक सेवकमात्र थे । भला एक सेवक के के साथ वह अपनी पुत्री का विवाह क्यों कर करते? इस बात पर दोनों में मन-मुटाव हो गया । फलतः मालोजी ने लुकजी की सेवा त्याग दी । इसके बाद वह अपनी स्थिति को सुदृढ़ में लग गये । उन्होंने निजामशाह के सेनापति मलिक अम्बर से अपने सम्बन्ध सुदृढ़ कर लिये । कुछ ही समय में अहमद नगर के निजामशाह द्वारा उन्हें पांच हजार घोड़ों की कमान तथा राजा भोसले की पदवी दे दी गयी । शिवनेरी और चाकण के किले उनके अधिकार में आ गये । इसके साथ ही पूना और सूपे की जागीर भी उन्हें प्राप्त हो गयी । बाद में मलिक अम्बर की प्रेरणा निजामशाह ने लुकजी जाधवराव को शाहजी के साथ जीजाबाई के विवाह के लिए सहमत कर लिया । परिणामस्वरूप नवम्बर 1605 ई. में दोनों का विवाह हो गया । कालांतर में इन नाटकीय अवस्थाओं के परिणामस्वरूप विवाह में बंधा यह युगल ही इतिहास निर्माता छत्रपति शिवाजी की उत्पत्ति का कारण बना ।

    शिवाजी का जन्म एवं बाल्यकाल

    शिवाजी का जन्म कब हुआ? इस विषय में इतिहासकार एक मत नहीं हैं । एक मत के अनुसार उनका जन्म माता जीजाबाई के गर्भ से बैशाख शुक्ला द्वितीया शकसंवत 1549 तदनुसार गुरुवार 6 अप्रैल 1627 को शिवनेर के किले में हुआ था । दूसरे मत के अनुसार यह तिथि फाल्गुन वदी 3 शक संवत 1551 अर्थात् शुक्रवार 19 फरवरी 1630 ई. है । इन दोनों तिथियों में प्रायः तीन वर्षों का अन्तराल है जो भी हो, इससे शिवाजी की महानता में कोई अन्तर नहीं पड़ता ।

    शिवाजी सहित माता जीजाबाई ने छः पुत्रों को जन्म दिया । दुर्भाग्य से चार पुत्रों की अल्पायु में ही मृत्यु हो गयी । शेष दो पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र का नाम सम्भाजी था । संभवतः उसका जन्म सन् 1616 ई. में हुआ था ।

    शिवाजी का बाल्यकाल कोई सुखद नहीं कहा जा सकता । उन्हें अपने पिताजी का संरक्षण भी प्रायः नहीं के बराबर मिला । ऐसी परिस्थितियों में भी उनके द्वारा एक स्वतन्त्र साम्राज्य की स्थापना निश्चय ही एक आश्चर्य कहा जा सकता है । इस आश्चर्य के पीछे जिन दो महान विभूतियों का हाथ रहा, वह हैं माता जीजाबाई तथा दादाजी कोण्डदेव । इन्हीं दो मार्ग-दर्शकों की छत्रछाया में शिवाजी का बाल्यकाल बीता और उनके भावी जीवन की नींव पड़ी ।

    माता जीजाबाई की छत्रछाया में

    माता जीजाबाई लुकजी जाधवराव की कन्या थी । उनकी धमनियों में देवगिरि के यादव शासकों का रक्त था । उनका दाम्पत्य जीवन एक सुखी दाम्पत्य जीवन नहीं कहा जा सकता । एक प्रकार से उनका यह जीवन एक परित्यक्ता का जैसा जीवन रहा । जिस समय शिवाजी गर्भ में थे, उसी समय से शाहजी और उनका जीवन एक नदी के दो किनारों के समान हो गया था । शाहजी ने सूपा के मोहिते परिवार की कन्या से दूसरा विवाह कर लिया था और जीजाबाई पूना में दादाजी के संरक्षण में रहने लगी, जो पूना की शाहजी की छोटी-सी जागीर की देखभाल करते थे ।

    उनका बड़ा पुत्र सम्भाजी अपने पिता के ही साथ रहता था । शिवाजी के जन्म के कुछ ही दिन पहले की उनकी स्थिति का वर्णन करते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार गोविन्द सुखराम सर देसाई ने लिखा है-

    ‘‘ससुराल जाने के लिए कोशिश करनी चाहिए या वहां जाकर ससुराल वालों के गले पड़ना चाहिए, यह उन्हें कौन सुझाता? जीजाबाई की मनःस्थिति की कल्पना की जा सकती है । पति से उनकी प्रत्यक्ष भेंट होने का अवसर नहीं आता था और होती भी तो स्पष्ट-बात होने की हिम्मत कहां होती थी । जीजाबाई को गर्भार्पण कर पतिदेव तो घोड़े पर सवार होकर चलते बने । इसलिए ससुरालवालों को ही उनका पालन-पोषण करना पड़ा । उस अवसर पर पत्नी को ससुराल में छोड़ शाहजी राजा तो निकल गये, यह क्या जो प्रचलित है, सर्वथा त्याज्य नहीं कहा जा सकता । शाहजी से मिलकर जब जाधवराव लौट रहे थे, तब उन्हें जीजाबाई रास्ते में जुन्नार के पास मिली । उस समय उसके गर्भ को सात माह हो चुके थे । जाधवराव उन्हें सिन्दखेड़ा भेजने लगे । ऐसा विकट प्रसंग । आर्य स्त्री के लिए तो पति से बढ़कर कोई नहीं होता । जब पतिदेव उन्हें छोड़कर चले गये, तब भी वह इतनी दृढ़ संकल्प बनी रही कि पिता के साथ मायके नहीं गयीं । पास ही भोसलों की जागीर का शिवनेर का किला था । वह वहीं चली गयी और फिर वहीं शिवाजी का जन्म हुआ । ज्येष्ठ पुत्र सम्भाजी अब बड़ा होकर पिताजी की सहायता करने लगा था । वह लड़का अब बड़ा होकर पिता के साथ जीवनशिक्षा, राजकाज, युद्ध, दांव-पेंच आदि सीखने लगा । सम्भाजी को कभी मां के मोह ने नहीं सताया ।

    लुकजी जाधवराव की निर्मम हत्या

    लुकजी जाधवराव पहले निजामशाह के सामन्त थे, किन्तु बाद में मन-मुटाव हो जाने के कारण उन्होंने निजामशाह का पक्ष त्याग दिया था और मुगल सम्राट शाहजहां की सेवा में चले गये थे । वह सिन्दखेड़ा में रहते हुए मुगल सम्राट के पक्ष में काम करते थे । निजामशाह को यह बात सहन नहीं हुई । उसे लुकजी कांटे की तरह खटकने लगे । 25 जुलाई 1629 को उसने सभी जाधव सरदारों को भेंट करने के लिए दौलताबाद के किले में बुलाया । किसी को स्वप्न में भी आशा नहीं थी कि वह विश्वासघात करेगा । अनेक जाधव सरदारों के साथ अपने पुत्र-पौत्रों सहित लुकजी जाधवराव भी दौलताबाद के किले में पहुंचे, जिनमें से अधिकांश की निर्ममता से हत्या कर दी गयी । लुकजी जाधवराव, उनके दो पुत्र-अचलोजी और रघुजी तथा पौत्र यशवन्तराव को भी अपने-अपने प्राणों से हाथ धोने पड़े ।

    अपने पिता, भाइयों तथा भतीजे के साथ हुए इस अमानवीय विश्वासघात को माता जीजाबाई जीवनपर्यन्त नहीं भूल सकीं । कदाचित् इस घटना के प्रतिशोध की भावना ने उन्हें सदा यवनों के विनाश की प्रेरणा दी, जिसने युग निर्माता शिवाजी का निर्माण किया ।

    बालक शिवाजी का अज्ञातवास

    इस घटना के पूर्व से ही शाहजी मलिक अम्बर के साथ कई वर्षों से मुगलों के विरुद्ध लड़ रहे थे । दौलताबाद के किले पर मुगलों का अधिकार हो जाने पर मुगल सम्राट ने शाहजी तथा उनके परिवार के लोगों को पकड़वाने की भरसक चेष्टा की । माता जीजाबाई शिवाजी के साथ शिवनेर के किले में रह रही थी । मुगल सम्राट का एक सरदार महादल खां उस समय उन्हें पकड़ने के लिए आया । जीजाबाई का महादल खां से पूर्व परिचय था । अतः उन्होंने उसके पास सन्देश भिजवाया कि वह स्वयं मिलने आ रही है । महादल खां आश्वस्त हो गया । तब जीजाबाई ने शिवाजी को अपनी एक विश्वासपात्र दासी के साथ किसी अज्ञात स्थान पर भिजवा दिया और स्वयं को बन्दी बनवा दिया । दो वर्ष तक शिवाजी अपनी इसी धाय मां के पास रहे । सौभाग्य से जीजाबाई मुक्त हो गयीं और अपने पुत्र का पालन-पोषण पुनः दत्तचित्त होकर करने लगीं ।

    वह स्थान जहां शिवाजी को छिपाकर रखा गया था, शिवापुर अथवा खेड़-शिवापुर कहा जाता है । यह गांव पूना से सतारा जाने मार्ग में पड़ता है । शिवाजी के नाम पर माता जीजाबाई ने इसका नाम शिवापुर रख दिया था । यहां भोसलों की पैतृक भूमि थी, जिसमें जीजाबाई ने शाहबाग नाम से आमों का बाग भी लगवाया था ।

    इन सभी विषम परिस्थितियों का जीजाबाई ने दृढ़ता के साथ सामना किया । शिवाजी के जन्म के समय न उनके पास पैसा था और न कोई सेवक या संरक्षक ही । वह पिता के पास से पति के घर शिवनेरी के किले में आ गयी थी, पति भी उन्हें छोड़कर युद्धभूमि में चले गये । थोड़े समय बाद वह से ओसाड़ के किले में आ गयी । इस सर्वथा निराशापूर्ण स्थिति में उन्होंने किले में स्थित मन्दिर की देवी शिवाई को ही अपना आश्रम माना । उनके चार पुत्र अल्प, आयु में ही चल बसे थे, अतः वह नवजात शिशु शिवाजी के दीर्घजीवन की कामना से भगवती शिवाई से रात-दिन प्रार्थना करती थी । इन सब परिस्थितियों में भी उन्होंने अपने पति अथवा सौत से सम्बन्धों में किसी प्रकार की कटुता नहीं आने दी ।

    पूना प्रस्थान

    शिवाजी के जन्म के समय शाहजी निजामशाह की ओर से मुगलों के विरुद्ध लड़ रहे थे । जनवरी 1636 में शाहजहां स्वयं दक्षिण भारत गया । ठीक इसी समय निजामशाही राज्य समाप्त हो गया । मई में मुगल सम्राट तथा बीजापुर की सल्तनत में एक सन्धि हो गयी । इसके पश्चात् शाहजी भी बीजापुर की सेवा में चले गये । उनकी इन सेवाओं के बदले में उन्हें गोदावरी नदी के दक्षिण में एक जागीर दे दी गयी । यह घटना अक्टूबर 1636 ई. की है । इन संघर्ष के वर्षों में भी शाहजी ने पूना की जागीर पर अपना अधिकार सुरक्षित रखा था । अपनी नयी जागीर के लिए उन्होंने कुछ विश्वासपात्र व्यक्तियों को नियुक्त कर दिया तथा स्वयं बीजापुर चले गये ।

    बीजापुर जाने से पूर्व शाहजी ने जीजाबाई तथा शिवाजी को पूना भेज दिया । पूना की जागीर का प्रबन्ध करने के लिए उन्होंने एक योग्य व्यक्ति दादाजी कोण्डदेव को नियुक्त कर दिया । इस समय शिवाजी की अवस्था लगभग सात-आठ वर्ष थी । यह शिवाजी के जीवन के लिए एक सर्वप्रथम शुभ घटना थी । अभी तक उनका जीवन एक विपन्नावस्था का जीवन था । अब वह एक अस्त-व्यस्त एवं अव्यवस्थित ही सही, जागीर के स्वामी तो बन ही गये थे । सबसे बढ़कर उन्हें योग्य मार्ग दर्शक दादाजी भी मिल गये ।

    दादाजी कोण्डदेव के संरक्षण में

    वह प्रथम पुरुष जिसे बालक शिवाजी ने अपने अभिभावक के रूप में देखा, दादाजी कोण्डदेव थे । वस्तुतः यही से उनके जीवन की आधारशिला रखी गयी । इससे पूर्व का उनका जीवन एक प्रकार से वन्य जीवन ही था । इस नवीन जीवन का प्रारम्भ दादाजी कोण्डदेव के संरक्षण में आ । दादाजी कोण्डदेव माल्थन के ब्राह्मण थे । उनके उपनाम गोचिवड़े होकर, पारनेकर, मलठणकर आदि भी थे । पहले वह बीजापुर के शासक की सेवा में थे । बाद में उन्हें मलिक अम्बर से भी युद्ध आदि का प्रशिक्षण प्राप्त हुआ । मुगल सम्राट के विरुद्ध युद्ध में उन्होंने शाहजी की सहायता की थी ।

    सितम्बर-अक्टूबर 1636 से दादाजी कोण्डदेव, माता जीजाबाई तथा बालक शिवाजी को लेकर पूना आ गये । अब वह शाहजी भोसले की इस जागीर के प्रबन्धक थे । उन्होंने जिस प्रेम एवं सच्चाई से इस उत्तरदायित्व का निर्वाह किया, वह केवल प्रशंसनीय ही नहीं, अपितु एक दृष्टान्त भी है । शिवाजी को हिन्दू राज्य का संस्थापक बनाने में उनकी भूमिका की तुलना बहुत ही कम लोगों से की जा सकती है ।

    जागीर का प्रबन्ध अपने हाथों में लेते ही दादाजी कोण्डदेव ने सर्वप्रथम कृषि की उन्नति पर ध्यान दिया । इस समय जागीर में चारों ओर अराजकता की स्थिति फैली हुई थी, अतः इस अव्यवस्था को दूर करना और न्याय व्यवस्था को सुधारना उनका पहला काम था । उन्होंने गांवों में प्रबन्ध करने वालों की नियुक्ति की, राजस्व में सुधार किये । प्रथम पांच वर्षों के लिए कृषकों को राजस्व से दे दी गयी । पैदावार में वृद्धि करने के उपाय किये । इसके लिए को प्रोत्साहित किया । इससे पूर्व वहां मुरार जगदेव गधों से जुताई कर चुका था । इसके कुप्रभाव को दूर करने के लिए उन्होंने भूमि में सोने का हल चलाकर कृषि कार्य का श्रीगणेश किया । योग्य किसानों को बाहर से लाकर बसाया गया । दादाजी कोण्डदेव पूना में रहकर यह सब व्यवस्था करते थे, अतः उन्होंने पहले पूना में निवास स्थान को सुन्दर बनाया । वहां एक छोटा-सा बाड़ा भी बनाया । शिवाजी इससे पूर्व अपने अज्ञातवास के समीप इसी स्थान पर रहे थे ।

    अपनी जागीर की इस -अव्यवस्था का बालक शिवाजी ने भी अनुभव छत्रपति शिवाजी किया । एक दिन वह अपनी मां से पूछ बैठे-‘‘माँ! यह कैसी अव्यवस्था फैली हुई है? तुम सदा चिन्तित और घबराई हुई क्यों दिखाई देती हो? मुझे भी काम बताओ, मैं कौन-सा काम कर सकता हूं? मैं भले ही छोटा हूं, परन्तु तुम्हारा कुछ तो हाथ बंटा सकता हूं ।’’ बालक की बातें सुनकर मां का गला भर आया । भला वह इसका क्या उत्तर देती? उन्होंने दादाजी कोग्डदेव से कहा-बालक शिवा के प्रश्नों का उत्तर आप ही दीजिये । उसे अभी से अपनी सभी बातें स्पष्ट हो जाएं, तो अच्छा है । हम क्या हैं,' आज हमारी क्या स्थिति है, भविष्य में कैसे निर्वाह होगा, यह सब उसे अवश्य

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