Discover millions of ebooks, audiobooks, and so much more with a free trial

Only $11.99/month after trial. Cancel anytime.

21 Shreshth Naariman ki Kahaniyan : Tamil Nadu (21 श्रेष्ठ नारीमन की कहानियां : तमिलनाडु)
21 Shreshth Naariman ki Kahaniyan : Tamil Nadu (21 श्रेष्ठ नारीमन की कहानियां : तमिलनाडु)
21 Shreshth Naariman ki Kahaniyan : Tamil Nadu (21 श्रेष्ठ नारीमन की कहानियां : तमिलनाडु)
Ebook314 pages2 hours

21 Shreshth Naariman ki Kahaniyan : Tamil Nadu (21 श्रेष्ठ नारीमन की कहानियां : तमिलनाडु)

Rating: 0 out of 5 stars

()

Read preview

About this ebook

भारत एक विशाल देश है, जिसमें अनेकों सभ्यताओं, परंपराओं का समावेश है। विभिन्न राज्यों के पर्व-त्योहार, रहन-सहन का ढंग, शैक्षिक अवस्था, वर्तमान और भविष्य का चिंतन, भोजन की विधियां, सांस्कृतिक विकास, मुहावरे, पोशाक और उत्सव इत्यादि की जानकारी कथा-कहानी के माध्यम से भी मिलती है। भारत के सभी प्रदेशों के निवासी साहित्य के माध्यम से एक-दूसरे को जानें, समझें और प्रभावित हो सके, ऐसा साहित्य उपलब्ध करवाना हमारा प्रमुख उद्देश्य है। भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा 'भारत कथा माला' का अद्भुत प्रकाशन।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateSep 15, 2022
ISBN9789391951009
21 Shreshth Naariman ki Kahaniyan : Tamil Nadu (21 श्रेष्ठ नारीमन की कहानियां : तमिलनाडु)

Related to 21 Shreshth Naariman ki Kahaniyan

Related ebooks

Reviews for 21 Shreshth Naariman ki Kahaniyan

Rating: 0 out of 5 stars
0 ratings

0 ratings0 reviews

What did you think?

Tap to rate

Review must be at least 10 words

    Book preview

    21 Shreshth Naariman ki Kahaniyan - Rochika Arun Sharma

    लेखिका अ. वेण्णिला

    (अनुवादक : श्रीमती अलमेलु कृष्णन)

    अनुवादक परिचय

    श्रीमती अलमेलु कृष्णन हिन्दी, संस्कृत और शिक्षण में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त हैं। सी.बी.एस. ई. एवं मैट्रिक स्कूलों में कार्यरत रहीं। एस.बी.ओ.ए. मैट्रिक हायर सेकंडरी स्कूल, चेन्नई में हिन्दी एवं संस्कृत विभाग की अध्यक्षा के रूप में कार्य करके अब सेवानिवृत्त हैं।

    तमिल, हिन्दी, मलयालम, संस्कृत एवं अंग्रेजी भाषाओं में परस्पर अनुवाद कर रही हैं। कई पत्र-पत्रिकाओं में मौलिक एवं अनूदित लेख लिखती आ रही हैं।

    तमिल साहित्य के सौ लेखकों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का संक्षिप्त परिचय (हिन्दी में) शबरी शिक्षा समाचार मासिक पत्रिका द्वारा प्रस्तुत किया है। तमिल साहित्य पर आधारित खबरों को उसी पत्रिका के द्वारा संस्कृत के पाठकों तक पहुँचा रही हैं। अंग्रेजी और हिन्दी माध्यम से तमिल सीखने के लिए एक पथप्रदर्शक, बच्चों के लिए शिशुगीत, बालक बालिकाओं के लिए कहानी संग्रह आदि आपकी मौलिक रचनाएँ हैं।

    हिन्दी से तमिल में अनूदित उपन्यास कुंट्रिलिट्ट ती नल्लि तिशै एटम पुरस्कार से पुरस्कृत हुआ। हाल ही में अखिल भारतीय अनुवाद परिषद् द्वारा डा. गार्गी गुप्ता अनुवाद श्री सम्मान से सम्मानित हुई हैं। 2019 में केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, उत्तरप्रदेश द्वारा सौहार्द सम्मान से सम्मानित हैं।

    निजी पहचान चिन्ह

    पहले-पहल हमारा पहचान चिन्ह, दसवीं कक्षा के वार्षिक परीक्षा के समय पर ही लिया गया।

    सभी दो-दो पहचान चिन्ह देख कर रख लें। वहाँ आकर टटोलते न रहना। चिन्ह ड्रेस के बाहर होना है। घुटने पर है, जांघ पर है कहते कपड़े को ऊपर न उठाना। शिक्षिका कस्तूरी की ही आवाज में स्कूल की छात्र नेता मारियम्माल दसवीं कक्षा के हर सेक्शन में बोलती गई।

    हम सब उद्विग्न हो गए। तुम्हारा कहाँ है दिखाओ कहते हम एक-दूसरे के पहचान चिन्ह ढूँढते रहे। इसी बीच हमारी कक्षा की नेता, ठीक है, टीचर ने यह नहीं बताया कि चिन्ह माने कैसे होना है। मैं जाकर पता लगाके आती हूँ कहते हुए व्यायाम शिक्षिका के पास गई। पूरी कक्षा में एक अनोखा माहौल था। एक-दूसरे के शरीर देखते हुए हमें लग रहा था कि आज ही पहली बार हम एक-दूसरे का चेहरा देखते हों। हम एक-दूसरे के पहचान चिन्ह की टीका-टिप्पणी करते किलकारी कर रही थीं कि क्या पेच्चियम्माल अंडे जैसी गोल-गोल आँखों को अपने चिन्ह के रूप में दिखाएगी? क्या कान्ति अपने बेमेल दाँत दिखाएगी? मालिनी, शिमला मिर्ची जैसी नाक दिखाएगी क्या? बीच में पीछे बैठी छात्राएँ, पहली बेंच की छात्राओं, अर्थात् हमारे बारे में कौन-सी टिप्पणी करती हैं, यह जानने की इच्छा से हमारे कान गधे के जैसे लम्बे बने।

    वर्ग की नेता वापस आयी और ऊँची आवाज में सभी ध्यान से सुन लें, मैं बार-बार नहीं बोलूँगी। पहचान चिन्ह माने हमारे शरीर से कभी न मिटनेवाले तिल, मस्सा, घाव का निशाना जो आसानी से देखने लायक होना है। दो-दो चिन्ह दिखाना है। पहले ही नोट करके रखें। नहीं तो टीचर मुझे ही डाँटेगी कि अहा कितने सुन्दर ढंग से सूचना दी हो, जो कहना है, मैंने कह दिया" स्पष्ट बोलकर बैठ गयी।

    हमारे स्कूल की छात्र नेताओं की पहली योग्यता है स्पीकर जैसी तेज आवाज। वे बोलेंगी कि आप लोगों से चिल्लाते-चिल्लाते आवाज स्पीकर जैसी हो गयी है। उनकी आवाज पुरुष की जैसी मोटी होती। शिक्षकाओं से ज्यादा इनको बोलना पड़ता था। शिक्षकों पर का डर उन्हें अपनी ऊर्जा बनाए रखने में मदद देता ।

    शिक्षकों की अनुपस्थिति में, छात्र नेता मेज पर छड़ी से मारते-मारते कहती, अरे! बातें न करें, बातें न करें चिल्लाते-चिल्लाते गला सूखने पर आवाज नहीं निकलती तो रणनीति में परिवर्तन आ जाता। बोर्ड पर बोलने वालों का नाम लिखने लगती। फिर से बोलने पर नाम के पास नियंत्रण में नहीं आती लिख देती। ऐसा लिखते ही बोलने वाली लड़की का डर छूमंतर हो जाता। वह सोचती कि कैसे भी हो वर्ग शिक्षिका के पास ले जाने वाली है। फिर इसकी बातें क्यों मानना है? वह साहस करके अपनी बेंच पर बैठी अन्य लड़कियों को भी बोलने को उकसाती। उसके बोलते-बोलते छात्रा नेता नियंत्रण में नहीं आती के पास थोड़ा सा भी लिखती जाती। न दबने वाली छात्रा सभी छात्राओं को ऐसे गर्व से देखती कि कोई साहसिकता का कार्य कर दिया हो।

    अच्छा नाम कमाने की हठ पर पहली बेंच पर बैठी भोली-भाली छात्राएँ हैं हम। गलती से बोल भी दें तो भी उसे मान लेने की उदारता हम में नहीं के बराबर थी। हमारा नाम लिख भी देती तो किताब नीचे गिर गई, उसको मैं माँग रही थी यार। इसके लिए तुमने मेरा नाम लिख दिया। तुम्हीं बोलो, क्लास में मैं कभी बोलती हूँ क्या? ऐसे-वैसे खुशामद करके हम अपना नाम मिटवा देतीं।

    तुरंत पीछे की बेंच वाली लड़कियाँ बगावत की आवाज उठातीं कि यह क्या, केवल उनका नाम मिटाती हो? मिटाना हो तो सबका नाम मिटाना है उनकी उस बगावत की आवाज पर अंकुश लगाने के लिए नेता हमारा नाम लिख देती। लेकिन अंत में वर्ग शिक्षिका के पास जाते वक्त सूची में से कैसे भी हो, हमारा नाम निकाल दिया जाता। छात्रा नेता पहली बेंच वाली छात्राओं की गरिमा बनाए रखती। हम सोचती कि यह होशियार छात्राओं के प्रति उसकी मेहरबानी है।

    कल मिलाकर ये छात्रा नेता बोल-बोल कर पतली हो जातीं। केवल टीचर से अच्छा नाम कमाती। कक्षा की छात्राओं की दुश्मन बन जाती। ये नेता लोग दसवीं पास करतीं तो वही बड़ी बात है।

    हमेशा की तरह नेता को चिल्लाने देकर हम पहचान चिन्ह ढूँढने लगीं। तिल है क्या की आवाज पूरी कक्षा में गूंजने लगी। तिल या मस्सा हो या न हो साइकिल चलाने का अभ्यास करते समय की चोट का निशान सबके शरीर पर था। दुर्भाग्य की बात यह है कि ज्यादातर लड़कियों के घुटने पर ही यह निशान था। सभी स्कर्ट हटाकर देख रही थीं। छात्रा नेता ने टीचर के आदेश का याद दिलाया कि कपड़े उठाए बिना ही जो चिन्ह दिखाई पड़े वही दिखाना है।

    चार-पाँच लड़कियों की भौहों के ऊपर चोट के निशान थे। सुभद्रा के पूरे चेहरे पर जले का निशान था। क्योंकि एक बार उसकी सौतेली माँ ने गरमा-गरम शोरबे के मटके को उसके सिर पर फोड़ दिया था। छात्रा नेता यह पूछने के लिए फिर से टीचर के पास दौड़ी कि क्या इस जले के निशाने को पहचान चिन्ह के रूप में दिखा सकते हैं? बचपन में चित्रा के गाल पर मुर्गे ने खरोंचा था। उसका निशान सही के निशान चिन्ह जैसे अब भी उसके गाल पर है। चेहरे पर के निशान को दिखाने में सभी हिचकिचा रहे थे। इसलिए और किसी निशान की तलाश करने लगे। जिनके शरीर पर तिल, मस्सा या चोट का निशाना नहीं था, वे ऐसे निराश हो गए जैसे कि उनका भाग्य ही खो गया हो।

    मेरी गरदन, घुटने, जांघ जैसे अंगों पर भी कई तिल थे। परंतु बाहर दिखाने लायक कोई भी निशाना नहीं था। मैं भी ढूँढते-ढूँढते थक गई। हमारी व्यायाम शिक्षिका के बताए नियमों के तहत अपने शरीर पर मैं एक भी निशान का पता नहीं लगा पाई।

    दो-दो निशानों का पता लगाने की खुशी में डूबी सहेलियों के शरण में गई मैं। वे तुरंत मेरे शरीर का अनुसंधान करने लगीं। पहले हाथ पकड़कर आगे पीछे मोड़ने लगीं। मेरे चमकदार हाथ पर कोई निशान नहीं था। साइकिल चलाते समय भी नीचे नहीं गिरी क्या? तुम पर शीतला माता की भी कृपा नहीं हुई क्या? कहीं गिरी भी नहीं हो क्या? डाँटते-डाँटते ढूँढ रही थीं। एक भी निशान नहीं मिला।

    मेरी माँ मुझे खेलने नहीं भेजती। इसलिए धरती माँ को मैंने नहीं चूमा है। मेरा खून धरती पर न गिरा है। सभी खेलों की मैं केवल एक दर्शिका ही होती। मेरा पालन-पोषण इतने लाड़-प्यार से किया गया था कि शायद ही मेरे शरीर से पसीना निकला हो। सहेलियाँ मेरे शरीर का निशाना ढूँढते-ढूँढते ऊब गईं तो हाथ छोड़कर टांग पर तलाशने लगीं।

    हमारी कक्षा की छात्राओं को टांग का निशाना दिखाने में आम तौर पर एक समस्या थी। हम दसवीं कक्षा की छात्राएँ विभिन्न अवस्थाओं में थीं। छठी कक्षा की छात्रा जैसे दिखने वाली मुझ जैसी छात्राएँ स्कर्ट ही पहनी हुई थीं। साड़ी पहनने पर मेरी माँ जैसी दिखने वाली लड़कियाँ हाल्फ साड़ी पहनी हुई थीं। अपनी वयस्कता को छिपाने के लिए लड़कों के जैसे कुर्ता भी पहन रखी थी। हमारी व्याकुलता थी कि स्कर्ट पहनी हम निशानी के लिए अपना पैर दिखा सकती हैं या नहीं। यदि हम टांग दिखा सकती हैं तो हाल्फ साडी पहनने के कसूर से वे पैर दिखा नहीं सकती क्या? अचानक छात्र नेता बार-बार नहीं चिल्लाऊँगी नहीं चिल्लाऊँगी बोलते-बोलते चिल्ला रही थी कि घुटने के नीचे का निशाना ही सभी को दिखाना है

    उसकी आवाज सुनते ही मेरी सहेलियों ने पूरी तरह से मेरी टांग का तिरस्कार कर दिया। हाथ और पैर को छोड़ दें तो बाहर दिखाई देने वाले अंग गरदन और चेहरा ही है। चेहरे पर दिखाने लायक कुछ भी नहीं था। गरदन में टांग के जैसे ही और एक समस्या थी। हम लोगों ने शर्ट पहन रखा था। हमारे मन में शंका उठी कि क्या शर्ट को थोड़ा-सा हटाकर दिखाने के स्थान पर निशान हो सकता है? हमारे मन में शंका उठते ही छात्र नेता ने हमें घूरकर देखा। न जाने कैसे पूरी कक्षा को वह सूंघ लेती है। हर प्रश्न की प्रतिक्रया उसके चेहरे पर स्पष्ट झलक पड़ती है ।

    शंका उठने का कारण था कि जैसे हमारी टांग बाहर दिखाई देती है, वैसे ही उनकी गरदन दिखाई देती है। हाल्फ साडी पहनी लड़कियों की चोली पीठ के मध्य भाग से नीचे ही होगी। कुल मिलाकर किसी को भी इस बारे में निश्चित राय नहीं है कि कौन-सा भाग बाहर दिखना है। ऐसा लगता है कि यदि किसी ने किसी हिस्से को छिपा लिया हो तो इसे फिर से उजागर नहीं किया जाना चाहिए ।

    पहचान चिन्ह ढूँढ-ढूँढ कर ऊबी सखियाँ तुम्हारे बिखरे बाल और लौकी जैसे सर को ही निशाने के रूप में दिखाना है। बोलते-बोलते मेरे बाल को अस्तव्यस्त कर दिया। वे मेरे माथे, भौं और सिर के पीछे के भाग को टटोलने लगी। मैंने अपने बाल को दो भागों में बांटकर कान के दोनों तरफ चोटी बनाकर मोड़ के बांधा था। आम तौर पर मेरे चेहरे से बढ़कर मेरी चोटी और बिखरे बाल ही दिखाई पड़ते। सिर नहाने पर उस दिन मैं भालू जैसे ही दिखाई पड़ती। पड़ोस की कूबड़ बूढी नाम की वल्लियम्मा मेरी माँ से बोलती- इसका खाना बाल को ही मिलता है। शरीर पतला होता ही जाता है। कम से कम आधे बाल काट दो न। उस बूढी माँ की पीठ घुटने तक झुकी होने के कारण उसका यह नाम पड़ गया। गुण के कारण नहीं शरीर की आकृति के कारण उसका यह नाम पड़ गया था।

    सुन्दरी ने मेरे बिखरे बाल को और भी बिखेरने की कोशिश करते हुए कहा, अरी! तुम्हारे बिखरे बाल को ही निशान के रूप में दिखाओ। चोटी को आगे-पीछे करते हुए और रिबन को ढीला करते हुए मेरी चोटी बन्दर के हाथ की फूलमाला बन गयी। मेरे सिर को अपने पर झुका कर सुन्दरी एक तरफ हटाकर कान के पिछले भाग पर ढूँढने लगी। कर्णफूल पहने बिना अपने कानों को सूने ही रखती हो कहते हुए मेरे सूने कान को छुआ। यार, तुम्हारा कान बकले के बीज जैसे बहुत सुन्दर है। बड़े कर्णफूल पहनने लायक है बोलते-बोलते कान को पीछे की तरफ मोड़ते हुए वह चिल्लायी अरी देखो न यह क्या है? कान के पीछे एक फोड़ा है।

    अरी, अभी तक मुझे फोड़ा-वोड़ा नहीं आया है। देखो न क्या है? चार-पाँच सिर बेसब्री से मेरे कान की तरफ झुके। ‘यह मस्सा है री’ सुब्बू ने चिल्लाया।

    मस्सा !

    अरी, अच्छा है तुम्हारे लिए एक निशान मिल गया है

    कान के पीछे ही है। किसी के सामने भी दिखा सकती हो

    बड़ी समस्या से मुझे छुड़ा देने की शान्ति उनकी आवाज में दीख पड़ी।

    और एक निशान

    अरे बाबा! इसके पास ढूँढना मेरे बस की बात नहीं है यार। इसके बिखरे बाल ही इसका और एक निशान है।

    मेरे शरीर के अंग बने मस्से का आज ही मुझे पता लगा। पता लगाने पर परमानंद का अनुभव हुआ! यह कौन-सी आयु से मेरे शरीर पर है। अभी तक किसी ने भी क्यों नहीं बताया? नहाते समय भी यह कभी हाथ नहीं लगा है। ऐसे कई सवालों से मैं घिरी हुई थी।

    उस दिन शाम को शारीरिक प्रशिक्षण शिक्षिका (पी टी टीचर) के सामने लाइन में खड़े होकर मैंने अपना पहचान चिन्ह दिखाकर रजिस्टर करवाया।

    1. दाएँ कान के पीछे एक मस्सा

    2. दूसरा?

    क्यों यह दूसरा निशान नहीं दिखाए बिना घूरती खड़ी है टीचर ने पूछा।

    हमने कितना खोजा मिस! इसके शरीर पर और कोई निशान नहीं

    टीचर ने हलके से घूरकर ठीक है हटो बोलते अगली लड़की को बुलाया। उसके बाद ही मेरी जान में जान आई।

    घर पहुँचते ही आईना लेकर बाग की तरफ दौड़ी। आईने को झुका कर पकड़ लिया और अपने कान के पीछे का भाग देखने का प्रयास किया। कुछ भी दिखाई नहीं दिया। आईने को और भी झुकाया। कान का किनारा और दीवार का पिछला भाग दिखाई दिया। कैसे भी हो देख लेने की आतुरता से कान को मोड़कर पीछे की ओर हटती गयी। ऐसे चलते-चलते सिर धम से दीवार पर जा टकराया।

    मुझे लगा कि पीछे एक आईना पकड़ने पर उस पर गिरने वाले प्रतिबिंब को आगे के आईने में देख सकती हूँ। उस अवसर की ताक में थी मैं। मेरे मन में पहला प्रेम मस्से पर ही अंकुरित हुआ था, ऐसा मुझे याद है। हम अपने मन के परमानंद को ही प्रेम कहते हैं। मस्से ने ही पहले-पहल मेरे मन में परमानंद की भावना पैदा की है।

    छुट्टी के दिन माँ की अनुपस्थिति में मैंने पड़ोस के घर की गीता को बुलाया। वह नवीं कक्षा में पढ़ती है। बगीचे में दोनों ऐसी जगह पर खड़ी हुई जहाँ अच्छी रोशनी थी। मैंने उसके हाथों एक आइना देकर पकड़ने को कहा। बहुत मुश्किल से ही कान के पीछे का मस्सा दिखाई दिया। भिगोए चावल जैसे सफेद रंग में ललाट की बिंदी के आकार में दिखाई पडा। मन ही मन मैं बहुत खुश हुई। मैं प्यार से अपने मस्से को पुचकारने लगी कि सबकी आँखों से छिपकर कैसे रहे मेरे प्यारे

    मैंने माँ को उकसा-उकसा कर पूछा माँ तुम भी कैसे मेरे मस्से को देखे बिना रह गई?

    "सब-कुछ मैं देख चुकी हूँ री। जब तुम पाँचवीं में थी तभी भगवान धवल गिरीश्वर की मनौती माँगते कार्तिक पूर्णिमा के दिन गिरि पर चढ़े। मस्से पर बाल पिरोया। गिरि ताल में काली मिर्च चढ़ाया।

    Enjoying the preview?
    Page 1 of 1