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Do Mahine Chaubis Din
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Do Mahine Chaubis Din

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प्रेम- सिर्फ प्रेम होता है.... हां उसके रूप अनेक हो सकते हैं।

मां का प्रेम ममता, तो पिता का प्रेम एक भावना और आदर्श के रूप में, बहन का एक जिम्मेदारी का एहसास लिए तो पत्नी का समर्पण और त्याग का प्रतीक, पति का अपने फर्ज़ रूप में प्रेम के बहुत सारे रूप हैं।

लेकिन मेरी नजर में प्रेम रूह की गहराई का एक वो समुंदर है जिसमें प्रम तो समाहित है ही, साथ में उसकी गहराई में उसकी लहरों पर खुद उसके दिल को छूने वाली शरारतें और एक नर्म ओस की तरह पवित्र एहसास जब समा जाता है तो उसकी हर लहर पर मोहब्बत के तराने अपनी एक अलग धुन में मचलने लगते हैं ओर अपनी उन लहरों के साथ-साथ हर प्रेमी के दिल में मंदिर में बजने वाली पवित्र घंटियों का एहसास जगाते हैं।

पेम वासना रहित है उसमें सिर्फ प्रेम है जो निस्वार्थ बिना किसी शर्त और अधिकार के अपनी पूरी सुगंधित वास के साथ समाहित रहता है..... और निरंतर झरना बनकर रूह की गहराई को नम रखता है जिससे उसको वो शीतल और मधुर बनाए रखता है।

एक मुकम्मल प्रेम बस दो हृदय के बीच जीता है अपनी ही धुन में, वो उस अमृत के समान है जो कभी मरने नहीं देता है आनी धुन में, वो उस अमृत के समान है जो कभी मरने नहीं देता है। वो अजर है, अमर है और शाश्वत रहता है कृष्ण की तरह....

आजकल जिस तरह से हमारी धरती पर लोग अपने रिश्तों में प्रेम को बचाकर नहीं रख पा रहे हैं वो एक चिंता का विषय तो है ही..... साथ में एक डर भी है - हृदय की सम्वेदनाओं के ख़़त्म होने पर जो एक जंगल उस जगह हदय पर उगेगा वो जंगल किस रूप का होगा  उस जंगल में कितनी तरह के कांटे होंगे, उसमें जो एक सड़ांध होगी, जो अपने व्यवहार, संवादों और मुंह से निकलने वाली बू के द्वारा न जाने कितने ही लोगों को घायल और जीते जी मारने का प्रयास करेंगे।

आज जरूरत है प्रेम को बचाकर रखने की....... फिर वो चाहे किसी भी रिश्ते के रूप में ही क्यों न हो.......  मैंने प्रेम को अपने ढंग से बचाया है आप प्रेम को कैसे बचाना चाहते हैं इस पर जरूर विचार करें।

आओ ! कि प्रम को बचाकर रख ले

मां के सीने में एहसास बनकर

पिता की बांहों का झूला बनकर

दोस्तों की प्यार भरी कुछ गालियों में

या, प्रेमी- प्रेमिका के उस पवित्र स्पर्श में

जिस जगह पर सिर्फ़ प्रेम और सिर्फ़

प्रेम ही ठहरा हो अपनी रूह तक............

कुसुम पालीवाल

Languageहिन्दी
Release dateApr 2, 2022
ISBN9789393028402
Do Mahine Chaubis Din

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    Do Mahine Chaubis Din - INDIA NETBOOKS indianetbooks

    कुसुम पालीवाल

    अनुक्रम

    कम बैक गिल्लू

    दो महीने चैबीस दिन

    वो प्यार था या कुछ और था

    आज़ाद भारत के गुलाम

    वो! सुबह कभी तो आयेगी

    आमुख

    प्रेम- सिर्फ प्रेम होता है.... हां उसके रूप अनेक हो सकते हैं।

    मां का प्रेम ममता, तो पिता का प्रेम एक भावना और आदर्श के रूप में, बहन का एक जिम्मेदारी का एहसास लिए तो पत्नी का समर्पण और त्याग का प्रतीक, पति का अपने फर्ज़ रूप में प्रेम के बहुत सारे रूप हैं।

    लेकिन मेरी नजर में प्रेम रूह की गहराई का एक वो समुंदर है जिसमें प्रम तो समाहित है ही, साथ में उसकी गहराई में उसकी लहरों पर खुद उसके दिल को छूने वाली शरारतें और एक नर्म ओस की तरह पवित्र एहसास जब समा जाता है तो उसकी हर लहर पर मोहब्बत के तराने अपनी एक अलग धुन में मचलने लगते हैं ओर अपनी उन लहरों के साथ-साथ हर प्रेमी के दिल में मंदिर में बजने वाली पवित्र घंटियों का एहसास जगाते हैं।

    पेम वासना रहित है उसमें सिर्फ प्रेम है जो निस्वार्थ बिना किसी शर्त और अधिकार के अपनी पूरी सुगंधित वास के साथ समाहित रहता है..... और निरंतर झरना बनकर रूह की गहराई को नम रखता है जिससे उसको वो शीतल और मधुर बनाए रखता है।

    एक मुकम्मल प्रेम बस दो हृदय के बीच जीता है अपनी ही धुन में, वो उस अमृत के समान है जो कभी मरने नहीं देता है आनी धुन में, वो उस अमृत के समान है जो कभी मरने नहीं देता है। वो अजर है, अमर है और शाश्वत रहता है कृष्ण की तरह....

    आजकल जिस तरह से हमारी धरती पर लोग अपने रिश्तों में प्रेम को बचाकर नहीं रख पा रहे हैं वो एक चिंता का विषय तो है ही..... साथ में एक डर भी है - हृदय की सम्वेदनाओं के ख़़त्म होने पर जो एक जंगल उस जगह हदय पर उगेगा वो जंगल किस रूप का होगा  उस जंगल में कितनी तरह के कांटे होंगे, उसमें जो एक सड़ांध होगी, जो अपने व्यवहार, संवादों और मुंह से निकलने वाली बू के द्वारा न जाने कितने ही लोगों को घायल और जीते जी मारने का प्रयास करेंगे।

    आज जरूरत है प्रेम को बचाकर रखने की....... फिर वो चाहे किसी भी रिश्ते के रूप में ही क्यों न हो.......  मैंने प्रेम को अपने ढंग से बचाया है आप प्रेम को कैसे बचाना चाहते हैं इस पर जरूर विचार करें।

    आओ ! कि प्रम को बचाकर रख ले

    मां के सीने में एहसास बनकर

    पिता की बांहों का झूला बनकर

    दोस्तों की प्यार भरी कुछ गालियों में

    या, प्रेमी- प्रेमिका के उस पवित्र स्पर्श में

    जिस जगह पर सिर्फ़ प्रेम और सिर्फ़

    प्रेम ही ठहरा हो अपनी रूह तक............

    कुसुम पालीवाल

    कम बैक गिल्लू

    वो शाम कुछ अजीब थी 

    ये शाम भी अजीब है 

    वो कल भी साथ-साथ थी 

    वो आज भी क़रीब है .....

    गाना सुनते - सुनते निशा कमरे के अन्दर से चल कर बाहर अपनी बालकनी में आकर खड़ी हो गई थी । उसने अपने सफ़ेद लम्बे बालों पर हाथ फेरते हुए एक लम्बी सी साँस भरी थी ।ऐसा जान पड़ता था कि आज तक जैसे साँस रोकी हुई थी या फिर साँसें ही उसकी रुक - रुक कर चल रही थीं ।

    आख़िर उसकी  इतनी लम्बी साँस आज तक कहाँ पर रुकी हुई थी ?

    उसकी निगाह बालकनी से बाहर दिख रहे पीपल के पेड़ को एक टक निहार रही थी । जिस पर अनगिनत गिलहरियाँ सुबह से शाम तक चहलक़दमी करती रहती थीं । उनकी धारियों वाली झबरी पूंछ और गोल गोटियों सी चमकीली नीली आँखें किसी को भी बरबस अपनी ओर आकर्षित करने के लिए काफ़ी थीं । वो उन गिलहरियों की मटरगश्ती को देखते -देखते अतीत के गहरे बहुत गहरे समुन्दर में डूबने लगी थी ...और नीचे डूबते हुए हिचकोले लेने लगी थी ।

    कितना समय बीत गया लेकिन अभी कल की ही बात हो जैसे ——

    बात उन दिनों की है जब वो सोलह वर्ष की अल्हड़, अलमस्त लड़की थी । घर में ये अल्हड़पन तो चलता था पर मस्ती नही चलती थी । मस्ती जैसा सब कुछ स्कूल और सहेलियों के बीच तक ही सीमित रहता था । पिता जी प्रशासनिक अधिकारी और माँ एक साधारण सी घरेलू महिला । आठ भाई -बहन जिसमें चौथा नम्बर मेरा था । घर में सब गुड्डन ही पुकारते थे ।मुझसे चार छोटे भाई और उनमें से दो का नाम गुड्डु था ...ये कितनी मजेदार बात थी न ! लेकिन आज सोचती हूँ पहले नामों की कमी थी या घर के बड़े सदस्य अपनी सहूलियत देखते थे नाम को पुकारने में कि गुड्डु ही रख दिया जाये .. फिर चाहें छोटा गुड्डु या बड़ा गुड्डु या फिर मंझले को मंझला गुड्डु ही क्यों न कहते रहें सारी ज़िंदगी ... 

    ये सोच कर उसकी हँसी छूट पड़ी थी ..।मन की घुटन को जैसे उसको संजीवनी मिल गई हो ।

    बचपन भी एक नर्म चादर की तरह होता है कितना मुलायम और कितना पवित्र । जिसके मन को कोई छल - कपट छू भी नहीं पाता है । सारी ज़िंदगी व्यक्ति जिस सहजता और सरलता की चाहना अपने  दिल में बचा कर  रखना चाहता है पर शायद वक्त का मिजाज़ ही कुछ ऐसा निष्ठुर  होता है कि इन्सान की सारी कोमलता को खुरदरा कर देता है । चाहकर भी इन्सान उस नर्म रेशमी और पवित्र मुलायम मन की चादर को फिर से नही ओढ़ सकता या फिर ओढ़ना नही चाहता , दोनों ही बातें हो सकती हैं ।

    ये सब सोचते - सोचते वो पूरी तरह से अपने बचपन में उतरती चली गई थी ....।

    हमारे पड़ोस में ही एक अग्रवाल परिवार रहता था । उनके दो बेटे हैं ।एक पहली बीबी से और दूसरा बेटा दूसरी बीबी से है। अग्रवाल साहब की दो शादी हुई थीं , पहला यानि बड़ा बेटा काफ़ी बड़ा था उसकी शादी हो चुकी है वो अपने परिवार में मगन रहता है। उसको मैंने कभी नही देखा था ..और जिसको देखा था बस उसी को जानती हूँ । वो प्रतिदिन हमारे घर आता था । हमारी दोस्ती दिन प्रतिदिन प्रगाढ़ होती जा रही थी। मेरी पूरी दोपहर छोटे भाइयों के साथ उसके घर पर बीत जाती थी तो कभी वो हमारे घर पूरी दोपहर के लिए आ जाता । हम चारों यानि दोनों भाई , मैं और वो , कभी कैरम , कभी लूड़ो या फिर किल-किल कांटे जैसे खेल पूरी -पूरी दोपहर खेलते .. और जब इन खेलों से उकताते तो घर के पीछे आँगन में खड़े विशाल पीपल के पेड़ के नीचे अपनी प्यारी गिलहरी के आने का इंतज़ार करते । इंतज़ार भी तब तक रहता जब तक कि मेरे घर वालों के द्वारा राहुल को उसके  अपने घर जाने के लिए खदेड़ा नही जाता ...। 

    रोज मिलने -खेलने का नतीजा अपना रंग ला रहा था । हमको एक दूसरे का साथ बहुत रास आ रहा था । हम किस तरह से बहाने खोज लेते थे आपस में मिलने के , कभी कॉपी देने के बहाने तो कभी किताब लेने के बहाने , लेकिन शायद ये भूल जाते थे उन क्षणों में कि बड़ों के अनुभव और उनकी अनुभवी आँखें सब कुछ समझती हैं और ताड़ भी लेती हैं .. और शायद इसी लिए वो  भी समझते -बूझते सिर्फ डाँट ही देते थे कि ...

    चैन नही मिलता है इतनी दोपहर में घूमते रहते हो , खबरदार जो दोपहर में घर से बाहर देखा तो , टाँगें तोड़ देंगे ...तुम लोग नहीं समझते हो बाहर ख़राब हवा चलती है , दोपहर में भूत - प्रेत लग जाते हैं ... उस डाँट का असर सिर्फ दो दिन रहता ...उसके बाद दो दिन की छुट्टी रहती खेल की और फिर तीसरे दिन वही मिलने और खेलने की बेचैनी ..।

    ओ..फ्फ.. एक दिन बड़े भैया ने किस कदर डाँटा था उसको ..।

    क्या तू ठीक से नहीं बैठ सकता कुर्सी पर ,जब भी देखो कुर्सी के हत्थे पर ही चढ़ कर बैठता है । दूसरी कुर्सी पर क्यों नहीं बैठता बे ?

    वो जब भी घर आता था अधिकतर वो उसी कुर्सी के हत्थे पर ही बैठता था जिस कुर्सी पर मैं बैठी होती । मालूम नहीं उसका ये रवैया सिर्फ़ भैया के निशाने पर ही क्यों था ? घर में किसी और ने तो उसको इस आदत पर कभी नही टोका था । 

    लेकिन , जो कुछ भी था ... उसका इतना पास बैठना मेरे मन को  जितना भाता था , भैया को उतना ही खटकता था । 

    मुझे उसका साथ उसका स्पर्श भाने लगा था । चाहें वो कैरम के खेल में हो या ताश के पत्तों में ही क्यों न हो ।...शायद वो इस बात को अच्छी तरह समझ भी चुका था इसी लिए आँखों में ही बहुत कुछ कहना तो जैसे उसकी आदत सी बन गई थी । एक दिन न जाने क्या सूझा था उसको,  जब पहली बार उसने अचानक से मुझे आँख मारी थी .. तो किस क़दर मैं  शर्म से लाल हो गई थी , मेरा पूरा चेहरा तपने लगा था लेकिन तब मैं बहुत डर भी गई थी कि किसी ने देखा तो नहीं राहुल को आँख मारते हुए । ..... 

    हाय ..! अगर देख लिया होगा किसी ने तो बहुत डाँट पड़ेगी उसको ..और कहीं उसको घर पर आने से मना ही न कर दिया जाये । उसकी इस हरकत से मन में अजीब से प्रश्न और शंका जागने लगी थी ।

    किशोर अवस्था की भावुकता और जवानी की ओर बढ़ता उन्मादी आकर्षण शायद हम दोनों पर हावी होता जा रहा था । इसी कारण मन में भय ने भी घर कर लिया था ।

    ––––––––

    एक दिन अचानक स्कूल से आते समय वो रास्ते में मिल गया था । बिल्कुल मेरे पास अपनी साइकिल को रोकते हुए बोला था ..

    हाय

    भरे बाज़ार में उसकी साइकिल को बिल्कुल अपने पास देखते ही मैं किस तरह घबरा गई थी । 

    कहीं किसी दुकानदार ने देख लिया तो क्या सोचेगा ?

    और ....पिता जी को किसी से मालूम हुआ तो क्या सोचेंगे ? 

    क्या जवाब दूँगी मैं उनकी इस बात का कि वो मेरे साथ -साथ क्यों आ रहा था ? 

    इतने सारे सवाल मेरे पहरेदार बनकर मुझको अनायास ही चारों ओर से घेरने लगे थे । मेरा चेहरा भय और चिंता में लिपटकर कभी काला और कभी लाल हो रहा था । मेरे चेहरे की रंगत का हाल भी तो मुझे उसी ने बताया था वर्ना अपना चेहरा मैं कैसे देख सकती थी । अपनी बेबसी की कहानी मेरा खुद का चेहरा उसको सुना बैठा था । तभी तो अचानक साइकिल को बिल्कुल मेरे नज़दीक सटाकर वो बोला था ....

    क्या हुआ ? इतनी डर क्यों रही हो , चेहरा देखा है अपना ?

    तुम यहाँ सड़क पर क्यों मिले ?  मैं माथे पर बल डालकर और अपनी नाक को थोड़ा सा सिकोड़ कर बोल उठी थी ..

    अरे ! क्या हुआ ? यहाँ कौन से तुम्हारे भैया बैठे हैं ? उसने हँसते हुए पूछा था ..।

    अरे ..! ये क्या ? तुम हँस रहे हो ..और मेरी जान जा रही है । तुम जाओ .. तुम जाओ राहुल ...किसी ने देख लिया तो आफ़त आ जायेगी  मैं घबरा कर फिर बोल उठी थी ..दिल की धड़कनें थीं कि डर के कारण बेक़ाबू हुई जा रही थीं ...।

    अरे .. सुनो तो अचानक से उसने मेरा हाथ पकड़ लिया था । मेरी तो जैसे जान ही निकलने वाली थी ....मैंने झट से अपना हाथ घसीट लिया था ।

    बोलो .. जल्दी बोलो मैं झुंझला कर पूछ ही रही थी कि उसने जल्दी से मेरे हाथ में एक काग़ज़ का टुकड़ा पकड़ा दिया था । 

    " ये क्या है ? ...मैं ये पूछने ही जा रही थी कि मैंने देखा ...वो साइकिल को दूर लेकर जा चुका था  ।अपने हाथ में काग़ज़ को देख कर मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था । एक बार तो लगा कि दिल सीने से निकल कर कहीं धरती पर ही न गिर पड़े ...। 

    मन का चोर एक बार फिर सोच बैठा था कि मुझे कहीं किसी ने देखा तो नहीं इस काग़ज़ को लेते हुए ।

    ये मन का चोर भी शायद बहुत ज़्यादा डरपोक होता है । आपको दब्बू बनाने में इसका अहम रोल होता है ..। इसी लिए तो ये कभी पहल नहीं कर पाता है किसी भी चीज़ को खुलकर स्वीकारने की या फिर साफ -साफ बोलने की ....।

    यही सब सोचते -सोचते कब घर का दरवाज़ा आ गया मालूम ही नहीं पड़ा था । 

    उसकी दी हुई पर्ची को मैंने अपनी किताबों के बीच छुपा कर इस तरह से रख दिया था कि कोई उसको ढूँढ भी न सके ।

    घर में घुसते ही अलमारी में बस्ता पटका , खाना खाया और वही छोटे भाइयों के बीच मस्ती भरी धमाचौकड़ी । फिर शाम को ट्यूशन और होम वर्क । पर उस दिन होम वर्क में मन किसका लगना था । मन तो काग़ज़ के उस मुड़े- तुड़े टुकड़े में उलझा हुआ था ।

    उस शाम को वो नहीं आया । वो आज क्यों नहीं आया ? रोज़ तो आता था ।ये सवाल मन में बार-बार आ रहा था । पर मन था , कि उस काग़ज़ की भी सोच रहा था । 

    न जाने क्या लिखा है उसमें ? 

    देखूँ तो ....

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