Behta Kala
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उत्तर प्रदेश के उन्नाव और रायबरेली जनपदों के मध्य में बसे बैसवाड़ा क्षेत्र के ग्राम "बेहटा कलाँ" नामक यह रचना कथा साहित्य के नये गवाक्ष खोल रही है जहाँ पर उपन्यास किस्सागोई तथा रिपोर्ताज सब एक साथ उपस्थित हैं। नारी जीवन की संवेदना के समाजशास्त्रीय शोध की सुगंध भरी इस रचना की नायक अन्नपूर्णा गज़ब की महिला है जो पानी की तरह तरल मृदुल और सहनशील है तथा किसी भी बाधा को पार करना जानती है। परिवार की सेवा के प्रति समर्पण ही जिसका जीवन है- सर्वथा मौन ही जिसकी भाषा है- संत्रास जिसका दामन कभी नहीं छोड़ता। उसका जीवन विगत शताब्दी के खानदानी, संस्कारी परिवारों की चित्र वीथिका है।
बेहटा कलाँ में बैसवाड़ा की बोलचाल, भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाज,कहावतें, मुहावरे सब कुछ प्रतिबिंबित और प्रवाहित है। लेखकीय वैदुष्य के कौतुक कहीं नहीं हैं। शब्दावली तो गौर-तलब है। उतरते-उभरते शब्द प्रतीक कहीं पर तो बेहद कोमल और रेशमी हैं तो कहीं पर खुरदुरी खादी के जैसे भी लगते हैं।
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बेहटा कलाँ
इंदु सिंह
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हमसफ़र रवि के लिए
अवसि बांचिये, बांचन जोगू
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उत्तर प्रदेश के उन्नाव और रायबरेली जनपदों के मध्य में बसे बैसवाड़ा क्षेत्र के ग्राम बेहटा कलाँ
नामक यह रचना कथा साहित्य के नये गवाक्ष खोल रही है जहाँ पर उपन्यास किस्सागोई तथा रिपोर्ताज सब एक साथ उपस्थित हैं। नारी जीवन की संवेदना के समाजशास्त्रीय शोध की सुगंध भरी इस रचना की नायक अन्नपूर्णा गज़ब की महिला है जो पानी की तरह तरल मृदुल और सहनशील है तथा किसी भी बाधा को पार करना जानती है। परिवार की सेवा के प्रति समर्पण ही जिसका जीवन है- सर्वथा मौन ही जिसकी भाषा है- संत्रास जिसका दामन कभी नहीं छोड़ता। उसका जीवन विगत शताब्दी के खानदानी, संस्कारी परिवारों की चित्र वीथिका है।
बेहटा कलाँ में बैसवाड़ा की बोलचाल, भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाज,कहावतें, मुहावरे सब कुछ प्रतिबिंबित और प्रवाहित है। लेखकीय वैदुष्य के कौतुक कहीं नहीं हैं। शब्दावली तो गौर-तलब है। उतरते-उभरते शब्द प्रतीक कहीं पर तो बेहद कोमल और रेशमी हैं तो कहीं पर खुरदुरी खादी के जैसे भी लगते हैं। सारांश यह कि बेहटा कलाँ
अभिव्यक्ति और अनुभूति की संवेदना का ऐसा स्वरूप है जिससे हिंदी कथा साहित्य में कुछ नया सा जुड़ गया है। अवसि बांचिये, बांचन जोगू।
रमेश सिंह, उन्नाव
(राष्ट्रपति द्वारा शिक्षक पुरस्कार से सम्मानित)
रचना के विषय में
तेजस्वी युवा कवयित्री एवं कथाकार इंदु सिंह का पहला उपन्यास है ‘बेहटा कलाँ’ जो ‘लमही’ के जुलाई-सितम्बर 2018 के अंक में प्रकाशित होकर सुधी पाठकों के बीच ख़ूब चर्चित हुआ था। यह उपन्यास बैसवाड़े के एक गाँव की स्त्री अन्नपूर्णा के संघर्ष और व्यथा की जीवन गाथा है,जो एक क्षत्रिय परिवार से ताल्लुक रखती है। अपने जीवन के अंतिम समय में आकर अन्नपूर्णा स्मृतिलोप का शिकार हो जाती है। ‘बेहटा कलाँ’ दरअसल स्त्री विमर्श के तल्ख़ नुक्तों की एक ऐसी ज़बर्दस्त गाथा है जिसमें इंदु सिंह ने अन्नपूर्णा को केंद्र में रखकर चार पीढ़ियों का कच्चा-चिट्ठा बखूबी प्रस्तुत किया है।
स्त्रियों का शोषण किसी एक व्यक्ति की समस्या नहीं है। स्त्रियों का शोषण संस्थाबद्ध तरीक़े से शताब्दियों से पुरुषों द्वारा होता रहा है। चाहे वह सवर्ण समाज हो या दलित समाज, दोनों में स्त्रियों का शोषण समान रूप से प्रचलित है। साथ ही स्त्रियों का शोषण किसी एक समाज तक प्रचलित अवधारणा या घटना नहीं है। स्त्री का शोषण पूरे विश्व में, लगभग प्रत्येक समाज में अबाध और सामान रूप से प्रचलति है। इंदु सिंह का ‘बेहटा कलाँ’ बैसवाड़े के गाँव, वहाँ की सामाजिक संरचना एवं परिवेश को जिस ख़ूबी से उकेरता है, उसे कथा लेखिका अपने सभी चरित्रों और छोटी-छोटी घटनाओं-परिघटनाओं और उनके विवरण से जिस तरह दर्ज करती हैं उससे उपन्यास न केवल पठनीय बल्कि महत्त्वपूर्ण भी हो जाता है। इस उपन्यास में जो क़िस्सागोई है वह इंदु को विरासत में मिली है। पूरे कथानक के ताने-बाने को इंदु ने बड़े करीने से बुना है। इंदु सिंह जिस ओर अपने पाठकों का ध्यान आकर्षित करना चाहती हैं वह हमारे समय का वास्तविक यथार्थ है। ‘बेहटा कलाँ’ के आख्यान को इंदु ने सहज,सादगी और सूक्ष्म संवेदन के साथ प्रस्तुत किया है जो हमारी चेतना को बौद्धिक रूप से स्पंदित करता है ।
कुल मिलाकर यह कहने में मुझे कतई कोई संकोच नहीं है कि इंदु सिंह के इस पहले उपन्यास को पढ़कर उनसे किसी कालजयी रचना की उम्मीद कर सकता हूँ। ‘बेहटा कलाँ’ उनका मास्टर स्ट्रोक नहीं है। वह आना अभी शेष है।
शुभकामनाओं के साथ
-विजय राय
बेहटा कलाँ
वृहत् चहारदीवारी के भीतर, घर के ठीक आगे बायीं ओर, नीम का घना पेड़ चुपचाप खड़ा था। पहाड़ी कौवे से लेकर गौरैया, मैना और गिलहरियों का वो घर था। चिड़ियों की बातें पत्तों के बीच से फूटतीं थीं। उन बातों को सुनकर कुछ पत्तियाँ शरमा जाती थीं। कुछ झड़ने लगती थीं।
इसी नीम के पेड़ के दायीं ओर, मज़बूत बल्लियों के साथ खड़ा एक छप्पर पड़ा था। छप्पर की छत को बाँस, लग्घी और पतवार ने मज़बूती दे रखी थी। छप्पर के नीचे चारपाइयाँ पड़ी होती थीं।
शाम होते ही चारपाइयाँ छप्पर के नीचे से नीम के पेड़ के पास आ जातीं। नीम के पेड़ के चारों ओर, गोल घेरे में चिकनी मिट्टी की चरही बनी हुई थी। दिन भर चरने के लिये गये हुये मवेशी भी शाम होते ही उस चरही पर लाकर बाँध दिये जाते थे। एक तरफ़ पक्षियों का कलरव गूँजता, तो दूसरी ओर घर-परिवार के लोग चारपाइयों पर जमावड़ा लगा लेते थे।
दिन भर के थके मवेशी नीम के नीचे आराम कर रहे होते और चारपाइयों से हुक्के की गुड़गुड़ दूर तक सुनाई देती।
तम्बाकू की गंध, मवेशियों के चारे की गंध के साथ घुल चुकी होती। लकड़ी की दो आराम कुर्सियाँ थीं, जो बरामदे में रहती थीं और शाम के वक़्त ये भी बाहर आ जातीं थी जिनके लिये बच्चों में हमेशा होड़ रहती कि उन पर कौन बैठेगा। तीन, चार टिन की फोलिं्डग कुर्सियाँ भी थीं जो बिना हत्थे की थीं। उन पर आने-जाने वाले लोग बैठ जाते। ये कुर्सियाँ दिन भर छप्पर के नीचे उन्हीं चारपाइयों पर आराम करतीं थीं, जैसे शाम को थके आये हुये लोगों को इनकी गोद में ही आराम मिलना है।
बाबा चंद्रवीर सिंह अक्सर चारपाई पर बैठते थे लेकिन मेहमान आने पर मेहमान के कद के हिसाब से दोनों का बैठना होता था। दोपहर ढल चुकी थी लेकिन धूप अभी बाक़ी थी। बड़े दरवाज़े के बाहर पंडित जी आते दिखाई दिये। पंडित जी को देखते ही बाबा चारपाई से उठ खड़े हुए। पंडित जी हरि ओम-शिव शम्भु कहते हुए बाबा के पास आ गये। बाबा ने पंडित जी को जय राम जी की पंडित जी, कहकर प्रणाम किया। पंडित जी ने हाथ जोड़कर आशीष देते हुए एक बड़ी चारपाई देखी और उस पर बैठ गए। बाबा ने बड़ी वाली कुर्सी को चारपाई के पास खींचा और पंडित जी को दोबारा प्रणाम किया। पास खेल रहे बच्चे को बुलाकर बाबा ने कहा घर में जाकर बता दो कि पंडित जी आए हैं, कुछ पानी-पत्ता लेकर आयें। बच्चा झट से घर के अंदर गया और एक स्टील की प्लेट में चार पेड़े और एक लोटा पानी लेकर आ गया।
‘इस बार लगता है ईश्वर ने गाँव की ओर झाँका है। सूखा पड़ने और नदी में बाढ़ आने के सिवा तीसरा अवसर कम ही आता है कि फसलें लहलहाती हों’। ऐसा कहते हुए पंडित जी ने अपने एक पाँव को मोड़कर चारपाई पर रख लिया था। उनकी थकान कह रही थी कि वे कहीं दूर तक का चक्कर लगाकर आये थे। पंडित जी चारों पेड़े खा गये, ये कहते हुये कि बाबा आपके घर के पेड़ों की बात ही अलग है। बाबा ने घर के अंदर की तरफ़ देखकर ज़ोर आवाज़ में कहा, पंडित जी के लिये चाय बनवाकर भेजो।
फ़सलों से आरम्भ हुई चर्चा गाँव के सब काम-काजों से होती हुई सिमट कर वापस उसी घर तक आ गयी जिसके दरवाज़े वे लोग बैठे थे। पंडित जी के लिये स्टील के ग्लास में चाय आ गयी। काँच के कप उनके लिये शुद्ध नहीं होते थे, इसलिये जब भी पंडित जी आते, उनके लिये सिर्फ़ स्टील के बर्तनों में ही नाश्ता दिया जाता। घर में नया सदस्य आने वाला है ये समाचार सुनते ही पंडित जी ने मुसकुराते हुए कहा ठाकुर साहब बेटा हो कि उम्र भर धान की डहरी भरी रहे। बेटी हुई तो समझना कि वह अन्नपूर्णा होगी। सबके काम उसी के हाथ से सँवरेंगे।
पंडित जी के कहे यह शब्द सुनकर सभी चेहरों पर ख़ुशी की लहर लहराने लगी थी।
पंडित जी गर्म चाय को फूँक मारकर सुड़कते हुये बोले, बहुत बढ़िया चाय बनायी है, पीते ही जैसे सारी थकान उतर गयी। ठाकुर साहब, भगवान जी की कृपा सदा तुम पर बनी रहे; कहकर पंडित जी ने विदा ली।
इस बात के ठीक सात दिन बाद ही चंद्रवीर सिंह के घर में किलकारी गूँजी। दाई ने आकर बताया कि बरात आयी है
। उसकी आवाज़ में छिपी दबी उदासी थी, लेकिन बाबा के चेहरे पर प्रसन्नता की लकीरें थीं। हालाँकि इस प्रसन्नता से हर कोई शंकित था लेकिन दोपहर को नीम के नीचे चारपाइयों पर जमा परिवार वालों से बाबा ने कहा ये अन्नपूर्णा आयी है। इसका नामकरण तो जन्म से पहले ही पंडित जी कर गये हैं।
वह सचमुच अन्नपूर्णा ही थी। उसके जन्म के पश्चात् पूरा घर-परिवार खेती-गृहस्थी में ऐसा रमा कि कभी कोई चिंता, कोई परेशानी न रही। अन्नपूर्णा आँगन में दौड़ने जितनी हो गयी थी। पूरा घर-आँगन अन्नु की घूंघरू लगी पाजेब की छुन-छुन से गूँजता रहता। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें और मीठी आवाज़ हर थकन को मिटा देती थी। जिस किसी को भी फ़ुरसत मिलती वह उसे खोजता हुआ आवाज़ लगाता रहता अन्नु! अन्नु कहाँ है?
अन्नु की ज़िंदगी में चुटकी भर बचपन और मनभर की किशोरावस्था रही। बचपन बहुत स्नेह से भरा हुआ था। वह हँसती थी, गाती थी। एक लंबी फ़्रॉक पहने, फ़िल्में देखने की शौकीन लड़की का कद पाँच फीट ऊँचा निकल आया था। फ़िल्में देखने का शौक़ उसे अपने बड़े भाई से मिला था। कभी भाई के साथ, तो कभी अपनी सहेलियों के साथ, वो फ़िल्में देख लिया करती थी। सिनेमा देखना उन दिनों अच्छा नहीं माना जाता था लेकिन जब कभी सती अनुसुइया जैसी पिक्चर लगती थी तो अन्नु और भईया को भी फ़िल्म देखने की इजाज़त मिल जाती थी। कहीं भी संगीत बज रहा होता तो अन्नु के पैर थिरकने लगते थे, साथ ही उसके दोनों हाथों की चुटकियाँ भी बजने लगती थीं। उसके अधरों पर गीतों के मिसरे रखे होते थे। पाँच फीट की छोटी सी अन्नु का रंग गोरा था। उसकी आँखें बड़ी-बड़ी और काली थीं। कमर से लंबे और काली रात से भी घने काले बाल थे। वह पाक कला में निपुण थी साथ ही बुनाई, सिलाई, कढ़ाई और भी जाने क्या-क्या सीख चुकी थी। गाँव भर के सब लोग कहते थे, अन्नपूर्णा सर्वगुण संपन्न है। जिस घर भी जायेगी, वह घर भी सदैव धन-धान्य से भरा रहेगा। अन्नु के पैरों में उसके साथ ख़ुशहाली चलती है।
चैदह बरस की होते ही चंद्रवीर सिंह की लाडली अन्नु, रघुवीर सिंह के घर की बड़ी बहू अन्नपूर्णा हो गयी थी।
चैदह वर्ष की उम्र को तो यह भी नहीं कह सकते कि चैदह सावन देख लिये हों। दस-बारह बरस तो बचपने में ही बीत जाते हैं और जब तक सावन समझने की समझ आये, तक़दीर ने अन्नपूर्णा को गृहस्थी के मौसम के भँवर में उलझा दिया था लेकिन अन्नु भी बहुत बहादुर थी। उसने सोच लिया था कि वह कभी हार नहीं मानेगी। वह एक अच्छी बहू बनेगी।
सावन के आते ही नीम के पेड़ पर पटरे और उबहन का झूला पड़ जाता। झूले पर पोंगें मारने में अन्नु का कोई सानी नहीं था। अन्नु अपनी सहेलियों और बहनों में लम्बाई में सबसे छोटी थी फिर भी झूले में दूसरी तरफ़ चाहे कोई भी होता, पोंगें हमेशा अन्नु की ही सबसे ऊपर जाती थीं। अन्नु ने डरना नहीं सीखा था और यही उसकी सबसे बड़ी ताक़त थी। गृहस्थी के मौसम में कितनी ही ज़िम्मेदारियाँ आयीं लेकिन अन्नु ने अपने हौसलों की पोंगों से सारी ज़िम्मेदारियों को पूरा किया। विवाह के बाद से ज़िम्मेदारियाँ अन्नु के लिये झूले की ही तरह थीं। लगातार पोंगें मारते रहने से ही इन्हें पूरा किया जा सकता था और प्रत्येक ज़िम्मेदारी का पूर्ण हो जाना ही अन्नु के लिये सावन हो जाना होता था। विवाह होते ही तमाम हिदायतों का पालन किस तरह करना है, वह जान चुकी थी।
ससुराल में घर छोटा और परिवार काफ़ी बड़ा था। अन्नु को हर वक़्त लंबा घूँघट भी रखना पड़ता था। ससुराल में कदम रखते ही अन्नु का बचपन बिखर चुका था। हँसो तो ऐसे कि आवाज़ बाहर ना आये और बोलो तो ऐसे कि बस वही सुन पाये जिससे बात की जा रही हो। अन्नु की ज़िंदगी घूँघट के अंदर ही घुटने लगी थी। उसके जीवन में अब, न गीत था न संगीत। सिर्फ़ चूल्हा, रोटी, बर्तन, कपड़े और घर के काम ही अब अन्नु के साथी थे। ससुराल में कोई सहेली भी नहीं थी जिससे अन्नु अपने मन की कोई बात कह सके। धीरे-धीरे अन्नु के सारे शौक़ गृहस्थी की ज़िम्मेदारियों के बीच ख़त्म होते जा रहे थे। रोज़ सुबह तड़के सबके उठने से पहले उठना और देर रात तक सबके बिस्तर पर जाने के बाद ही ख़ुद के बिस्तर तक पहुँचना; यही अन्नु की दैनिक दिनचर्या हो चुकी थी।
अन्नु के पति कैलाश शहर में पढ़ाई कर रहे थे इसलिये वे सिर्फ़ छुट्टियों में ही गाँव आ पाते थे। भरे-पूरे परिवार में नव दंपति को एकांत भी देर रात ही नसीब हो पाता था। उस पर ननदों का भी बड़ा सख़्त पहरा रहता था कि भईया और भाभी को ज़्यादा अकेले नहीं छोड़ना है। अन्नु को सुबह भी जल्दी उठना पड़ता था क्योंकि अगर सुबह-सवेरे दिसा जाने में देर हो जाये तो फिर उसे पूरे दिन घर में भूखा रहना पड़ता था। वो बस शाम का इंतज़ार करती कि कब अंधेरा हो और दिसा के लिये उसे घर से निकल पाने की इजाज़त मिल पाये। अन्नु के मायके से मिली उसकी सभी साड़ियाँ उसकी बड़ी ननद यानी जिज्जी ही पहनती थीं। अपने ही माता-पिता की दी हुई चीज़ों पर भी अपना कोई अधिकार नहीं रह जाता है बेटी का, ये सोचती हुई अन्नु चुप रहती थी। छोटी ननद की शादी में तो हद ही हो गयी। अन्नु के दहेज का सारा सामान यहाँ तक कि उसके बक्से की साड़ियाँ, उसके ज़ेवर तक, सब कुछ ले लिया गया उससे और अन्नु की ननद की विदाई ख़ूब धूमधाम से की गयी। अचानक एक दिन दिल का दौरा पड़ने से अन्नु की सास नहीं रहीं। बस फिर क्या था अब तो अन्नु बीस वर्ष की उम्र में ही अपने दो बच्चों के साथ अपनी उम्र से चार-पाँच साल छोटे देवर की भी माँ हो गई थी, साथ ही अपनी ननदों की भी।
घर की ज़िम्मेदारियों ने अन्नु को ओढ़ लिया था या अन्नु ज़िम्मेदारियों को ओढ़े जा रही थी, कहना मुश्किल था। फिर भी अन्नु बड़े सलीके से सारी ज़िम्मेदारियों को संभालते हुए चलती जा रही थी। कभी भी अन्नु के माथे से पल्लू नहीं खिसक पाया। ससुर भी रिटायर हो गये और अन्नु को बच्चों के साथ एक और बूढ़ा बच्चा भी मिल गया था। ससुर जी समय के बहुत पाबंद थे। मजाल है कि उनके चाय-नाश्ते के समय में पाँच मिनट की भी हेर-फेर हो जाये। अन्नु की सुबह की शुरुआत रात भर भीगे हुये बादामों को पत्थर पर घिसने से होती थी। रोज़ सुबह ससुर जी सिल पर घिसे हुये पाँच बादाम खाते थे, फिर उसके बाद ही वो चाय नाश्ता करते थे। हालाँकि अन्नु ने ख़ुद कभी भी घिसे हुये बादाम का स्वाद नहीं चखा था। घर और बच्चे, इन ज़िम्मेदारियों के साथ अन्नु बचपन में ही जवान और जवानी में ही बूढ़ी हो चली थी। सज्जन पुरुष जवानी में ही बूढ़े नज़र आने लगते हैं,यह कहावत अन्नु पर खरी उतरती थी।
ससुराल की ज़िम्मेदारियों के बीच अन्नु कभी मायके नहीं जा पाती थी और अगर कभी जाना होता भी था तो सिर्फ़ कुछ घंटों के लिये ही, वह भी चार बातें सुनकर कि जाना ज़रूरी ही क्यों है। कई बार अन्नु के भाई उसे बिना लिये ही वापस लौटने को विवश होते थे। जब कभी अन्नु मायके जाती तो वहाँ सब बहुत उत्साहित होते कि अन्नु बिटिया आयी है, जबकि अन्नु एकदम गुमसुम-सी ही रहती। चुप्पी अब उसकी आदत बन चुकी थी। अन्नु अब किसी भी बात पर सिर्फ़ मुस्कुरा देती थी, उसकी अंदर की हँसी पर जैसे सदा के लिये ताला पड़ चुका था। पिक्चर और गानों की शौक़ीन अन्नु अब इन सब को भूल चुकी थी। ससुराल में रेडियो तक में गाने सुनने पर उसे डाँट पड़ जाती थी, फिर भी कभी-कभी रसोई में छुपकर धीमी आवाज़ में वह विविध भारती लगा लेती थी लेकिन यह ख़बर भी छुप ना पायी और अंततः अन्नु ने गाना सुनना भी छोड़ दिया।
शादी के कुछ वर्षों के बाद ससुराल में नौकरी से रिटायर्ड होकर आये ससुर, अपने तीन बच्चे, देवर-देवरानी, पति, बड़ी ननद यानी जिज्जी व उनके भी दो बच्चों को पालती सभी ज़िम्मेदारियों के बीच अन्नु को सिर्फ़ यह याद रहता था कि सुबह का नाश्ता क्या बनेगा। फिर दोपहर का खाना क्या बनेगा। घर की साफ़-सफ़ाई, कपड़े धोने से लेकर शाम की चाय और फिर रात के खाने तक, अन्नु सिर्फ़ काम में लगी रहती थी। जैसे संसार सो रहा होता है किंतु सूरज का निकलना तय है और उसके निकलने के बाद ही दुनिया जागती है ठीक उसी तरह अन्नु से ही घर की सुबह होती थी और देर रात सबसे आखि़र में अन्नु की रात होती थी; वह भी निशिं्चतता भरी नहीं बल्कि इस फ़िक्र के साथ कि बादाम भिगोये हैं या नही। कल सुबह सब्ज़ी क्या बनाऊँगी, नाश्ते में क्या करूँगी? ओह! इनकी शर्ट में तो बटन भी टाँकना है। कल माठा भी मारना है ऐसे न जाने कितने सवालों के साथ अन्नु सोती थी या ये कहें कि इतने सारे सवाल कभी उसे गहरी नींद में सोने ही नहीं देते थे। अन्नु की नींद ऐसी हो गयी थी कि यदि कोई भी आहट हो तो तुरंत उठ जाती कि कहीं किसी ने उसे तो नहीं पुकारा है।
समय की गति बहुत तेज़ होती है। बच्चे उसी गति के साथ बड़े हो चले थे।