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बनारस का एक दिन (Banaras Ka Ek Din)
बनारस का एक दिन (Banaras Ka Ek Din)
बनारस का एक दिन (Banaras Ka Ek Din)
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बनारस का एक दिन (Banaras Ka Ek Din)

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About this ebook

भारत देश, जो विश्व की सभ्यता के उद्भव का केंद्र रहा है। जहाँ की संस्कृति अनन्य है। किसी भी देश की स्त्री को समाज में मिलने वाला सम्मान उस देश की सभ्यता और प्रगति का आईना होता है। इस भारत देश की नारी शांति का प्रतिरूप है। करुणा, दया, स्नेह, और सौंदर्य का सागर भी है। प्रकृति ने पीड़ा और कष्ट सहने की क्षमता जो नारी को प्रदान की है वह अद्वतीय है।

भारतीय नारी को पिता, पति या पुत्र का सम्बल चाहिए ही चाहिए, आधुनिक नारी के लिए ये निर्मूल है। प्रस्तुत कहानी संग्रह में भारतीय नारी के अनेक रूपों में से कुछ ही अंशों को कहानी के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास है। साथ में भारतीय संस्कृति और भारतीय नारी के प्रति समाज के विचार, आधुनिक भारतीय परिवेश, समाज की अच्छाईयों और कुरीतियों को भी उजागर करने का उपक्रम भी किया गया है।

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वरिष्ठ हिन्दी लेखक डॉ. प्रदीप कुमार 'नैमिष' (MBBS, MD) पेशे से चिकित्सक एवं किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय (K.G.M.U Lucknow) में शरीर क्रिया विज्ञान (Physiology) के प्रोफ़ेसर हैं। नैमिष जी की प्रारंभिक शिक्षा नैमिषारण्य, सीतापुर से एवं उच्च शिक्षा कानपुर विश्वविद्यालय, कानपुर - गणेश शंकर विद्यार्थी मेमोरियल मेडिकल कॉलेज, कानपुर (G.S.V.M. Medical College, Kanpur) से हुई। नैमिष जी मानव शरीर विज्ञानी होने के साथ-साथ उसके मन-मष्तिष्क और गतिविधियों को भी महीन तरीक़े से देखते हैं।

Languageहिन्दी
Release dateJul 7, 2020
ISBN9781393392606
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    Book preview

    बनारस का एक दिन (Banaras Ka Ek Din) - Dr. Pradeep Kumar 'Naimish'

    ISBN : 978-8194599135

    Published by :

    Rajmangal Publishers

    Rajmangal Prakashan Building,

    1st Street, Sangwan, Quarsi, Ramghat Road

    Aligarh-202001, (UP) INDIA

    Cont. No. +91- 7017993445

    www.rajmangalpublishers.com

    rajmangalpublishers@gmail.com

    sampadak@rajmangalpublishers.in

    ——————————————————————-

    प्रथम संस्करण : मई 2020

    प्रकाशक : राजमंगल प्रकाशन

    राजमंगल प्रकाशन बिल्डिंग, 1st स्ट्रीट,

    सांगवान, क्वार्सी, रामघाट रोड,

    अलीगढ़, उप्र. – 202001, भारत

    फ़ोन : +91 - 7017993445

    ——————————————————————-

    First Published : May 2020

    eBook by : Rajmangal ePublishers (Digital Publishing Division)

    Cover Design : Rajmangal Arts

    Copyright © डॉ. प्रदीप कुमार

    This is a work of fiction. Names, characters, businesses, places, events, locales, and incidents are either the products of the author’s imagination or used in a fictitious manner. Any resemblance to actual persons, living or dead, or actual events is purely coincidental. This book is sold subject to the condition that it shall not, by way of trade or otherwise, be lent, resold, hired out, or otherwise circulated without the publisher’s prior consent in any form of binding or cover other than that in which it is published and without a similar condition including this condition being imposed on the subsequent purchaser. Under no circumstances may any part of this book be photocopied for resale. The printer/publishers, distributer of this book are not in any way responsible for the view expressed by author in this book. All disputes are subject to arbitration, legal action if any are subject to the jurisdiction of courts of Aligarh, Uttar Pradesh, India

    प्राक्कथन

    भारत देश, जो विश्व की सभ्यता के उद्भव का केंद्र रहा है। जहाँ की संस्कृति अनन्य है। किसी भी देश की स्त्री को समाज में मिलने वाला सम्मान उस देश की सभ्यता और प्रगति का आईना होता है। इस भारत देश की नारी शांति का प्रतिरूप है। करुणा, दया, स्नेह, और सौंदर्य का सागर भी है। प्रकृति ने पीड़ा और कष्ट सहने की क्षमता जो नारी को प्रदान की है वह अद्वतीय है।

    भारतीय नारी को पिता, पति या पुत्र का सम्बल चाहिए ही चाहिए, आधुनिक नारी के लिए ये निर्मूल है। प्रस्तुत कहानी संग्रह में भारतीय नारी के अनेक रूपों में से कुछ ही अंशों को कहानी के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास है। साथ में भारतीय संस्कृति और भारतीय नारी के प्रति समाज के विचार, आधुनिक भारतीय परिवेश, समाज की अच्छाईयों और कुरीतियों को भी उजागर करने का उपक्रम भी किया गया है। मेरा विश्वास है कि पाठक, कहानियाँ पढ़ने पर नीरसता का अनुभव नहीं करेंगे।

    साधुवाद

    डॉ. प्रदीप कुमार नैमिष

    ~~

    अनुक्रमणिका

    शीर्षक

    प्राक्कथन

    अंतरात्मा की मर्यादा

    अपनी मन मर्ज़ी

    तीसरी बेटी

    बनारस का एक दिन

    सुलोचना का फ़र्ज़

    ~~

    अंतरात्मा की मर्यादा

    गनेशी जब बोलना प्रारम्भ करते तो उनकी वाणी से निकलने वाले शब्द श्रोताओं के मन को मोह लेते थे। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उनकी जिह्वा पर साक्षात् सरस्वती विराजमान हो जाती थीं। उषाकाल से सूर्योदय तक धर्म-कर्म, पूजा-पाठ और हवन कार्य में व्यतीत करते। कथा वाचन के लिए जब उन्मुख होते तो उनके मुख मंडल पर अलौकिक तेज दीप्यमान होता था। गनेशी लाल रोज़ की तरह मंदिर के चबूतरे पर बैठे थे। सामने बिछी हुई कालीन पर श्रोतागण श्रद्धापूर्वक आसान जमाये थे। महिलाएँ जो ज़्यादातर बूढी थीं, चबूतरे के उत्तरी छोर पर बैठीं थीं जबकि पुरुष दक्षिणी पल्लव पर आसीन थे। बच्चों की संख्या नगण्य थी। जो थे भी वो पल में आते, थोड़ी देर बैठते और फिर भाग जाते थे। स्पष्ट था कि या तो उनकी समझ में नहीं आ रहा था या कथा वाचक का विषय उनकी रूचि का नहीं था। सही मायने में देखा जाए तो कथा भागवत बुजुर्गों को ही अच्छी लगती है।

    इसके दो कारण मुख़्य हैं- पहला उनके पास समय ही समय होता दूसरा कथा के प्रसंग उनके मन मस्तिष्क में पहले से ही विद्यमान होते हैं। इस तरह बुजुर्गों को यह कथा सुनना उनको मनमुग्ध करने वाला होता है। कुछ बुजुर्ग कथा को सुनते-सुनते इतने लीन हो जाते कि कोई दुःख का प्रसंग आने पर वह रोने लगते। कथा वाचक को भी श्रोता के रूप में बुजुर्ग ही ज़्यादा पसंद आते, क्योकि नई पीढ़ी की युवतियाँ तो किसी प्रसंग पर उसका विश्लेषण तो करतीं पर तर्क नहीं करतीं। इसके विरुद्ध युवा ज़्यादा मुँहफट थे। वो तर्क कर बैठते फिर अपने आगे गनेशी लाल की चलने न देते। गनेशी लाल हमेशा यह ध्यान रखते कथा जब प्रारम्भ करते तो अधिकतर लड़के या तो पढ़ाई में व्यस्त होते या खेल में।

    आज की शाम कुछ निराली थी। फाल्गुन के महीने की शुरुआत थी। गाँव के पास खेतों में कतार बनाए खड़े हुए आम के छोटे-छोटे वृक्षों में बौर की नन्ही-नन्ही कलियाँ निकलने लगी थीं। किसी में छोटी तो किसी में बड़ी थीं। उन कलियाँ में पराग रस भले ही न बना हो पर उड़ने वाले भुनगे असंख्य मात्रा में लिपटे हुए थे। पुरवा हवा चलती तो बौर की सुगंध बिना किसी भेदभाव के सभी के घरों में फ़ैल जाती।  

    आम्र बृक्षों के झुरमुट से कोयल की कू-कू वाली सुरीली ध्वनि मनुष्य जनों के कर्णसंवेदी पटल पर निरंतर गुंजाएमान हो रही थी। बीच-बीच में पपीहे की स्वर लहिरी, संगीत के समायोजन सदृश, पुलकित करने में पूर्णतया सफल हो रही थी। साँझ की बेला ने अम्बर को अरुणामयी कर दिया था। धरा के घूर्णन से प्रकाश मद्धिम होता जा रहा था। गनेशी लाल ने अभी कथा वाचन प्रारम्भ नहीं किया था वह श्रोताजनों के सम्मुख बिछावन के अत्यंत समीप रखी आयताकार चन्दन काष्ठ की चौकी को साफ़ करने में व्यस्त थे।

    उनके मन मस्तिष्क में श्रोताओं के लिए सदैव आदर एवं समता का व्यव्हार रहता इसीलिए चन्दन चौकी का उपयोग वह प्रायः पुस्तकों के रखने के लिए करते और स्वयं श्रोताओं के समभूमि पर बैठकर कथा वाचन करते। प्रकाश की अविच्छिन्न आपूर्ति रहे अतः लालटेन की व्यवस्था आरम्भ से ही कर लेते थे। कथा प्रारम्भ करने से पहले शंखध्वनि करने के लिए खड़े हो गए। उनके साथ सभी लोग खड़े हो गए। तीन बार शंख बजाने के बाद वन्दना की फिर बैठ गए वातावरण में निःशब्दता फ़ैल गई थी। गनेशी लाल ने प्रारम्भ किया, कोई भद्रजन मुझे बताएगा कि कथा भागवत करने और सुनने से हम सभी को प्राप्त क्या होता है?

    एक व्यक्ति खड़ा हुआ जिसके दाढ़ी और सर के बाल पूर्णतया सफ़ेद हो चुके थे, अत्यंत गंभीर मुद्रा में बोला, कथा सुनने से मुझे शांति प्राप्त होती है।

    गनेशी लाल क्षण भर के लिए शांत हो गए। कदाचित इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने अपने मस्तिष्क पर ज़ोर देते हुए बोले, आप जिस शांति के अनुभव की बात कर रहे है उसका अर्थ क्या है? आपका तात्पर्य घर परिवार की तमाम समस्याओं से कुछ पल दूर रहने से तो नहीं है? अगर ऐसा है तो यह शांति अकर्मण्यता का द्योतक है जबकि कर्म सर्वोपरि है कर्म से भाग कर आप शांति को प्राप्त नहीं कर सकते।

    श्रोता संतुष्ट हुआ या नहीं पर वह अपने स्थान पर बैठ गया। गनेशी लाल ने पुनः प्रारम्भ किया, आज हमारे कथा का विषय स्त्रियों से सम्बंधित है। अनेक विद्वानों ने अपनी-अपनी तरह से बताने का प्रयास किया है, उन्ही विद्वानों के कुछ अंश आपको बताता हूँ।

    श्रोतागणों में एकाग्रचित्त का भाव फ़ैल गया सबकी कर्णेंद्रियाँ कथावाचक की तरफ हो गईं। गनेशी लाल ने सम्यक भाव से प्रारम्भ किया " भारतीय समाज में स्त्रियाँ शांति का प्रतिरूप है। स्त्री वय करुणा, दया और सौंदर्य का सागर है, सुव्यवस्था और शांति लाने का सामर्थ्य प्रकृति ने सबसे अधिक उन्हें ही दिया है। स्त्री कभी अकेली नहीं रह पाती उन्हें सम्बल चाहिए ही चाहिए। चाहे पितृजन हो, भाई हो या फिर प्रेमी या पति। ये धारणा पुरानी हो चली है आज की स्त्री स्वयं की नायिका बनने को तत्पर है और यह सत्य भी है कि कोई भी समाज उच्चीकृत बुलंदियों को तब तक नहीं छू सकता जब तक उस समाज की महिलाएँ कन्धे से कन्धा मिला कर ना चलें। समाज में स्त्री का सम्मान उच्च सभ्यता का प्रतीक और समुदाय की प्रगति का आईना है। सही मायने में कहा जाए तो इतिहास की प्राकृतिक पुरोधा है। यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि स्त्री पुरुष के लिए भविष्य निर्मात्री है। स्त्री का मौन उसका सांस्कारिक आभूषण है पर लोग उसके अनेक अर्थ निकल लेते हैं।" गनेशी लाल बोलते-बोलते अचानक रुक गए। उन्हें ऐसा आभास होने लगा कि श्रोताओं को उनकी बातें रुचिकर नहीं लग रही हैं। 

    गणेशीलाल कुछ पल तक रुक कर बोले, ऐसा प्रतीत होता है कि प्रसंग आपके मन को भाया नहीं है! इसे कहानी के रूप में सुनाते हैं।

    उसी समय किसी ने ध्यानाकर्षण करते हुए कहा कि, कुन्ती बिटिया आयी है। वेंकटेश पढ़ने के लिए बंगलौर जा रहा है। गनेशी लाल की बेटी कुन्ती ने जब ये समाचार अपने पिता को देने आयी तो उसका मुख मंडल बादलों के छाव में हो रही बारिश में खिले हुए पुष्प के सामान दीप्यमान था। उल्लास उसके अंग-अंग से स्फुटित हो रहा था। अन्तः मन की प्रसन्नता इतनी तीव्र थी कि यह सन्देश बताने बताने में कुन्ती की जिह्वा लड़खड़ा रही थी।

    बेटा तुम इतना परेशान क्यों दिख रही हो? वेंकटेश ठीक तो है.. किसने सूचना दी? गनेशी लाल ने बड़े आत्मीयता से पूछा।

    कुन्ती अब तक अपने आप को संतुलित कर चुकी थी। सरल और स्पष्ट शब्दों में बताया कि बड़े ताऊ का लड़का देव आज बंगलोर से आया है। वही बता रहा था। एक तरफ श्रोतागण की मनःस्थिति दूसरे कुन्ती द्वारा प्राप्त इस समाचार से गनेशी लाल की एकाग्रता में व्यवधान हुआ। उन्होंने आज की कथा को शंख बजाकर संपन्न घोषित कर दिया और प्रसाद वितरण के बाद अधिकतर श्रोता अपने अपने घरों को चले गए। गनेशी लाल जब एकांत हुए तो वेंकटेश के बचपन से लेकर अब तक का सारा जीवन दृश्य उनकी आँखों के सामने चक्रवात की भांति घूमने लगा।

    गनेशी लाल आज भी विचलित हो उठते हैं जब वेंकटेश के माता-पिता का वो दृश्य याद आ जाता है। बात आज से लगभग ग्यारह साल पहले की है जब वेंकटेश के माता और पिता को सोते समय सांप ने काट लिया था। पूरे इलाके के झाड़-फूँक वाले हार गए थे। सरकारी अस्पताल भी ले गए थे परन्तु ईश्वर को कुछ और ही मंज़ूर था। दो दिन तक अस्पताल में मृत्यु और जीवन के बीच जूझते रहे। डॉक्टरों ने अपने सारे नुस्ख़े अपना लिए पर वेंकटेश के माता-पिता को मृत्यु के आगोश से बाहर नहीं ला पाए।

    वेंकटेश रोते-रोते पागल हो गया था पर जो चला गया वो वापस कहाँ आने वाला। गनेशी के गाँव में रहने वाले वेंकटेश के नाना-नानी उसे ले आए। बहुत दिनों तक वह एकांत में बना रहा फिर नियमित रूप से मंदिर आने लगा और गाँव के बच्चों में घुलने-मिलने लगा। कुन्ती उससे छोटी अवश्य थी परन्तु निच्छल भाव से वेंकटेश को निरंतर समझाती ज़रूर रहती थी। गनेशी लाल को वेंकटेश की बुद्धिमत्ता एवं तर्क की तीव्रता समझ में आ गई। उन्होंने उसके नाना से कह कर विद्यालय में पुनः दाख़िला दिलवा दिया। समय बड़े-बड़े ज़ख्मों को भर देता है। यही बात वेंकट पर भी सटीक साबित हुई। नाना-नानी के प्यार में माँ-बाप की कमी को वह भूल गया था। पढ़ाई-लिखाई में प्रखर होने के कारण मोहल्ले के सभी लोगों का स्नेह उस पर था। शाम का ख़ाली वक़्त मंदिर की साफ़-सफाई में कुन्ती का हाथ बँटता था। गनेशी लाल को उसका यह काम अच्छा लगता था परन्तु कथा के दौरान चरित्रों की अतिशयोक्तिओँ पर वेंकट का तर्क करना उन्हें रुचिकर नहीं लगता था। वे प्रायः आस्था में तर्क नहीं किया जाता। कहकर उसे चुप करने का प्रयत्न करते थे परन्तु कथा के दौरान तर्क, वाद-विवाद श्रोताओं को बहुत अच्छा लगता। श्रोता वेंकट का पक्ष लेते और गनेशी लाल को निरुत्तर करने का असफल प्रयास करते। कुन्ती को इस तर्क वितर्क से अधिक लेना-देना नहीं था परन्तु वेंकट के तर्कों से वह अभिभूत हो जाती और अपने को विजयी होने जैसा अनुभव करती।

    कुन्ती का वेंकट की तरफ आकर्षण गनेशी लाल से छुपा नहीं था। वे कुन्ती का भविष्य वेंकट के जीवन में निश्चित रूप से देखना चाहते थे। उससे भी ज़्यादा वे अपने पिता होने का निर्वहन सही समय से करना चाहते थे। वेंकट की मेहनत एवं बुद्धिमत्ता कहें या नाना-नानी का संस्कार या कुन्ती की दुआएँ, एक महत्वपूर्ण परीक्षा में अधिकतम अंक लाने के कारण बारहवीं के बाद उसका दाख़िला बंगलौर के एक नामी संस्थान में हो गया था।

    गनेशी लाल कथा वाचक थे। अनेकानेक कथाएँ उनको जबानी याद थीं। कब कौन कथा सुनानी है अच्छी तरह से जानते थे। उम्र के इस पड़ाव पर आकर मनुष्य की मनोवृत्तियों के उत्कृष्ट जानकार हो गए थे। अपनी बेटी कुन्ती और वेंकट के आत्मभाव से वो अपरिचित नहीं थे।

    गनेशी लाल वेंकट के नाना-नानी के घर जा पहुँचे। दोपहर का समय था, अत्यंत छोटे और सफेद बालों वाला वृद्ध (वेंकट के नाना ) घर के बाहर बने बरामदा नुमा कमरे में विश्राम कर रहा था। पास में बंधी हुई बछिया (गाय का छोटा बच्चा) भी ऊँघ रही थी। जंगले से हवा के शीतल झोंके अनिश्चित समयांतराल पर आकर वातावरण को ख़ुशनुमा कर देते थे। गनेशी लाल ने वृद्ध को 'राम-राम' बोला तो उनकी तन्द्रा टूटी, आओ गनेशी बैठो! कैसे हो?

    वृद्ध ने बिना किसी बनावट के गनेशी का अभिवादन स्वीकार किया तथा पास में पड़ी हुई चारपाई पर बैठने का इशारा किया।

    "काका ये आपके संस्कार और परवरिश का नतीजा है कि वेंकट का दाख़िला इतने बड़े स्कूल में हो गया है। उसने आपके

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