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बिक रही हैं बेटियाँ
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बिक रही हैं बेटियाँ

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About this ebook

मैं प्रकाश कुमार (कुमार प्रकाश) वाराणसी जिले के एक छोटे से गाँव दरेखू का निवासी हूँ। प्रारम्भिक शिक्षा वाराणसी में ही प्राप्त किया तत्पश्चात इंजिनियरिंग की पढ़ाई के लिये बरेली गया और वहाँ श्री राम मूर्ति कालेज ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नॉलॉजी से मेकैनिकल ब्रांच में स्नातक किया।
गुड़गांव में कुछ दिनों तक निजी संथान में काम किया वहाँ मजदूरों की दयनीय स्थिति देखकर बहुत कष्ट होता था और उसी ने मुझे लिखने के लिये प्रेरित किया। मैं अपने घर में सात भाइयों के बीच पांचवें नम्बर पर हूँ। पिता जी स्वयं लोक गीत (बिरहा एवं कजरी )गाते एवं लिखते हैं और माता जी गृहणी है। लेखन की विरासत मुझे पिता जी से ही मिली और उनके दिशा निर्देश में ही मैंने समाजिक पहलुओं पर लिखना आरम्भ किया। लेखन क्षेत्र में विगत चार वर्ष से शक्रीय हूँ और कुछ एक कवि सम्मेलन में भी शिरकत करने का अवसर प्राप्त हुआ। आगे भी समाजिक पहलुओं और कुंठाओं को केंद्र में रखकर रचनायें लिखता रहूंगा।
उम्मीद करता हूँ कि मेरी रचनायें आप सभी पाठकजन को पसंद आयेंगी और आप सबका भरपूर प्यार मिलेगा।

मैं प्रकाश कुमार (कुमार प्रकाश) वाराणसी जिले के एक छोटे से गाँव दरेखू का निवासी हूँ। प्रारम्भिक शिक्षा वाराणसी में ही प्राप्त किया तत्पश्चात इंजिनियरिंग की पढ़ाई के लिये बरेली गया और वहाँ श्री राम मूर्ति कालेज ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नॉलॉजी से मेकैनिकल ब्रांच में स्नातक किया।
गुड़गांव में कुछ दिनों तक निजी संथान में काम किया वहाँ मजदूरों की दयनीय स्थिति देखकर बहुत कष्ट होता था और उसी ने मुझे लिखने के लिये प्रेरित किया। मैं अपने घर में सात भाइयों के बीच पांचवें नम्बर पर हूँ। पिता जी स्वयं लोक गीत (बिरहा एवं कजरी )गाते एवं लिखते हैं और माता जी गृहणी है। लेखन की विरासत मुझे पिता जी से ही मिली और उनके दिशा निर्देश में ही मैंने समाजिक पहलुओं पर लिखना आरम्भ किया। लेखन क्षेत्र में विगत चार वर्ष से शक्रीय हूँ और कुछ एक कवि सम्मेलन में भी शिरकत करने का अवसर प्राप्त हुआ। आगे भी समाजिक पहलुओं और कुंठाओं को केंद्र में रखकर रचनायें लिखता रहूंगा।
उम्मीद करता हूँ कि मेरी रचनायें आप सभी पाठकजन को पसंद आयेंगी और आप सबका भरपूर प्यार मिलेगा।

Languageहिन्दी
Release dateApr 29, 2018
ISBN9780463296790
बिक रही हैं बेटियाँ
Author

वर्जिन साहित्यपीठ

सम्पादक के पद पर कार्यरत

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    बिक रही हैं बेटियाँ - वर्जिन साहित्यपीठ

    प्रकाशक

    वर्जिन साहित्यपीठ

    78ए, अजय पार्क, गली नंबर 7, नया बाजार,

    नजफगढ़, नयी दिल्ली 110043

    सर्वाधिकार सुरक्षित

    प्रथम संस्करण - अप्रैल 2018

    ISBN

    कॉपीराइट © 2018

    वर्जिन साहित्यपीठ

    कॉपीराइट

    इस प्रकाशन में दी गई सामग्री कॉपीराइट के अधीन है। इस प्रकाशन के किसी भी भाग का, किसी भी रूप में, किसी भी माध्यम से - कागज या इलेक्ट्रॉनिक - पुनरुत्पादन, संग्रहण या वितरण तब तक नहीं किया जा सकता, जब तक वर्जिन साहित्यपीठ द्वारा अधिकृत नहीं किया जाता।

    बिक रही हैं बेटियाँ

    (काव्य संग्रह)

    लेखक

    कुमार प्रकाश

    प्रकाश कुमार प्रजापति

    उपनाम: 'कुमार'

    8800586410, 7678900169

    prakash15a@gmail.com

    जन्मस्थान: ग्राम - दरेखू, जिला - वाराणसी, उप्र

    लेखन विधा: गीत, गजल, एवं कविताएँ

    प्रकाशित रचनायें: विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में, विशेष कर अमर उजाला काव्य पटल।

    मैं प्रकाश कुमार (कुमार प्रकाश) वाराणसी जिले के एक छोटे से गाँव दरेखू का निवासी हूँ। प्रारम्भिक शिक्षा वाराणसी में ही प्राप्त किया तत्पश्चात इंजिनियरिंग की पढ़ाई के लिये बरेली गया और वहाँ श्री राम मूर्ति कालेज ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नॉलॉजी से मेकैनिकल ब्रांच में स्नातक किया।

    गुड़गांव में कुछ दिनों तक निजी संथान में काम किया वहाँ मजदूरों की दयनीय स्थिति देखकर बहुत कष्ट होता था और उसी ने मुझे लिखने के लिये प्रेरित किया। मैं अपने घर में सात भाइयों के बीच पांचवें नम्बर पर हूँ। पिता जी स्वयं लोक गीत (बिरहा एवं कजरी )गाते एवं लिखते हैं और माता जी गृहणी है। लेखन की विरासत मुझे पिता जी से ही मिली और उनके दिशा निर्देश में ही मैंने समाजिक पहलुओं पर लिखना आरम्भ किया। लेखन क्षेत्र में विगत चार वर्ष से शक्रीय हूँ और कुछ एक कवि सम्मेलन में भी शिरकत करने का अवसर प्राप्त हुआ। आगे भी समाजिक पहलुओं और कुंठाओं को केंद्र में रखकर रचनायें लिखता रहूंगा।

    उम्मीद करता हूँ कि मेरी रचनायें आप सभी पाठकजन को पसंद आयेंगी और आप सबका भरपूर प्यार मिलेगा।

    पगडंडी

    पगडंडी गाँव की मैं

    मैं पगडंडी गाँव की

    थोड़ी सी लहराती सी

    थोड़ी सी बलखाती सी

    कहीं पर पतली संकरी

    कहीं हूँ उठती गिरती

    कितने पैरों को मैं चूमूँ

    कुछ पैर महावर डूबे

    कुछ पैर बिवाई फूटे

    कोई चले है इतराकर

    कोई चले है शरमाकर

    चलते हैं कितने इंसान

    बूढ़े बच्चे और जवान

    संस्कार लिये पुरुखो के

    आँचल चूमूँ मैं खेतों के

    मैं सिखलाती सम्भलना

    बिन वैशाखी के चलना

    कदम न कोई डिगने पाये

    जो डिगे मुझ तक आये

    जो भी मुझको माप लिये

    कदम वही जग नाप लिये।

    मैं तन्हा अकेला एक पथिक

    राह तू हमराही बन के चल

    चल चलें सुनाते एक दूजे को

    एक दूजे की तन्हा कहानी

    क्या पता ऐसे ही बन जाये

    हम एक दूजे के साथी भी

    किसे खबर कब तक चले

    हम दोनों का ही ये सफर

    मैं तो ठहरा एक पथिक

    हूँ साथ तभी तक मैं तेरे

    है जब तक मंजिल मेरी दूर

    साथ छोड़कर चल दूंगा मैं

    मंजिल की बाहों में खोने

    मगर समझ न तू बेवफा

    है जीवन का यही चलन

    मिलना, मिलकर बिछड़ना,

    आज मैं हूँ कल होगा और

    उसके होंगे अपने कुछ तौर

    तेरे संग चलेगा कुछ दिन

    फिर चल देगा कहीं ओर।

    वृक्षारोपण आवश्यक है

    ये कैसा खेल रचा डाला

    सब कुछ ही रेल बना डाला

    अब जीवन रास नहीं आये

    सोचो क्यों सांस नहीं आये

    जीना अब भारी लगता है

    कोई लाचारी लगता है

    रोग की मार बढ़ती जाये

    दाम दवा की चढ़ती जाये

    कोई कैसे उपचार करें

    बस खुद को ही धिक्कार करें

    सोचो रोग कहाँ से आये

    कौन है जो दावत भिजवाये

    जहाँ तहाँ किसने फैलाया

    कूड़ों का इतना ढेर लगाया

    प्लास्टिक का उत्पादन किया

    और प्रदूषण को खाद दिया

    क्या किसी तराजू तौला है

    जो जहर हवा में घोला है

    सब ही मोटर दौड़ाते हैं

    सब इसमें शान दिखाते हैं

    ये बड़े बड़े कल कारखानें

    प्रदूषण को लगे रह दिखाने

    जितना कचरा इनसे निकले

    अपनी नदियों में जा मिले

    अपना ही जोआस्तित्व

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