21 Shreshth Nariman ki Kahaniyan : Haryana (21 श्रेष्ठ नारीमन की कहानियां : हरियाणा)
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21 Shreshth Nariman ki Kahaniyan - Kaushal Panwar
उर्मि कृष्ण
पिता : स्व. श्री गुरु प्रसाद दुबे
माता : स्व. रामलली दुबे
जन्म : मध्य प्रदेश के एक छोटे शहर हरदा में, 14 अप्रैल
शिक्षा : इन्दौर में एम.ए. (राजनीति शास्त्र), साहित्य रत्न, मांटेसरी ट्रेड (बाल शिक्षा का डिप्लोमा), नौ वर्षों तक राजकीय सेवा शिक्षा में रहीं। कई वर्षों तक बाल शिक्षण भी किया।
विवाह : 15 अगस्त, 1971 को अम्बाला छावनी (हरियाणा) के प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. महाराज कृष्ण जैन से विवाह किया।
लेखन : पिछले इकतालीस वर्षों से निरन्तर लेखन।
विधाएं : हास्य व्यंग्य, यात्रावृत्त, कहानी, उपन्यास, बाल साहित्य, रेडियो वार्ताएं तथा प्रहसन, लेख व फीचर।
प्रकाशित पुस्तकें : एक उपन्यास, दो यात्रावृत्त, छः कहानी संग्रह, एक लघुकथा संग्रह, दो हास्य व्यंग्य संग्रह तथा आठ बाल पुस्तकें।
पुरस्कार : वन और पगडंडियां (उपन्यास), मन यायावर (यात्रवृत्त), नये सफेद गुलाब (कहानी-संग्रह) हरियाणा साहित्य अकादमी से पुरस्कृत।
सम्मान : मध्यप्रदेश लेखक संघ का सर्वोच्च सम्मान ‘अक्षर आदित्य’ (2008) प्राप्त। हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला द्वारा लाला देशबन्धु गुप्त (साहित्यिक पत्रकारिता) सम्मान 2008-2009। हिन्दी प्रचारक पब्लिकेशंज, वाराणसी का हिन्दी प्रचारक शताब्दी सम्मान 2011, साहित्य मण्डल, श्रीनाथ द्वारा (राज. से) ‘संपादक रत्न’, पंचमेरू आर्ट एण्ड कल्चरल सोसायटी अम्बाला से सम्मानित, राजकुमार जैन राजन फाउण्डेशन, आकोला, चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) द्वारा श्रीमती इन्दिरा देवी हींगड़ स्मृति सम्मान 2017 से सम्मानित, पंजाब कला अकादमी (रजि.), जालन्धर (पंजाब) द्वारा ‘प्रतिष्ठा-जनक पंकस अकादमी अवार्ड’ से सम्मानित।
प्रसारण : आकाशवाणी तथा दूरदर्शन पर रचनाएं प्रसारित।
अभिरुचियां : पर्यटन, गृहसज्जा, बागवानी, फाटे पागे फ्री।
विशेष : राही सहयोग संस्थान, जयपुर से प्रकाशित राही रैंकिंग 2017 में ‘हिंदी के वर्तमान 100 बड़े रचनाकार’ में उर्मि कृष्ण का नाम।
उर्मि कृष्ण के साहित्य और जीवन पर कुरुक्षेत्र यूनिवसिटी की छात्र अंजु शर्मा पीएच.डी. कर चुकी हैं। दो अन्य छात्राएं यात्रा साहित्य, कहानियों पर लघुशोध प्रस्तुत कर चुकी हैं। एक कहानी हिन्दी एम. ए. कोर्स में लगी है।
अनुवाद : दीदी इन्दिरा (बाल पुस्तक) - ब्रेल लिपि में कहानियां - ब्रेल, पंजाबी, मराठी, गुजराती, उड़िया, तेलुगू, सिन्धी।
संपादन : (1) पुस्तक ‘विश्व की प्रसिद्ध कहानियां’ (अनुवाद - डॉ.महाराज कृष्ण जैन), (2) पूर्वोत्तर वार्ता (स्मारिका) - पूर्वोत्तर हिंदी साहित्य अकादमी (शिलांग), (3) प्रमीला गुप्ता की अनूदित कहानियां (कहानी संग्रह), (4) छत खुले आसमान की (कहानी संग्रह)- ले. डॉ. सुरेन्द्र गुप्त (5) सिर्फ तुम (लघुकथा संग्रह)- ले. पंकज शर्मा (6) जीवन दर्शन - ले. बलजीत सिंह, (7) गुरु नमन (डॉ. महाराज कृष्ण जैन के लेख)
सम्प्रति : निदेशक ‘कहानी-लेखन महाविद्यालय’, संपादन ‘शुभ तारिका’ मासिक।
आत्म बल
अनुराधा तुम्हारे पास इतना हंसी का स्टाक कैसे भरा है?
पारस के प्रश्न के उत्तर में अनुराधा फिर खिलखिला कर हंस पड़ी।
सारी बस की सवारियों का ध्यान उधर ही चला गया, पर अनुराधा को इसकी परवाह नहीं थी। उसने हंसते हुए ही कहा- पारस जी इस समय दुनिया में सब कुछ महंगा हो चुका है। और बढ़ती महंगाई पर हमारा बस भी नहीं। एक हंसी है जो हमारे पास, हमारे अंदर होने से सस्ती लगती है। भला उसका उपयोग करने में कंजूसी क्यों करें?
बात समाप्ति के साथ अनुराधा के मुंह पर फिर खिलखिलाहट बिखर गई।
...हां, ठीक तो कहती हैं बहन जी, हंसी को महंगी क्यों करते हो भाई? साथ बैठे एक वृद्ध महाशय बोल पड़े थे।
पारस जी का स्टॉप आ गया था। वे ‘बाय’ कहकर उतर पड़े। यह लोकल बस थी। इसमें जल्दी सवारियां चढ़ती और उतरती हैं। सुबह दस बजे की बस में चार छः सवारियां ऐसी हैं जो रोज ही मिल जाती हैं। अपने-अपने गन्तव्य पर पहुंचने के लिए, स्कूल, कॉलेज, ऑफिस, दुकान जाने के लिए निकलने वाले लघुयात्रा के यात्रियों का भी एक परिवार बन गया है। नित्य एक ही समय मिलना, ‘नमस्ते’ या ‘हैलो’ कहना। फिर एक दूसरे का हालचाल पूछना। घर-परिवार, रुचियां, सुख-दुःख सभी की जानकारी बस के आधे-एक घंटे के सफर में प्राप्त कर मित्र बन गए हैं ये लोग।
अनुराधा और पारसजी भी ऐसे ही मित्र बन गए थे। वे नित्य छः साल से एक ही बस में एक ही समय चढ़ते थे।
दोनों ही हंसोड़ प्रवृत्ति के थे। इसलिए भी दोनों में जल्दी मित्रता हो गई थी। कई बार बस के चूक जाने पर वे दोनों किसी टैक्सी या स्कूटर से अपने-अपने ऑफिस पहुंचते थे। थोड़े दिनों की पहचान के बाद ही वे एक दूसरे के लिए प्रतीक्षा कर लेते थे। अनुराधा सदा दौड़ती हांफती ही बस स्टॉप पर पहुंचती थी। इसीलिए उसकी बस भी अक्सर छूट जाती थी। यह नित्य की बात होने से वह कभी रोनी सूरत नहीं बनाती थी। जाती बस को देख उसे बाय-बाय करने की मुद्रा से हंस पड़ती थी। पारसजी उस स्त्री के इस रहस्य को समझ नहीं पाते थे। अजीब है यह अनुराधा, बस छूट गई, ऑफिस जाने में लेट हो गई, ऑफिस में डांट भी खानी पड़ेगी फिर भी हंस रही है। और फिर दौड़-भागकर टू सीटर में बैठकर हंसते हुए कहती- आज ‘गोले’ की आंखें चढ़ी मिलेंगी?
गोले कौन? पारसजी पूछते।
अरे जो हमारी बॉस है न! ‘गोल मटोल’ वही।
ओफ्फ! कोई महिला है? आपकी बॉस?
और नहीं तो आप क्या समझते हैं, मैं पुरुषों से डरती हूं? कहकर वह फिर ऊंचे स्वर में हंस पड़ी।
चलती टैक्सी में बैठकर सड़क पर ऐसे हंसना पारसजी को खटका। पर वे कुछ कह नहीं सके। क्योंकि अनुराधा से उनका कोई रिश्ता तो था नहीं। जो कुछ अधिकार जताते। वैसे वे स्वयं भी कुछ कम नहीं हंसते थे। पर कई जगह स्त्री का हंसना वे सहन नहीं कर पाते थे।
रोज साथ जाने पर, आधा घंटा बस में प्राय: साथ बैठने पर भी वे अनुराधा के बारे में कुछ जान नहीं सके थे।
उसकी उम्र को देखते हुए उन्होंने अनुमान लगा लिया था कि वह विवाहित तो है ही। एक बार उसके हाथ में छोटे जूतों का एक पैकेट देखकर उन्होंने पूछ लिया था। तब उन्हें पता चल गया था कि अनुराधा की बेटी भी है।
इसी तरह एक बार उन्होंने उसके पति के बारे में प्रश्न किया था। अनुराधा ने पारस जी के चेहरे पर आंखें गड़ाकर कहा था, यदि कह दूं कि वह जन्तु मैंने नहीं पाला हुआ है तो, फिर वह खिलखिलाकर हंस पड़ी थी। पारस जी ने भी हंसी में साथ देते हुए कहा था, मैंने इसलिए पूछ लिया था अनुराधा जी कि पति नाम का जन्तु पाले बिना स्त्री की गति नहीं है।
अच्छा... फिर आप किसके पालतू जन्तु हैं?
एक मोटी सी तीन बच्चों की अम्मा के!
खिलखिलाहट के बाद उस दिन की बात यहीं समाप्त हो गई थी। अनुराधा का स्टॉप आ जाने से वह उतर पड़ी थी। बस में सदा हलकी-फुलकी बातें होती थीं। गंभीर बातों के लिए समय ही कहां मिल पाता था। एक दूसरे के घर जाने की कभी बात ही नहीं उठी। कभी किसी ने एक दूसरे को घर नहीं बुलाया। वैसे पारसजी की कई बार इच्छा हुई थी कि वे अनुराधा के घर जाएं। इतनी हंसमुख, सुघड़ महिला का घर वाकई बहुत सुन्दर सज्जित होगा। उसे देखें तो सही। एक बार जब अनुराधा उन्हें तीन दिन तक बस में नहीं मिली तब पारस जी ने उसके घर जाने का सोचा।
पर कुछ दूर जाकर ही लौट आये। अनुराधा ने उन्हें कभी घर का नम्बर या सही मार्ग तो बताया नहीं था। संकोचवश उन्होंने भी नहीं पूछा। तीन दिन बाद जब वह मिली तो बड़े सहज भाव से कह दिया, अरे वही घर गृहस्थी के झंझट और क्या। पारसजी आगे कुछ पूछते उसके पहले ही बस आ गई। बात का तार टूट गया।
एक दिन सामान से लदी अनुराधा बाजार में पारसजी को मिल गई। संयोग से पारसजी उस दिन अपने ऑफिस की जीप में थे। खटक से जीप अनुराधा के पास लाकर रोक दी। झट उसके हाथ से थैली झोले लेकर जीप में डाल लिए। चलो घर छोड़ देता हूं। इतना बोझा कैसे ले जाओगी। वह मना करती रही और पारसजी की जीप चल पड़ी।
- गाइड तो करो किधर जाना है? पारसजी ने अनुराधा से कहा।
- बस लाल बत्ती चौक पर छोड़ दो।
- अरे... घर तक छोड़ दूंगा। इतना सामान उठाकर कैसे जाओगी?
- चली जाऊंगी।
- अच्छा अनुराधाजी! घर बुलाकर चाय पिलाने से बच रही हो?
- यही समझ लो।
- मत पिलाना चाय। सामान तो घर के आगे उतारने दो।
पारसजी के बहुत कहने पर घर के आगे तक जीप गई थी। सामान उतारकर लौट आई। घर के दरवाजे पर एक बुढ़िया की झलक मात्र देखी थी पारस जी ने। उनके मन में अनेकानेक प्रश्नों का तूफान उठा था उस दिन, क्या अनुराधा अकेली रहती है?
वह विवाहित है या नहीं? फिर उस दिन वे छोटे जूते किसके थे इसके हाथ में? वह बुढ़िया कौन थी? सास? मां?
कोई पड़ोसन? या नौकरानी? वे जानते थे कि यदि वे कभी बस के सफर में ये सहज प्रश्न पूछेंगे तो उसका उत्तर अनुराधा कहां आसानी से दे देगी। बहुत सी बातें तो वह हंसी में ही उड़ा देती। पारसजी की जिज्ञासा थी जो बढ़ती जा रही थी और अनुराधा उसी खिलखिलाहट से उन्हें रोज बस में मिलती थी। कभी जब अनुराधा चुप बैठी होती तब उसके चेहरे को देख पारसजी को लगता इस मुस्कराते शांत चेहरे के पीछे समुद्र लहरा रहे हैं। पारसजी ने कई बार यह भी सोच लिया था, मुझे क्या पड़ी है उसके बारे में जानने की? न कुछ ज्ञात हो न सही। दुनिया में इतने लोग भरे हैं सबके बारे में सब कहां जान पाते हैं? फिर दूसरे ही दिन उनका मन नहीं मानता, यह स्त्री अनुराधा औरों की तरह नहीं है। उसका तौर-तरीका, सलीका, बातों का ढंग, चेहरे की सौम्यता, खिलखिलाहट और सबसे ऊपर दया-ममता से लबालब भरा हृदय। बस स्टैंड पर खड़ी यह एक स्त्री ऐसी होती है जो किसी के भी दुःख को देख दौड़ पड़ती है।
किसी बच्चे के गिरने, रोने, मचलने पर उसकी सहायता को सबसे पहले आगे रहती है। पारसजी ने निश्चय कर लिया कि वे आज अनुराधा के घर अवश्य जायेंगे। वह न बुलाती है, न सही। मैं ही उसे कब अपने घर बुलाता हूं। और वे शाम ऑफिस से आने के बाद अनुराधा के घर की ओर चल पड़े। पारसजी के पैर आगे बढ़ रहे थे और मन पीछे हो रहा था। पता नहीं किसका सामना हो अनुराधा की देहरी पर? कहीं उसके पति का न हो जाये? पता नहीं कैसा आदमी होगा? शक्की या लड़ाकू? अच्छा होता तो अनुराधा कभी न कभी उसे मिलाती अवश्य। और अभी तो अनुराधा पिछले पन्द्रह दिनों से नहीं मिली है। बस में नित्य की सवारियां पारसजी से अनुराधा के बारे में पूछती हैं।
पारसजी स्वयं उसका हाल नहीं जानते थे। इसीलिए तो वे आज उस के द्वार तक जाने का साहस कर बैठे हैं।
अनुराधा के घर तक पहुंचकर वे एक बार फिर ठिठके। कुछ क्षण रुके फिर कुण्डी बजा ही दी। कुछ देर की प्रतीक्षा के बाद दरवाजा खुला। अनुराधा सामने खड़ी थी। उसके बाल बिखरे और साड़ी मैली थी। चेहरे पर आश्चर्य मिश्रित मुस्कराहट के साथ उसने पारसजी से नमस्ते की और घर के अन्दर आने को कहा।
पारसजी नमस्ते कर अनुराधा के पीछे-पीछे उसके घर में दाखिल हुए। बरामदा पार कर बैठक में घुसे। वहां पड़े सोफे पर बैठ गए।
- अभी आई। कहकर अनुराधा तो तीसरे कमरे में चली गई। पारसजी की दृष्टि उसके कमरे में चारों ओर घूमने लगी। साधारण सी सज्जा में गृहिणी की सुरुचि झलक रही थी। पुराने ढंग का साधारण फर्नीचर और एक कोने में सूखी टहनियों से सजा गुलदस्ता रखा था। घर के पिछवाड़े आंगन में कुछ गमले, कुछ पौधे क्यारियों में नजर आ रहे थे। अनुराधा की खिलखिलाती छवि के विपरीत उसके घर में बहुत उदासी भरी शांति मिल रही थी। तीसरे कमरे से कोई पुरुष स्वर हलका सुनाई दे रहा था। फिर अनुराधा का हलका स्वर सुनाई दिया जैसे वह कुछ समझा रही हो। कुछ देर में अनुराधा बाहर आकर मेरे सामने कुर्सी पर बैठ गई।
कुशलक्षेम के बाद पारसजी ने कहा-अनुराधाजी मैं तो बड़ा डरते-डरते आपके घर आया हूं।
- क्यों? क्यों? वह फिर हंस पड़ी।
- मुझे लग रहा था कि बिना बुलाये जाने पर कहीं आप नाराज न हो जायें?
- अच्छा। जब आप आ ही गए तो नाराज होने से क्या लाभ?
- असल में अनुराधा जी मैं आपकी कुशलक्षेम जानने आया था। पिछले पन्द्रह दिनों से आप बस में नहीं आई ना।
- फिर क्या हुआ। क्या मैं दूसरे रास्ते बस में नहीं जा सकती?
- यह हम सभी को संभव नहीं लगा। इस छोटे रास्ते को छोड़कर भला आप दूसरा लम्बा घुमावदार रास्ता क्यों अपनायेंगी?
- हम सभी कौन?
- अरे वे ही जो रोज बस में मिलते हैं? यानी हमारा बस-परिवार।
- ओह! अच्छा! ठीक हैं न सब!
- हां, सब ठीक हैं। आप अपनी सुनाइए। पिछले पन्द्रह दिनों से छुट्टी पर हैं, क्यों?
- हां छुट्टी लेनी पड़ी। यह वाक्य शीघ्रता से कह वह अन्दर कमरे में चली गई। धीमी आवाज में उसे किसी ने पुकारा था।
कुछ देर जब वह बाहर नहीं आई तो पारसजी उठकर कमरे में टहलने लगे। अन्दर झांक कर देखा तो तीसरे कमरे में कोई पुरुष आकृति पलंग पर बैठी दिखी। अनुराधा वहीं खड़ी थी।
खैर! थोड़ी देर में अनुराधा हाथ में चाय के प्याले लिए बाहर आई। चाय पीते हुए पारसजी ने अनुराधा से पूछ ही लिया- कोई बीमार है आपके यहां अनुराधा जी?
- हां। अनुराधा का उत्तर बहुत संक्षिप्त था।
- अनुराधा जी, कुछ भी कहने का मेरा अधिकार तो नहीं है फिर भी यदि आप अनुमति दें तो कुछ जिज्ञासाएं प्रकट करें?
- आपके मन में जो-जो प्रश्न उठ रहे हैं उन्हें मैं जानती हूं।
- फिर उत्तर दीजिए न।
- पारसजी यदि मैं आपको सब उत्तर दे दूंगी तो फिर आप कभी मेरी हंसी में साझीदार नहीं हो सकेंगे।
पारस जी अनुराधा के चेहरे पर दृष्टि गड़ाए हुए बैठे थे। आगे रहस्य की क्या परतें खुलेंगी यही जानने को उनकी अकुलाहट बढ़ती जा रही थी। अब तक वह यह अच्छी तरह जान गई थी कि पारसजी बहुत सभ्य शालीन व्यक्ति हैं। इसीलिए वह कह गई।
- पारसजी, यह बीमार विक्षिप्त-सा व्यक्ति हमारे देश की भाषा में मेरा ‘सुख-सौभाग्य’ है।
सुनते ही पारसजी को जैसे करंट छू गया। आश्चर्य, करुणा और सहानुभूति से भरी उनकी दृष्टि में दूसरा प्रश्न खड़ा था।
- अब आप सब कुछ जाने बिना चैन से जा नहीं सकेंगे पारस जी यह मैं जानती हूं। पारसजी मूर्ति बने बैठे रहे और अनुराधा कहती रही।
- पारसजी इस व्यक्ति से मैंने खूब प्यार किया था। मीरा ने कृष्ण से किया था उसी तरह मेरी किशोरवय भावुकता भरी थी। पर मीरा का कृष्ण तो पहले ही मूर्ति था, मेरा कृष्ण प्यार के हथौड़ों से मूर्ति बन गया। इसने भी मुझे भरपूर चाहा। हम दोनों ने जन्मभर साथ रहने की कसमें खाईं। हर तरह का विरोध संघर्ष झेला। मेरे पिता तो थे नहीं मां शीघ्र ही हमारी शादी के लिए मान गई। पर कोमल के घर वाले किसी तरह मानने को तैयार न हुए। जी भर विरोध और संघर्ष के बाद भी जब कोमल के घर वाले नहीं माने तो वह एक रात घर से निकल गया। पूरे डेढ़ वर्ष बाद जब वह मिला तो बीमार और विक्षिप्त था। अब दशा उलट गई थी। जो परिवार पहले मेरी सूरत भी नहीं देखना चाहता था अब मेरे घर आ-आकर मेरे और मेरी मां के पैर तक छू रहा था, अनुराधा इससे शादी कर लेगी तो यह बरबाद होने से बच जायेगा।
कुछ मास मैं भी सोचती रही। फिर मेरे प्रेम ने विजय पा ली। मैंने कोमल से शादी कर ली। तब से आज दस साल हो गए हैं। शादी करने के बाद कोमल के परिवार ने मुझसे नाता तोड़ लिया। दो वर्ष बाद मेरी मां भी स्वर्गवासी हो गई थी। तब से मैं ससुराल, पीहर वाला वह शहर छोड़कर यहां आ गई हूं। नौकरी करती हूं आप जानते ही हैं।
- हूं। पारसजी पत्थर बने बैठे थे।
- कोमल का इलाज भी करा रही हूं और प्यार से राह पर लाने का प्रयत्न भी कर रही हूं।
- ओफ्फ हो। बहुत सह रही हैं आप। धीमे शब्दों में पारसजी बोले।
- मेरी छः साल की बच्ची को मैं अपनी सहेली के यहां दिनभर छोड़ देती हूं। रात को वह छोड़ जाती है या मैं ले आती हूं।
- वह! वह बुढ़िया अम्मा?
- हां, वह बुढ़िया अम्मा न मेरी मां है, न सास, न चाची, न ताई। यह वही अम्मा है जिसने साल भर विक्षिप्त कोमल को आश्रय देकर रखा था। वह जब कभी अपने घर चली जाती है मुझे छुट्टी लेकर घर रहना पड़ता है।
पारस जी धीरे-धीरे उठ खड़े हुए। उठने में उन्हें लगा जैसे बरसों का बीमार आदमी खड़ा होने का प्रयत्न कर रहा हो। दोनों हाथ जोड़कर बोले-कुछ मेरे कर सकने योग्य हो तो बताइये अनुराधा जी।
- बस इतना करें कि मेरी यह कहानी आप किसी और को न बतायें। मैं किसी की सहानुभूतियों के सहारे नहीं जीना चाहती। अपने बल पर जीना चाहती हूं।
पारसजी के तो शब्द चूक गये थे। हंसी जैसे पिछले जन्म की बात हो गई थी। वे इतना ही कह सके- मेरी शुभ कामनाएं तुम्हारे साथ हैं।
यों तो बस में आते-जाते बात-बात पर सब एक दूसरे को शुभ कामनाओं के पुलिंदे थमाते रहते थे पर आज अनुराधा के हृदय की गहराई तक पारसजी के शब्द उतर गए। वह जानती थी कि यह आज की ‘शुभकामना’ केवल औपचारिक नहीं है। अपने आत्मबल पर जीने का गर्व करने वाली अनुराधा भी भीतर से कहीं हिलने लगी है, तभी तो आज पारसजी के सन्मुख उसने अपनी जिंदगी की किताब खोलकर रख दी। अब उसे अपने पर ग्लानि सी होने लगी थी। क्यों वह दम्भ भरती थी बिना किसी की सहानुभूति बटोरे जीने का। व्यक्ति इतनी जल्दी क्यों पिघलने लगता है? इतनी शक्तिहीन होकर नारी दुर्गा भवानी कैसे कहला सकती है? वह उठी, हाथ मुंह धोकर कपड़े बदल जब बाहर आई तो उसके चेहरे पर मुस्कराहट लौट आई थी। उसी मुस्कराहट में घुल मिट गई थीं वे रेखाएं जो कुछ क्षण पहले उसके चेहरे पर उभर आई थीं।
-ए-47, शास्त्री कॉलोनी
अम्बाला छावनी-133001 (हरियाणा)
संपर्क : ‘कृष्णदीप’, ए-47, शास्त्री कालोनी,
अम्बाला छावनी-133001, (हरियाणा)
फोन : 0171-2610483, मो। : 9896077317
ई-मेल : urmi.klm@gmail.com
सुशीला बेहबालपुर
तीन सहेली
31 जुलाई प्रेमचन्द जयंति पर आयोजित कार्यक्रम में शामिल हो तीनों सहेलियां नई ऊर्जा के साथ घर पर लौंटी। पर अपनी-अपनी क्षमतानुसार। शाम ढलने को थी, मौसम काफी सुहावना था। सरला, ज्योति व संगीता छत पर जा पढ़ने के साथ-साथ सुहावने मौसम का आनन्द भी उठा रही थीं।
पढ़ते-पढ़ते अचानक सरला का ध्यान नोट्स से हट कुछ और ही विचारने लगा। ज्योति की नजर जैसे ही सरला पर पड़ी तो उसने तुरन्त टोका- ‘क्या सोच रही हो इतनी गम्भीरता से। जो तुम पलक ही नहीं झपका रही।’ सरला ने सोचना छोड़ बीच में ही जवाब दिया। ‘ज्योति! मैं सोच रही थी कि जो हम काम कर रहे हैं। क्या ये काम हम ताउम्र कर पायेंगे। अब तो हम कुछ आजाद हैं। हम पर इतना बन्धन नहीं, रोक-टोक नहीं। कल को घरवाले हमारी शादी कर देंगे। हम अलग-अलग जगहों पर चली जाएंगी। बस अचानक इसी डर ने आ घेरा।’ दोनों की बातें सुन संगीता धीरे से बोली, ‘सरला। तुम्हारा डर जायज है। हम बस अपने मार्ग पर अडिग होकर चलते रहें। रास्ते अपने-आप बनते चले जाएंगे।’ संगीता की सुन सरला ने फिर अपनी चिन्ता जाहिर की।
‘तुम जो कर रही हो वह सब तो ठीक है लेकिन हमें कुछ न कुछ तो अलग भी करना चाहिए। जिससे हमारे काम पर कोई प्रभाव न पड़े। मेरे ख्याल से हमें शादी-वादी का ख्याल ही छोड़ देना चाहिए। शादी के बाद संगठन में काम कर पाना आसान नहीं है। संगठन में काम करते हुए, क्या हम ताउम्र यूं ही एक-दूसरे के साथ नहीं गुजार सकतीं। क्या रखा है, शादी-ब्याह में? फालतू के झमेले हैं सभी। जीवन में अगर सबसे बड़ी कोई चीज है तो वो है काम। काम के बिना व्यक्ति लम्बा जीवन नहीं जी सकता।’ सरला के दार्शनिकों की भांति विचार सुन ज्योति बोले बिना न रह सकी। ‘अरे पूरी बात तो सुन लो फिर तुम्हें जो संज्ञा देनी हो दे देना (सरला जरा इतरा कर बोली)। हां तो मैं कह रही थी, जैसे कि आज