काव्य मञ्जूषा 2
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मरद अब दूसरी औरत ले आया है
मिथिलेश कुमार राय
मरद अब दूसरी औरत ले आया है
पहली औरत
पाँच बेटियाँ जनने के बाद
दरवाजे पर बँधी पशुओँ संग
अपना दिल लगाने लगी है
मरद जब भी उसे टोकता है
उसकी आवाज कर्कश होती है
एक छोटे से वाक्य मेँ
कई तरह की भद्दी गालियाें मेँ
मरद उसे रोज बताता है
कि उसकी किस्मत कितनी फूटी हुई है
मरद अब दूसरी औरत ले आया है
मिथिलेश कुमार राय
मरद अब दूसरी औरत ले आया है
पहली औरत
पाँच बेटियाँ जनने के बाद
दरवाजे पर बँधी पशुओँ संग
अपना दिल लगाने लगी है
मरद जब भी उसे टोकता है
उसकी आवाज कर्कश होती है
एक छोटे से वाक्य मेँ
कई तरह की भद्दी गालियाें मेँ
मरद उसे रोज बताता है
कि उसकी किस्मत कितनी फूटी हुई है
मरद अब दूसरी औरत ले आया है
मिथिलेश कुमार राय
मरद अब दूसरी औरत ले आया है
पहली औरत
पाँच बेटियाँ जनने के बाद
दरवाजे पर बँधी पशुओँ संग
अपना दिल लगाने लगी है
मरद जब भी उसे टोकता है
उसकी आवाज कर्कश होती है
एक छोटे से वाक्य मेँ
कई तरह की भद्दी गालियाें मेँ
मरद उसे रोज बताता है
कि उसकी किस्मत कितनी फूटी हुई है
मरद अब दूसरी औरत ले आया है
मिथिलेश कुमार राय
मरद अब दूसरी औरत ले आया है
पहली औरत
पाँच बेटियाँ जनने के बाद
दरवाजे पर बँधी पशुओँ संग
अपना दिल लगाने लगी है
मरद जब भी उसे टोकता है
उसकी आवाज कर्कश होती है
एक छोटे से वाक्य मेँ
कई तरह की भद्दी गालियाें मेँ
मरद उसे रोज बताता है
कि उसकी किस्मत कितनी फूटी हुई है
वर्जिन साहित्यपीठ
सम्पादक के पद पर कार्यरत
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काव्य मञ्जूषा 2 - वर्जिन साहित्यपीठ
काव्य मञ्जूषा
2
(काव्य संकलन)
संपादन मंडल
ललित मिश्र और ममता शुक्ला
वर्जिन साहित्यपीठ
प्रकाशक
वर्जिन साहित्यपीठ
78ए, अजय पार्क, गली नंबर 7, नया बाजार,
नजफगढ़, नयी दिल्ली 110043
virginsahityapeeth@gmail.com; 9971275250
सर्वाधिकार सुरक्षित
प्रथम संस्करण - अक्टूबर, 2018
कॉपीराइट © 2018
वर्जिन साहित्यपीठ
कॉपीराइट
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समर्पण
स्वर्गीय श्री ताराकांत मिश्र
श्रीमती मंजुला मिश्र
श्रीमती सोनी मिश्र
उत्कर्ष मिश्र
मरद अब दूसरी औरत ले आया है
मिथिलेश कुमार राय
मरद अब दूसरी औरत ले आया है
पहली औरत
पाँच बेटियाँ जनने के बाद
दरवाजे पर बँधी पशुओँ संग
अपना दिल लगाने लगी है
मरद जब भी उसे टोकता है
उसकी आवाज कर्कश होती है
एक छोटे से वाक्य मेँ
कई तरह की भद्दी गालियाें मेँ
मरद उसे रोज बताता है
कि उसकी किस्मत कितनी फूटी हुई है
यह सब देखती-सुनती पहली औरत
चुपचुप अपना माथा धुनती रहती है
और विधाता को कोसती रहती है
लोगोँ ने उसे कुछ भी बोलते बहुत कम सुना है
रोते बहुत देखा है
दूसरी औरत गर्भ धारण नहीँ करती
जैसे ही उसका मासिक ठहरता है
वह अजीब-अजीब हरकतेँ करने लगती है
जैसे वह अपने खाने मेँ
तीखी मिर्ची की मात्रा बढ़ा देती है
वह सुपारी की जगह
लहसून चूसने लगती है
कभी भी अचानक से सीढ़ियोँ से फिसल जाती है
रक्त-स्राव के बाद ही
उसकी हरकतेँ सामान्य हो पाती हैँ
मुसकुराती हुई
वह डायनोँ को दो-चार गालियाँ देती है
और जब मरद नहीँ होता
पहली औरत की बाँहोँ मेँ समाकर
फूट-फूटकर रोने लगती है
अस्फुट शब्दों में वह कहती है कि
मैं कभी उर्वर होना नहीं चाहती
दूध के भ्रम में मैं माँ का माँस चूसा करता
मिथिलेश कुमार राय
कूड़े के ढेर पर
मैं दूध ही ढूंढ़ा करता हूँ
मेरे गाल पिचके हुए हैं
मेरी आँखें अंदर, बहुत अंदर तक धँस गई हैं
मैं ज्यादा देर तक कहीं खड़ा रहता हूँ तो
मेरी टांगें काँपने लगती हैं
जरा कड़क के बोल देता है कोई सामने
तो मैं सर्दी में भी पसीने से नहा उठता हूँ
मेरा पेट कितना बढ़ गया है
मेरी छाती कितनी धँस गई है
मेरा चेहरा बे-पानी क्यों दिखता है
मेरे बदन का रंग काला है
मेरे दाँत काले-काले होकर
अब हिलने लगे हैं
जब कभी भी मैं दर्द से बेहाल-बेहाल हो उठता हूँ
मैं जन्मा था तो
मेरी माँ के स्तन से दूध कहाँ चला गया था
मैं घंटों स्तन मुंह में लिए
ईश्वर से कंठ तर हो जाने की प्रार्थना किया करता था
माँ शायद अन्न के लिए कोई मंत्र बुदबुदाती रहती थीं
मैं दूध के भ्रम में
माँस को चूसा करता था
मेरा बचपन बिना दूध के बीता है
मैं कूड़े के ढ़ेर पर
दूध ही ढूंढ़ा करता हूँ
जैसे स्त्रियां नइहर लौटती हैं
मिथिलेश कुमार राय
जैसे स्त्रियां नइहर लौटती हैं
और बिना घूंघट के घूमती हैं पूरा गांव
वे खेत तक बेधड़क जाती हैं
वहां कोई चिड़िया फुर्र से उड़ती है
तो उसे वे देखती हैं
दूर तक आकाश के उस छोर तक
जैसे वे बात-बात पर मुसकाती हैं
और किसी भी बात पर खिलखिलाने लगती हैं
नइहर लौटते ही जैसे
देह को लगने लगता है पानी
फेफड़े को स्वच्छ हवा मिलने लगती है
और भूख बढ़ जाती है इतनी
कि दिन में तीन-तीन बार खाने