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Mix Vegetable (मिक्स वेजिटेबल)
Mix Vegetable (मिक्स वेजिटेबल)
Mix Vegetable (मिक्स वेजिटेबल)
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Mix Vegetable (मिक्स वेजिटेबल)

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About this ebook

जब किसी बड़े लेखक के द्वारा लिखे गए सौ–पचास शब्द किसी किताब की भूमिका हो सकते हैं तो पुष्पा जी के साथ भारती जी के कमरे में बिताये सौ-पचास पल. इससे बढ़कर इस किताब की और क्या भूमिका होगी? प्रणम्य दृष्टि से भाव-विभोर हो, सर झुकाये, मानो उन्होंने भूमिका लिखी हो। मैं कह उठा- "अब इस संग्रह का शीर्षक 'बचा-खुचा मैं' नहीं होगा। मुझे कोई अच्छा शीर्षक नहीं सूझा तो मैं शीर्षक रमूंगा- 'ये बचा-खुचा मैं' नहीं है! इस पर वे मुस्कुरा उठीं। मुझे ऐसा लगा मानो उन्होंने भूमिका पर अपने हस्ताक्षर कर दिए हो! शीर्षक रखना मेरे लिए रचना लिखने से ज्यादा मुश्किल होता है। फिर यहाँ तो कई विधाएँ हैं। एक दिन ख्याल आया कि कई बार कई सब्जियाँ कम मात्रा में होती हैं तो सफल गृहणी उन्हें मिलाकर सब्जी बना लेती है। इससे सब्जियाँ जाया भी नहीं होती और सबका अलग-अलग स मिलकर एक नया स बन जाता है। इसे कहते हैं "मिक्स वेजिटेबल'!.
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateApr 15, 2021
ISBN9789390504657
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    Mix Vegetable (मिक्स वेजिटेबल) - Ghanshyam Aggarwal

    मिक्स वेजिटेबल

    (हास्य-व्यंग्य संग्रह)

    eISBN: 978-93-90504-65-7

    © लेखकाधीन

    प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.

    X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II

    नई दिल्ली- 110020

    फोन : 011-40712200

    ई-मेल : ebooks@dpb.in

    वेबसाइट : www.diamondbook.in

    संस्करण : 2021

    Mix Vegetable

    By - Ghanshyam Agrawal

    || समर्पण ||

    लेखक सिर्फ

    किताब को जन्म देता है

    ता-उम्र उसकी परवरिश

    तो पाठक ही करते हैं।

    मेरी यह किताब

    आप सब पढ़ने और

    चाहने वालों के नाम!

    - घनश्याम अग्रवाल

    एक भूमिका ऐसी भी…

    आओ लम्हें बाँटें

    लेखक अपनी रचनाओं को लिखने से पहले ही उसे पढ़ लेता है और लिखते वक्त वह उसे देख भी लेता है। इन्हीं पढ़े हुए और देखे हुए लम्हों को किसी के साथ बाँटना ही किताब की भूमिका होती है / होनी चाहिए। भूमिका रचनाओं की परछाई होती है। रचना के सहारे परछाई तक पहुँचना मुश्किल होता है, नामुमकिन नहीं। भूमिका लिखी जा सकती है, लिखवाई जा सकती है। पर अपनी किताब की भूमिका खुद लिखना, परछाई के सहारे रचना तक पहुँचने का सफर है। चलो, इस सफर पर चलते हैं। आप साथ होंगे तो सफर सुहाना- साहित्यकाना-और ये मौसम हसीं होगा।

    कुछ साल पहले की बात है, मुंबई की चौपाल में गुलज़ार साहब का सम्मान समारोह था। चौपाल में कोई सदस्य तो होता नहीं, कविता के पन्ने होते हैं। ऐसे ही एक पन्ने अशोक जी बिंदल से बात करते हुए, यानी कविता पढ़ते हुए मैंने देखा गुलज़ार साहब और पुष्पा जी भारती आत्मीयता से उधर बतिया रहे थे। पुष्पा जी ने मेरे लघुकथा संग्रह ‘अपने-अपने सपने’ का विमोचन किया था। परिचय अपनेपन तक आ गया था। पुष्पा जी ने मुझे देखा और अपने पास बुलाया और कहा- "गुलज़ार भाई, ये घनश्याम हैं। यूँ तो हास्य-व्यंग्य का कवि है, पर बड़ी मार्मिक लघुकथाएं लिखी हैं इसने। ठहरो, मैं आपको इसकी एक लघुकथा सुनाती हूँ’- ‘एक थी छोटी…’

    किसी भी लेखक के लिए इससे बड़ा पुरस्कार और क्या होगा कि उसकी रचना पुष्पा जी सुना रही हों और गुलज़ार सुन रहे हैं। इन पलों में भीगते मैंने देखा कि मेरी लघुकथा सातवें आसमान की सैर पर निकली है। जब लघुकथा की अंतिम दो-चार पंक्तियाँ ही शेष बची थीं तभी दो-चार लोग जावेद सिद्दीकी सहित वहाँ आए और गुलज़ार साहब को बधाई देते, उन्हें गले लगाते हुए एक ओर खींच कर ले गये । ऐसा होना स्वाभाविक भी था। फिर मेरी अब तक सुनी लघुकथा शायद उन्हें इतना प्रभावित न कर सकी हो कि वे कहते- ठहरो, पहले लघुकथा पूरी सुन लेते हैं। (उन्हें कथा का अंत पता नहीं था इसलिए भी)। पुष्पा जी बड़ी आतुरता से कथा का अंत सुनाना चाहती थी, पर वे आगे जा चुके थे। अपनी आतुरता समेटे पुष्पा जी ने मुझसे कहा- घनश्याम, तुम्हारे नसीब में नहीं था। काश, गुलज़ार तुम्हारी ये लघुकथा पूरी सुन लेते।

    मेरे हाथ आया एक कीमती जाम छलक चुका था। एक पल पहले मेरी कथा जो आसमान की सैर पर थी, दूसरे ही पल ज़मीं पर, औंधे पड़े रहे, कभी करवट लिए हुए सुबक रही थी। उसका अंत शुरू होने के पहले जो मर चुका था। और मर चुका था ये पल-दो पल का शायर भी। मगर पल-दो पल को ही । वह फिर जी उठा । बोला- पुष्पा जी, ये मेरे नसीब में नहीं था कि गुलजार साहब मेरी कथा पूरी सुनते । पर मेरे नसीब में ये सुनना तो था कि इस कथा के लिए आपने जिस आतुरता से कहा-काश…, गुलजार तुम्हारी पूरी कथा सुन लेते!"

    आपके इस ‘काश’… पर मेरी कथा उस मुकाम पर पहुँच गई, जहाँ गुलजार साहब सुन भी लेते तो भी नहीं पहुँचती। एक खुशबूदार खुशी लिए, अपने जीने का जश्न मनाता हुआ वह पल-दो पल का शायर फिर जिन्दा होकर शैलेन्द्र को गुनगुनाने लगा- आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर…।

    आज फिर, एक तो यह तय किया कि ये सारे लम्हें ही मेरी अगली किताब की भूमिका होंगे। और दूसरे एक लघुकथा ऐसी लिखूं, जिसमें गुलज़ार साहब नाम मात्र को आएं और मेरी लघुकथा का हिस्सा बन जाए। दूसरा काम मुश्किल था मगर हो गया (इसी संग्रह में ‘हाई-वे का दर्द)। पर किताब निकालना?… जो कुछ लिखा था वह तो पिछली सारी किताबों में है। नया, किसी भी विधा में मैंने इतना नहीं लिखा कि उसका अलग से संग्रह बन सके। वक्त गुजरता गया। अचानक ख्याल आया कि क्यों न सबको मिलाकर किताब निकाली जाए। व्यंग्य, लघुकथाएँ, कविताएँ, कुछ इधर का, कुछ उधर का सबको जोड़ा तो संग्रह का जन्म हुआ। नाम रखा गया, ‘बचा-खुचा मैं’!

    फिर क्या था मैं पहुँच गया पुष्पा जी के घर । स्नेह उड़ेलती हुईं वे बोलीं- चलो, भारती जी के कमरे में बैठते हैं। भारती जी का कमरा हम सब के लिए एक मंदिर है। जिसकी दीवारें ईंटों से नहीं किताबों से बनी थी। कमरा लोबान जैसी कविताओं की खुशबू से महक रहा था… । ऐसे में कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है!

    संग्रह के बारे में बताते हुए गर्व से बोल पड़ा मैं – मैंने इसका शीर्षक रखा है ‘बचा-खुचा मैं’! सोचा पुष्पा जी खुश होंगी। शाबासी देंगी। मगर थोड़ा डाँटने और ज्यादा समझाते तल्ख आवाज में वे बोलीं- ये बचा-खचा क्या होता है? मैं तुमसे उम्र में बड़ी हैं। फिर भी लिख रही हूँ न। तुम कवि हो ना, सांस लेते हो ना। फिर हर सांस तुम्हारी नयी कविता होनी चाहिए। ‘बचा-खुचा मैं’ यह शीर्षक मत रखो। इसमें दयनीयता झलकती है… और साहित्य कभी दयनीय नहीं होता!"

    जब किसी बड़े लेखक के द्वारा लिखे गए सौ–पचास शब्द किसी किताब की भूमिका हो सकते हैं तो पुष्पा जी के साथ भारती जी के कमरे में बिताये सौ-पचास पल… इससे बढ़कर इस किताब की और क्या भूमिका होगी? प्रणम्य दृष्टि से भाव-विभोर हो, सर झुकाये, मानो उन्होंने भूमिका लिखी हो। मैं कह उठा- "अब इस संग्रह का शीर्षक ‘बचा-खुचा मैं’ नहीं होगा। मुझे कोई अच्छा शीर्षक नहीं सूझा तो मैं शीर्षक रखूंगा- ‘ये बचा-खुचा मैं’ नहीं है! इस पर वे मुस्कुरा उठीं। मुझे ऐसा लगा मानो उन्होंने भूमिका पर अपने हस्ताक्षर कर दिए हो!

    शीर्षक रखना मेरे लिए रचना लिखने से ज्यादा मुश्किल होता है। फिर यहाँ तो कई विधाएँ हैं। एक दिन ख्याल आया कि कई बार कई सब्जियाँ कम मात्रा में होती हैं तो सफल गृहणी उन्हें मिलाकर सब्जी बना लेती है। इससे सब्जियाँ जाया भी नहीं होती और सबका अलग-अलग स्वाद मिलकर एक नया स्वाद बन जाता है। इसे कहते हैं मिक्स वेजिटेबल!

    मेरी ये रचनाएँ भी ऐसी ही थीं, सब अलग मूड की । अलग समय की। अलग विषयों की । मगर वे जब मिली तो एक नयी मस्ती में हृदय को स्पर्श करती हुईं। शीर्षक अपने आप सूझ गया…

    मिक्स वेजिटेबल

    आइए…पढ़िए…चखिए।

    इस किताब के सफर में साथ देने वाले सभी का आभार/ सभी को प्रणाम।

    आदरणीय पुष्पा जी/भारती जी/गुलज़ार/ अशोक जी बिंदल/ शैलेन्द्र/साहिर / मैथिलीशरण/ बलराज साहनी और…, और…, आप सब ।

    -घनश्याम अग्रवाल

    विषय सूची

    आओ लम्हें बाँटें

    शरद जोशी पुण्यतिथि

    गोबर से सस्ता हमें और क्या मिलेगा

    एक और ग्रहण : शपथ ग्रहण

    एक हमले का सवाल है बाबा

    बिशनलाल का अपहरण

    इक्कीसवीं सदी में नई क्रांति

    जूते

    झंडे का डंडा

    जब अँधेरा होता है

    मैं, तरबूज़, बम और शक की सुई

    मुंबई बनाम हस्तिनापुर

    पूर पीड़ित, भरपूर पीड़ित

    गाँधी की भ्रूणहत्या

    चुस्त पुलिस, सुस्त पुलिस

    एक फँटास्टिक आइडिया

    झुमका गिरा रे

    फिर लक्ष्मी भूल गई मेरे घर का रास्ता

    तलाश है, एक गॉडफादर की

    भगवान बचाए, इन हमदर्दों से

    चोली के पीछे सिसके होली

    कट होते हुए कटआउट

    एक अदद व्यंग्य लेख की तलाश में

    जैसी बीसवीं सदी, वैसी इक्कीसवीं सदी

    हूट होते कवि

    हमारा राष्ट्रीय संबोधन

    पुनः चुनाव, पुनः एक बार जन (गण मन) हितार्थ

    ऐ, मेरे वतन के लोगों

    लघुकथाएँ

    दि बुलेट ट्रेन

    क्लीन बोल्ड

    अपने-अपने रामराज

    हाई-वे का दर्द

    हम सब चोर हैं

    सॉरी

    रोशनी ढोते हुए

    साब, मुझे प्यास लगी है

    गुड्डो की शादी में फिर आना है

    टेंपररी इंटरव्यू!

    दो माँएं

    गुब्बारे का खेल

    फिर एक मासूम-सा इल्जाम

    तेरा नाम क्या है?

    टिप्

    सब बातें हैं, बातों का क्या?

    चार शिशुओं की कथा

    अपने-अपने सपने

    कविताएँ

    तीन व्यंग्य श्रद्धांजलि

    पाँच शादिकाएँ

    व्यंग्यासन

    बिटिया का ब्याह-चार दृश्य

    एक दर्द की दास्ताँ

    माँ और ईश्वर

    एक देशभक्ति की कविता

    एक कवि के घर लौटने पर

    माँ और बच्चा

    पर्यावरण के तले

    एक (अ)राजनैतिक कविता

    बिन पानी सब सून

    दिल से दिल्ली तक

    दो विज्ञापनीय सच

    भ्रष्टाचार के सात सत्य

    मोबाइल की दुनिया

    बलिहारी मोबाइल आपकी

    नव-वर्ष पर कामना

    जश्न-ए-आज़ादी

    आज़ादी-मुबारक

    दीवाली पर

    ईद मुबारक

    होली पर

    जन्माष्टमी पर

    विश्व जल दिवस

    पर्यावरण दिवस

    विश्व हास्य दिवस

    मदर्स डे

    डॉक्टर्स डे

    विश्व मानसिक दिवस

    14 फरवरी/प्रेम दिवस

    हमारा लोकतांत्रीय पेशा

    विश्व चुटकुला दिवस का उपसंहार

    बसंत पंचमी/कविता का जन्मदिन

    दो संस्मरण

    पहले संस्मरण/फिर कथा

    पहले ग्रीटिंग/फिर कथा

    आभार (जन्मदिन के बहाने)

    हास्य-व्यंग्य लेख

    शरद जोशी पुण्यतिथि उर्फ भ्रष्टाचार दिवस

    आज़ादी के पश्चात जिस गति से देश में भ्रष्टाचार फैला है, वह गति कभी बंद न हो, कभी मंद न हो, इस पवित्र उद्देश्य के लिए जरूरी हो गया कि बाल दिवस, शहीद दिवस, हिन्दी दिवस आदि की तरह देश में भ्रष्टाचार दिवस भी मनाया जाये। सवाल उठता है किस दिन? जवाब है, पाँच सितम्बर को! जैसे ही शरद जी इहीलोक छोड़कर वही लोक गए, भ्रष्टाचारियों की बांछे खिल गईं। हर विभाग में शरद जी के काटे हुओं की संख्या कम न थी। उन्होंने जीते जी इनके खिलाफ इतना लिखा कि यदि वे मौत से नहीं मरते तो ये बेमौत मर जाते। लिहाजा भ्रष्टाचार महोत्सव समिति के प्रवर्तकों ने पाँच सितम्बर 1991 को जो पहली सभा बुलाई, उसी की यह संक्षिप्त रपट है।

    पाँच सितम्बर को विधिवत भ्रष्टाचार दिवस घोषित करने को सभा बुलाई गई। सभा की अध्यक्षता करते हुए सदाबहार अध्यक्ष ने हर विभाग से आई गई इन डुप्लिकेट आत्माओं का स्वागत करते हुए अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा कि, शरद जी ने अध्यक्ष महोदय लिखकर आपके इस सदाबहार अध्यक्ष की अध्यक्षता सदा के लिए हराम कर रखी थी। मैं जब भी अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठता, शरद जी मेरी छाती पर बैठ जाते। कुछ भी करता तो लगता कि शरद जी देख रहे हैं। कुछ भी सोचता, लगता शरद जी सुन रहे हैं। गजब का ऑब्जरवेशन था। वे सारी पोल खोल देते थे। गले के हार कांटे की तरह चुभते रहते। आज जब वे नहीं हैं, देखो मैं मजे से अध्यक्षता कर रहा हूँ। हाँ तो मेरी डुप्लिकेट आत्माओं, अब आप शरद जी द्वारा दिये गए अपने दर्दों को संक्षेप में कहिये ताकि हम भ्रष्टाचार दिवस को आदिवासी इलाकों में भी धूमधाम से मना सकें।

    /तालियाँ/

    प्रमुख अतिथि के रूप में पधारे एक नेता ने अपने अनुभव सुनाते हुए कहा- शरद जी तो हम राजनेताओं के सदा से जानी दुश्मन रहे। मैंने अपने जीवन में बीस बार दल बदला मगर अब तक पता नहीं लगा पाया कि शरद जी किस पार्टी से जुड़े थे। वे सभी के पीछे हाथ धोकर पड़े रहते। यहाँ तक कि जिन्होंने पद्मश्री दी उनको भी नहीं बक्शा। कई बार तो वे इतना पैना लिखते कि हमारी मोटी चमड़ी होने के बावजूद उनकी कुछ बातें हमारी चमड़ी फाड़कर हमारी आत्मा में घुस जाती। हमारे मन में अच्छे-अच्छे विचार आने लगते। आँखों के सामने भूतपूर्व की प्लेटें घूमने लगती। अपनी हालत डॉक्टर को दिखाई तो उसने कहा, कि तुम्हें शरदपीडिया हो गया है। उसके इलाज हेतु तीन-चार फ्लैटों की चाबियाँ, सात-आठ सम्मान समारोहों की योजनाएँ, विदेश यात्रा और मलाईदार अकादमियों के प्रस्ताव लेकर उनके पास पहुँचे, ताकि ये स्वीकार करें और हमें शरदपीडिया से मुक्ति दिलाएं। उस वक्त वे कोई सरकार का जादू’’ दिखा रहे थे। उन्होंने सार्वजनिक क्षेत्र के एक डिब्बे में पाँच अंडे रखे। जादू की छड़ी घुमाई और अंडे गायब! फिर वे मंच से नीचे उतरे। हमने सोचा हमें सम्मान सहित मंच पर बैठने को कहेंगे। पर उन्होंने पब्लिक से कहा अभी हम अंडे वापस लाता है। यह कहकर अपनी जेब से जादुई पेन निकाला और घुमाया। फिर एक अंडा फ्लैट देने आए बिल्डर की जेब से, एक अंडा मेरे सचिव की नाक से और तो और एक अंडा मेरी टोपी से निकालकर पब्लिक के सामने हमारी इमेज की ऐसी-तैसी कर दी। लोग हँस-हँस कर तालियां बजा रहे थे। कुछ तो हमारी ओर फुसफुसा कर ऐसे इशारे कर रहे थे, कि इस भ्रष्ट सभा में भी बयान करने में शर्म आती है। गए थे मदद लेने और लौटे अपमान का घूँट पीकर।"

    उस दिन के घूँट को आज निगलते हुए नेताजी बैठ गए।

    इसके बाद सभा के मध्य से एक मध्य प्रदेशी उठा और उसने कहा,-मेरा और शरद जी दोनों का मध्य प्रदेश से गहरा नाता रहा । वे वहीं जन्मे, बड़े हुए, मगर उनमें अपनत्व की भावना नहीं थी। यह तो आप सब जानते ही हैं, कि नदी के मध्य में ही पानी सबसे गहरा होता है। चूंकि मध्य प्रदेश देश के मध्य में है, सो वहाँ भ्रष्टाचार कुछ ज्यादा होना प्राकृतिक है। इसमें हम क्या कर सकते हैं? कोई क्या कर सकता है? पर शरद जी हैं, कि अपने प्रांत की भी कमियों को बड़ी खूबियों के साथ बताते थे। इससे सिद्ध होता है, उनमें राष्ट्रीयता बिल्कुल नहीं थी। अरे जो प्रांत का नहीं हुआ, वह देश का क्या होगा? अच्छा हुआ वे दुनिया छोड़ चुके, वरना मुझे मध्यप्रदेश छोड़ना होता।

    साहित्यकार होते हुए भी शरद जी ने साहित्यकारों को भी सताया है। भ्रष्ट साहित्यकारों का प्रतिनिधित्व कर रहे तीन साहित्यकारों में से एक लेखक और एक समीक्षक तो चाय पीने के बहाने बीयर पीने चले गए। एकमात्र हास्य कवि डमडमजी इसलिए रह गए थे, क्योंकि वे पहले से पीकर आए थे। डमडमजी ने पहले तो आँखें मटकायीं फिर थोड़ा सा उछले। फिर खुद को न संभालते हुए माइक संभाला। रुक-रुककर बोले,- शरद जी बड़े साहित्यकार थे। मुझसे सीनियर थे। पर वे तब मंचों पर नहीं आए थे। मैं पिछले दस वर्षों से हास्य कवि के रूप में मंचों पर बुलाया जाता हूँ। व्यस्ततावश आयोजक जी भूल जाए तो मैं खुद चला जाता हूँ, और श्रोताओं का भरपूर मनोरंजन करता हूँ । जब शरद जी मंच पर मुझसे पहली बार मिले तो मैंने उनके चरण छूते हुए कहा,– दादा प्रणाम । आपको तो मैं एक अच्छे व्यंग्यकार के रूप में जानता हूँ, आप भी मुझे जान लें, मुझे हास्य कवि ‘डमडम’ कहते हैं। पिछले दस वर्षों से मंच पर कविता पाठ कर माँ सरस्वती की सेवा हँस-हँसाकर कर रहा हूँ। संभवतः आपने मेरा नाम सुना हो।"

    हाँ भाई आपका नाम पहले भी सुना तो हूँ, पर किसी का नाम डमडम भी हो सकता है, ये आज ही सुन रहा हूँ। इस तरह शरद जी ने मेरे प्रणाम का ऐसा जवाब दिया कि मेरी कुछ समझ में नहीं आया। फिर मैंने पूछा, "दादा क्या आप भी रचना पाठ करोगे?’

    आप कहें तो ना करूँ । वे सहजता से बोले ।

    ‘नहीं-नहीं दादा, ये आप क्या कह रहे हैं? आप तो हमारे सिरमौर हैं। पर इसके पहले आपको मंचों पर देखा-सुना नहीं न, इसलिए, फिर आप जैसों के लिए आजकल मंच भी तो नहीं रहे। एक तो सुना है, आप सीधे सादे ढंग से रचना पढ़ते हो। फिर न उछल-कूद, न लतीफे, न आँख मटकाना । और सबसे बड़ी बात तो यह कि आप कविता भी नहीं लिखते। मंचों का मामला है न इसलिए -…"

    क्या मंचों पर जमने के लिए कविता जरूरी है? शरद जी ने मुझे घूरते हुए पूछा। पहले तो मैं ये समझा कि वे मुझसे पूछ रहे हैं। पर बाद में पता चला कि वे पूछ नहीं रहे थे, मुझ पर व्यंग्य कर रहे थे। यह ठीक नहीं। सोचा पहली पंक्ति में ही जब हूट होंगे तब याद करेंगे इस डमडम को । पर ताज्जुब भैय्या, ऐसे जमे कि पूछो मत । हर पंक्ति पर तालियां। हर पंक्ति वन्स मोर । कवि सम्मेलन को ऐसी भी क्या गरिमा देना कि आयोजक हमारे पास आकर कहने लगे,- डमडम जी आप कविता पाठ न करें। माहौल पूरी तर गरिमामय हो गया है। घबराइये मत, आपका पेमेन्ट पूरा होगा । आयोजक तो भले आदमी थे, जो बिना कविता पाठ के भी पेमेन्ट कर दिया । पर शरद जी को क्या कहें? अरे हमने टीवी और पत्र-पत्रिकाओं की ओर देखा तक नहीं। फिर शरदजी को क्यों मंचों पर आना चाहिए? हमारे क्षेत्र में घुसपैठ! खूब सताया शरद, तूने खूब सताया! कहकर डमडमजी वहीं लुढ़क गए।

    सभा में एक पुलिस अधिकारी ने शरद जी के लेखन को मौलिकता से परे बताते हुए कहा, शरद जी कभी सी.बी.आई. में नहीं थे। फिर भी उन्हें हमारे डिपार्टमेन्ट की इतनी बारीकियों की जानकारी थी कि हमें बीस साल की सर्विस में भी नहीं हैं। जरूर वे दुश्मनों के जासूसों से मिले थे। वे चोर लेखक थे। समस्या सुलझाने में बुद्धिजीवी का योगदान" उनकी यह रचना

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