Mustri Begum
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बहुमुखी प्रतिभा की धनी शशि काण्डपाल न केवल कथाकार हैं, बल्कि संस्मरण, कविताएं, यात्रा संस्मरण, लघुकथाएं आदि विधाओं में भी उन्होंने समान अधिकार के साथ अपनी रचनात्मकता को सार्थकता प्रदान की है। वह एक यायावर हैं और समाजसेविका भी। देश का शायद ही कोई कोना होगा जहां वह न गयी हों। दिव्यांगों के विद्यालय में स्वैच्छया सेवाएं प्रदान करने के साथ ही अन्य अनेक समाज-सेवी संस्थाओं के लिए कार्य करते हुए मध्यम और निम्न आय वर्ग की गृहणियों के लिए अनेक रोजगारोन्मुख कार्यों का सृजनकर आत्मसुख प्राप्त करती हैं। यहां उनकी साहित्येतर विषयों की चर्चा यह स्पष्ट करने के लिए कि इस युवा लेखिका का कार्यक्षेत्र व्यापक है और व्यापक कार्यक्षेत्र किसी भी रचनाकार के अनुभव संसार को व्यापक बनाता है।
कुछ वर्ष पूर्व शशि काण्डपाल से मेरा परिचय उनकी रचनाओं के माध्यम से हुआ। सहज-समृद्ध भाषा, कलात्मक शिल्प और लोक-जीवन पर उनकी पकड़ प्रभावोत्कारी है जो जीवन के गहन अनुभव से ही संभव होता है। कहानियों में उनकी सूक्ष पर्यवेक्षण दृष्टि प्रतिभाषित है। पात्र इतने वास्तविक और चित्रण इतना विश्वसनीय कि वे हमें अपने आसपास के प्रतीत होते हैं। स्त्री-विमर्श के इस दौर में जब अनेक लेखिकाओं ने केवल सस्ती चर्चा प्राप्त करने के लिए जुगुप्सा पैदा करने वाली अश्लील कहानियों को ही स्त्री-विमर्श मान लिया है ऐसे विचित्र काल में शशि काण्डपाल अपनी कहानियों में नारी पीड़ा को जिस गहनता से शब्दायित करती हैं वे पाठक को न केवल विचलित करती हैं बल्कि उसके मन-मस्तिष्क में अमिट छाप छोड़ती हैं। किसी रचनाकार की इससे बड़ी सफलता क्या होगी कि उसकी 'मन्नों दी' जैसी कहानी पाठक के मन-मस्तिष्क को झकझोर देती है और अविस्मरणीय बन जाती है।
रचनाकार एक संवेदनशील प्राणी होता है, लेकिन जब उसकी संवेदनशीलता किसी जानवर या पक्षी या किसी अन्य मानवेतर चीजों को केन्द्र में रखकर उससे कहानी लिखवा लेती है तब उसकी संवेदनाशीलता को बृहत्तर चीजों से जुड़ी हुई मानना चाहिए अर्थात वह दूसरों से शायद कहीं अधिक संवेदनशील होता है। शशि काण्डपाल को मैंने इसी श्रेणी की संवेदनशील लेखिका के रूप में उनकी कहानी 'बसेरा' में पाया, जो पक्षियों को माध्यम बनाकर लिखी गयी है।
शशि काण्डपाल की कहानियों में सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक विद्रूपता अत्यंत गहनता के साथ अभिव्यक्त हुई है। कहानियों में वह एक सजग शिल्पी की भांति वातावरण निर्माण करती हैं। उनकी दृष्टि से छोटी-बड़ी चीजें ओझल नहीं होने पातीं। किसी भी रचनाकार की यह बड़ी शक्ति होती है क्योंकि रचना को विश्वसनीयता प्रदान करने में वातावरण निर्माण को महत्वपूर्ण माना गया है। वास्तव में वातावरण ही पात्रों का निजी संसार होता है। उसकी सृष्टि का उद्देश्य पात्रों के मनोभावों, क्रिया कलापों तथा उनकी विशेषताओं का उद्घाटन करना है। श्रीनारायण अग्निहोत्री के अनुसार, "इसका महत्व शरीर में रीढ़ की मजबूती के महत्व की तरह होता है। उचित वातावरण का बल पाकर कथानक पुष्ट हो जाता है, पात्र सजीव हो उठते हैं, सम्भाषण एवं कथोपकथन अपने पूर्ण अर्थ और अभिप्राय को व्यक्त करने में सफल रहता है। जिस प्रकार बाहर का रंग-रूप, व्यक्ति अथवा वस्तु का आकर्षण होता है और जिस प्रकार बाहरी रंगरूप के सहारे हम चरित्र को भी जानते हैं, उसी प्रकार पृष्ठभूमि में कथानक की सौन्दर्य वृद्धि होती है----।"
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'मी मांछा' ईसाई मिशनरियों द्वारा गरीबों के धर्म परिवर्तन को व्याख्यायित करती है तो 'कलेक्टिव फाइटर्स' में लेखिका ने अवकाश प्राप्त बुजुर्गों की दैनंदिन गतिविधियों को सहजता और वास्तविकता के साथ चित्रित कर कालजयी बना दिया है। संग्रह की सभी कहानियां समकालीन युवा लेखिकाओं में शशि काण्डपाल को विशिष्ट कथाकार सिद्ध करती हैं। मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।
धारूहेड़ा (हरियाणा) रूपसिंह चन्देल
१४.०३.२०२१
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बहुमुखी प्रतिभा की धनी शशि काण्डपाल न केवल कथाकार हैं, बल्कि संस्मरण, कविताएं, यात्रा संस्मरण, लघुकथाएं आदि विधाओं में भी उन्होंने समान अधिकार के साथ अपनी रचनात्मकता को सार्थकता प्रदान की है। वह एक यायावर हैं और समाजसेविका भी। देश का शायद ही कोई कोना होगा जहां वह न गयी हों। दिव्यांगों के विद्यालय में स्वैच्छया सेवाएं प्रदान करने के साथ ही अन्य अनेक समाज-सेवी संस्थाओं के लिए कार्य करते हुए मध्यम और निम्न आय वर्ग की गृहणियों के लिए अनेक रोजगारोन्मुख कार्यों का सृजनकर आत्मसुख प्राप्त करती हैं। यहां उनकी साहित्येतर विषयों की चर्चा यह स्पष्ट करने के लिए कि इस युवा लेखिका का कार्यक्षेत्र व्यापक है और व्यापक कार्यक्षेत्र किसी भी रचनाकार के अनुभव संसार को व्यापक बनाता है।
कुछ वर्ष पूर्व शशि काण्डपाल से मेरा परिचय उनकी रचनाओं के माध्यम से हुआ। सहज-समृद्ध भाषा, कलात्मक शिल्प और लोक-जीवन पर उनकी पकड़ प्रभावोत्कारी है जो जीवन के गहन अनुभव से ही संभव होता है। कहानियों में उनकी सूक्ष पर्यवेक्षण दृष्टि प्रतिभाषित है। पात्र इतने वास्तविक और चित्रण इतना विश्वसनीय कि वे हमें अपने आसपास के प्रतीत होते हैं। स्त्री-विमर्श के इस दौर में जब अनेक लेखिकाओं ने केवल सस्ती चर्चा प्राप्त करने के लिए जुगुप्सा पैदा करने वाली अश्लील कहानियों को ही स्त्री-विमर्श मान लिया है ऐसे विचित्र काल में शशि काण्डपाल अपनी कहानियों में नारी पीड़ा को जिस गहनता से शब्दायित करती हैं वे पाठक को न केवल विचलित करती हैं बल्कि उसके मन-मस्तिष्क में अमिट छाप छोड़ती हैं। किसी रचनाकार की इससे बड़ी सफलता क्या होगी कि उसकी ’मन्नों दी’ जैसी कहानी पाठक के मन-मस्तिष्क को झकझोर देती है और अविस्मरणीय बन जाती है।
रचनाकार एक संवेदनशील प्राणी होता है, लेकिन जब उसकी संवेदनशीलता किसी जानवर या पक्षी या किसी अन्य मानवेतर चीजों को केन्द्र में रखकर उससे कहानी लिखवा लेती है तब उसकी संवेदनाशीलता को बृहत्तर चीजों से जुड़ी हुई मानना चाहिए अर्थात वह दूसरों से शायद कहीं अधिक संवेदनशील होता है। शशि काण्डपाल को मैंने इसी श्रेणी की संवेदनशील लेखिका के रूप में उनकी कहानी ’बसेरा’ में पाया, जो पक्षियों को माध्यम बनाकर लिखी गयी है।
शशि काण्डपाल की कहानियों में सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक विद्रूपता अत्यंत गहनता के साथ अभिव्यक्त हुई है। कहानियों में वह एक सजग शिल्पी की भांति वातावरण निर्माण करती हैं। उनकी दृष्टि से छोटी-बड़ी चीजें ओझल नहीं होने पातीं। किसी भी रचनाकार की यह बड़ी शक्ति होती है क्योंकि रचना को विश्वसनीयता प्रदान करने में वातावरण निर्माण को महत्वपूर्ण माना गया है। वास्तव में वातावरण ही पात्रों का निजी संसार होता है। उसकी सृष्टि का उद्देश्य पात्रों के मनोभावों, क्रिया कलापों तथा उनकी विशेषताओं का उद्घाटन करना है। श्रीनारायण अग्निहोत्री के अनुसार, इसका महत्व शरीर में रीढ़ की मजबूती के महत्व की तरह होता है। उचित वातावरण का बल पाकर कथानक पुष्ट हो जाता है, पात्र सजीव हो उठते हैं, सम्भाषण एवं कथोपकथन अपने पूर्ण अर्थ और अभिप्राय को व्यक्त करने में सफल रहता है। जिस प्रकार बाहर का रंग-रूप, व्यक्ति अथवा वस्तु का आकर्षण होता है और जिस प्रकार बाहरी रंगरूप के सहारे हम चरित्र को भी जानते हैं, उसी प्रकार पृष्ठभूमि में कथानक की सौन्दर्य वृद्धि होती है——।
’मन्नों दी’ एक सरल युवती की कहानी है, जिससे मोहल्ले के बच्चे प्रेम करते हैं। कहानी के निम्न उद्धृत अंश से इस बात को सहजता से समझा जा सकता हैः
बात उन दिनों की है जब हम बच्चे पार्क में खेला करते थे। भरी गरम दोपहरियों को आम, जामुन के पेड़ों पर चढ़ा करते थे। कच्ची अमियों को कुतरने या जंगल जलेबी बीनने चोरी से जाया करते। ये सुविधा हमें सिर्फ मन्नू दीदी के साये में मिलती। हम गिरते तो सहलातीं, चोट खाते तो झट से कुछ पत्तियाँ मसल हरी बूंदें टपका देतीं और दर्द हवा हो जाता। हमारा चटपटा नमक थीं मन्नू दी, डाँट खाने से बचाने की दीवार भी। हमसे सात, आठ साल ही बड़ी होंगी लेकिन ग्रामीण और शहरी परिवेश की मिश्रण थीं। साड़ी ही पहनतीं क्योंकि उनके पिता का आदेश था लेकिन हमारे साथ धमाचैकड़ी मचाने में साड़ी कोई बाधा ना बनतीं। हाँ किसी को नाले में उतारना हो या डाल झकझोर कर कोई फल गिराना हो तो खूब काम आती। गर्मियों की छुट्टियों में अक्सर मोहल्ले के बच्चों की दोपहर मेरे ही घर के बरामदे में बीता करती जहां खस की चिक पर पानी डालने से सोंधी ख़ुशबू हवा में उड़ती और बालू में, गले तक डूबा मिट्टी का घड़ा, ठंडा पानी देता जिसे छूने की इजाजत सिर्फ मन्नू दी को होती। हमें तो बस पानी से भरे अमृतदाई गिलास मिलते जिनको याद करके आज भी गला तृप्त हो जाता है।
मन्नों दी का उपरोक्त अंश शशि काण्डपाल की रचनाशीलता को समझने के लिए पर्याप्त है। सीधी-सरल और बच्चों की चहेती मन्नो दी किस प्रकार अपनी बड़ी बहन के परिवारवालों के छद्म का शिकार होती हैं, किस प्रकार विवश पिता उनकी शादी एक अन्य युवक से करते हैं और ससुराल पहुंचकर किस प्रकार वह अपनी इहलीला कुंआ में कूदकर समाप्त करती हैं, इसका अत्यंत मार्मिक चित्रण लेखिका ने किया है। कहानी समाज में नारी की स्थिति, चाहे वह मन्नों दी हो या उसकी बड़ी बहनें, को गहनता से उद्घाटित करती पाठक को विचलित कर देती है।
’मी मांछा’, ’मुस्तरी बेगम’, ’करमजली’, ’छलावा’, ’दुर्बुली’ आदि कहानियां नारी जीवन की अविकल छवि प्रस्तुत करती हैं। ’मुस्तरी बेगम’ का विवाह उसके पिता उसकी बुआ के लड़के के साथ अर्थात अपनी बहन के बेटे के साथ कर देते हैं। सास उसे अहर्निश प्रताड़ित करती है। बेटे से पिटवाती है। यातनामय जीवन जीती मुस्तरी सात बच्चों की मां बन जाती है- छः बेटियां और एक बेटा। लेकिन जिस बेटे को पाने के लिए वह कितने ही मजारों में भटकी बेटे के विवाह के बाद वही बेटा बुढ़ापे में उसे प्रताड़ित करता है। जीवन यापन के लिए एक के बाद वह कई काम करती है। उसकी पीड़ा को लेखिका के निम्न अंश से समझा जा सकता हैः
बुआ बुरा न मानना, लेकिन तंबाकू खाने से कैंसर होता है।
अच्छा बिटिया फिर?
फिर क्या बुआ, जल्दी मौत हो जाती है और बड़ी बुरी मौत होती है।
बिटिया क्या मैं अभी गुलाबों की सेज पर हूँ जो ये जिंदगी बचाना चाहूँ? कोई न है दूर दूर तक
और किरण उपदेश की दुकान फट्ट से बंद कर देती।"
शशि काण्डपाल के कथानक और उनकी कथन विधि उनकी कहानियों को विशिष्ट बना देती है। ’करमजली’ एक संतानहीन युवती की मनोभावना और उसके प्रति समाज के भावों को अभिव्यक्त करती एक अन्य अविस्मरणीयकहानी है। कहानी का यह अंश अद्भुत है- वात्सल्य जताने को औलाद न थी सो बच्चे देखते ही ठिठक जाती। दूर से औरों के ललना निहारा करती। कॉलोनी में जिसका भी छोटा बच्चा होता उसके घर रोज़ दौड़ी जाती। टोकरी भर दुआएं देती और मुझ करमजली की बबुआ पर से नजर उतार देना कहती आती। कभी कजरौटा तो कभी झुंझुना सरका आती, लेने से कोई मना न करता आखिर खिलौने में कौन जात चिपक जाती है भला? हरीराम टहोका देता
करमजली तो तू है ही वरना तेरे ललना न हो जाता? मुन्नी तुरंत काली बन बिफर जाती, क्या पता करम जला तू ही हो जिसमें मैं और मेरी जवानी बर्बाद हो गए।
हरीराम सर झुकाए दायें बाएँ हो जाता।"
’मी मांछा’ ईसाई मिशनरियों द्वारा गरीबों के धर्म परिवर्तन को व्याख्यायित करती है तो ’कलेक्टिव फाइटर्स’ में लेखिका ने अवकाश प्राप्त बुजुर्गों की दैनंदिन गतिविधियों को सहजता और वास्तविकता के साथ चित्रित कर कालजयी बना दिया है। संग्रह की सभी कहानियां समकालीन युवा लेखिकाओं में शशि काण्डपाल को विशिष्ट कथाकार सिद्ध करती हैं। मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।
धारूहेड़ा (हरियाणा) रूपसिंह चन्देल
१४.०३.२०२१
शीर्षक
1. मन्नों दी
2. कलेक्टिव फाइटर्स
3. बसेरा
4. मुस्तरी बेगम करमजली
6. मी मांछा छलावा
8. दुर्बुली
9. महुआ मज़ार और मस्जिद
10. कच्ची अकल की पक्की गुरू
11. मन की आँखें
12. मायाजाल
13. गुइयाँ
14. घूँघट
मन्नों दी
बचपन याद आते ही मन्नों दी का याद आना बड़ा लाज़मी-सा हो जाता है। ऐसा क्यों? वो न तो मेरी सगी दीदी थीं न रिश्तेदार फिर भी वो मेरे बचपन का इतना बड़ा हिस्सा क्यों थी भला? कई बार मन्नों दी के बारे में लिखने की सोची लेकिन कोई सिरा हाथ आने को तैयार ही नहीं होता जबकि उनकी यादें हैं कि अक्सर चली आती हैं और मैं मुस्कुराते हुए उनको दो चार पल जी ही लेती हूँ। आइए मिलाती हूँ ना उन सगी से भी ज्यादा सगी दी से......
बात उन दिनों की है जब हम बच्चे पार्क में खेला करते थे। भरी गरम दोपहरियों को आम, जामुन के पेड़ों पर चढ़ा करते थे। कच्ची अमियों को कुतरने या जंगल जलेबी बीनने चोरी से जाया करते। ये सुविधा हमें सिर्फ मन्नू दीदी के साये में मिलती। हम गिरते तो सहलातीं, चोट खाते तो झट से कुछ पत्तियाँ मसल हरी बूंदें टपका देतीं और दर्द हवा हो जाता। हमारा चटपटा नमक थीं मन्नू दी, डाँट खाने से बचाने की दीवार भी। हमसे सात, आठ साल ही बड़ी होंगी लेकिन ग्रामीण और शहरी परिवेश की मिश्रण थीं। साड़ी ही पहनतीं क्योंकि उनके पिता का आदेश था लेकिन हमारे साथ धमाचैकड़ी मचाने में साड़ी कोई बाधा ना बनतीं। हाँ किसी को नाले में उतारना हो या डाल झकझोर कर कोई फल गिराना हो तो खूब काम आती। गर्मियों की छुट्टियों में अक्सर मोहल्ले के बच्चों की दोपहर मेरे ही घर के बरामदे में बीता करती जहां खस की चिक पर पानी डालने से सोंधी ख़ुशबू हवा में उड़ती और बालू में, गले तक डूबा मिट्टी का घड़ा, ठंडा पानी देता जिसे छूने की इजाजत सिर्फ मन्नू दी को होती। हमें तो बस पानी से भरे अमृतदाई गिलास मिलते जिनको याद करके आज भी गला तृप्त हो जाता है।
हमारे मोहल्ले में हम करीब आठ बच्चे थे, मन्नू दी को पूरी दोपहर हम बंदरों की टोली को संभालना होता ताकि हम सबकी माएं चैन से सो सकें और हम उस चिलचिलाती धूप में न जाकर दीदी की जादूभरी कहानियों को कल्पना में जीते हुए सो जाएँ। मन्नू दी अघोषित संरक्षिका और हमारे कार्यकलापों की संचालिका थीं। ये सारा किस्सा पुराने लखनऊ के ऑफिस के पीछे के बने घरों का है। तब इंसानों के बीच इतनी दूरियाँ नहीं हुआ करती थीं। वो समय था जब पद से ज्यादा इंसान की उम्र को आदर दिया जाता था। पद में बड़े होकर भी आदर का लिहाज़ था और ऊंच नीच का भाव भी न था।
मन्नों दी के पिता ऑफिस के चेयरमन के चपरासी हुआ करते थे और बड़ी से बड़ी बात को साम दाम से सल्टा लेने वाले आदरणीय बुजुर्ग भी। मोहल्ले वाले भी उनकी सलाह मानते और वो भी अपने अधिकार का सबकी भलाई में इस्तेमाल करते। जब भी उनके गाँव की खेती से चने का साग, मटर, गन्ने का रस, सिरका, आँधी तूफ़ान में झड़ी अमियाँ या पके आमों का टोकरा साइकिल में बांध उनका भतीजा मोहनलालगंज से लखनऊ आता, तो साइकिल कभी मोहल्ले के बने आखि़री घर में चुपचाप नहीं चली जाती बल्कि मन्नों दी के पिता जिन्हें सब गुरुजी कहते, खुद पहले घर से शुरुआत कर, आवाज़ दे दे कर सभी घरों में सामान बंटवाते। हाँ अगर बीस, तीस किलो वाला तरबूज जो अब लुप्तप्राय है आता तो उसे जीवन चाचा के वहाँ से ख़ास छुरा मांग कर धारियों से काटा जाता और हम बच्चे घर घर पहुंचाते। आज शायद ये परंपरा किसी को याद भी ना होगी।
ऑफिस आगे के हिस्से में एक बड़ी सी कोठी में चलता था। जिसके चारों तरफ फूल, फलों के पेड़ थे। यूकैलिप्टस के ऊंचे ऊंचे पेड़ उस कोठी की पहचान थे और शानदार लान जिसे हम सुबह नौ बजे से पहले तथा