21 Shreshth Yuvaman ki Kahaniyan : Uttar Pradesh (21 श्रेष्ठ युवामन की कहानियां : उत्तर प्रदेश)
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Book preview
21 Shreshth Yuvaman ki Kahaniyan - Akhilesh Shrivastav Chaman
अखिलेश श्रीवास्तव चमन
पता : सी-2, एच–पार्क, महानगर, लखनऊ-226006
मो. : 9415215139, 6394976289
पिता : आत्मज-स्व. त्रिवेणी सहाय
जन्म स्थान : 19 दिसम्बर, 1958, जिला बलिया, उत्तर प्रदेश के मनियर नामक कस्बे में हुआ।
सेवा निवृत्ति : उ. प्र. सरकार की सेवा में प्रथम श्रेणी राजपत्रित अधिकारी (एडीशनल आई जी रजिस्ट्रेशन, एडीशनल कमिश्नर स्टाम्प, उत्तर प्रदेश) के पद से सेवानिवृत हुए।
प्रकाशन :
• पहली रचना मार्च 1974 में छपी। तब से अब तक हिन्दी की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में एक हजार से अधिक रचनाएं प्रकाशित। इनकी प्रकाशित पुस्तकों की संख्या 29 है।
• कुछ रचनाओं का उड़िया, गुजराती, पंजाबी, हरियाणवी तथा उर्दू भाषाओं में अनुवाद।
प्यार का गणित
ग्रामोफोन में लगा रिकार्ड घिस गया हो और सूई किसी एक ही पंक्ति पर अटक कर रह गयी हो जैसे ठीक वही स्थिति थी। पिछले महीने भर से अपनी मां के मुंह से लगातार एक ही बात सुनते-सुनते चंदर तंग आ गया था। एक बार, दो बार नहीं कम से कम दर्जनों बार वह अपना दो टूक फैसला भी सुना चुका था लेकिन उसकी मां थीं कि जैसे न सुनने और न समझने की कसम खा रखी हों। उनको जब भी, जरा सा भी मौका मिलता फिर से वही पुराना राग अलापने लग जातीं- ‘नेहा संग शादी.... ।’
रविवार का दिन, सबह का समय था। नहा-धो चकने के बाद चंदर अपने कमरे में बैठा अखबार पलट रहा था कि तभी उसकी मां चाय का प्याला और नाश्ते की प्लेट लिए आ पहुंची। चाय, नाश्ता चंदर के सामने मेज पर रखने के बाद वह बगल वाली कुर्सी पर बैठ गयीं और बगैर किसी भूमिका के फिर से वही प्रसंग छेड़ दीं। सुनते ही चंदर झल्ला उठा। अपनी मां की बात बीच में ही काट कर वह बोल पड़ा-ओफ्फ हो मां! प्लीज माफ करो मुझे। यह शादी मुझे नहीं करनी है...नहीं करनी है...नहीं करनी है। एक बार, दो बार नहीं सैकड़ों बार मना कर चुका हूं फिर भी न जाने क्यों पीछे पड़ी हो तुम..? रात-दिन, सुबह-शाम, खाते-पीते, जागते-सोते जब देखो तब बस एक ही रट कि नेहा से शादी कर लो...नेहा से शादी कर लो। मानो नेहा हाड़-मांस की साधारण औरत न हो कर स्वर्ग से उतरी अप्सरा हो कोई । न जाने कौन से सुर्खाब के पर लगे हैं उसमें.... न जाने कौन सी ऐसी खास बात है उसमें जो वह आप के दिल से उतर ही नहीं रही है।
कुछ न कुछ बात तो जरूर है बेटे तभी तुम्हारे इतना पीछे पड़े हैं हम । अगर कोई खास बात नहीं होती तो भला इतनी जिद, तुम्हारा इतना मान-मनौबल क्यों करती मैं।
यही बात सोच कर तो मैं भी हैरान हूं मां कि अभी छ:-सात महीने पहले तक नेहा इस घर की बहू थी तो उससे तुम्हारी एक पल भी नहीं पटती थी। तब तो तम्हें उसके अंदर खामियां ही खामियां नजर आती थीं। जब देखो तब उसकी शिकायत करती रहती थीं तुम कि बहुत बेशऊर है, बहुत तेज है, बहुत नकचढ़ी है, बहुत घमण्डी है.... | और अब जब कि वह इस घर से जा चुकी है तो तुम पुनः उसे यहां बुलाने के लिए परेशान हो।
ऐसी बात नहीं है चंदर! जहां दो बरतन पास-पास रहते हैं तो गाहे-बगाहे आपस में खड़कते भी हैं। वही बात थी। कभी-कभार मैं उस पर गुस्सा हो जाती थी। लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि मैं नेहा की दुश्मन हूं| चाहे जैसी भी है, वह हमारी सगी बहू है। मोह, ममता तो है ही उससे । ऐसी हालत में उसे अकेली, बेसहारा कैसे छोड़ दें हम..? तू मेरी बात को समझने की कोशिश कर | मां-बाप हमेशा अपनी औलाद का भला ही सोचते हैं। हम भी तुम्हारे भले के लिए ही समझा रहे हैं। बेटा! उतावले होने की कोई जरूरत नहीं। जल्दबाजी ना कर...तू ठंडे दिमाग से सोच ले पहले, फिर फैसला कर।
सोच लिया है मां....मैंने खूब अच्छी तरह से सोच लिया है। मेरी समझ में यह बात नहीं आ रही है कि मेरी शादी के लिए अचानक तुम इतनी उतावली क्यों हो रही हो। अभी पिछले साल ही तो मैंने रेनू के साथ शादी की इच्छा जाहिर की थी, तब तो तुमने और पिताजी ने यह कह कर मना कर दिया था कि पहले अपने पैरों पर खड़े हो लो, कुछ कमाने लगो तब शादी की बात सोचना। और अब तुम खुद ही मुझ बेरोजगार पर शादी के लिए दबाव डाल रही हो। वह भी एक विधवा औरत के साथ। एक ऐसी औरत के साथ जो सवा साल तक किसी की बीबी बन कर रह चुकी है। जब कि तुम्हें यह भी पता है कि पिछले दो वर्षों से मेरा रेनू के साथ अफेयर चल रहा है। हम दोनों ने आपस में शादी करने का फैसला कर रखा है। बस, नौकरी मिलने का इन्तजार है हमें।
तब की बात और थी बेटा और अब की बात और है। तब इस घर में एक बहू थी नेहा के रूप में। तब हमने यह सोच कर तुम्हारी शादी के लिए मना किया था कि तू कहीं कायदे से नौकरी से लग जा, कुछ कमाने–६ माने लगे फिर खूब शौक से, धूमधाम से करेंगे तुम्हारी शादी। लेकिन अब परिस्थितियां बदल चुकी हैं... | अब हमें घर में एक बहू की सख्त जरूरत है। अकेले इतना सारा काम अब नहीं होता मुझसे।
अगर सिर्फ इतनी सी बात है तो तुम लोग जात-पात की भावना से थोड़ा ऊपर उठ कर हामी भर दो... | मैं कल ही रेनू से बात कर लेता हूं। वह तो मेरी हां के इन्तजार में ही बैठी है। और मेरा दावा है कि वह हर हाल में तुम्हारी नेहा से बेहतर बहू सिद्ध होगी।
ओफ्फ हो.... | जब देखो तब रेनू रेनू रेनू। अब मैं कैसे समझाऊं तुझको कि जो बात नेहा में है वह रेनू में नहीं हो सकती।
चंदर की मां ने माथा पीट लिया।
दरअसल चंदर की मां संकेतों के माध्यम से जो बात कह रही थीं वह बात चंदर तक पहुंच नहीं पा रही थी। बात के संप्रेषण में उन दोनों की उम्र, सोच और अनुभव का अंतर आड़े आ जा रहा था। चंदर की सोच पर जवानी का जोश और प्यार का खुमार हावी था जब कि उसकी मां की सोच पर अनुभव का सार और व्यावहारिक जीवन का नंगा सच । चंदर को अभी आटे-दाल का भाव नहीं मालूम था इसलिए वह सपनों की दुनिया में जी रहा था लेकिन उसकी मां जानती थी कि ‘भूखे भजन न होय गोपाला ।’ उनको पता था कि प्यार, मोहब्बत की बातें भी तभी अच्छी लगती हैं जब पेट भरा हो। वरना खाली पेट प्यार की बातें भी गाली लगती हैं, खीझ और ऊब पैदा करती हैं। उनके मन में कई बार आया कि असली बात बिना लाग-लपेट के साफ-साफ कह डालें। फिर जो हो सो हो। लेकिन अगले ही पल मन में यह भय समा जाता था कि उनकी बात का कहीं उल्टा असर न पड़ जाए. ? चंदर कहीं एकदम से बिदक न जाय? बनता काम बिगड़ न जाए।"
बचपना ना कर चंदर। प्यार और शादी में जमीन, आसमान का अंतर होता है। प्यार एक मीठी कल्पना है जब कि शादी एक कड़वा सच । प्यार अस्थिर मन की भटकन है जब कि शादी व्यवस्थित जीवन की मंजिल | बेटा! तू यूं समझ कि यह चढ़ती जवानी का प्यार मियादी बुखार होता है जो मियाद पूरी होते ही उतर जाता है। लेकिन शादी एक स्थायी और असाध्य रोग है जो उम्र भर साथ चलता है। इसीलिए शादी भावनाओं में आ कर नहीं बल्कि व्यावहारिक हो कर, खूब ठोंक-बजा कर, आगे-पीछे, ऊंच-नीच सोच लेने के बाद की जाती है। मैं इतने दिनों से लगातार तुमको यही बात तो समझा रही हूं कि तुम्हारे सिर पर रेनू के इश्क का जो जिन्न सवार है उसे कुछ समय के लिए नीचे उतार दे। फिर शान्त दिमाग से अपना फायदा, नुकसान सोच । शायद तब समझ में आए तेरे कि मैं क्यों बार-बार इतनी जिद कर रही हूं। रही नेहा की बात, तो माना कि वह विधवा है पर है तो तुम्हारी सगी भाभी ही न.... | और उम्र में भी वह तमसे छोटी ही है। अरे इन्दर तुमसे दो साल बड़ा था और नेहा इन्दर से साढ़े तीन साल छोटी है। इस तरह वह तुमसे लगभग डेढ़ साल छोटी ही तो हुई। फिर उसमें कमी ही क्या है जो तू इतना नाक-भौं सिकोड़ रहा है। वह हर तरह से देखी-भाली है, सुन्दर है, जवान है, पढ़ी-लिखी है और अभी कोई औलाद भी नहीं है उसे। हम क्या तम्हारे दश्मन हैं जो तमको गलत राय देंगे। सोच ले बेटा....अभी मौका है। वरना अगर नेहा हाथ से निकल गयी तो बाद में बहुत पछताएगा तू। फिर याद करेगा मेरी बात को।
अरी ओ चन्दर की मां! तुम क्यों इतनी देर से इसे पहेलियां बुझाए चली जा रही हो...? और यह है कि समझने का नाम ही नहीं ले रहा । लुका-छिपी का खेल खेलने की क्या जरूरत है...? सारी बात खुल कर साफ-साफ बता क्यों नहीं देती? एक बार पूरी गणित समझा दो इसे, फिर इसकी मर्जी...जो चाहे सो करे | भला करेगा तो अपना, नुकसान करेगा तो अपना। हमारा क्या....हम तो वैसे भी कब्र में पाव लटकाए बैठे हैं। हम कोई अपने फायदे के लिए थोड़े ना समझा रहे हैं इसे।
चन्दर के पिताजी जो बगल वाले कमरे में बैठे काफी देर से मां, बेटे की बकझक सुन रहे थे, ने चन्दर के कमरे में घुसते हुए कहा।
पति को आया देख कर चन्दर की मां खामोश हो गयीं। चन्दर अपने पिता की तरफ प्रश्नवाचक दृष्टि से देखने लगा। चन्दर के पिताजी सामने की कुर्सी पर बैठते हुए बोले- देख चन्दर! महीने भर से अधिक हो गया, तुम्हारी मां तब से बस भूमिका ही बना रही हैं.... | यहां-वहां की दनिया जहान की बातें बता रही हैं लेकिन असली बात नहीं बता रहीं। इनको डर है कि तू कहीं बुरा न मान बैठे। या यह न सोच ले कि हम तुम्हारे प्यार की कीमत लगा रहे हैं। हमें पता है कि तू रेनू को बहुत चाहता है और उससे शादी करने का मन बना चुका है। ठीक है... चढ़ती जवानी में यह सब हो जाता है। लेकिन रेनू को ले कर लकीर के फकीर बने रहने से कोई लाभ नहीं होने वाला। मां-बाप होने के नाते हमें तुम्हारे भविष्य की बहुत चिन्ता है। और तुम्हारे सुरक्षित भविष्य के लिए यह जरुरी है कि तू बिना ना-नुकुर किए नेहा से शादी कर ले।
"लेकिन पिताजी.... ।’ चन्दर ने कुछ बोलने की कोशिश की।
अभी बोल मत.... | पहले त मेरी पूरी बात सुन ले। फिर जो कहना हो कहना, जो करना हो करना....हम नहीं रोकेंगे तुझे।
चन्दर के पिताजी ने उसकी बात बीच में ही काट दी और अपनी बात आगे बढ़ाई-देख बेटा! इन्दर के मरने के बाद से ही नेहा अपने मायके में पड़ी है। मैं दो बार गया कि किसी बहाने से उसे यहां बुला लाऊं लेकिन वह यहां आने का नाम नहीं ले रही है। ऐसी हालत में कोई जोर, जबरदस्ती तो की नहीं जा सकती। हमारा कोई सीधा अधिकार तो रहा नहीं अब उस पर। पता चला है कि अस्सी हजार का इन्दर का सरकारी बीमा था और पांच लाख का बीमा उसने अलग से करा रखा था। पैंतीस, छत्तीस हजार रूपए उसके फण्ड में जमा हैं। और लगभग इतना ही उसके बैंक के खाते में भी है। साढे छ: लाख के करीब तो यही सब मिला कर हो गया। फिर वह एक्सीडेण्ट में मरा है इसलिए देर, सवेर सरकारी मुआवजा भी मिलेगा ही। नियमतः तो ये सारे रूपए अब नेहा को ही मिलेंगे न। नेहा के पास साठ-सत्तर हजार के जेवर थे जो उसके साथ उसके मायके में ही हैं। और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अभी दस, बारह दिनों पहले ही उसे इन्दर के आफिस में मृतक आश्रित के रूप में नौकरी भी मिल गयी है। अब तो अगले महीने से उसे छब्बीस–सत्ताइस हजार महीना पगार भी मिलने लगेगी। नेहा अभी जवान है। अभी उसके आगे पूरी जिन्दगी पड़ी है। आफिस जाने लगेगी तो उसका दस लोगों से मेल-जोल भी बढ़ेगा। खुदा न खास्ता उसने कहीं और, किसी दूसरे मर्द से शादी कर ली तो..? तब तो हाथ से निकल जाएगी न इतनी लम्बी-चौड़ी रकम और कमासुत औरत....? हम लोग इसीलिए समझा रहे हैं तुझे कि मौका ना चूक.... | इस घर आयी लक्ष्मी को बाहर न जाने दे। नेहा का मन कहीं इधर-उधर भटके उससे पहले ही उसको बांध ले।
इतनी बात कह चुकने के बाद चन्दर के पिताजी कुछ पल के लिए रुके और अपनी अनुभवी आंखों से चन्दर के मनोभावों को तौलने लगे। उनको लगा कि उनकी बातें अपना काम कर रही हैं और सम्मोहित चन्दर उन्हें बहुत ध्यानपूर्वक सुन रहा है। मौका अच्छा देख उन्होंने बात आगे बढ़ायी-नौकरी की किल्लत तो तुम देख ही रहे हो। क्या भरोसा कि तुम्हें कब तक नौकरी मिले या कि नहीं ही मिले । तीन साल से ज्यादा तो हो गए न तुम्हें चप्पलें चटकाते और यहां वहां इन्टरव्यू देते..? कहीं मिली नौकरी..? और तुम्हारी उस रेनू में ही कौन से सुर्खाब के पर लगे हैं जो उसके पीछे मरे जा रहे हो। जैसे तुम निठल्ले वैसी वह निठल्ली। प्रेम विवाह करोगे तो दान-दहेज तो मिलने से रहा। फिर जब गांठ में पैसे नहीं होंगे तो खाओगे क्या और खिलाओगे क्या? सिर्फ प्यार और मीठी-मीठी बातों से तो पेट भरेगा नहीं। बेटा! जब दो वक्त रोटी नहीं मिलेगी न तो प्यार का सारा नशा हिरन हो जाएगा। और तुम्हारी रेनू जो आज तुम पर जान न्यौछावर करने को तैयार है वही दुत्कार कर किसी और के साथ चल देगी। बैठे सिर धुनते रह जाओगे तुम। ऐसे कई वाकये देखे हैं हमने। इसीलिए तुम्हें समझा रहे हैं कि भावुकता में आ कर बेवकूफी ना करो। चुपचाप नेहा से शादी कर लो और चैन की जिन्दगी बसर करो। अभी ताजा-ताजा मामला है....समझाने, बुझाने से नेहा भी मान जाएगी और उसके मां-बाप भी राजी हो जायेंगे। वरना अगर दो, चार महीने का समय बीत गया और आफिस आते, जाते उसे कोई दूसरा मर्द पसन्द आ गया तो फिर वह तुमको घास भी नहीं डालेगी। यदि सोने के अण्डे देने वाली यह मुर्गी हाथ से निकल गयी तो फिर उम्र भर हाथ मलते रह जाओगे।
गहरी चुप्पी साधे चन्दर अपने पिताजी की बातें सुन रहा था। उसके पिताजी ने अपनी बात को विराम दिया और चुपके से सामने बैठी पत्नी की तरफ देखा। पत्नी ने आंखों ही आंखों में संकेत किया कि बात बिलकुल सही दिशा में आगे बढ़ रही है। लोहा गरम है बस चोट करते जाने की आवश्यकता है। पत्नी का संकेत पा कर अपने स्वर में नरमी का पुट लाते हुए वे पुन: बोले-देख बेटा! नेहा से शादी करने में फायदा ही फायदा है। कमासुत बीबी रहेगी इसलिए रुपए-पैसे या नौकरी की चिन्ता खत्म। तुझे नौकरी मिल जाए बड़ी अच्छी बात, अगर नौकरी नहीं भी मिली तो इन्दर के मिले पैसों से तू अपना कोई बिजनेस शुरू कर सकता है। मियां-बीबी दोनों कमाओगे तो आर्थिक रूप से मजबूत रहोगे। और सबसे बड़ी बात यह होगी कि नेहा जिन्दगी भर तुमसे दब कर रहेगी। उसके मन में हमेशा यह भावना रहेगी कि एक विधवा से शादी कर के तुम ने उसके ऊपर एहसान किया है। हम यह नहीं कहते कि तू बहुत जल्दबाजी में कोई निर्णय ले। पूरी जिन्दगी का सवाल है इसलिए खूब अच्छी तरह से सोच विचार कर ले। यदि तझे लगे कि हमारी बात में दम है, यदि लगे कि हम तम्हारे भले की बात कह रहे हैं, तो बता । अगर तू हां कहे तो मैं नेहा के घर जाऊं और उसके बाप को राजी करने की कोशिश करूं।
अभी तक भावनाओं की दरिया में तैर रहे, कल्पनाओं के आकाश में उड़ रहे चन्दर को वहां से खींच कर यथार्थ के खुरदरे धरातल पर पटकने के बाद उसके पिताजी वहां से चले गए। पीछे-पीछे उसकी मां भी चली गयीं। ऊहापोह में पड़ा चन्दर कमरे में अकेला रह गया। उसकी हालत मेले में खोए बच्चे की सी हो गयी थी। कोई रास्ता ही नहीं सूझ रहा था उसे कि जाए तो किधर जाए। पिताजी की बातो ने उसके अतर्मन में उथल-पुथल मचा कर रख दिया था। मानो शान्त पड़े तालाब में लगातार पत्थर फेंक-फेंक कर किसी ने पानी को बुरी तरह से हलकोर दिया हो। मानो शान्त बैठी मधुमक्खियों के छत्ते को लग्गी से किसी ने खोद दिया हो।
चन्दर को आज दोपहर में कम्पनी बाग स्थित पब्लिक लाइब्रेरी जाना था। वहीं रेनू से मिलने की बात तय थी। लेकिन वह नहीं गया। शाम के समय नियमित रूप से हीरा हलवाई की दुकान पर दोस्तों के संग बैठकी होती थी लेकिन चन्दर वहां भी नहीं गया। सारे दिन कमरे में अन्यमनस्क सा पड़ा रहा। पिताजी की बातें उसके मस्तिष्क में टेप की तरह चल रही थीं-नेहा....नेहा...नेहा, पैसा....पैसा....पैसा, नौकरी....नौकरी....नौकरी, भविष्य.... भविष्य....भविष्य, सुरक्षा..सुरक्षा....सुरक्षा।
बात के समाप्त होते ही टेप पुनः अपने आप रिबाउण्ड हो जाता था-नेहा...नेहा..नेहा, पैसा...पैसा....पैसा.... नौकरी....नौकरी....नौकरी..... ।
चन्दर की बेचैनी देख उसके मां-बाप बेहद प्रसन्न थे। उन्हें पूर्ण विश्वास था कि तीर बिल्कुल सही निशाने पर लगा है। लाख फड़फड़ा ले या लाख हाथ-पैर मार ले शिकार को अंततः उनकी झोली में गिरना ही है। वे दोनों दम साधे समय की प्रतीक्षा कर रहे थे कि कब चन्दर आए और कहे कि-हां पिताजी! आपका प्रस्ताव मंजूर है मुझे।
उधार कमरे में अकेला बैठा चन्दर निश्चय, अनिश्चय के भंवर में ऊभ-चभ हो रहा था। उबरने के लिए हाथ-पांव मार रहा था। एक तरफ रेनू थी, उसके प्यार का आकर्षण था और उससे किए अनगिनत वायदों के प्रति निष्ठा थी तो दूसरी तरफ पैसा, कमासुत बीबी और उसके साथ जुड़े अनगिनत लाभ । एक तरफ दुःखों, अभावों और अनिश्चित ‘कल’ के खतरे थे तो दूसरी तरफ सुख, सुविधा और सुरक्षित भविष्य का आश्वासन। एक तरफ कांटों से भरा रास्ता था जो घनघोर अंधेरे से हो कर गुजरता था तो दूसरी तरफ फूलों बिछे राह पर उजाले का सफर। दोनों की सीमा रेखा पर खड़ा चंदर भ्रमित था । वह समझ नहीं पा रहा था कि जाए तो किधर जाए।
समय कभी इतनी कठोर परीक्षा लेगा, पैसे की अहमियत जिन्दगी को ऐसे नाजुक मोड़ पर ले आ कर खड़ी कर देगी, चन्दर ने कभी यह सोचा भी नहीं था। कुछ पल के लिए भावुकता को परे हटा कर व्यावहारिक ढंग से सोचा तो चन्दर को लगा कि पिताजी की बातें निरर्थक नहीं हैं। काफी दम है उनकी बातों में। निःसंदेह जीवन की पहली जरूरत पैसा ही है। प्यार, मुहब्बत तो उसके बाद की चीजें हैं। सहसा उसे ध्यान हो आया कि विश्वविद्यालय में उसके साथ पढ़ने वाली लड़कियां किस प्रकार पैसे वाले लड़कों के आगे-पीछे मंडराया करती थीं। और सम्पन्न घरों के लड़के पैसों की बदौलत कैसे मनचाही लड़कियों को साथ लिए कैण्टीन, सिनेमा या पार्क आदि में जहां चाहें वहां टहलते रहते थे।
तो क्या पिछले दो-ढाई वर्षों में तुम यही समझ पाए रेनू को...? क्या उसे भी तुम उन्हीं छिछोरी लड़कियों की श्रेणी में रखते हो....? क्या रेनू भी तुम्हारी तरफ पैसों के कारण ही आकर्षित हुई थी..?
सहसा चन्दर के अंदर से एक प्रश्न आया।
नहीं। निश्चित ही इस प्रश्न का उत्तर नकारात्मक है। चन्दर की आर्थिक स्थिति कभी भी ऐसी नहीं रही कि वह पैसों के बल पर कुछ प्राप्त कर सके। और जहां तक रेनू की बात है, सच्चाई यह है कि रेनू उसकी तरफ नहीं बल्कि वह रेनू की तरफ आकर्षित हुआ था। काफी मेहनत, मशक्कत के बाद वह रेनू के मन का किला भेद सकने में सफल हो पाया था। अतः रेनू के सम्बन्ध में तो ऐसी हल्की बात सोचना भी पाप है। रेनू बहुत सुलझी और जहीन लड़की है। वह दिलो-जान से चाहती है उसे। रेनू के मन में सच्चा प्यार है उसके लिए।
उसके अंदर से तुरन्त प्रश्न का जबाब भी आ गया।
तो फिर क्यों रेनू के प्यार को तू पैसों की तराजू पर तौलने पर आमादा है..? क्या पैसा ही सब कुछ है दुनिया में...? क्या पैसा ही भगवान, पैसा ही ज़मीर, पैसा ही ईमान है तुम्हारे लिए...? प्यार-मोहब्बत, रिश्ते-नाते कुछ नहीं...? अपनी जुबान, अपने वायदों तथा दूसरे के विश्वास, भरोसा और भावनाओं की कोई अहमियत नहीं..?
उसके अंदर से दूसरा प्रश्न आया।
इस प्रश्न के उत्तर में चन्दर की स्मृति में सहसा छ:-सात महीने पुरानी एक घटना सजीव हो उठी। उस समय की घटना जब पब्लिक लाइब्रेरी के पीछे पार्क में वह रेनू के साथ बैठा था। "रेनू! अब सहा नहीं जाता मुझसे.... । एक-एक दिन भारी लग रहा है अब तो। चलो चुपचाप कोर्ट में शादी कर लेते हैं। फिर जो होगा देखा जाएगा।’ रेन की हथेली अपनी हथेली में लिए चन्दर ने बहुत आतुर हो कर कहा था।
शादी...? हो...हो...हो...हो....।
अभी चन्दर की बात पूरी भी नहीं हो पायी थी कि रेनू खिलखिला कर हंस पड़ी थी। चन्दर अचकचा कर उसका मुंह देखने लगा था जैसे कोई बहुत बड़ी बेवकूफी की बात कह दी हो उसने।
अरे मजनू मियां! शादी के लिए तो इतने उतावले हो रहे हो लेकिन यह भी सोचा है कि शादी के बाद मुझको रखोगे कहां...और खिलाओगे क्या. ...? इस अंतर्जातीय प्रेम विवाह को न तो मेरे घर वाले स्वीकार करेंगे और न ही तुम्हारे घर वाले। ऐसे में, इस बेकारी की हालत में शादी कर के मुझे भूखों मारने का इरादा है क्या? ना बाबा ना..इतना बड़ा रिश्क नहीं लेना हमें। पहले दस पैसे कमाने की जुगत करो....फिर सोचेंगे शादी के बारे में।
रेनू ने हंसते हुए कहा था।
यद्यपि रेनू की वह बात पूरी तरह से व्यावहारिक और उचित थी फिर भी उसकी खनकती हंसी चन्दर के अंतस में कांच की तरह चुभ गयी थी। उस समय रेनू में बुद्धि तत्व प्रबल था और चंदर में भाव तत्व । रेनू ने जीवन का नंगा सच उजागर कर दिया था जबकि चन्दर उस समय पूरी तरह भावुकता की गिरफ्त में था। रेनू से भी वह वैसी ही भावुकतापूर्ण उत्तर की आशा कर रहा था इसलिए रेनू की बात सुन खिन्न हो उठा था चंदर का मन।
बदजात । बहुत सयानी बनती है। मैं हूं कि उसके लिए जान तक देने को तैयार हूं....ईश्वर से भी बढ़ कर मानता हूं उसे । लेकिन उसकी निगाह में मेरी भावनाओं की कोई कद्र ही नहीं। कमबख्त यह भी तो कह सकती थी-
ठीक है चंदर! मैं हर तरह से तैयार हूं। चाहे फुटपाथ पर सोना पड़े, चाहे भूखे-प्यासे रहना पड़े, चाहे दुनिया की बड़ी से बड़ी परेशानी झेलनी पड़े, मुझे कोई परवाह नहीं। तुम जब कहो, जहां कहो वहां साथ चलने को तैयार हूं मैं। लेकिन नहीं, उसको तो मेरा साथ नहीं पहले सुख-सुविधा की गारंटी चाहिए। मेरा प्यार नहीं मेरी नौकरी प्रमुख है उसके लिए | कहती है पहले दस पैसा कमाने की जुगत करो फिर शादी की सोचो। जब वह शादी से पहले पैसा और सुख-सुविधा की गारंटी चाहती है तो फिर मैं क्यों न चाहूं...? यदि नेहा के साथ शादी करने में मुझे सुख-सुविधा और आर्थिक सुरक्षा की गारंटी मिल रही है तो मैं क्यों यह सुनहरा अवसर हाथ से जाने दूं..?
चंदर ने अपने आप को समझाया।
ऐसे ही स्वगत सवाल-जबाब में उलझे पूरा दिन बीत गया। शाम ढली और रात आ गयी लेकिन चंदर बाहर नहीं निकला। अपने कमरे में अकेले बैठा लाभ-हानि के गुणा-भाग में उलझा रहा। दरअसल मनुष्य स्वभावतः बहुत शातिर होता है। वह सही या गलत जिस किसी भी काम को करने का निश्चय कर लेता है उसके पक्ष में अनेक तर्क और बहाने भी गढ़ लेता है। चंदर के मन में इस समय जितने भी तर्क आ रहे थे सब के सब रेनू के विरोध में ही थे- पिताजी ठीक ही तो कह रहे हैं। क्या पता मुझे नौकरी मिलने में कितना समय लगे। फिर इस बात की क्या गारंटी है कि मुझे नौकरी मिलने तक रेनू मेरी प्रतीक्षा में बैठी ही रहेगी। अपने मां-बाप के दबाव में या कहीं कोई पैसा वाला लड़का देख कर उसने किसी और के साथ शादी कर ली तो..? तब तो फिर वही बात होगी कि ‘दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम’ | इधर उसके चक्कर में मैं नेहा से भी हाथ धो बैलूं और उधर वह भी अंगूठा दिखा जाए । आज जैसा ठोस, आकर्षक प्रस्ताव मेरे सामने है, यदि वैसा ही प्रस्ताव रेनू के सामने हो तो क्या वह इन्कार कर सकेगी? यह भी तो संभव है कि बेहतर विकल्प मिलते ही वह बाय-बाय, टा-टा कर के चल दे।
चंदर देर रात तक अपने आप से सवाल, जबाब करता रहा। अपने मन के तराजू के एक पलड़े में नेहा तथा दूसरे में रेनू को रख कर कांटे का झुकाव देखता रहा।
अगली सुबह बगल वाले कमरे में रखी टेलीफोन की घंटी की आवाज से चंदर की नींद खुली। फोन की घंटी काफी देर से लगातार बजती जा रही थी। उसने अनुमान लगाया कि इस समय पिताजी टहलने निकले होंगे और मां पूजा घर में होंगी। अतः वह जल्दी से बिस्तर से निकल कर गया और फोन उठाया।
हेलो....? कौन...चंदर..? क्यों तुम्हारी तबियत तो ठीक है..? घर में तो सब ठीक-ठाक है....? तुम यहीं तो थे.....या कहीं बाहर चले गए थे....? और तुम्हारा मोबाइल क्यों स्विच ऑफ बता रहा है?
दूसरी तरफ फोन पर रेनू थी। उसने एक ही सांस में कई प्रश्न पूछ डाले।
हां....हां मैं बिल्कुल ठीक हूं। लेकिन बात क्या है...? इतने सवेरे-सवेरे क्यों फोन किया तुमने....? और तुम इतनी घबराई सी क्यों हो....?
चंदर बोला। उसे सहसा ध्यान आया कि कल सवेरे वह मोबाइल को चार्जिंग में लगाना ही भूल गया था। अपने आप स्विच आफ हो गया होगा वह ।
बात बहुत गभीर है.... | अभी साढ़े दस बजे तुम पब्लिक लाइब्रेरी पहुचो.... | वहीं मिलूंगी तो बताऊंगी।" रेनू ने कहा और फोन कट गया।
चंदर के मन में कल सवेरे से ही जो उथल-पुथल चल रहा था उस पर अचानक