Aadam Grehan
()
About this ebook
भूमिका
किन्नर समाज पर लिखे साहित्य का इतिहास अधिक पुराना नहीं है। सही मायने में हिन्दी में यह बीसवीं सदी के अन्तिम दो दशकों में हमारे सामने आना शुरु होता है। छुटपुट रूप में इससे पहले भी इक्का-दुक्का कहानियाँ अवश्य लिखी गईं, पर अधिकतर लेखकों का रुझान इस ओर नहीं रहा। हिन्दी में शिवप्रसाद सिंह की कहानियाँ -'बहाव वृत्ति' और 'बिदा महाराज', सुभाष अखिल की कहानी 'दरमियाना' (सारिका अक्तूबर 1980), कुसुम अंसल की कहानी 'ई मुर्दन का गाँव' और किरण सिंह की कहानी 'संझा' (2013) आदि कहानियाँ मिलती हैं। असल में, किन्नर समाज पर तेज़ी से लेखन सन 2000 के बाद ही देखने को मिलता है।
हिन्दी में उपन्यासों की बात करें तो किन्नर समाज पर केन्द्रित उपन्यास सन 2000 के बाद ही दिखाई देते हैं जिनमें नीरजा माधव का उपन्यास 'यमदीप' (2002), डॉ. अनसूया त्यागी का उपन्यास 'मैं भी औरत हूँ' (2005), महेंद्र भीष्म का उपन्यास 'किन्नर कथा' (2011), 'मैं पायल' (2016), प्रदीप सौरभ की कृति 'तीसरी ताली' (2014), चित्रा मुद्गल का 'पोस्ट बॉक्स नंबर 203 नाला सोपारा' (2016), भगवंत अनमोल का उपन्यास 'ज़िन्दगी 50-50' (2017), सुभाष अखिल का 'दरमियाना' (2018), मोनिका देवी के दो उपन्यास 'अस्तित्व की तलाश में सिमरन' (2018) और 'हाँ, मैं किन्नर हूँ: कांता भुआ' (2018)
हिन्दी की तरह ही कुछेक भारतीय भाषाओं में भी किन्नर जीवन को लेकर लिखा साहित्य 2000 के बाद ही देखने को मिलता है जैसे मराठी में लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी की आत्मकथा 'मैं हिजड़ा, मैं लक्ष्मी' (हिन्दी में 2015), बांग्ला में किन्नर पर आत्मकथा (2018) 'पुरुष तन में फंसा मेरा नारी मन' (डॉ. मलेबी वंधोपाध्याय), मलयालम में मलिका वसंथम (आत्मकथा)-(लेखिका: विजयराज मल्लिका), ओरू मलयाली हिजादयुदे (आत्मकथा) (लेखक: जेरेना)। उड़िया में माहेश्वता साहू का नाम भी आता है।
पंजाबी में भी अधिकतर किन्नर केन्द्रित लेखन हिन्दी की तरह ही 2000 के बाद ही सही मायने में प्रारंभ हुआ। इससे पहले छुटपुट कहानियाँ ही मिलती हैं। 2015 में पंजाबी के युवा कथाकार जसवीर राणा ने एक किताब 'किन्नरां दा वी दिल हुंदा है' संपादित की जिसके तीसरे संस्करण में किन्नर केंद्रित करीब 25 कहानियाँ शामिल की गईं। पंजाबी की प्रसिद्ध त्रैमासिक पत्रिका 'शबद' (संपादक: जिन्दर) का किन्नर संबंधी कहानियों का विशेषांक 2017 में आया। जहाँ तक उपन्यास की बात है, सन 2000 के बाद पंजाबी में ऐसे तीन उपन्यास तो आए जिनमें किन्नर समस्या को आंशिक रुप से छुआ गया जैसे सुखबीर का उपन्यास 'अद्धे पौणे', धरम कम्मियाणा का उपन्यास 'उखड़े सुर' और 'मैं शिखंडी नहीं' (राम सरूप रिखी)। लेकिन पंजाबी में चार उपन्यास ऐसे भी सामने आए जिनमें किन्नर जीवन और उसके समाज को ही पूरी तरह कथाभूमि बनाया गया है। वे उपन्यास इस प्रकार हैं - बलजीत सिंह पपनेजा के 'संताप' (2012) और 'संताप दर संताप' (2017), हरकीरत कौर चहल का 'आदम ग्रहण' (2019) और हरपिं्रदर राणा का 'की जाणा, मैं कौण' (2019)।
'आदम ग्रहण' उपन्यास को जब मुझे हिन्दी में अनुवाद करने के लिए कहा गया तो इस समाज की बहुत सारी बातों से मैं अनभिज्ञ था। अनुवाद करते हुए मैंने अपने पुराने कथाकार मित्र सुभाष अखिल ('दरमियाना'के लेखक) से किन्नर समाज को लेकर घंटों-घंटों बातें कीं। उनसे मुझे कई नई जानकारियाँ मिलीं जो अनुवाद के समय मेरी सहायक भी बनीं। पंजाबी में किन्नर समाज पर लिखे साहित्य को लेकर लेखिका के अलावा पंजाबी के तीन कथाकारों - जिन्दर, जसवीर राणा और निरंजन बोहा से भी मेरी निरंतर फोन पर चर्चाएँ होती रहीं, जो निःसंदेह बहुत लाभप्रद रहीं।
हरकीरत कौर चहल का यह उपन्यास अमीरा से मीरा बनी किन्नर की मर्मस्पर्शी दास्तान समेटे हुए है। खूबसूरत भाषा की रवानगी इस उपन्यास की गति और लय को बनाये रखने में सक्षम रही है जिसकी वजह से यह उपन्यास और अधिक पठनीय बन पड़ा है। इस गति और लय को मैंने अपने अनुवाद में पकड़ने का पूरा प्रयास किया है, कहाँ तक सफल हुआ हूँ, यह तो पाठक ही बताएँगे।
अंत में, 'इंडिया नेटबुक प्रकाशन के स्वामी डॉ. संजीव जी का मैं हृदय से आभारी हूँ कि जिन्होंने कोरोना काल में आगे बढ़कर न केवल इस उपन्यास को प्रकाशित करने में अपनी रुचि दिखलाई, अपितु बड़ी तत्परता से इसके प्रकाशन पर काम करके इसे हिन्दी के विशाल पाठकों के सम्मुख बड़े सुंदर और आकर्षक रूप में लेकर भी आए।
हिन्दी का पाठक इसे अवश्य पसन्द करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
- सुभाष नीरव
नई दिल्ली
Read more from India Netbooks Indianetbooks
Do Mahine Chaubis Din Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsPRASANGVASH (प्रसंगवश) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsBoss Dance Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsMan Lauta Hai Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsMustri Begum Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsNandita Mohanty ki Shestra Kahaniya Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsBathroom Mein Haathi Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsBehta Kala Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsMere He Shunya Mein Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsDishayein Gaa Uthi Hein Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsKadhai Mein Jaane Ko Aatur Jalebiyan Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsTum Gulmohar Rating: 0 out of 5 stars0 ratings
Related to Aadam Grehan
Related ebooks
Nirmala Rating: 5 out of 5 stars5/521 Shreshth Naariman Ki Kahaniyan : Jammu (21 श्रेष्ठ नारीमन की कहानियां : जम्मू) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsFifty-Fifty (Vyang-Kavitayen) फिफ्टी-फिफ्टी (व्यंग-कविताएं) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsकफ़न के लुटेरे Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsGora - (गोरा) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsJad Se Ukhade Hue: Naari Sanvednaon ki kahaniyan (जड़ से उखड़े हुए ... कहानियां) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsMujhko Sadiyon Ke Paar Jana Hai Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsPremchand Ki 11 Anupam Kahaniyan - (प्रेमचंद की 11 अनुपम कहानियाँ) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsMix Vegetable (मिक्स वेजिटेबल) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsNirmala (Hindi) Rating: 3 out of 5 stars3/5Shresth Sahityakaro Ki Prasiddh Kahaniya: Shortened versions of popular stories by leading authors, in Hindi Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsक्या याद करूँ Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsKabuliwala Aur Kavi Ka Hridya: Do Kahaniya Rating: 0 out of 5 stars0 ratings21 Shreshth Lok Kathayein : Gujarat (21 श्रेष्ठ लोक कथाएं : गुजरात) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsAnmol Kahaniyan: Short stories to keep children entertained Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsRangbhumi (रंगभूमि : प्रेमचंद का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsS For Siddhi (एस फॉर सिद्धि) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsSeva Sadan - (सेवासदन) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsAgyatvas Ka Humsafar (अज्ञातवास का हमसफ़र) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsAnandmath - (आनन्दमठ) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsHindi Ki 21 Sarvashreshtha Kahaniyan (हिन्दी की 21 सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ) Rating: 0 out of 5 stars0 ratings21 Shreshth Lok Kathayein : Himachal Pradesh (21 श्रेष्ठ लोक कथाएं : हिमाचल प्रदेश) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsलघुकथा मंजूषा 3 Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsRisthon Ke Moti (रिश्तों के मोती) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsNirmala with Audio Rating: 4 out of 5 stars4/5डफरं Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsPanch Parmeshwar & Other Stories Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsसिसकती मोहब्बत Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsबनारस का एक दिन (Banaras Ka Ek Din) Rating: 0 out of 5 stars0 ratingsBehta Kala Rating: 0 out of 5 stars0 ratings
Reviews for Aadam Grehan
0 ratings0 reviews
Book preview
Aadam Grehan - INDIA NETBOOKS indianetbooks
भूमिका
किन्नर समाज पर लिखे साहित्य का इतिहास अधिक पुराना नहीं है। सही मायने में हिन्दी में यह बीसवीं सदी के अन्तिम दो दशकों में हमारे सामने आना शुरु होता है। छुटपुट रूप में इससे पहले भी इक्का-दुक्का कहानियाँ अवश्य लिखी गईं, पर अधिकतर लेखकों का रुझान इस ओर नहीं रहा। हिन्दी में शिवप्रसाद सिंह की कहानियाँ -’बहाव वृत्ति’ और ’बिदा महाराज’, सुभाष अखिल की कहानी ’दरमियाना’ (सारिका अक्तूबर 1980), कुसुम अंसल की कहानी ’ई मुर्दन का गाँव’ और किरण सिंह की कहानी ’संझा’ (2013) आदि कहानियाँ मिलती हैं। असल में, किन्नर समाज पर तेज़ी से लेखन सन 2000 के बाद ही देखने को मिलता है।
हिन्दी में उपन्यासों की बात करें तो किन्नर समाज पर केन्द्रित उपन्यास सन 2000 के बाद ही दिखाई देते हैं जिनमें नीरजा माधव का उपन्यास ’यमदीप’ (2002), डॉ. अनसूया त्यागी का उपन्यास ’मैं भी औरत हूँ’ (2005), महेंद्र भीष्म का उपन्यास ’किन्नर कथा’ (2011), ’मैं पायल’ (2016), प्रदीप सौरभ की कृति ’तीसरी ताली’ (2014), चित्रा मुद्गल का ’पोस्ट बॉक्स नंबर 203 नाला सोपारा’ (2016), भगवंत अनमोल का उपन्यास ’ज़िन्दगी 50-50’ (2017), सुभाष अखिल का ’दरमियाना’ (2018), मोनिका देवी के दो उपन्यास ’अस्तित्व की तलाश में सिमरन’ (2018) और ’हाँ, मैं किन्नर हूँ: कांता भुआ’ (2018)
हिन्दी की तरह ही कुछेक भारतीय भाषाओं में भी किन्नर जीवन को लेकर लिखा साहित्य 2000 के बाद ही देखने को मिलता है जैसे मराठी में लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी की आत्मकथा ’मैं हिजड़ा, मैं लक्ष्मी’ (हिन्दी में 2015), बांग्ला में किन्नर पर आत्मकथा (2018) ’पुरुष तन में फंसा मेरा नारी मन’ (डॉ. मलेबी वंधोपाध्याय), मलयालम में मलिका वसंथम (आत्मकथा)-(लेखिका: विजयराज मल्लिका), ओरू मलयाली हिजादयुदे (आत्मकथा) (लेखक: जेरेना)। उड़िया में माहेश्वता साहू का नाम भी आता है।
पंजाबी में भी अधिकतर किन्नर केन्द्रित लेखन हिन्दी की तरह ही 2000 के बाद ही सही मायने में प्रारंभ हुआ। इससे पहले छुटपुट कहानियाँ ही मिलती हैं। 2015 में पंजाबी के युवा कथाकार जसवीर राणा ने एक किताब ’किन्नरां दा वी दिल हुंदा है’ संपादित की जिसके तीसरे संस्करण में किन्नर केंद्रित करीब 25 कहानियाँ शामिल की गईं। पंजाबी की प्रसिद्ध त्रैमासिक पत्रिका ’शबद’ (संपादक: जिन्दर) का किन्नर संबंधी कहानियों का विशेषांक 2017 में आया। जहाँ तक उपन्यास की बात है, सन 2000 के बाद पंजाबी में ऐसे तीन उपन्यास तो आए जिनमें किन्नर समस्या को आंशिक रुप से छुआ गया जैसे सुखबीर का उपन्यास ’अद्धे पौणे’, धरम कम्मियाणा का उपन्यास ’उखड़े सुर’ और ’मैं शिखंडी नहीं’ (राम सरूप रिखी)। लेकिन पंजाबी में चार उपन्यास ऐसे भी सामने आए जिनमें किन्नर जीवन और उसके समाज को ही पूरी तरह कथाभूमि बनाया गया है। वे उपन्यास इस प्रकार हैं - बलजीत सिंह पपनेजा के ’संताप’ (2012) और ’संताप दर संताप’ (2017), हरकीरत कौर चहल का ’आदम ग्रहण’ (2019) और हरपिं्रदर राणा का ’की जाणा, मैं कौण’ (2019)।
’आदम ग्रहण’ उपन्यास को जब मुझे हिन्दी में अनुवाद करने के लिए कहा गया तो इस समाज की बहुत सारी बातों से मैं अनभिज्ञ था। अनुवाद करते हुए मैंने अपने पुराने कथाकार मित्र सुभाष अखिल (’दरमियाना’के लेखक) से किन्नर समाज को लेकर घंटों-घंटों बातें कीं। उनसे मुझे कई नई जानकारियाँ मिलीं जो अनुवाद के समय मेरी सहायक भी बनीं। पंजाबी में किन्नर समाज पर लिखे साहित्य को लेकर लेखिका के अलावा पंजाबी के तीन कथाकारों - जिन्दर, जसवीर राणा और निरंजन बोहा से भी मेरी निरंतर फोन पर चर्चाएँ होती रहीं, जो निःसंदेह बहुत लाभप्रद रहीं।
हरकीरत कौर चहल का यह उपन्यास अमीरा से मीरा बनी किन्नर की मर्मस्पर्शी दास्तान समेटे हुए है। खूबसूरत भाषा की रवानगी इस उपन्यास की गति और लय को बनाये रखने में सक्षम रही है जिसकी वजह से यह उपन्यास और अधिक पठनीय बन पड़ा है। इस गति और लय को मैंने अपने अनुवाद में पकड़ने का पूरा प्रयास किया है, कहाँ तक सफल हुआ हूँ, यह तो पाठक ही बताएँगे।
अंत में, ’इंडिया नेटबुक प्रकाशन के स्वामी डॉ. संजीव जी का मैं हृदय से आभारी हूँ कि जिन्होंने कोरोना काल में आगे बढ़कर न केवल इस उपन्यास को प्रकाशित करने में अपनी रुचि दिखलाई, अपितु बड़ी तत्परता से इसके प्रकाशन पर काम करके इसे हिन्दी के विशाल पाठकों के सम्मुख बड़े सुंदर और आकर्षक रूप में लेकर भी आए।
हिन्दी का पाठक इसे अवश्य पसन्द करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
- सुभाष नीरव
नई दिल्ली
या अल्लाह! उम्रभर के बनवास पर चल पड़ी निर्मोही? अब बोलती भी नहीं, मदद के लिए पुकारती भी नहीं, न ही मेरे पत्थर जैसे शब्दों की भनक उसकी आँखों में नमी ला सकेगी। यूँ तो अच्छा ही हुआ न, बरकत के अब्बा? गीली लकड़ी की भाँति सुलगती चुपचाप घूमती रहती थी।
दुख और उदासी से भरी सलमा आँगन में बैठे चिलम सुलगाकर हुक्का पीते अपने खाविंद निज़ामुद्दीन से कहने लगी। सुनकर निज़ामुद्दीन हुक्के की गुड़-गुड़ को और अधिक ऊँची कर देता, मानो अंदर जलती वैराग की भट्ठी और ज्यादा सुलग उठी हो। वह हलक में से ग़म रूपी धुआँ नथुनों के रास्ते अम्बर की ओर छोड़ता हुआ बोला, हाँ सलमा, कमबख़्त यह नासूर तो उम्रभर के लिए रूह और जिस्म में कुटिया बना बैठा। हर साल रोज़ों के दिनों में ये अरमान आग की लपटों की तरह मचलते हैं, हसरतें तार-तार हो जाती हैं। इस झल्ले मन को खूब समझाता हूँ कि अल्लाह को यही मंजूर था। पर यह मन माने, तब न?
बेबस निज़ामुद्दीन दोनों हाथों में पकड़े हुक्के की ओर झुकता हुआ बोला।
साईं की रज़ा मानने में बड़ा सुकून है, बरकत के अब्बा। देखना, कहीं इसको दिल का रोग न बना बैठना। तगड़ा हो... सुख से ये कबीलदारी भी देखनी-संभालनी है...।
दिलासा देती सलमा राख के साथ ज़ोर-ज़ोर से बर्तन मांजती, सारे ग़म और दुख साफ़ कर देने की सोच रही थी।
ठीक ही तो कहती हो सलमा, हम दोनों ने तो रज़ा ही मानी थी, पाल-पोस ली थी। मगर अब घर छोड़ जाने का फैसला तो उसका ही था न? हालात के आगे घुटने टेकने के सिवाय तो कोई चारा भी नहीं था।
ना रे अल्लाह के बन्दे, इस दर्द के लिए उसको गुनाहगार न कह...उसकी पीठ सुनती है, वह बेचारी तो मुहब्बतों की ख़ैर मांगती-मांगती थक गई थी। ये मेरी कोख जाये ही तल्खियाँ बोने बैठ गए थे। लुक-छिपकर तेरी-मेरी ओट में जलील करते। उसके वजूद पर शरमिंदगी महसूस करते।
यूँ ही अबा-तबा न बोल, बहन-भाई बीस बार लड़ते-झगड़ते हैं। मैंने तो एक शब्द भी नहीं कहा था और न ही कोई ऊँचा-नीचा बोल बोलते सुना था। कम से कम सिर पर छत और तीन वक्त की रोटी तो मिलती थी। अब पता नहीं, कहाँ परेशान होती होगी?
गुस्से और मोह के साथ निज़ामुद्दीन का कंठ भर आया। मोटी-मोटी लाल सुर्ख आँखें, कंधे पर रखे गमछे के पल्लू से पोंछता वह फिर हुक्के को सड़ाके मार कर पीने बैठ गया।
सिर्फ़ घर में पनाह देने और दो वक्त की रोटी देने से इन्सान कबूला नहीं जाता, उसकी होनी भी स्वीकार करनी पड़ती है। अच्छा-बुरा, काला-गोरा, पूरा-अधूरा सब। मगर मैं किसी को क्या दोष दूँ? मैं तो पगली आप गुस्से में आकर कई बार अबा-तबा बोलकर कोसने लगती थी, कभी करमजली मिट्टी भी कह देती।
मलमल की चुन्नी से आँखें पोंछती सलमा पश्चाताप की अग्नि में जल रही थी।
बीते समय की दास्तान अक्सर ही रील बनकर सलमा और निज़ामुद्दीन की आँखों के आगे से गुज़रती। दोनों जन घंटों तक उसकी यादों के साथ मन बहलाते रहते।
उस दिन संध्या के समय मगरिब की नमाज़ ने फ़िज़ा में संदली रंगत घोल रखी थी। बादलों के टुकड़ों ने आधा अम्बर ढक रखा था। इक्का-दुक्का तारे थे। कच्चे आँगन के एक कोने में तपते तन्दूर पर बड़ी बेटी बानो रोटियाँ लगा रही थी। बच्चों की उम्र में कहीं सेक न लगवा ले, सोचकर निज़ामुद्दीन की निगाह बार-बार उस पर जाती। पराया धन है, कोई खोट न पड़ जाए, सोचकर सलमा ने तो कभी उसको ज़ोखिम भरे काम में नहीं लगाया था। हारे में पाथियों की सुलगती आग पर से दाल की हांडी निज़ामुद्दीन खुद उठाकर रख आया था। उसका ध्यान जनेपे के दर्द झेलती सलमा की ओर था। दिनभर आवे पर मिट्टी के बर्तन पकाता निज़ामुद्दीन का अंग-अंग दुख रहा था। बरकत, शमीरा और बिलाल अभी लड़कों की ढाणी में से घर लौटे ही थे। तीन पुत्रों की आँगन में रौनक देखकर चारपाई पर पड़ा निज़ामुद्दीन मुँह में ही गुनगुनाया, माशा अल्लाह, तेरी रहमत के वारे-वारे जाऊँ। यह नाचीज़ सदा ही तेरी बरकतों और रहमतों का देनदार रहेगा।
इतने में अंदर से गाँव की बुजुर्ग दाई नन्द कौर जिसको सारा गाँव अम्बो कहकर बुलाता, घबराई हुई बाहर आई।
कैसी मनहूस घड़ी...तौबा-तौबा।
पेशानी पर बल डाले घोर चिंता में वह बोली।
नन्द कौर की बात निज़ामुद्दीन की समझ में न आई। दौड़कर अम्बो के कंधे पर हाथ रखता निज़ामुद्दीन पूछने लगा, अम्बो, सलमा ठीक है न? बच्चा भी ठीक है न?
हाँ बेटा, सलमा ठीक है।
बिना नज़र मिलाए अम्बो बोली।
अस्सी बरस पार की अम्बो के पतले इकहरे और ठिगने कद को उसके कुबड़ेपन ने और छोटा कर दिया था, परन्तु रुतबे की मान-मर्यादा इतनी थी कि जेठे बालक के अलावा शायद ही गाँव वाला कोई अम्बो के स्पर्श के बग़ैर इस दुनिया में आया हो। हर दर-घर का राज अम्बो अपनी छाती के रेशमी रूमालों में संभाल-संभालकर कर रखती, दुआएँ बाँटती, अपना कर्म-धर्म निभाती रहती।
पर अम्बो, तू चुप क्यों है? ना कोई धाई, ना बधाई, क्या बात हो गई? फिर क्या हुआ गर बेटी आ गई। अल्लाह की मेहर से मेरे तीन बेटे हैं। तीन भाइयों की दो बहनें होंगी। मुझे कोई ग़म नहीं। इंशा अल्लाह, तू खुश हो।
निज़ामुद्दीन बिना रुके बोलता चला गया।
ना रे बेटा, खुश कैसे होऊँ? न तो न धी है, न ही पुत्र। नीली छतरी वाले को तो कुछ और ही मंजूर था। तेरे आँगन में तो आज कड़कड़ाती आसमानी बिजली गिरी है बल्ले। हौंसला रखना मेरे शेर, जनेपे का काम है, सलमा का दूसरा जन्म हुआ है। उसे हौंसला देना।
कहती हुई अम्बो नन्द कौर दरवाज़े के साथ रखी छड़ी उठाकर अँधेरी गली में गायब हो गई।
निज़ामुद्दीन तो सुनकर एकदम से बर्फ़ में लग गया हो जैसे। शमीर और बिलाल आँगने में बिछी चारपाइयों के इर्दगिर्द छुअन-छुआई खेलते हुए शोर मचा रहे थे। बेख़बर थे कि आज घर की दहलीज़ लाँघ कर अंदर आए जीव को क्या नाम, रुतबा और कौन सा रिश्ता दे सकेंगे।
चुप हो जाओ ओ लड़को! क्या शोर मचा रखा है? जाओ, रोटी खाओ और सो जाओ। तुम्हारी अम्मी तकलीफ़ में है और तुम्हें शरारतें सूझ रही हैं।
तल्ख़ी से भरे पिता का व्यवहार देखकर लड़के चुपचाप बानो के पास चूल्हे-चैके में रोटी खाने जा बैठे।
निज़ामुद्दीन असमंजस में डूबा अंदर-बाहर हो रहा था। हौसला जुटा रहा था कि सलमा का सामना कैसे करूँ, क्या कहकर धीर धराऊँगा?
वाह रे साईं! किस करनी का सिला भुगतने के लिए दिया? मैंने तो कभी तेरे किसी जीव का दिल नहीं दुखाया था। सच बता, यह मेरी बदी का सिला है या तेरी का?
स्व-संवाद रचाता निज़ामुद्दीन हौसला करके जनेपे वाली सबात में जा घुसा।
दर्द में कराहती सलमा की आँखों से नीर बह रहा था। नवजन्मा बच्चा साथ पड़ा मुँह खोल-खोलकर माँ की छातियाँ टटोल रहा था। हाथ-पैरों की हरकत यूँ लग रही थी जैसे धुंध में अंधा हुआ अपने वजूद को तलाशने और मोहभरे आगोश की गरमाहट के लिए गुहार लगा रहा हो।
देखकर निज़ामुद्दीन का मन पसीज गया, उसकी तड़प शिखर पर पहुँच गई।
गहरा निःश्वास छोड़ते हुए वह सोचने लगा, दुर... लानत है तुझ पर निज़ामुद्दीन! तू इतना स्वार्थी कब से हो गया?
बच्चे के नयन-नक्श निहारते हुए निज़ामुद्दीन ने हल्के से स्पर्श के साथ फूल जैसे बच्चे के सिर को सहलाया और आँखों की नमी को कुरते की कन्नी से पोंछता हुआ बोला -
यूँ ही न दिल छोटा कर सलमा, यह भी तो अल्लाह का ही जीव है। हर कोई अपनी तकदीर लिखाकर आता है। यूँ ही रो रोकर आँखें न गला, बहन-भाइयों में रच-बसकर पल जाएगा। सारे ही बर्तन भरे तो नहीं होते, कोई खाली भी तो होता है। और फिर, आँख-नाक-कान सब सही सलामत हों तो बन्दा करम के सहारे ही जीता है।
बर्तन खाली-भरे होने की बात तो बाद में आती है, बरकत के अब्बा। पर अगर बर्तन ही कच्चा-भुरभुरा बना हो, तो उसको कौन अपनी रसोई में सजाता है? बड़ी बात तो यह है कि जब लोग पूछेंगे कि बेटी जन्मी है या बेटा? फिर क्या जवाब दोगे?
फूट-फूटकर रोती सलमा बोली।
ले, है न पगली, बेटी ही तो है मेरी अमीरा, कपड़ों में ढकी अपनी इज्ज़त बनकर रहेगी। मैंने तो अम्बो को भी कह दिया कि तीन भाइयों की दो बहने हो गई हैं। सयानी है, वह खुद बात संभाल लेगी। तू यह फिक्र छोड़। उठ, मैं गरम-गरम दूध लाता हूँ, पी और लड़की को दूध चुंघा। देख कैसे भूख से बिलख रही है।
बीवी के कंधे को थपथपाकर हल्लाशेरी देता निज़ामुद्दीन हमसफ़र होने का फ़र्ज़ बखूबी निभा रहा था। बानो द्वारा अब्बा के लिए डाली गई रोटी का थाल पड़ा ही रहा। दोनों की हालत टूटे तारे के मानिंद थी।
इकहरे बदन, पक्के रंग, खोजी-सी दाढ़ी वाला निज़ामुद्दीन अपना अधगंजा सिर टोपी के ढककर रखता। गाँव अलीगढ़, मालेरकोटला रियासत में पड़ने के कारण सैंतालीस के विभाजन के समय मुसलमान उजड़ने से बच गए थे। कलगी वाले की रहमत के कारण धरती का यह टुकड़ा मनुष्य का क़त्लेआम होने से बच गया था। गाँव अलीगढ़ में कुम्हार जाति के परिवार आम गाँवों से ज्यादा थे। कुछेक परिवार तो अपनी मरज़ी से ही माहौल शांत होने पर खुद ही पाकिस्तान की ओर हो चले थे। पर निज़ामुद्दीन का पिता अताउल्ला खान गाँव वालों की मोह-मुहब्बत से मुँह न फेर सका। अहसान की गठरी भारी थी। कैसे भूल जाता कि लोगों ने में, भूसे वाले कोठों में उसके परिवार और बेटियों-बहनों की इज्जत को गहनों की तरह संभाल-संभालकर रखा था। यहीं बस जाने के लिए कैसे सारे गाँव ने आँखें भर कर गुहार लगाई थी। चारों तरफ आँसुओं की बाढ़ आई हुई थी। उसने परिवार को फैसला सुना दिया कि रूह छोड़कर कलबूत को कहाँ संभालता फिरूँगा?... अल्लाह खुद सहाय होगा, यहीं टिक जाओ...जड़ों को न उखाड़ना।"
उसकी बात न मानने की किसी ने हिम्मत नहीं की थी। निज़ामुद्दीन के दो अन्य भाई और पाँच बहनें भी साथ वाले गाँवों में रिश्तेदारियों में ही ब्याहे थे और सलमा भी तो उसकी मौसी की ही बेटी थी। गुलाबी पन्ने में से निकाली नए-नकोर गहने जैसी सलमा पर जवानी भी तो बला की आई थी। दरमियाना कद मगर गोरे-निछोह रंग पर जब काली चुन्नी लेती तो निरा पूनम का चाँद लगती। दाँतों पर फेरा दंदासा और आँखों में डाला कोरा सुरमा उसके रूप को चार चाँद लगा देता। सारा दिन कामकाज में व्यस्त, चार-पाँच बच्चों की माँ बनकर भी वह अच्छी-अच्छी जाटनियों को मात देती थी।
गाँव में मुसलमान भाईचारे के लिए कोई मस्जिद नहीं थी, पर गाँव की बाहरी कच्ची राह, चैरस्ते और मढ़ियों की राह पर लोगों ने अपने पीरों की मज़ारें बना रखी थीं, जिनमें से अब इक्का-दुक्का ही शेष बची थीं। ईद और रोज़ों के दिनों में सज-संवर कर सलमा भी बेटियों को मज़ार पर दीये जलाने, मन्नतें मांगने ले जाती। अपनी खुशियों को लगा ग्रहण वह लोगों से छिपा-छिपाकर रखती।
समय अपनी गति से चलता रहा। बड़े