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21 Shreshtha Kahaniyan (21 श्रेष्ठ कहानियां)
21 Shreshtha Kahaniyan (21 श्रेष्ठ कहानियां)
21 Shreshtha Kahaniyan (21 श्रेष्ठ कहानियां)
Ebook427 pages4 hours

21 Shreshtha Kahaniyan (21 श्रेष्ठ कहानियां)

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'इक्कीस श्रेष्ठ कहानियां' मेरा कमोवेश अपना ही चयन है । जिस प्रकार स्नेहसिक्त माता-पिता अपनी कुछ संतानों को अधिक प्रिय तथा कुछ को अधिक अप्रिय के रूप में विभाजन करने की सहज स्थिति में नहीं हो सकते, संभवतः वही बात रचनाकार की रचना - चयन पर भी लागू होती है कि वह किस रचना को श्रेष्ठ, श्रेष्ठतर अथवा श्रेष्ठतम कहे व किस रचना को अवरोह के क्रम में कमतर क्योंकि हर रचना का क्रम, संघर्ष नियति, संवेदना आदि की प्रक्रिया की पद्धति संभवतः एक ही जैसी होती है।
फिर भी पाठकों की सुविधा के लिए अपनी चयनित 21 श्रेष्ठ कहानियां संकलित कर पिरो दी हैं जिनमें पर्वतीय जीवन के लोक रंगों के साथ लोक उत्सव व लोक जीवन के स्मृतिबिम्बों का यथा तथ्य पकड़ने का प्रयास किया गया है। उसमें रचनाकार कितना सफल हुआ है, यह भाव प्रवण सुधी पाठक ही तय कर पाएंगे।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateDec 21, 2023
ISBN9789356846456
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    21 Shreshtha Kahaniyan (21 श्रेष्ठ कहानियां) - Prof. Dinesh Chamola 'Shailesh'

    गिरिजा दा

    भुवना दीदी जंगल गई थी बकरियां लेकर, चुगाने के लिए। पीठ पर स्वाल्टी (घास रखने का बांस का बुना बड़े-बड़े छिद्रनुमा पात्र) कमर में ज्यूडी (रस्सी) व हाथ में छुणक्याली दराशी (खनकने वाली) तो रखी ही थी... स्वाल्टी में रखी थी एक पोटली... पोटली में पिसा हुआ नमक - मिर्च ... कोदे के मोटे-मोटे दो टिक्कड़ (मनुवे की मोटी रोटियां )... और पोटली के भीतर एक और पोटली, जिसमें से खुलता है उसके सपनों का सतरंगा संसार..., जिसे उसे उसके एक मात्र दिदा (बड़े भाई) अमृतसर से लाए थे..., वह थी नकली गहनों की पोटली... जिन्हें संस्कृत की शास्त्री परीक्षा में पढ़ने वाले दिदा असली करना चाहते थे, अपनी भुली (छोटी बहन) के जीवन में।

    इस यथार्थमय संसार की नींव भी तो ईश्वर ने कभी कल्पना के भारी-भरकम पत्थरों से ही रखी होगी यह सोचने वाले दिदा इस नकली गहनों की पोटली में अपनी प्यारी सी बहन का स्वर्णिम व यथार्थमय - भविष्य देखते हैं।

    भुवना का मन होता है कि वह इन गहनों को पहन हर पल अपनी जीवन बगिया में हिरनौटों की तरह उछलती - कूदती रहे.. सौंदर्य की परी बन कल्पना के स्वर्गलोक में फुदकती रहे... विचरण करती रहे। लेकिन कोई उसे यह सब करने दे तो तब न। यह सब करने की बात तो दूर, सोचने की भी फुर्सत कहां मिलती है भुवना को...?

    रात खुलते ही काम का जो चरखा चलने लगता है तो देर रात तक वह किसी भी रूप में रुकने का नाम नहीं लेता ... और भुवना चक्की के पाटों के बीच पड़े गेंहू के दानों के मानिंद उसमें पिस जाने को बाध्य होती है। सोने से पहले भी देर रात तक कल के कामों की कतार उसके सपनों के घोड़ों को बिदका देती....। वे पल कहां होते... कि जिनमें घड़ी -दो घड़ी के लिए वह केवल अपने लिए जी सकती।

    बस, जंगल का वह समय भुवना के लिए उस नीली छतरी वाले की ओर से वरदान के रूप में होता... जब बकरियां हरी-भरी वादियों में चर रही होती... और वह किसी चट्टान में बैठकर नीले आसमान की छत तले निर्भय हो या तो मन के संगीत की धुन पर थिरकती रहती या फिर अपनों की याद में गा-गाकर धरती का आंचल आंसुओं से भिगो देती।

    जंगल की निस्तब्धता उसकी संगीत लहरियों में उसका साथ देती... जी भर रो व गा चुकने के बाद वह नीले आसमान की ओर कातर निगाहों से देख याचना के स्वर में कहती-

    ‘हे हवाओ! तुम्हें मुझ अनाथ की सौगंध ... तुम मेरे आँसुओं की नमी मेरे दिदा तक न ले जाना... नहीं तो मेरी खुद (याद) में मेरे प्यारे दिदा के जीवन विकास की ओर बढ़ते हुए पग रुक जाएंगे... हे आँसुओ... हवाओ!... संकट में मेरे दिदा के लिए प्रेरणा - दीप बनना...।’ कहकर वह अपने दिदा की लाई चूनर से मुख पर स्मृतियों की बाढ़ से फैले आंसुओं को साफ कर लेती, ठीक सिर के ऊपर आ चुके घाम को देखती व आनन-फानन में बकरियों को देख ताई के डर से घास की स्वाल्टी भरने के जुगत में लग जाती।

    एक दिन वह पहले-पहल अपने दिदा की इस पोटली को लेकर जंगल गई थी - सभी गहने पहन कर भाव विभोर होकर वह खूब नाची थी... उसे बहुत भला लगा था उस दिन..! आज उसके दिदा देखते तो फूले न समाते ... स्वर्ग की सी अप्सरा उनकी बहन उन गहनों में कितनी फबती थी... देखकर मुग्ध होते....। लेकिन उस रात माँ ने स्वप्न में आकर कहा था-

    ‘पगली! जंगल में यह सब पहनकर न नाचा कर.... तुझे अछरियां (किन्नरियां) हर लेंगी... तब किसके सहारे रहेगा मेरा गिरजा?’

    और तब से उसने गांठ बांध ली थी यह बात ... अपने दिदा (गिरजा) के लिए तो वह जीवन में कुछ भी त्याग सकती है... उसके अलावा इस दुनिया में उसका है भी कौन? अब वह उन्हें पहन कर जंगल में नाचती नहीं....लेकिन दिदा व माँ की याद के रूप में उसे सदैव अपने साथ रखती है।

    भुवना व गिरजा तीन चाचा-ताओं के परिवार में पल - बढ़ रहे, दो भाई-बहन थे। माता-पिता का साया उनके सिर से कब उठ गया था, यह कुछ-कुछ गिरजा को तो मालूम था लेकिन भुवना को बिलकुल नहीं। वह अपनी चाची - ताइयों को ही माँ के रूप में समझती थी।

    बहुत पहले जब वह गांव की सहेलियों के साथ घास के लिए खेतों या जंगलों में जाती तो बात-बात पर ‘ददा जी की सौं ( वह अपने चाचा-ताओं को ददा जी कहती) ही खाती। एक दिन कल्पेसुरी ने जोर से उसके कंधे पर धोल मारते हुए कहा-

    ‘भुवना पगली------- क्यों बिना बात ददा जी की सौगंध खाती रहती है---- तेरा तो अपना भाई है न सगा... गिरजा दा... अपने दिदा की सौं क्यों नहीं खाती.... ऐसा करना औसगुन होता है... दिदा सुनेगा तो कितना दुखी होगा...?’

    यह सुन फूले न समाई थी भुवना... बस, अपने दिदा को देखने के सतरंगे सपने देखने लगी। उसे गांव की दादी की सुनाई लोककथा ‘वीरा वैणी’ की याद हो आई जिसके सात भाई जंगल में... शिकार खेलने गए थे... अपने सात कुत्ते, सात बिल्लियां लेकर। जब उसे उनके बारे में पता चला तो उसने उन्हें ढूंढ कर ही दम लिया------- हर रोज उनके आने से पहले खाना बनाकर, चूल्हा-चौका कर स्वयं भोजन कर काकर (पड़छत्ती) में चली जाती। अंतराल बाद भाई को पाकर बहन व बहन को पाकर भाई कितने खुश हुए थे। घर जाकर जब अपने दिदा के होने की बात सच निकली तो बांछें खिल गई थी भुवना की।

    अब वह बात-बात पर प्रसन्नता व विशाद के क्षणों में अपने दिदा की सौं खाती। पल-पल, क्षण-क्षण अपने दिदा के लौट आने की प्रतीक्षा करती। दिदा आएगा तो जी भर अपने सुख - दुखों की फुहार सी कर देगी उसके आंचल में... कितनों ने उसे सताया, कितनों ने खरी-खोटी सुनाई, और कितनों ने उसे जोते रखा निरग्वस्यणां (जिसका कोई मालिक नहीं) बल्द (बैल) की तरह।

    परायों पर कौन पीड़ करता है?... अपना कोई हो तो वही न। लेकिन बहुत बाद में पता चला था भुवना को, कि जिनको वह अपनी माँ से बढ़कर समझती रही, वे भी उसकी चाची- ताइयां ही हैं...। बहुत बार माँ से उनके व्यवहार पर उसे संशय भी होता... कि माँ का बर्ताव अपने बच्चों के साथ ऐसे नहीं हो सकता... लेकिन जब उसे इस बात की सत्यता का पता चला तो फिर जीवन रूपी दांत के से दर्द को सहने के लिए बाध्य हो गई।

    ऐसा भी नहीं था कि भुवना मजबूर अथवा खिन्न होकर किसी कार्य को करती हो... उसे चाचा-ताऊओं की गृहस्थी में निष्ठा से कार्य करते सुख मिलता था। उसे कष्ट तब होता था जब वह बिना काम के ऐसे निष्क्रिय लोगों के काफिले में जा फंसती व बे- बात उनकी सलाह - मश्विरों की कतार दर कतार सुनने को बाध्य हो जाती। लेकिन ऐसे क्षण किसी विशेष संयोग आदि के अलावा मिलते ही कहां थे।

    यदि वह कभी अपने मन की बात भी किसी से करना चाहती तो केवल उनसे, जो उसे सच्ची राह पर चलने की सीख दें... सांसारिक स्वार्थों से ऊपर उठकर उन कार्यों को, जिनमें सुख हो, उनमें अपने माता-पिता या अपने दिदा के अलावा कौन हो सकता था। भुवना चाहती थी जैसे वह अपने परिवारजनों के दुख-दर्दों से दुखी होती है.. उन्हें पहचानती है... उनके दुखों को कम करने तथा किसी को सुख पहुंचाने में स्वयं भी सहायक होती है उसी तरह कोई उसकी कोमल, निर्दोष व निर्मल भावनाओं को भी समझे।

    लेकिन सब निस्वार्थ भाव से काम करें तो स्वार्थ का संसार भला फिर चले ही कैसे? वह आने वाले हर कष्ट या दुख से दुखी न होती बल्कि इस सबको ईश्वर का प्रसाद मान उनसे दो-चार होती। वह दुख व विशम परिस्थितियों के आगे घुटने टेकना कायरता की निशानी मानती, लेकिन भावना के स्तर पर अपनों का अभाव उसे पल-पल खलता... जंगल में भाव-विभोर हो गीत गा-गाकर वह घंटों बिता लेती।

    घास की स्वाल्टी उसने कीट-काटकर ( ठूंस-ठूंसकर ) बिसौण (ऊंची जगह) पर रख दी थी। मवेशियां घास चर कर अपना पिचहत्तर प्रतिशत से अधिक पेट भर गई थीं। आर-पार की गदरियों में से घसियारियों के खुदेड़ गीतों का स्वर मध्यम से लगभग समापन की ओर ही था। सब अपने-अपने भारों (बोझों) को तैयार कर या तो घरों को चल दिए थे या फिर चलने की तैयारी में थे। सुदर्शिनी भाभी ने आवाज लगाई।

    ‘भुवना अब जादा भारे मत लगा... घर में तेरे मंगण्या (मंगेतर ) आ रखे हैं... कब तक इनके काम की चक्की में पिसती रहेगी... न तीन में, न तेरह में... इतना करने पर भी बाप-दादों की पुश्तैनी जादाद कब तुम्हें मिलने वाली है?... हां, जब तक जीवन का हर बोझा ढोने के लिए फ्री फंड का गधा मिला हुआ है... कौन चाहता है काम करना? जल्दी घर चल... अपने दगड्या (पिया) का हाथ पकड़ और अपनी घर-गृहस्थी बसा ... जहां काम करने का किसी के लिए कोई अर्थ भी हो...। नहीं तो पूरा का पूरा जीवन खट जाएगा बे-बजह।’

    ‘क्यों मजाक, करती हो बोजी (भाभी) गरीब के साथ? मुझे उपाधि भी गधे की ही दी है बोजी तुमने... क्या इससे अधिक औकात नहीं है मेरी?"

    ‘बुरा न मानना भुवनी, तुम्हीं नहीं, हम सबके सब गधे ही हैं----- अंतर केवल इतना है कि हम मालिक के गधे हैं व तुम लाबारिस। काम तो सबका एक ही है न... बोझा ढोना।’

    ‘लेकिन गधे बनने के लिए भी तो बहुत बड़ा जिगरा चाहिए न बोजी... . सहनशक्ति, ताकत, वैसा ही मन और भी बहुत कुछ चाहिए होता है... जो सबके पास तो नहीं होता।’

    ‘हाँ, तेरा कहना भी कुछ-कुछ ठीक है भुवनी... हमारी तो धारी देवी से यही प्रार्थना है भुवनी... कि तुझे बस अच्छा सा घर मिल जाए... बार-त्योहार पर कभी धारे (पहाड़ी की चोटी) कि ज्वौन सी तू दिख जाया करे... आखिर लड़की का असली घर तो पति का ही घर होता है न पगली....।’

    ‘ऐसे मत बोलो... बोजी... अपना मुलुक, अपना गाँव - पड़ोस ये सारियां (गेहूं- धान के खेत ) ये सेरे- गदेरे (सिंचाई वाले खेत व पहाड़ी नाले), ये हरे-भरे जंगल, नाते-रिश्तेदार, तुम्हारे सरीखी दगड्याणी ( सहेलिया) बोजी कैसे छोड़ सकूंगी मैं..? मैं तो मर जाऊंगी बोजी...।’

    फिर तुम्हारे आलू कौन लगाएगा? डाली, बोटली (बड़े - बड़े चारे के पेड़ों से घास) कौन काटेगा... गोरु - बाखरे (गाय - बकरियां) कौन हेरेगा? तुम्हारी मो-मदद (सहायता) कौन करेगा? और यह सब कोई कर भी दे तो तुम सबके बिना मैं कैसे जी सकूंगी बोजी?’ भुवनी की आंखें डबडबा जातीं।

    ‘अरे लाटी! पिता के घर में रहने वाली हर लड़की पहले यही सब सोचती है... यह बात जरूर है कि निरमैत्या कुछ अधिक सोचती है। लेकिन अजीब लीला है उस नीली छतरी वाले की ... समय के साथ-साथ इस मोम से भी कोमल दिल को रूखा पट्ठार बना देता है वह... और फिर एक समय ऐसा भी आता है कि वही माइके का देश पराया व पराया देश बिलकुल अपना लगने लगता है। तू क्यों चिंता करती है... वह सब कुछ समय से व्यवस्थित कर देता है। आखिर ईश्वर ने भाग्य भी तो बनाया है न।’

    ‘कितनी निर्दयी हो बोजी तुम भी... क्या मेरा संग-साथ अच्छा नहीं लगता तुमको? हाँ, पर स्वार्थी संसार जो ठहरा...।’

    ‘नहीं भुवनी, यह बात नहीं है, तेरे जैसी ननद तो हमको पूरे गाँव क्या, पूरे इलाके भर में भी कहाँ मिलेगी... लेकिन बोजी होने के कारण तेरे भविष्य की चिंता भी तो हमें ही करनी है न... तुम्हें तो हर पल हमारी ही फिकर सताती है... हमारा भी तो बड़ा होने का कुछ धर्म बनता है कि नहीं?’ कहकर बोजी ने भुवनी की पीठ गुदगुदा दी।

    ‘अरे भुवनी! उठ। देख घाम पण्धर्यं से भी नीचे चला गया है। दिन के निन्यारों (झीगुरों) ने भी बासना (बोलना ) बंद कर दिया है। मेरी सासू जी आज मुझे काट डालेगी... भात बनाने का वक्त हो गया है। खर्क (चौक) में अभी भैंसी तिस्वोकि ( प्यासी) होगी...। चावलों की एक मेली (दाना) नहीं है घर में... कूटने के लिए साठी (अनकुटा चावल) सुखा, भी नहीं रखा है...।

    सूखे लाखड़े (लकड़ी) भी नहीं बचे हैं... परसों एक भारी लाई थी कच्चे लाखड़ों की... फाड़कर काकर रखे थे सुखाने के लिए... अभी कहां सूखेंगे घर - गिरस्ती में क्या कोई एक झंझट है... चारों ही ओर संकटों का जंगल का जंगल है मुंह बाए खड़ा।’

    ‘घबराओ नहीं बोजी- तुम्हारी भुवनी जिंदाबाद... जब तक भुवनी तुम्हारे साथ है... क्यों चिंता करती हो बोजी। तुम्हें सूखे लाखड़े भी दे दूंगी... पंदेरे ( पनघट) से पानी भी ला दूंगी... ओखली साफकर तुम्हारे साठी (धान) भी कूट दूंगी... साली (गऊशाला) का गोबर साफ करना (आटी गाड़नी ) हो तो वह भी कर दूंगी... फिर खाली भात तो बना ही दोगी न बोजी... रही बौडी (ताई) की तुम्हें काटने की बात... वहां भी मैं रही तो क्या मजाल बौडी ... कि कुछ बोल दे...। तुम्हें क्या जोरत पड़ी है बेकार फिकर करने की? चलो.. हिटो घौर .... भुवना चिंतातुर भाभी को ढाढ़स बंधा देती।

    गांव की धियाणियूं - ब्वारियों (बहू-बेटियों) के प्राण बसते थे भुवना में। किसी को थोड़ा भी कष्ट में देखती तो कराह उठती... अपनों का दर्द तो उससे सहा ही न जाता। वह सोचा करती ब्वारियों (बहुओं) का कौन अपना होता है, पराये घर-गांव में, लड़कियों का तो अपना घर होता है। इसलिए भोजूं (भाभियों) की मो— मदद के लिए वह रात - अधरात भी तैयार रहती... और उनकी भी तो आँख का तारा थी भुवनी। गांव भर की ब्वारियों का विश्वास बैंक थी भुवना ... जब तक अपने सुख-दुख की बात भुवना को न बता दें तो चैन नहीं पड़ता था उनको।

    भुवना भी विश्वास की इतनी पक्की कि क्या मजाल, जो इसकी बात उसको बता दे। बहुवें कभी अपने माइके से आतीं तो गांव का पैणा ( कलेवा) अलग से देती व एक बुज्याड़ी ( कलेवे की पोटली) भुवना के लिए जरूर लाती। भुवना ससुराल जाएगी तो गांव की ब्वारियूं का विश्वास छिन्न-भिन्न हो जाएगा।

    लेकिन आज नहीं तो कल, कभी न कभी भुवना को ससुराल तो जाना ही है। फिर गांव की बहू-बेटियां किससे अपना सुख-दुख लगाएंगी... किससे अपने विश्वास की बातें करेंगी, किसके साथ घास - लाखड़े के लिए जाकर हंसी-ठिठोली करेंगी व किससे ऊंची-ऊंची डांडियों में खुदेड़ गीत सुनेंगी व सुनाएंगी? भुवना का व्यक्तित्व ही ऐसा था जो समझता उसे अपना ही समझता। भुवना सबकी थी... सब भुवना के थे।

    बोजी घबराई हुई घर आई, गाय-बैल साली में बांधे। फटाफट वहीं से आटी बाहर मोल की मरास (गोबर इकट्ठा करने की जगह) में डाली। न्यू बांधा। झुल्का (साफा) सिर पर लपेटा व सास की डर से भात बनाने के लिए घर चल दी। बोजी के आने तक भुवना पंदेरे से एक पानी का बंठा भरकर रसोई में रख आई थी।

    ओखली पानी से भरी थी... जब तक बोजी ओखली साफ करने के लिए भूसा लाती, साठि का डल्वाणा, सुप्पा व गंज्यालू (मूसल) लेकर वहां आती, तब तक भुवना ने उसे अपनी कोमल अंगुलियों से खाली कर दिया था। बोजी ने बिसगौण (कूटने का अनाज) वहां पर रखा तो भुवना ने अपने छज्जे से सूखे लाखड़ों की अंग्वाठि (पोटली) ले जाकर उन्हें भात रख आने के लिए कहा। स्वयं भूसे से ओखली साफ कर ‘सुप्पा - सुप्पा कर खुशी-खुशी साठी कूटने लग गई।

    बोजी ने सरासर (फटाफट) भट्ट पीसे सिल्वटे में, एक चूल्हे में भात रखा, एक में भट्वाणि व खूब झौल (आग सुलगा) लगाकर आ पहुंची भुवनी के पास। उनके आने तक भुवनी दो घाण (दो बार का अनाज) इखरा (एक कूट) चुकी थी व तीसरी घाण ओखली में कूट रही थी। बोजी को मयाल्दू ( दयार्द्र) भुवनी पर दया आई कि अभी सुबह से एक कौर भी नहीं तोड़ा उसने, लेकिन चेहरे पर कोई शिकन तक नहीं।

    वैसी ही डमडमी जैसे पहाड़ी में डगमग खिला हुआ लाल बुरांस का फूल हो।

    गांव में चर्चा ही थी कि धणक्यौर (कर्मठ ) हो तो भुवनी की तरह, जाने किस लोहे की बनी है... कि थकान उसे छू भी नहीं पाती। कोई किसी भारी-भरकम काम के लिए, उठा दें अधरात.... तो चेहरे पर वही ताजगी, वही कर्मठता, उत्साह... थकान, ऊब व आलस्य का तो नाम ही नहीं। हर दम गांव में बड़े-बूढ़ों की मदद के लिए सीमा के सिपाही की तरह हर पल तैयार।

    किसी की शादी-ब्याह में झेड़े-फड़ाई (लकड़ी कटाई) या घट्वाड़ी (गेहूं आदि अनाज) पीसने या फिर मंडाई कर भारी-भरकम कंडी उठाने की बारी हो, बस इस सबके विकल्प का नाम था भुवना। किसी दूसरे के काम को वह दूसरों का काम न समझती। बहुत अपनत्व से काम करती... खोट जरा भी नहीं कहती हर वक्त भगवान इन्सान के अच्छे व बुरे कामों पर नजर रखते हैं।

    बोजी, ऊमी (गेहूं की कच्ची बालियों के पकाये बीज) पकाकर लाई। भुवनी के माथे पर उभर आई पसीने की धार नाक व उसके कोमल-कोमल गालों तक आ गई थी। बोजी को लगा कि भुवनी तो अपनी ननद से भी बढ़कर हितैशी है उसकी... और उसकी ही क्यों... उस जैसी कई-कई नई-पुरानी ब्वारियों की... जिनका काम करती बस, बिलकुल अपना समझकर। सोचने लगी बोजी क्या लगी है इस पर कि इस बे-बगत भूकी- तीसी उसकी मद में जुटी है। भुवनी को आवाज लगाई।

    ‘भुवनी... छोरी ... थक गई होगी... ले... तब तक एक मुट्ठ ऊमी बुका ( चबा )... मैं कूटती हूं...। अपना सब कुछ छोड़, तू क्यों परेशान है मेरे लिए..... मैं क्या दूंगी ढिंडा (गोला) बनाकर तेरे देजे (दहेज) में.. गरीब बो जो ठहरी ....।’ बोजी ने भुवनी से गंज्याली पकड़ी व उसके हाथों में ऊमी की मुट्ठ देने लगी। भुवनी ने अपने साफे से पहले पसीने से लतपत अपना मुंह पोंछा व फिर उसके दूसरे सिरे पर दोनों हाथ फैलाकर ऊमी ली। फिर पास के ऊंचे ढुंगे (पत्थर) पर बैठकर कहा-

    ‘क्या खाली लेन-देन ही होता है बोजी प्यार? जो दे- ले नहीं सकता, वह किसी से स्नेह नहीं कर सकता? मैं किसी के साथ काम, कुछ लेने या पाने की इच्छा से थोड़े ही करती हूं.. किसी के साथ काम करने में मुझे बहुत भला लगता है...। देने में अहंकार होता है जो बहुत देर नहीं चलता.... लेकिन निस्वार्थ प्रेम तो कभी समाप्त नहीं होता... द्यो - द्यवतूं (देवी-देवताओं) का भी तो निस्वार्थ ही प्रेम होता है न बोजी।

    अर... यदि मैं आज आपके काम में हाथ न बंटाती तो बौडी अब तक तुम्हारा गला न काट देती बो जी (दोनों खिलखिला पड़ती हैं)। फिर मैं भी कैसी ननद आपकी... जो मैं बो जी का गला कटता देख सकूं? दुखी मत होओ बोजी... मुझे बुरा लगेगा या मैं थकूंगी तो अपने आप चली जाऊंगी।’

    ‘अरी भुवनी... जैसा तेरा काम है वैसी ही जुबान भी है... ऐसी मिसरी घोलती है कि रात-दिन तेरी ही बातें मन में हलचल मचाती रहती हैं। . भुवनी तेरे जाने के बाद मैं भी सच में आधी रह जाऊंगी। तू मेरी ननद नहीं भुवनी, मेरी माँ-बाप है...। तेबारी में तेरे मंगण्यां बैठे हैं.. अब लग रहा है..... तू हम सबका साथ छोड़ने वाली है... फिर हमारा कौन है भुवनी इस गांव में?’ भावुक बोजी ने भुवनी को अपनी छाती से लगा दिया और भुवनी भी सिसकने लगी।

    सच में, तेबारी में मंगण्यां ही बैठे थे। बहुत कहां थे, एक ही था, गोरा चिट्ठा तीखे नयनाक्ष वाला दुबला-पतला लड़का.... खूब चलता - फुरता (फुर्तीला) सा। उसे देखने की हिम्मत तो किसकी होनी थी... लेकिन कितनी दूर से आया होगा भूखा-प्यासा, रास्ते भर कुछ खाया भी होगा कि नहीं, उनके गांव तक की उकाल (चढ़ाई) चढ़ते चढ़ते उसके पांव थक गए होंगे। किसी ने उसकी चाय - पानी भी पूछी होगी या नहीं, जाने किसी खाते-पीते घर का लड़का होगा या उन्हीं की तरह किसी अनाथ परिवार का, न जाने कितनी - कितनी बातें भुवनी के भावुक हृदय में मथी जाने लगीं।

    भुवनी के लिए अपने घर में आने वाला हर व्यक्ति भगवान की तरह होता। वह सोचा करती, जब वह हर आने-जाने वाले उस व्यक्ति की, वह परिचित हो चाहे अपरिचित, की आवभगत करेगी तभी ईश्वर परदेश में भटक रहे उसके अनाथ दिदा गिरिजा को भी कोई सहारा देंगे। दया व प्रेम का सम्राज्य बहुत बड़ा है, यह बात बिना किसी के बताए भुवना स्वयं ही भलीभांति जानती है। संसार के हर इन्सान का मूल्यांकन भुवनी अपने ही दीन-हीन जीवन के इंच टेप से करती।

    तेबारी में बैठे मेहमान से बतियाने वाला घर में कोई भी न था। दोनों ददा जी (चाचा-ताऊ जी) खेत व जंगल गए थे। चाची - ताइयां खेतों को गोडने में लगी थीं... जब काम पूरा होगा तभी छोड़ती हैं वे खेत, फिर चाहे अधरात ही क्यों न हो जाए। भुवनी जंगल से घास-पात व लकड़ी लाएगी... साथ में गाय-बकरियों को चुगाकर... फिर घर आकर कूटा-पीसा देखेगी... सबके लिए, भात बनाकर रखेगी... खाना कब खाया जाएगा... वह परिवार के इकट्ठे होने के साथ-साथ, अपने-अपने कामों पर गए लोगों के काम खत्म होने वाली बात पर निर्भर करेगा।

    भुवना वोबरा (रसोई में) गई। एक लोटे में पानी, एक गिलास में चाय व कटोरी में गुड़ की डली रख लाई। खोली ( भीतरी सीढ़ियों) पर आई लेकिन तेबारी में कैसे जाए... कहीं मंगण्यां ही भावी जीवन का साथी न हो। सब कुछ वहीं पर रख दिया। ओखले में बोजी के पास गई उन्हें बताया-

    ‘बोजी, घर में कोई नहीं हैं - आप ये चाय-पानी तेबारी में पहुंचा दो

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