Boss Dance
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व्यंग्य की सुरती से जीवन की भांग तक है तरह- तरह के डांस!
सुरती कभी खाई नहीं। भांग कभी चढी नहीं। चढ गई ज़ुबान पर एक धार जो कब अपने आप व्यंग्य बनती चली गई, इसकी छानबीन का काम मेरा नहीं। अपन तो बचपन में सभी की नकल करते, परसाई जी की गुड की चाय पीते- पढते समझने लगे थोडा बहुत कि 'मार कटारी मर जाना, ये अंखिया किसी से मिलाना ना!' हिमाकत देखिये कि 'इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर' पढते हुए और उसके बाद शरद जोशी के नवभारत टाइम्स में छपते 'प्रतिदिन' कॉलम का सबसे पहले पारायण करते हुए व्यंग्य को थोडा बहुत समझने लगे। थोडा- थोडा लिखने लगे तो मजा आने लगा। बोलने में भी व्यंग्य की एक छौंक लगने लग गई। साथी- सहयोगी वाह- वाह कर उठते तो अपने को अपनी कलम और घुटने में बस रहे दिमाग पर बडा फख्र होने लगता।
लेकिन, जल्द ही अपनी समझदानी में अकल का साबुन घुस गया और आंखों में अपना झाग भरकर बता गया कि मोहतरमा, व्यंग्य एक बेहद गम्भीर विधा है, लकडीवाली मलाई बरफ नहीं कि लकडी पकडे चूसते हुए खाते चले गए और उस मलाई- बरफ के रंग से रंगीन हो आए अपने लाल- पीले होठ और जीभ को देखकर तबीयत को हरा- भरा करते रहे, बल्कि यह जीवन के सत्व से निकली बडी महीन विधा है। बडी खतरनाक और बडी असरकारी, बिहारी के दोहे की तरह- 'देखन में छोटन लगे, घाव करे गम्भीर!'
कहानियां लिखती हूं। तो जिन कहानियों के मर्म बडे बेधक होते, उनको व्यंग्य की शैली में लिखने लगी। इसी तरह नाटक भी। व्यंग्य लेख तो लिख ही रही थी। तेज़ी आई, जब अपना ब्लॉग बनाया और उसमें लिखने लगी। 2009 की बात है। तब ब्लॉग लेखन का सिलसिला नया- नया था। हिंदी में टाइपिंग की उतनी सुविधा आई नहीं थी कम्प्यूटर पर। फिर भी, 'मेरी साडी है दुधारी' करती लिखने लगी। मैंने अपने ब्लॉग का नाम ही रखा- 'छम्मकछल्लो कहिस।' इसी शीर्षक से इस ब्लॉग में से स्त्री- विमर्श के व्यंग्य आलेखों का एक संग्रह छपा 2013 में। chhammakchhallokahis.blogspot.com ब्लॉग पर मैं व्यंग्य पोस्ट करती। मेरे ब्लॉग को नोटिस में लिया गया और रवीश कुमार ने भी अपना एक आलेख इस ब्लॉग पर लिखा। 2010 में ब्लॉग पर 'लाडली मीडिया अवार्ड' मेरे ही ब्लॉग से शुरु हुआ और ब्लॉग पर पहला 'लाडली मीडिया अवार्ड' मेरे खाते में आया।
कहानियों का अपना विविध संसार है। शुक्र कि मेरी अन्य कहानियों की तरह मेरी व्यंग्य कहानियां भी शुक्र- शुक्र होती रहीं, शनि की छाया उनपर नहीं पडीं। सभी को उनमें मंगल, बुध, गुरु मिलते रहे। सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कथाकार मुकेश वर्मा ने एक बहुत अच्छा और बेहद महत्वपूर्ण आलेख लिखा मेरी व्यंग्य कथा- 'पेट्स पुराण वाया शील संरक्षण' पर।
फिर तो 'जीवन से न हार जीनेवाले!' लगा कि व्यंग्य कथाएं लिखी जा सकती हैं और अच्छे से लिखी जा सकती हैं। इसतरह से तैयार हुआ है व्यंग्य कथाओं का यह संग्रह- 'बॉस डांस'। इसमें चौदह कहानियां हैं, जो समय- समय पर अलग- अलग पत्र- पत्रिकाओं में छपती रही हैं।
अब यह संग्रह आपके सामने है। इसके पहले व्यंग्य लेखों का संग्रह आया 'छम्मकछल्लो कहिस' शीर्षक से। व्यंग्य नाटक 'प्रेग्नेंट फादर' हिंदी में और मैथिली में 'मदति करू माई' (मदद करो माता) आ चुके हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि 'बॉस डांस' संग्रह में सम्मिलित सभी चौदह कहानियां आपको पसंद आएंगी। इस संग्रह को छापने में इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड के डॉ. सजीव कुमार ने अपना अप्रतिम सहयोग देकर व्यंग्य कथा- लेखन की ओर भी अपना ध्यान दिया है। इसके लिए मैं उनकी और इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड की पूरी टीम की आभारी हूं। 'बॉस डांस' पर आपकी राय की प्रतीक्षा रहेगी। क्या समझे बॉस!
विभा रानी
मुंबई
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Boss Dance - INDIA NETBOOKS indianetbooks
विभा रानी
सूची:
1 चिराग
2 आबहु राम चौका चढ़ि बैठहु!
3 शादी डॉग बाइट और खाकी पैंट
4 आओ रानी हम ढोएंगे पालकी
5 सफेद मोर के पंख
6 पेट्स पुराण वाया शील संरक्षण
7 चुनमुन की पाठशाला
8 सबही नचावत राम गोसाईं
9 शब-ए-माहताब में
10 बस जी दो रोटी के लिए
11 रंडागिरी
12 आया शाहरुख, उड़ गया शाहरुख
13 बॉस डांस
14 गाय
15 अवाम-ओ-खवास
16 ओ- खवास
व्यंग्य की सुरती से जीवन की भांग तक है तरह- तरह के डांस!
सुरती कभी खाई नहीं। भांग कभी चढी नहीं। चढ गई ज़ुबान पर एक धार जो कब अपने आप व्यंग्य बनती चली गई, इसकी छानबीन का काम मेरा नहीं। अपन तो बचपन में सभी की नकल करते, परसाई जी की गुड की चाय पीते- पढते समझने लगे थोडा बहुत कि ‘मार कटारी मर जाना, ये अंखिया किसी से मिलाना ना!’ हिमाकत देखिये कि ‘इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर’ पढते हुए और उसके बाद शरद जोशी के नवभारत टाइम्स में छपते ‘प्रतिदिन’ कॉलम का सबसे पहले पारायण करते हुए व्यंग्य को थोडा बहुत समझने लगे। थोडा- थोडा लिखने लगे तो मजा आने लगा। बोलने में भी व्यंग्य की एक छौंक लगने लग गई। साथी- सहयोगी वाह- वाह कर उठते तो अपने को अपनी कलम और घुटने में बस रहे दिमाग पर बडा फख्र होने लगता।
लेकिन, जल्द ही अपनी समझदानी में अकल का साबुन घुस गया और आंखों में अपना झाग भरकर बता गया कि मोहतरमा, व्यंग्य एक बेहद गम्भीर विधा है, लकडीवाली मलाई बरफ नहीं कि लकडी पकडे चूसते हुए खाते चले गए और उस मलाई- बरफ के रंग से रंगीन हो आए अपने लाल- पीले होठ और जीभ को देखकर तबीयत को हरा- भरा करते रहे, बल्कि यह जीवन के सत्व से निकली बडी महीन विधा है। बडी खतरनाक और बडी असरकारी, बिहारी के दोहे की तरह- ‘देखन में छोटन लगे, घाव करे गम्भीर!’
कहानियां लिखती हूं। तो जिन कहानियों के मर्म बडे बेधक होते, उनको व्यंग्य की शैली में लिखने लगी। इसी तरह नाटक भी। व्यंग्य लेख तो लिख ही रही थी। तेज़ी आई, जब अपना ब्लॉग बनाया और उसमें लिखने लगी। 2009 की बात है। तब ब्लॉग लेखन का सिलसिला नया- नया था। हिंदी में टाइपिंग की उतनी सुविधा आई नहीं थी कम्प्यूटर पर। फिर भी, ‘मेरी साडी है दुधारी’ करती लिखने लगी। मैंने अपने ब्लॉग का नाम ही रखा- ‘छम्मकछल्लो कहिस।’ इसी शीर्षक से इस ब्लॉग में से स्त्री- विमर्श के व्यंग्य आलेखों का एक संग्रह छपा 2013 में। chhammakchhallokahis.blogspot.com ब्लॉग पर मैं व्यंग्य पोस्ट करती। मेरे ब्लॉग को नोटिस में लिया गया और रवीश कुमार ने भी अपना एक आलेख इस ब्लॉग पर लिखा। 2010 में ब्लॉग पर ‘लाडली मीडिया अवार्ड’ मेरे ही ब्लॉग से शुरु हुआ और ब्लॉग पर पहला ‘लाडली मीडिया अवार्ड’ मेरे खाते में आया।
कहानियों का अपना विविध संसार है। शुक्र कि मेरी अन्य कहानियों की तरह मेरी व्यंग्य कहानियां भी शुक्र- शुक्र होती रहीं, शनि की छाया उनपर नहीं पडीं। सभी को उनमें मंगल, बुध, गुरु मिलते रहे। सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कथाकार मुकेश वर्मा ने एक बहुत अच्छा और बेहद महत्वपूर्ण आलेख लिखा मेरी व्यंग्य कथा- ‘पेट्स पुराण वाया शील संरक्षण’ पर।
फिर तो ‘जीवन से न हार जीनेवाले!’ लगा कि व्यंग्य कथाएं लिखी जा सकती हैं और अच्छे से लिखी जा सकती हैं। इसतरह से तैयार हुआ है व्यंग्य कथाओं का यह संग्रह- ‘बॉस डांस’। इसमें चौदह कहानियां हैं, जो समय- समय पर अलग- अलग पत्र- पत्रिकाओं में छपती रही हैं।
अब यह संग्रह आपके सामने है। इसके पहले व्यंग्य लेखों का संग्रह आया ‘छम्मकछल्लो कहिस’ शीर्षक से। व्यंग्य नाटक ‘प्रेग्नेंट फादर’ हिंदी में और मैथिली में ‘मदति करू माई’ (मदद करो माता) आ चुके हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि ‘बॉस डांस’ संग्रह में सम्मिलित सभी चौदह कहानियां आपको पसंद आएंगी। इस संग्रह को छापने में इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड के डॉ. सजीव कुमार ने अपना अप्रतिम सहयोग देकर व्यंग्य कथा- लेखन की ओर भी अपना ध्यान दिया है। इसके लिए मैं उनकी और इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड की पूरी टीम की आभारी हूं। ‘बॉस डांस’ पर आपकी राय की प्रतीक्षा रहेगी। क्या समझे बॉस!
विभा रानी
मुंबई
समर्पण
––––––––
उन तमाम संगतियों, विसंगतियों के नाम
जिन्होंने व्यंग्य लिखने का ककहरा दिया।
चिराग
––––––––
श्री सूरजमल साह वल्द रूपमल साह पो. मु. मधुबनी, जिला मधुबनी राज्य बिहार के बड़े मातबर व्यक्ति हैं। स्व. रूपमल साह के ससुर के बाप यानी सूरजमल साह के नाना के बाप यानी परनाना झुनकी साह को अंग्रेजों ने ‘रायबहादुर’ का खिताब अता किया था और तभी से वे निहायत खानदानी बादशाह में तब्दील हो गए थे। उनकी सदाशयता, अतिथिपरायणता के किस्सों की गुलाबी-पीली गंध गुलाब और हरसिंगार की तरह हवा में फैली और जिले की तमाम रियासत को चीरती इस मुहल्ले में भी पसर गई। न केवल पसर गई, बल्कि सभी के दिमाग की एक कोठरी में रिजर्व भी हो गई। इसकी तस्दीक इस रूप में की जा सकती है कि आज तक उस एक बात को वहां का निहायत ही ताज़ातरीन नौनिहाल भी कह देगा कि जब रायबहादुर साहब के यहां एक व्यक्ति पहुंचा तो रायबहादुर साहब ने नमरी (सौ के नोट) की गड्डियों को जलाकर अपने हाथों से चाय तैयार करके पिलाई थी। अब इस मिथक को मिथक ही रहने दिया जाये तो बेहतर, वरना जन्नत में बैठे रायबहादुर साहब और उनके नेकबंदों को तकलीफ होगी और वे वहीं से जार-जार रोना शुरू कर देंगे तो ऊपर भी बाढ़ आ जाएगी। अब कौन पूछे उनके उन नेकबंदों से कि आपके रायबहादुर साहब इतने बड़े आदमी और उनके घर में इतनी गरीबी कैसे कहर बरपा गई कि उनके घर से किरासिन, कोयला, लकड़ी (उस समय गैस नहीं थी) सब कुछ भुक्खड़ के घर से दाने की तरह गायब हो गया था। छोडि़ए, ऊपरवाला उनकी आत्मा को शांति दे।
खुदा की ऐसी मार पड़ी कि रायबहादुर साहब इकलौती बेटी के पिता होकर मरे। अब उस इकलौती की कोख तो तीन बार आबाद हुई। मगर फसलें बेटियों के रूप में ही आईं। और खुदा झूठ न बुलवाए कि तब से जो सिलसिला चला तो ऐसा कि उन तीनों बेटियों के घर में भी खुदा ने रहम कर के दो-दो तीन-तीन के हिसाब से बेटियां भेजनी शुरू कर दीं। शायद उन्होंने कहा होगा कि ‘ऐ नेकबंदो, जब तुम्हारे नाना नमरी जलाकर मेहमान को चाय पिला सकते हैं तो जा! तू सब भी उस नमरी से दामाद रूपी जीवों को खरीद ला और उनसे अपनी-अपनी बैठकें सजा ले।
तो इस तरह रायबहादुर झुनकी साह की लाड़ली बेटी की कोरपोछू श्रीमती राजकिशोरी देवी ने भी अपनी गोद दो लड़कियों से आबाद की। ‘खिलाओ भाभी हलवा बेटा हुआ है’, जैसे बधावों को बेटियों की छठी में ही गाकर नाईन, डगरिन नेग ले गई तो श्रीमती राजकिशोरी देवी के मन में बेटे की साध की ऐसी ललक उठी कि उन्होंने झट दुर्गा माई को मन्नत मान दी कि ‘ऐ शक्ति की देवी, तू अपनी शक्ति दिखा और मेरी कोख में बेटे का बीज डाल। तुझे सोने की जोडी आंख चढ़ाऊंगी। तब तू इसी आंख से सबको देखना।‘ इससे यह पता चला कि देवी को आप चाहें तो केवल एक ही आंख चढाकर उन्हें कानी आंखोंवाली बना सकते हैं या उन्हें सभी को ‘एक नज़र’ से देखनेवाली क अमान-सम्मान दे सकते हैं.
तो इस अर्जी पर या सोने की जोडी आंखों के लालच में (सामने होती तो पूछा जाता) दुर्गा माई ने उस राजकन्या उर्फ राजमाता यानी कि श्री रूपमल साह की धर्मपत्नी श्रीमती राजकिशोरी देवी की अर्जी पर सुनवाई कर ली। संयोग से दुर्गा माई उसी दिन महिषासुर का वध करके लौटी थीं। सोने की दमक से चुंधियाई आंखों ने उनकी कोख को देख लिया। पर देवी तो महिषासुर का वध करके लौटी थीं न, सो उसकी वह भयानक सूरत, उसका खूंखारपन अपने मन से उतार न पाई थीं। महिषासुर मरा तो क्या, भूत की तरह देवी के पीछे लगा रहा और राजदुलारी के आवाहन पर उनकी कोख की वैतरणी पार कर गया।
बस, बस, बस! कहानी यहीं से शुरू होती है। राजकिशोरी देवी ने इस बार सभी को भरपेट हलुवा खिलाया और सवा मन लड्डू के साथ दुर्गा माई को ठोस एक-एक तोले सोने की जोडी आंखें भेंट चढ़ाईं। सोने की तरह ही बेटा चमकने लगा और बड़े दुलार से, बड़े आराम से सेब का हलुआ खिला-खिलाकर पोसा जाने लगा। बड़े उल्लास से माता ने नामकरण किया सूरज ताकि बेटा सूरज की तरह ही तेज तापवाला बनेगा।
और बेटा तेज तापवाला ऐसा बना, कि भस्मासुर की तरह शिवजी के माथे पर हाथ रखने को उतावला हो गया। लाड़ की चाशनी में डूबा और नखरों के अडि़यल घोड़े पर सरपट भागता सूरज जेठ की धूप हो गया। राय बहादुर झुनकी साह का परनाती सूरजमल साह अब सेठ सूरजमल साह और उससे भी आगे बढ़कर सेठ जी कहलाने लगा।
सेठ सूरजमल साह की बाकी अदाएं इतनी प्यारी हुई कि वे मोहल्ले और शहरों को काटते हुए पूरे राज्य में फैल गई। सेठ के हर गुण इनमें इतनी आसानी से समा गए जैसे मक्खन में चाकू। लगता था सेठ सूरजमल इसी सेठी के लिए ही जनमे थे। उनका जन्म यहां नहीं हुआ होता तो कहीं नहीं हुआ होता। आखिर इतने तेज ताप को सहन करने का जिगर भी हो होना चाहिए।
हर अच्छे संस्कारी सेठ की तरह सेठ सूरजमल ने भी हाई स्कूल की परीक्षा पास नहीं की। कर लेते तो फिर उनमें और जी तोड़कर मेहनत करने वाले खाकसारों के खाक जैसे बच्चों में फर्क ही क्या रह जाता! बचपन में मां को कुत्ती, साली, हरामजादी कहते थे जो लड़कपन की निशानी मानी जाती थी। हर बार के इस प्यारे सम्बोधन से मां उतनी ही गुदगुदा उठती थी, जितना श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं को देखकर माता यशोदा गदगद हो जाया करती थीं। वे बेटे के श्रम से लाल हो गए मुखड़े को चूम-चूम कर वारी-वारी जातीं। धीरे-धीरे जबान पर चढ़े ये मृदु सम्बोधन सिर्फ मां ही नहीं, पत्नी, बहन, दूधवाली, सब्जीवालियों पर भी चस्पां होने लगे।
रायबहादुर के खानदान में पतुरियों का नाच एक उनकी प्रतिष्ठा की सबसे बड़ी नाक थी। किसी का जन्म हो, शादी हो और रंडी न नाची तो वह उत्सव ही क्या हुआ! वैसे ही, जैसे विवाह-मंडप में सब विधि हो जाए और सिंदूरदान ही न हो तो भला वह शादी हुई!
खानदान की इस परम्परा के तेल में और बढ़ोत्तरी इनके जन्म के समय से ही हो गई थी। जब ये पैदा हुए थे तब भी रंडी नाची थी और ‘बधावा लाई अंगना हो मोरे राजा’ से लेकर ‘गोदी में मोहे भर लीना’ तक सारे गीत कमर मटकाते हुए गा आई थी। अब वे रंडियां सोलह वर्षीय अंकुराते जवान की फूटती मसों पर कुर्बान होतीं पाउडर की तहों और लिपिस्टिक पुते होठों के भीतर से फटे बांस सी आवाज और पुए के घोल जैसे थलथलाते बदन से गाना शुरू करती थीं-‘चल-चल रहरिया के खेत, हीरवा हेने आव’ तो उनका हीरू अपनी जेब के सारे हीरे-मोती पुए के घोल पर उलीच देता और उसके दलकते शरीर को मुट्ठी में भर-भरकर देखने की कोशिश करता। आलाप चलते रहते –‘जब मैं हो गई सोलह बरस की।’
अब घर में बेटियों की पैदाइश का डर नहीं रह गया था। राजकिशोरी देवी ने तो दो बेटियों के बाद सूरजमल को जन्म दिया था, मगर उनकी वसंत-सेना-सी पुत्रवधू ने पहली बार ही में सास को पोते का मुंह दिखा दिया तो वे अपनी बहू पर सौ-सौ जान से कुर्बान हो गईं। पिता ने भर परात सिक्के लुटाए और दरिद्रनारायण को भोजन कराया। रात में उन ‘दरिद्रनारायणों’ को भी दावत दी, जो खाने के नाम पर ‘सिलेक्टेड’ चीजें ही पीते-खाते थे।
कहते हैं कि कुत्ते की दुम और आदमी के स्वभाव में बड़ी समानता होती है। इसकी दुम टेढ़ी तो टेढ़ी ही। कुछ ऐसा ही होता है आदमी भी। मां-बहन को गालियों का नौलखा हार पहनानेवाले सूरजमल के लिए पत्नी निहायत सियासती चीज थी। मां-बहन के लिए जो अब तक निषिद्ध कर रखा था, उसका एकाधिकार पत्नी के लिए सुरक्षित हो गया। वे कहा करते, सांढ को वश में करने के लिए उसकी देह दाग दी जाती है। लुगाई को भी ऐसे ही काबू में रखना पड़ता है, नहीं तो वह ‘चढ़बांक मौगी’ होकर माथे पर मूतेगी। सो बसुमति रानी की देह आए दिन नीले-लाल दागों से भरी दिखाई देने लगी।
सूरजमल के चरणकमल कुछ और भी पुण्यलाभ बटोरने के लिए आगे बढ़े। ‘घर की घरनी सब दिन करनी’। असली मजा तो दूसरों के बाग से फूल चुराने में है। जहां मौका देखो, करो। कभी चोरी कर ली, कभी पत्ता साफ कर लिया। कभी नैनसुख तो कभी परमसुख से ही काम चला लिया। मुहल्ले की कोई लड़की ऐसी नहीं बची जो उनके नैन या परस से बची रह गई हो। वे ऐसे शेर बन गए थे, जिसे आदम खून का चस्का लग गया था। इनके मुंह ने अछूते यौवन का स्वाद जान लिया था और इसके लिए वे मुहल्ले से लेकर प्रसिद्ध पतुरियाखाने तक भी पहुंचने लगे, नथ उतार-उतार कर पुण्यलाभ कमाने लगे।
दुर्गामाई की उपासना से उनका अवतार हुआ था। सो स्वभावत: दुर्गा माई के परमभक्त हो गए। हर दशहरे में मोहल्ले के सभी मातबरों से काफी आगे बढ़कर चन्दा देते और पंडाल पर वर्चस्व जमा लेते। पंडितों की जिह्वाएं मंत्रोच्चार कम, चाटुकारिता अधिक करने लगतीं। महानिशा पूजा में खुद ढाक बजाते, छप्पन व्यंजन का भोग उन्हीं के यहां से बनकर आता। दशमी को दुर्गा के डोले को स्वयं कंधा देते। स्वाभाविक रूप से पहली जयंत्री उनके माथे पर रखी जाती। शांतिजल का छिड़काव पहले उन्हीं पर होता।
शक्ति की पूजा करके भी आजन्म रहे परम वैष्णव। अंडा और मुर्गा तो विधर्मियों का भोजन था, परम शुभदायिनी मछली भी उनके रसोई को शुभ से इंगित करने नहीं आ पाती थी। पत्नी बिचारी खाए-पिए परिवार से थीं। मांस-मछली के बिना उनका जी जल बिनु मीन की तरह अकुलाता रहता। अब लो जी। पत्नी की इच्छा के अनुसार घर का खानपान बदल जाए तो सीता की रसोई राम का भंडार न हो जाए? पत्नी की इच्छा के पंछी के पांख कतरने के लिए होते हैं, उडान भरने देने के लिए नहीं! पर, होशियार! सावधानी से, ऐसे कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।
हुआ यों कि उनके घर गुरु महाराज पधारे। लोक-परलोक तब तक सुफल नहीं होता है जब तक ‘गुरु मंत्र’ न लिया जाए। देह पवित्र नहीं हो पाती और अपवित्र देह लेकर परलोक कैसे जाया जा सकता है? सो शरीर को पवित्र और परलोक सुख को रिजर्व कराने के लिए भव्य आयोजन हुआ। दो बड़े-बड़े परातों में काजू-किशमिश-छुहारे-बादाम भरे गए। चांदी की एक बड़ी सी थाली में अलग से यही सामग्रियां, तदनन्तर पुष्प-अक्षत एवं अन्य पूजन सामग्री। उस दिन तीनों बाजेवाले आए थे– रसनचौकी, चमरुआ और अंग्रेजी बैंड। लाउडस्पीकर भी ‘जोबना से चुनरिया खिसक गई रे....’ गाता रहा था।
संध्या समय नव-वस्त्र में सुशोभित दिव्य व्यक्ति के रूप में उतरे सेठ सूरजमल जी। मोहल्ली ही नहीं, नगर की सारी स्त्रियां जुटी हुई थीं। बच्चों का प्रवेश निषिद्ध था। कारण, वे बड़ा शोर करते हैं और भला बच्चे समझेंगे भी क्या? स्त्रियां ही तो हैं जो धर्म के मर्म को अलजेबरा की तरह फटाक से समझ लेती हैं।
गुरु महाराज ने आदेश दिया- ‘अर्धांगिनी को भी बुला। बिना उसके दीक्षित हुए तू पूर्ण दीक्षित नहीं हो गुरु महाराज पाएगा।‘
पत्नी आई गले तक घूंघट में। श्रद्धा से पूरी देह कमान करके चरण स्पर्श किया। गुरु महाराज के आशीर्वाद का हाथ सिर से क्रमश: नीचे उतरता गया और एक जगह आकर क्षणभर रुका, दबाव बढ़ा और फिर अलग हो गया। अच्छा हुआ कि बसुमति रानी का मुखड़ा घूंघट में था। नहीं तो पता नहीं उनके चेहरे के बदलते रंग को देखकर नगर भर से जुटी हुई स्त्रियां क्या- क्या अनुमान लगातीं। मंथरा होते भला उन्हें देर लगती है!
गुरुदेव ने कंधे पर स्पर्श के दबाव को बढ़ाते हुए पूछा था– ‘बेटी, तामसी भोजन भी ग्रहण करती है?’
वसुमति रानी ने तो कुछ नहीं कहा, पर पतिदेव ने स्वीकार में सिर हिला दिया।
‘पापं नाशं, पापं नाशं....’ गुरुदेव का हाथ कंधे पर और कसा- ‘बेटी, क्यों स्वभाव के विपरीत कार्य करती है। यह कोमल शरीर वैसे अखाद्य पदार्थ को सहन कर लेता है?’ दबाव और बढ़ा ‘बेटी। इसे छोड़ सकेगी? छोड़ दे। मन को संयम में रख। संयम से बड़े-बड़े दुर्गुण दूर हो जाते हैं।’ कंधे पर हाथ कस गए। गुरु महाराज के हाथों की उंगलियां सांप की जीभ की तरफ फनफनाकर नीचे को लटक गईं. उंगलियों ने सर्प-दंश सी ही चपलता दिखाई और उतनी ही चपलता से विष वमन किया और उतनी ही चपलता से उंगलियां मुट्ठ्ही के खोल मैं जा समाईं।
वसुमति रानी लाज और संकोच से कठुआती रही। पतिदेव वचनों से आप्त होते रहे। स्त्रिगण गुरु की महानता से गदगदाती रहीं –‘कितने शीलवान हैं। बेटी छोड़कर और कुछो कहबे नहीं करते थे।’
इस प्रकार उनके घर के तामसी भोजन का पटाक्षेप हुआ। सेठ सूरजमल वैष्णव होकर समाज के उस वर्ग की सेवा करने लगे, जिन्हें कोई नहीं पूछता था। लक्ष्मी तो भूले से भी उधर न झांकती। फिर भला सरस्वती रूपी अमरबेल भी लक्ष्मी रूपी पीपल के बिना कैसे चढ़ती। हां, बीच-बीच में देवी भैरवी जरूर महानिशा बनकर उनके घरों में धमकती रहीं। सेठ सूरजमल के पिचके पेट पर मांस की परत दर परत चढ़ती रही, अपने पावने के एवज में। वे गाज गिराती रहीं, सूरजमल प्रचंड सूर्य का ताप फैलाते रहे।
उम्र की बढ़त के साथ-साथ सेठ सूरजमल की रसिकता भी बढ़ी या नहीं, यह तो ऊपरवाला ही जाने। पर अचानक लोगों ने सुना, सेठानी ने धतूरे के बीज खा लिए। मुहल्ला सकते में आ गया। सेठ जी ने तमाम घरेलू उपाय किए। नमक का घोल पिलाकर उल्टी कराई। जान तो बच गई, पर सेठ जी ने इतने नील उनके बदन पर उभार दिए कि वह फिर से धतूरा खाने का शंकरत्व भूल बैठी और गर्व से बताने लगी –‘ई तो सामरथ की बात है कि लोग दो-दो लुगाई रख सकें।’
सरकार के शंतरजी नियम की बिजली तो सर्वहाराओं के ऊपर गिरती है। सेठ सूरजमल न तो सर्वहारा थे, न सरकार के प्यादे कि जिनकी बिना पहली पत्नी को तलाक दिए दूसरा ब्याह रचाने के जुर्म में सजा-दरयाफ्त की जाती। वे चौकी के मसनदों को दाएं-बाएं बदलते रहे। पटना- मधुबनी, मधुबनी- पटना करते रहे।
सेठ सूरजमल परम्परागत आदमी थे। कानून उनकी नजर में बच्चों की सीटी था। चौकी के मसनदों को दाएं-बाएं बदलते हुए उन्नीस वर्षीय बेटे का विवाह पांच लाख नकदी, तीस तोला सोना, एक एम्बेस्डर गाडी और दो लाख का अतिरिक्त सामान लेकर इस धूमधाम से किया कि पूरा शहर श्रीमान चकितलाल होकर रह गया। फिर से खानदानी हवाला हुआ। फिर से पतुरियाएं आईं और मांस का थलथलाता पिंड इस बार बेटे की गोद में गिरता रहा –‘राम तेरी गंगा मैली हो गई।’
खलबली में खलबली एक और हुई। पटना मधुबनी इस विवाह में एक ही आंगन में, एक ही सायबान तले इकट्ठी हो गईं। लोगबाग में सनसनी फैल