21 Shreshth Naariman ki Kahaniyan : Gujarat (21 श्रेष्ठ नारीमन की कहानियां : गुजरात)
By Jyoti Singh
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21 Shreshth Naariman ki Kahaniyan - Jyoti Singh
वंदना शांतुइन्दु
वंदना शांतुइन्दु का जन्म 7-1-1963, पोरबंदर (गुजरात) में हुआ था। इनका मूल निवास कालावड (शीतला) जिला जामनगर, गुजरात में है। इनकी शिक्षा-दीक्षा बी. काम., एल.एल.बी. की हुई है। दरियाई क्षेत्रों में रहने के कारण वहाँ की संस्कृति को भली-भाँति अपनी रचनाओं में रचा बसा पाई है। अपने बाल्यावस्था तथा किशोरावस्था में राष्ट्र सेविका समिति की प्रत्यक्ष शाखा में अपनी भूमिका निभाने के कारण समाज के अन्तिम पायदान पर बैठे व्यक्ति के दुःख-दर्द को भली-भाँति समझती है और अपनी रचनाओं में समावेश करती है। सेवा बस्ती में काम करने के कारण न सिर्फ युवाओं के मन को समझती है बल्कि बाल मनोविज्ञान को भी भली-भाँति समझती हैं। इसका प्रत्यक्ष दर्शन उनकी बाल कहानी-कविताओं में दिखती है।
धरातल से जुड़ने के कारण इनकी लगभग सभी रचनाओं को सरकारी व असरकारी पुरस्कार मिला हुआ है। इनकी निम्नलिखित प्रकाशित पुस्तकें (स्वरचित व अनुदित) व पुरस्कारों को देखा जा सकता है-
‘झंखना परोढनी’ गुजराती कहानी संग्रह को गुजराती साहित्य परिषद का पुरस्कार
‘कोलाज वर्क’ (हिन्दी कविता संग्रह)
‘एकडा बगडा आराम करे छे’ (बाल गीत संग्रह)
‘पेट्रो...पेट्री...पम’ (बाल कथा संग्रह)।
डॉ. क्षमा कौल के उपन्यास ‘दर्दपुर’ का गुजराती अनुवाद को गुजराती साहित्य अकादमी का द्वितीय पुरस्कार (प्रथम कोई नहीं)
क्रांति कनाटे की कविताओं का गुजराती अनुवादृ ‘समय साक्षी छ’,
हुरसैयो नथी
गुजराती कविता संग्रह
‘अंधेरे का रंग’ गुजराती कहनी संग्रह
इसके साथ ‘गुजराती साहित्य की शीर्षस्थ निम्नलिखित पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित हुई हैं-
हिंदी में ‘समकालीन भारतीय साहित्य’, कथादेश, साक्षात्कार में कहानियां प्रकशित। कथादेश की अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता में ‘गंध’ कथा को द्वितीय पुरस्कार मिला।
इसके अतिरिक्त बुड्रेटरी मीडिया-पीपल थियेटर द्वारा आयोजित मोनोलॉग लेखन प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ है।
कडुआ दरिया
कड़वी अपने देवर वालजी के दोनों हाथ पकड़ कर बच्चे की तरह पाँव ठोक कर जिद कर रही थी, मैं तेरे साथ आऊंगी ही, देखें तो कैसे ना बोलता है!
उसकी देवरानी लीली अपने पति लालाजी से विनती कर रही थी, बहन को ले जा न, क्यों ना बोलता है? बेचारी इतने सालों में पहली बार तुमसे कुछ माँग रही है।
वालजी पत्नी की बात को अनसुना करके दोनों को छोड़ कर पौरी के बाहर निकल कर किवाड़ बंध कर के निकल गया।
कड़वी वहीं ओसारे में बैठ गई। लीली कुछ बोल न सकी। उसे अपने पति पर गुस्सा आ रहा था। उसे यह समझ में नहीं आया कि वालजी को बहन को साथ ले जाने में समस्या क्या थी? वह रसोई में घुस गई।
बच्चें कब किवाड़ खोल कर अंदर आ गए ये कड़वी के ध्यान में न रहा। रात हो गई थी।
चल बहन, खा लेते हैं।
लीली ने पल्लू से हाथ पोछते हुए ओसारे में बैठी अपनी बहन कड़वी को बोला। कड़वी की नजर अभी भी बंद किवाड़ पर टीकी हुई थी। लीली ने नजदीक आकर उसके कंधे पर हाथ रखकर फिर से कहा, चलनी बहन, बच्चों ने खा लिया हैं
कडवी की नजर किवाड पर से हट कर लीली पर गई, तू खा ले, मुझे नहीं खाना, अब तो।।
बोलते हुए अटक गई। लीली उसके पास बैठ गई,
ऐसा तो चलता होगा क्या? खाए बगैर कैसे चले! अब तो सुख की रोटी खाने के दिन आये हैं, चल। तु देख तो सही, अभी पाँच दिन में तो वालजी मेरे जेठ जी को ले कर आ जायेंगे। अब तेरे सुख के दिन आये हैं, चल-चल, मेरी बहन।
लीली ने कड़वी का हाथ पकड़कर खड़े करने की कोशिश की। कडवी समझ गई कि लीली उसको छोड़ने वाली नहीं है इसलिए खड़ी हुई और लीली के पीछे रसोई में गई।
धुंए की गंध फैली हई थी। चल्हे में जलाए इंधन पर राख जम गई थी। कडवी ने सोचा- ऐसे ही मेरे दहकते अरमानों पर राख छा गई थी, और ऊपर वाले की एक फूक से...
वो ज्यादा सोच न सकी। उसकी नजर ऊपर गई। परछत्ती पर पड़े पीतल के बर्तन समंदर की खारी हवा लगने से काले पड़ गए थे। दीवारों में सीलन लग गई थी। ऊपर खपरैल की लकड़ी के साथ बंधी सफेद रस्सी पर इतनी मक्खियां बैठी थी कि रस्सी काली लग रही थी। कड़वी ने सोचा कि इस रस्सी को हिला दूं तो...
उसके दिमाग में विचार भिनभिनाने लगे।
थाली में रोटी रखी हुई थी, मिट्टी के बर्तन में रखी छाछ जम गई थी। कढ़ाई में शाग ठेठ तलिए पर चोटा हुआ था। लहसुन की चटनी सिलबट्टे पर थी।
लीली ने कटोरी में छाछ ली, रोटी के निवाले पर शाग लिया, थोड़ी चटनी ली और निवाला कडवी के मुँह में रखने हाथ लंबा किया। कड़वी ने चुपचाप मुँह खोला, निवाला चबाने लगी।
कडवी और लीली सगी बहने थी। एक ही घर में दो भाइयों के साथ ब्याही गई थी तो इस रिश्ते से देवरानी-जेठानी भी थी। कहलाता तो ऐसा है कि माँ जनी दो बहनें अगर देवरानी-जेठानी बने तो आपस में बनती नहीं है, पर यहाँ बात कुछ और थी।
खा कर कडवी फिर बाहर आई। आँगन में पड़ी खटिया में दोनों बच्चे सो गये थे। दोनों लीली और वालजी के थे। उनका तो दिन चढ़ने से पहले सुर्यास्त हो गया था। उसने बच्चों को ठीक से सुलायें, चादर ओढाई। फिर बाजु की खटिया में खुद सोई।
उसकी आंखो में पूरा आकाश उतर आया। तारों के झुण्ड में वह ध्रुव तारा ढूंढ़ने लगी। अपने पति के शब्द याद आये,
ध्रुव को देखना है तो सीधा उत्तर में देखना। बिलकुल अकेला और तेजस्वी जो दिखे वह ध्रुव। और देख, ये जो ऊपर दिखता है न चार तारों का चौंक और उसकी पूछ में तीन तारे, वह है सप्तर्षि और उसके नीचे के दो तारों के दायें जरा दूर देख, तेजस्वी अकेला, वह है ध्रुव। ध्रुव को ढूंढना एकदम सरल, बस सप्तर्षि को याद रख। शादी के मंडप में तेरी माँ ने और मेरी माँ ने पंडित जी के कहने पर तेरे कानो में कौन सा आशीष दिया था? वह याद कर। वशिष्ठ-अरुंधती का सौभाग्य प्राप्त हो। ऐसा कहा था न?
कड़वी ने सप्तर्षि को ढूंढा और बोल पड़ी, -वशिष्ठ-अरुन्धती का सौभाग्य! उसके चहरे की ध्रुव जैसी अचल उदासी गहरी हो गई। फिर से पति के शब्द कान में गूंज उठे,
यह होकायंत्र तो अब आये। हमारे पूरखे समन्दर में रात को इस ध्रुव को देखकर ही दिशा पहचानते थे। कभी भी भूले नही पड़ते थे। मूए यह होकायंत्र के भरोसे कभी-कभी समन्दर में भूले पड़ जाते हैं। यह भी है तो इंसान का बनाया हुआ न! कभी बिगड़ भी जाये। बाकी यह कुदरत का बनाया हुआ होकला यानी होकायंत्र ध्रुव कभी भी न बिगड़े। यह तो फर्क हैं इंसानों में और कुदरत में।
कड़वी अपने पति के सामने अहो भाव से देखती रहती। वह सोचती कि कितना पढ़ा-लिखा है! तभी तो यह सब जानता है। उसे अपने पति कानजी के प्रति प्यार उमड़ आता। आंखों का प्यार का समन्दर तूफानी हो उठता। वह मनोमान बोल उठती-समन्दर में रहता है फिर भी कितना मीठा है! पर कानजी तो अपनी पत्नी कडवी को मुँह पर कहता कि, ‘तेरा नाम कडवी किसने रखा? तेरी बुआ ने तुझे चखा नहीं होगा वर्ना कडवी नहीं, मीठी रखती। यह तो सिर्फ मैं ही जानू कि तु कितनी मीठी है!" कडवी शरमा जाती।
तारों में घूमते हुए कडवी यादों के समंदर में डूबने लगी।
नजर के सामने आसमाँ को छूती हुई मौजे उमड़ने लगी। जहरीला साँप घायल होकर फन पटकता मुँह से जहरीली झाग उगले वैसे ही दीव का समन्दर आकाश को छूने की होड़ में उछलता था, फिर पहुँच न सकने से खिसियांना होकर किनारे आकर मत्था ठोकता था, जैसे पूरे दीव को निगल जाना चाहता न हो! दीव के किल्ले की दीवारे लांघ कर ठेठ रास्ते पर आ जाता था। ऐसे तो कितने तूफानों की चाटे-लाते खा-खाकर जीर्ण हो गया किल्ला फिर भी डटकर खड़ा था।
समन्दर का कराल रूप देखकर किनारे पर छप छपाक कर रहे सैलानियों ने दीव छोड़ दिया था। तट पर खड़े थे वह दीव के मछुआरे थे, जींस की रग-रग में समन्दर उछल रहा था।
युवा मछुआरे आधुनिक दूरबीन लेकर दूर-दूर तलक समन्दर को टटोल रहे थे। समन्दर को आगोश में लेकर जीने वाले यह नरबाकुरो की आँखो में भय और बेबसी दीख रहे थे।
जिनके पति सरकारी चेतावनी को अनसुना कर समन्दर में मछली पकड़ने गये थे उनकी घरवालिया हृदय फट जाये ऐसा रो रहीं थीं। समन्दर के खारापन के सामने आँसु का खारापन जंग पर चढा था-कौन ज्यादा खारा, कौन किसको डुबाता है? देख जरा।
इस टोली में कडवी भी थी। रो-रो के उसकी आँखे नारियल पूनम पर समन्दर को चढाई जाने वाली माताजी की लाल चूनरी जैसी हो गई थी। उसकी सास उसे मछुआरों के साहस, हिम्मत और शौर्य की बातें सुना-सुना कर उसे गौरवान्वित करते ढाढस बंधा रहीं थीं,
इसमें क्या रोना! खारवण होकर समन्दर से डर गई! सागर तो देव है। वो हमारे छोरों को कुछ नहीं करता। और मेरा कानजी भी कैसा बहादुर है, ऐसे तुफान से डरे नहीं। वह तो नाव भी कैसे खेता है, जैसे कोई राजपूत घोड़ा चलाता! कैसा भी तुफान क्यो न हो, मेरा बेटा इसमें से भी नैया पार कर लाये ऐसा है। रो मत, बहू।
बोलते हुए उसकी आवाज फट गई। आँखे बरस पड़ी। वह कडवी के हालात को अच्छी तरह समझ सकती थी। उनका पति भी ऐसे ही तफान में समन्दर में गया था जो कभी लौट कर न आया। समन्दर में गये मछुआरे वापस आये तब सही।
कडवी की परिस्थिति इसकी सास से अलग थी। उसके ससुर समन्दरी तुफान में फंसे और डूब मरे तब उन्हें दो बेटे थे और यहाँ कडवी की तो अभी पिछली साल शादी हुई थी। बच्चा हुआ नहीं था तो दुल्हन का रूप अभी फीका नहीं हुआ था।
शाम हो गई। माथा ठोक-ठोक कर समन्दर भी थक कर शांत हो गया था! न करने का करके फिर शरमा रहा हो ऐसे धीरे-धीरे गरज रहा था। मछुआरों की बस्ती सुनसान थी। आकाश की ओर देख कर कुत्ते लम्बी आवाज में भौंक रहे थे, उसे हट कहने वाला कोई न था। कोस्ट गार्ड ने पूरे भारत का समन्दर झांच-छान डाला था पर कोई अता-पता नहीं था। दीव के छः युवा मछुआरे समाचार बन गये थे।
बस्ती के रहने वाले लापता मछुआरे के घर के आगे जमा हो गये थे कडवी पागलपन की हद पार कर गई थी, काना-काना! मुझे छोड़ कर न जाना रे! मैं ये आई
बोलती हुई समन्दर की ओर भागी। इकट्ठे हुए लोगों ने उसे पकड़ लिया। डॉक्टर को बुला कर नींद का इंजेक्शन लगा कर सुला दिया। सास की स्थिति बेहद खराब थी। जवान बेटे का कोई पता नहीं था और जवान बहु पागलपन की कगार पर! क्या करें? उसने फिर एक बार अपने आप को सम्भाल लिया था।
दिन, महीने, साल गुजरते गये। लोगों की नजर में तो कडवी के आँसु सूख गये थे पर आँखो से जो न बह पाये वह आँसु मौन का पहाड़ बन कर उसकी जीभ पर जमा होते जाते थे, वह एकदम चुप हो गई। सौदामिनी जैसी कडवी सूखी नदी बन गई! सास ने प्यार देने में कुछ कमी न रखी। सगाने ने इकट्ठे होकर तय किया कि कडवी की शादी उनके देवर वालजी के साथ कर देते है। सास भी खुश हो गये। देवर से शादी वैसे भी उनकी जाति में सामान्य सहज बात थी। वालजी था अठरा का और कडवी बीस की। यह सुनकर कडवी आक्रंद कर उठी,
"ना-ना, देवर से शादी नहीं। वालजी मेरा भाई जैसा है। आज बोले वो फिर कभी मत बोलना।
अपनी छोटी बहन लिली के साथ देवर वालजी की शादी रचा दी। वालजी और लीली के बच्चे बड़े होने लगे थे और कडवी की आँखो में रण फैल रहा था। उसकी चिंता में सास भी गुजर गई। जैसे सास ने वैसे ही वालजी और लिली ने कडवी को सम्भालने में कोई कमी न रखी। बच्चे भी बड़ी माँ के साथ ही खाते-पीते-सोते थे। कडवी उन चारों पर अपना स्नेह बेशुमार उंडेल रही थी।
समय ने सब कुछ बदल डाला, पर न बदली कडवी और न बदला समन्दर। रात होते ही कडवी आकाश की ओर देखती रहती। ध्रुव के तारे में कानजी के चेहरे को ढूंढती रहती।
एक दिन डाक आई, कडवी का ह्रदय समन्दर की तरह उछल गया। कानजी का था, जिन्दा था! पाकिस्तान की जेल में सड़ रहा था। वो तूफान ने उसकी नाव को पाकिस्तान की हद में घुसा दिया था। चारों मछुआरे को पाकिस्तानी कोस्ट गार्ड ने पकड़ कर जेल में डाला था। इस बात को आज पंद्रह साल हो गये थे।
पूरे गाँव में खबर फैल गई। लोग कडवी को मिलने आने लगे। कडवी के अंदर एक नई कडवी ऊगने लगी-कानजी की चिट्ठी! उसकी आँखो में आशा तैरने लगी थी- कभी तो कानजी वापस आयेगा। वो जानती थी कि पाकिस्तानी जेल में भारतीय कैदियो की क्या हालत होती है। बचपन से यह सब बातें वह जानती थी। उसका हृदय खौफ से भर गया। उसने मन्नत मांगी,
माँ शिकोतर! मेरे कानजी को वह राक्षसों की जेल में से छुड़ा ला, माँ! तेरी देहरी पर आकर कुंआरी कन्याओं को भोजन कराऊँगी।
समन्दर के आगे नारियल फोड़ कर माथा टेक कर माफी मांगने लगी, मेरे बाप! माफ करना। उस दिन तूझे क्या-क्या न कह डाला था! बाप हो हमारे, माफ कर देना।
पंजाब की वाघा बोर्डर से मछुआरे आने वाले थे। उनके परिवार वालों को पत्र से जानकारी दे गई थी। वालजी वहीं गया था। इसलिए तो कडवी साथ जाने की जीद कर रही थी। पर उसकी एक न चली थी। ओसारे में निराश हो कर बैठ गई थी। पन्द्रह साल निकालें उससे अब पाँच दिन निकालना बेहद मुश्किल था। वालजी भी उसकी भाभी की पीड़ा समझता था, पर क्या करें? घर में से एक को ही जाने का था। यह जानकर लीली बोल पड़ी थी कि मुए सरकारी लोग क्या जाने कि पन्द्रह साल का बिरह? बोले तो क्या? चुनाव में मत माँगने आते हैं तब तो नहीं कहते है कि घर में से एक ही आना। तब तो, आओ-आओ और जितना दे सको उतना दो!
लीली के हाव-भाव देख कर वालजी हँस पड़ा था। बड़ा भाई आ रहा है इस बात से उनमें भी जोश आ गया था। दोनों बहनों को छोड़ कर वह चला गया था।
दो दिन बाद पड़ोसी के घर फोन आया था। कडवी और लीली बच्चो की तरह दौड़ी थी। फोन वालजी का था। उसने कडवी को कहाँ, ले भाभी! मेरे भाई से बात कर।
कडवी की आवाज में पंद्रह साल घुटन बन कर बैठ गया। उसका मन पति की आवाज सुन कर बेचैन हो उठा। चेहरा लाल-लाल हो गया। आँखे बंद हो गई थी और मन भूतकाल के गलियारों में भाग गया था। ‘मीठी’ शब्द सुनने अधीर हुए कान में जाने कि कीड़ा घुसा हो ऐसे कांप ऊठी। उधर से खांसी की खोखली, गले में कफ की घरघराहट और हांफते हुए बोला- ‘क...ड़...वी...’
प्यार में सराबोर कडवी चिंता में डूब गई। आवाज कांपने लगी, क...का... ना...
उधर फोन पर फिर से वालजी आ गया था, "भाभी! मेरे भाई को सिर्फ कफ है। वहाँ आकर ठीक हो जायेगा। मेरा हाथ पकड़ कर सबसे पहले तेरा हाल पूछा। बस अब तो दो दिन है, मिलते हैं।
बगैर सूने लीली बहुत कुछ समझ गई थी। कडवी का चेहरा पत्थर होता देख उसकी धडकनें तेज हो गई थी।