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Bharat ke 1235 varshiya sawantra sangram ka itihas : bhag-3 - ghode par ghode tut pade talwar ladi talwaro se
Bharat ke 1235 varshiya sawantra sangram ka itihas : bhag-3 - ghode par ghode tut pade talwar ladi talwaro se
Bharat ke 1235 varshiya sawantra sangram ka itihas : bhag-3 - ghode par ghode tut pade talwar ladi talwaro se
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Bharat ke 1235 varshiya sawantra sangram ka itihas : bhag-3 - ghode par ghode tut pade talwar ladi talwaro se

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अकबर का राज्य संपूर्ण भारत पर तो छोड़िए आधे भारत पर भी नहीं रहा, पर उसे हिंदुस्तान का सम्राट कहा जाता है। दूसरी ओर भारत के अंतिम हिंदू सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य को भुला दिया जाता है, जिसने अपने जीवन में 20 से अधिक युद्धों में विदेशी हमलावरों को पराजित किया था और जिसका दिल्ली ने वास्तविक सम्राट के रूप में स्वागत किया था।


कहने का अभिप्राय है कि भारत के शौर्य ने जैसे अब से पूर्व के सुल्तानों को निशंक शासन नहीं करने दिया था, वैसे ही उसने बाबर, हुमायूं, शेरशाह, अकबर और जहांगीर को भी निशंक शासन नहीं करने दिया। सर्वत्र विरोध, प्रतिरोध और प्रतिशोध की त्रिवेणी बहती रही और हिन्दू अपने धर्म और देश की रक्षा के लिए निरंतर सचेष्ट और क्रियाशील रहा...उसकी तलवार को और उसकी हुंकार को इतिहास की आत्मा ने सदा नमन किया है।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateAug 25, 2021
ISBN9789352786770
Bharat ke 1235 varshiya sawantra sangram ka itihas : bhag-3 - ghode par ghode tut pade talwar ladi talwaro se

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    Bharat ke 1235 varshiya sawantra sangram ka itihas - Rakesh Kumar Arya

    अध्याय-1

    जहीरूद्दीन बाबर का बहिष्कार

    भारत जब सल्तनत काल के अत्याचारों से मुक्त होने का प्रयास कर रहा था, और हिंदू प्रतिरोध की भयानक परिस्थितियों का सामना करते-करते जब सल्तनत की रीढ़ टूट चुकी थी, तब भारत पर बाबर का आक्रमण हुआ। हमने पूर्व में उल्लेख किया था कि जिस समय बाबर ने भारत पर आक्रमण किया। उस समय का इतिहास उदास था और वह रक्त के आंसुओं से रो रहा था।

    भारत बहा रहा था आंसू

    इतिहास की आंखों में रक्त के आंसू होने का अभिप्राय है कि भारत अपने उस दुर्भाग्य पर रो रहा था जो उसे दुर्योधन, शकुनि और दुःशासन की हठधर्मिता की कुटिल चालों के रूप में महाभारत में देखने को मिला था। भारत में उस समय ऐसा साज सजा था कि भारत जीतकर भी हार गया था। वह एक ऐसा युद्ध है जिस पर आप किसी को जीत की बधाई नहीं दे सकते। इसीलिए, युधिष्ठिर को युद्ध के पश्चात राजा बनने से विरक्ति हो गयी थी। भारत ने युद्ध को हार कर जीता और युधिष्ठिर को विजयी राजा मानकर शांति पथ पर बढ़ना आरंभ कर दिया। आज भारत न तो हारकर जीत रहा था और न ही जीतकर हार रहा था। आज सब कुछ परिवर्तित हो गया था। आज न तो हम हारने वाले थे और न ही जीतने वाले। आज युद्ध हमारी भूमि पर हम पर शासन करने के लिए, दो विदेशी शक्तियों के मध्य हो रहा था और हम मौन रहकर युद्ध को कर रहे थे। अतः हम विनाश के लिए प्रतीक्षारत थे। इतिहास ने भारत में कितने ही नरसंहार देखे थे, और कितने ही विनाश देखे थे, पर अबकी बार का विनाश वास्तव में ही उसके लिए, प्रलयकारी सिद्ध होने जा रहा था। इसलिए, इतिहास रक्त के आंसू बहा रहा था।

    बाबर कैसा आक्रांता था जो अपने देश में ही अपने लिए, सब कुछ खो चुका था। इसलिए, उसने अंतिम दांव भारत की अस्मिता को लूटने के लिए लगाया, और उसे उसका सौभाग्य ही कहा जायेगा कि वह भारत में आकर अपने मनोरथ में सफल हो गया।

    बाबर की पृष्ठभूमि

    बाबर फरगना का रहने वाला था, उसका पिता 50 हजार वर्गमील भूमि के भाग का राजा था। यह प्रांत आजकल तुर्किस्तान में स्थित है। अपने पिता की आकस्मिक मृत्यु के कारण बाबर को मात्र 11 वर्ष की अवस्था में ही राज्य कार्य संभालना पड़ गया था।

    बाबर मुगल नहीं तातार था

    बाबर अपने पिता की ओर से तैमूर लंग का और माता की ओर से चंगेज खां का उत्तराधिकारी था। बाबर तातार था और मुगलों से घृणा करता था, इसके उपरांत भी इतिहास में उसके वंश को मुगलवंश के नाम से जाना जाता है। बहुत लोगों को और इतिहासकारों को इस तथ्य का ज्ञान है, परंतु इसके उपरांत भी बाबर और उसके वंशजों को मुगल कहे जाने की परंपरा समाप्त नहीं हो रही।

    बाबर रहने लगा था दुखी

    एक समय ऐसा आया था जब बाबर से अपना राज्य भी छिन गया था। तब वह बहुत दुखी रहने लगा था। वह स्वयं लिखता है-‘‘मेरी दशा अति शोचनीय हो गयी थी और मैं बहुत अधिक रोया करता था। पर मेरे मन में विजय तथा राज्य प्रसारण की उत्कृष्ट लालसा थी। अतः एकाध हार से ही सर पर हाथ रखकर बैठने वाला नहीं था। मैं ताशकंद के खान के पास गया जिससे कुछ सहायता प्राप्त की जा सके।’’

    इस कथन से स्पष्ट होता है कि बाबर उद्यमी और पुरुषार्थी था, उसने साहस से काम लिया और धीरे-धीरे उठने का प्रयास किया। अंत में 1499 ई. में उसने अपने पिता का खोया हुआ राज्य प्राप्त कर ही लिया। उसका उत्थान हो रहा था और ईश्वर उसकी सहायता कर रहा था। वह अपने जीवन काल में मुगलों से दुःखी रहा था। इसलिए उसने मुगलों के विषय में लिखा-‘‘मुगल लुटेरे हर प्रकार से नीचता प्रदर्शन करने वाले तथा विनाशलीला करने वाले हैं। अब तक उन्होंने पांच बार मेरे विरुद्ध विद्रोह किया है। यही नहीं कि उन्होंने मेरे विरुद्ध ही विद्रोह किया, स्वयं अपने लोगों को भी उन्होंने नहीं बख्शा।’’

    यह मुगल शासकों के विषय में मुगलों का ही कथन है जिससे स्पष्ट होता है कि बाबर को मुगल लोग इतने घृणास्पद लगते थे कि वह उनके लिए सदा विनाश की ही माला जपता था। बाबर का दृष्टिकोण हिंदुओं के प्रति भी कठोर था। वह अपने हर पूर्ववर्ती मुस्लिम आक्रांता की भांति पहले मुस्लिम था और उसके उपरांत कुछ और। इसलिए उसे भी ‘काफिरों’ से घृणा थी।

    किया क्रूरता का प्रदर्शन

    बाबर ने अपनी क्रूरता का प्रदर्शन अपने प्रथम युद्ध में ही कर दिखाया था। उसने यह युद्ध तेबोलियों के विरुद्ध किया था, जिसके विषय में वह लिखता है-‘‘हमने अनेक बंदियों के सिर काटने की आज्ञा दी। जब मैं इन छावनियों में रुका हुआ था। खुराबर्दी, ध्वजवाहक, जिसे मैंने कुछ काल पूर्व ही उपाधि से विभूषित किया था। दो-तीन बार तंबोलियों पर झपटा, उन्हें भगा दिया, और न जाने उनमें से कितनों के सिर काटकर शिविर में ले आया। उस अंदेजन के युवक भी शत्रु देश को लगातार लूटते रहे। उनके घोड़ों को हांक लाये, उनके लोगों को मार दिया और उन्हें मुसीबतों में डाल दिया।’’

    पालने में दीख जाते हैं पूत के पांव

    कहते हैं कि पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं। अतः बाबर ने भी अपने प्रथम युद्ध में ही अपने भावी रक्तपिपासु जीवन की झलक दिखा दी। उसने अपने इन संस्मरणों से स्पष्ट कर दिया कि उसको भविष्य में इस युद्ध से भी यदि भयंकर युद्ध करने पड़े तो वह अपनी क्रूरता का भरपूर प्रदर्शन करेगा।

    बाबर जब भारत पर चढ़ाई की तो उसने यहां भी वही किया जो उससे किया जाना अपेक्षित था। भारत पर उसने इब्राहीम लोदी को परास्त करने से पूर्व पांच बार आक्रमण किये थे। उसका पहला आक्रमण 1519 ई. में, दूसरा उसी वर्ष सितंबर में, तीसरा 1520 ई. में, चौथा 1524 ई. में तथा पांचवां नवंबर 1525 ई. में हुआ।

    बाबर का राजपूत रायों ने किया वीरोचित ‘स्वागत’

    सिंधु नदी पार करते ही बाबर का वीरोचित शैली में ‘स्वागत’ सत्कार हिंदू राठौर राजपूतों के वंशजों के रायों और उनकी सेना ने किया। इन लोगों को जनजुआ कहा जाता था। ये स्वभावतः बड़े वीर और देशभक्त लोग थे। उन्हें सिंधु के उस पार से अपनी मातृभूमि में प्रवेश कर अपने देश की पवित्र भूमि की ओर बढ़ने वाले किसी भी आक्रांता को देखा जाना प्रिय नहीं था। अतः इन हिंदू वीरों ने इस विदेशी आक्रांता को ललकारा और उसे स्पष्ट कर दिया कि भारत में घुसने का अर्थ होगा हमारी लाशों के ऊपर से जाना एक प्रकार से यह ललकार थी कि आगे बढ़ने से पहले हमसे भिड़ो। ‘‘आने वालो जरा होशियार यहां के हम हैं पहरेदार।’’

    निकल रही थी चुनौती की चिंगारी

    बाबर ने भी समझ लिया कि तू जिस धरती की ओर बढ़ रहा है उसका बच्चा-बच्चा प्रहरी है और उसके कण-कण से चुनौती की चिंगारी निकलती है, इसलिए हर चुनौती का सामना करना होगा। अतः उसने इस देश भक्तों की चुनौती को स्वीकार किया और दोनों पक्षों में भयंकर संघर्ष हुआ। ये राठौर राजपूत मारकाट दिये गये, पर इन वीरों ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार अपने शवों के ऊपर से ही शत्रु को मार्ग दिया।

    सीमावर्ती क्षेत्रों में ही हिंदुओं की गक्खर जाति का निवास था। ये लोग भी अपनी वीरता और साहस के लिए प्रसिद्ध थे। वे पूर्व में अपने शौर्य एवं साहस के कई कीर्तिमान स्थापित कर चुके थे। अब जब उन्हें भारत की ओर बढ़ते बाबर की जानकारी हुई तो उन्होंने भी प्रतिरोध करने की प्रतिज्ञा ली।

    बाबर को भागना पड़ गया

    भला वीर पुत्रों के रहते माँ के आंचल की ओर कोई शत्रु चल भी कैसे सकता था। इसलिए बाबर को इन वीर पुत्रों ने रोक लिया और उसे युद्ध के लिए ललकारा। बाबर ने युद्ध की चुनौती स्वीकार की। युद्ध की विभीषिकाओं से बाबर की सेना में भगदड़ मच गयी। गक्खरों और अन्य वीर हिंदू जातियों ने मिलकर बाबर को सिंधु के उस पार तक खदेड़ दिया। भारत के मुट्ठी भर लोगों के द्वारा पड़ी मार से पीठ को सहलाता हुआ बाबर अपने देश भाग गया। उसे अपमान, कुण्ठा और पीड़ा ने घेर लिया।

    पी.एन. ओक अपनी पुस्तक ‘भारत में मुस्लिम सुल्तान’ भाग-2 के पृष्ठ 37 पर लिखते हैं-‘‘भारत के सीमावर्ती निवासी व गक्खरों तथा अन्य हिंदू जातियों द्वारा बाबर को सिंधु के पार खदेड़ दिया गया, जलालाबाद मार्ग पर काबुल से लगभग दस मील पूर्व में स्थित बुत खाक में होकर बाबर का प्रत्यावर्तन हुआ। इसका नाम लुटेरे मुहम्मद गजनी के उस मूर्तिभंजक करतब से पड़ा है जब वह भारत के हिंदू मंदिरों को लूटकर उनकी पवित्र मूर्तियों को विचूर्ण कर गया था।’’

    किया स्यालकोट पर आक्रमण

    जब बाबर को इन गक्खरों और अन्य हिंदू लोगों ने परास्त कर भगाया तो वह भारत पर दूने वेग से चढ़कर आया और कभी राजा शालिवाहन के कोट स्यालकोट को घेर लिया। सईदपुर के वीर लोगों ने यद्यपि बाबर का भरपूर प्रतिरोध किया, परंतु वे अपने उद्देश्य में असफल रहे और बाबर ने उन्हें क्रूरता पूर्वक तलवार की भेंट चढ़ा दिया। परंतु तलवार के घाट उतर जाने या तलवार की भेंट चढ़ जाने का अभिप्राय भी तो कायरता नहीं है, वह तो और भी उच्च श्रेणी की वीरता है और यह भी कम नहीं है कि हमारे लोगों ने इस वीरता का प्रदर्शन पग-पग पर किया।

    अपने अगले आक्रमण में 22 दिसंबर 1525 को बाबर ने स्यालकोट पर अपना अधिकार कर लिया। यहां के हिंदुओं ने इस प्राचीन ऐतिहासिक नगर की रक्षा के लिए अंतिम बार संघर्ष किया पर वह इस नगर की प्रतिष्ठा और सम्मान को बचा नहीं पाए। भारत के इतिहास में 22 दिसंबर 1525 ई. का दिन ‘कालादिवस’ है, क्योंकि इसी दिन स्यालकोट हिंदुओं के हाथ से निकलकर पुनः कभी उनके अधिकार में नहीं आया।

    स्यालकोट का गौरव धूमिल हो गया

    हिंदुओं के बलिदानों के मध्य अप्रत्याशित रूप से देखते ही देखते एक इतिहास मिट गया। एक गौरव धूमिल हो गया और इसी इतिहास के साथ हिंदुओं के अंतिम बलिदान की अंतिम वीरगाथा भी यूं विस्मृत कर दी गयी कि मानो यह ऐतिहासिक नगर बिना किसी संघर्ष और बिना किसी बलिदान के हिंदुओं द्वारा मुस्लिमों को यूं ही दे दिया गया था।

    आज का स्यालकोट चाहे जिस शत्रु देश में हो, परंतु वह वहां के हिंदू पूर्वजों के बलिदान की गौरवगाथा का जीता जागता स्मारक है। जब तक स्यालकोट रहेगा तब तक हिंदू के बलिदानों की गौरवगाथा को भुलाया नहीं जा सकेगा। जो इसकी सुरक्षा करते-करते अनेकों हिंदुओं ने दिये थे। इस समय इब्राहीम लोदी की ओर से दौलत खां लोदी पंजाब का राज्यपाल था, उसे बाबर की सेना ने बंदी बना लिया और उस पर निर्ममतापूर्वक अत्याचार किये गये।

    पुस्तकालयों को लगायी आग

    भारत में मेधावी बुद्ध की उपासना की गयी है, इसलिए वैदिक ज्ञान धारा की सरिता का प्रवाह यहां कभी मद्धम नहीं पड़ा। अपने ज्ञानगांभीर्य, बौद्धिक संपदा और मेधाशक्ति के माध्यम से भारत ने प्राचीनकाल से ही विश्व का मार्गदर्शन एवं नेतृत्व किया है। भारत के उस ज्ञानगांभीर्य, बौद्धिक संपदा और मेधाशक्ति का पूरा विश्व ऋणी है और शत्रु भी उनका प्रशंसक है।

    परंतु इस्लामिक आक्रांताओं ने जब-जब भी यहां ज्ञान संपदा और मेधाशक्ति की प्राणशक्ति के प्रतीक पुस्तकालयों को कहीं भी देखा तो उन्हें भी शत्रुभाव के कारण अग्नि की भेंट चढ़ाने में तनिक भी देरी नहीं की।

    मलोट दुर्ग के पुस्तकालय में लगाई आग

    8 जनवरी 1526 ई. को बाबर ने जब मलोट दुर्ग में प्रवेश किया तो वहां के विशाल पुस्तकालय को देखकर वह दंग रह गया। उस पुस्तकालय को उसने आग लगवा दी। जिसमें प्राचीन काल की अनेकों ऐतिहासिक धार्मिक, वैज्ञानिक और बौद्धिक महत्व की पुस्तकें रखीं थी। बाबर लिखता है- ‘‘मलोट दुर्ग में प्राप्त स्वर्ण एवं अन्य वस्तुओं के कुछ अंश को मैंने स्वार्थ सिद्धि के लिए, बल्ख, कुछ को अपने संबंधियों तथा मित्रों को भेंटस्वरूप काबुल भेज दिया तथा कुछ अंश अपने बच्चों को तथा आश्रितों को बांट दिया।’’ इस प्रकार दुर्ग की संपत्ति को हथियाकर बाबर को असीम प्रसन्नता की अनुभूति हुई।

    बलिदानी राजा विक्रम और उसका परिवार

    पहले से ही यवनों के आक्रमणों से पद दलित भारत भूमि को एक नये आक्रांता के आक्रमण से बचाने के लिए आगरा का राजा विक्रम इब्राहीम की ओर से पानीपत के युद्ध में बाबर के विरुद्ध लड़ा था। वह राजा अपनी वीरता का प्रदर्शन करता हुआ युद्ध भूमि में ही वीरगति को प्राप्त हो गया। जब बाबर ने इब्राहीम लोदी को परास्त कर दिया तो उसने 4 मई 1525 ई. को आगरा की ओर प्रस्थान किया। पी एन ओक हमें बताते हैं कि बाबर ने वहां खुलेआम फार्मूली द्वारा हथियाये गये एक प्राचीन हिंदू भवन पर अधिकार किया।

    यह दुर्ग से बहुत दूर था, अतः बाबर एक अन्य हिंदू महल में गया जिसे जलाल खां जिगहट ने हड़प लिया था। परिवार का मुखिया राजा विक्रम पानीपत में इब्राहीम के पक्ष में लड़ता हुआ कुछ सप्ताह पूर्व ही कत्ल कर दिया गया था। हिंदू राजाओं के परिवार जो आगरा दुर्ग में थे यवन आक्रांताओं के द्वारा बंदी बना लिये गये और उनकी सारी संपत्ति लूट ली गयी। इस प्रकार आगरा का लालकिला (जिसे यहां आगरा दुर्ग कहा गया है, बाबर के आक्रमण के समय भी था। जिसे हमें अकबर द्वारा निर्मित बताया जाता है)।

    बादलगढ़ बनाम आगरा का लालकिला

    पिछले दिनों लेखक ने स्वयं भी उक्त लालकिले का भ्रमण किया था यह देखकर प्रसन्नता हुई कि सरकारी स्तर पर भी इस किले को अब पुराना बादलगढ़ माना गया है। इस संबंध में किले के भीतर स्थित एक द्वार के निकट शिलालेख के माध्यम से यह भी स्पष्ट किया गया है कि इस बादलगढ़ का जीर्णोद्वार या यथावश्यक परिवर्तन कहीं न कहीं किसी न किसी प्रकार से मुगलकालीन बादशाहों ने भी किया है। ब्रिटिश इतिहासकार कीन का कथन है-‘‘सन 1450 से 1488 तक दीर्घावधि तक शासन करने वाला बहलोल लोदी दिल्ली का पहला बादशाह था जो आगरा पर सीधा मुहम्मदी शासन स्थापित कर पाया। यह बात पहले ही ध्यान में आ चुकी है कि इस नगर के अति प्राचीन इतिहास में एक किला यहां पर विद्यमान था। परंपरा के अनुसार बादलसिंह नामक एक राजपूती सरदार के नाम पर बादलगढ़ किले का नाम रखा गया था। इन किलों का पारस्परिक संबंध कहीं लिखित नहीं मिलता। इसमें संदेह नहीं है कि बादलगढ़ पुराने किले के स्थान पर ही बना था और यह भी पूर्णतः सिद्ध है कि जब बहलोल लोदी ने आगरे पर कब्जा किया तब वहां पर एक किला बना हुआ था। अतः बादलगढ़ उस समय आगरे का किला था....किंतु इस किले को, यह नाम कब दिया गया, अब तक निश्चित नहीं किया जा सका।’’ (‘कीन्स हैण्ड बुक’ पृष्ठ 5)

    हमने भुला दिया इतिहास

    इस प्रकार इतिहासकार कीन के वर्णन से एक बात तो स्पष्ट है कि हमने ही इस किले की प्राचीन ऐतिहासिकता को छद्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भुलाने का आत्मघाती प्रयास किया है। जिसका लाभ मुगलकालीन बादशाहों को मिला है। जिन्होंने आगरा लालकिले को ही नहीं अपितु अन्य कितने ही प्राचीन ऐतिहासिक दुर्गों, भवनों आदि को अपने द्वारा निर्मित दिखाकर हिंदू स्थापत्य कला को विस्मृत करने का सफल प्रयास किया है।

    जिससे हिंदू स्थापत्य कला और भवन निर्माण शैली को चोट पहुंची है, और हमारी युवा पीढ़ी में अपने इतिहास के प्रति नीरसता का भाव बढ़ा है। वैसे कीन ने ही इस किले को ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के मौर्यकालीन प्रसिद्ध सम्राट अशोक के काल का सिद्ध किया है। पर इस ओर और भी अधिक शोध की आवश्यकता है।

    बाबर ने कब्जा लिया आगरा

    बाबर ने 10 मई 1526 ई. को बृहस्पतिवार के दिन आगरा स्थित लोदी के भवन को अपने अधिकार में ले लिया था। वह लिखता है-‘‘ईद के कुछ दिन पश्चात एक भव्य भोज समारोह (11 जुलाई 1526 को) ऐसे विशाल कक्ष में हुआ जो पाषाण खंभों की स्तंभ पंक्ति से सुसज्जित है और जो सुल्तान इब्राहीम के पाषाण प्रासाद के मध्य गुम्बद के नीचे है।’’

    आगरा में 1526 ई. को एक ‘भव्य भवन’ कौन सा भवन था? पी एन ओक इस प्रश्न का उत्तर देते हुए स्पष्ट करते हैं कि वह ‘भव्य भवन’ यमुना नदी के तट पर स्थित वर्तमान का ताजमहल ही था। अनेक प्रमाणों से अब यह सिद्ध हो चुका है कि ताजमहल भी एक हिंदू कृति है। इसका उल्लेख प्रसंगवश हम आगे करेंगे।

    किये भयंकर नरसंहार

    जब बाबर देश के भीतर तक घुसने में सफल हो गया तो स्वाभाविक रूप से उसने हिंदुस्तान को लूटना और नरसंहार करना आरंभ किया। हिंदू भी यह भली प्रकार जानते थे कि अब क्या होने वाला है। इसलिए हिंदुओं ने अपना परंपरागत प्रतिरोधात्मक पलायन किया।

    हमने पलायन को प्रतिरोधात्मक इसलिए कहा है कि हिंदू जब अपने घरों से जंगलों की ओर सुरक्षित स्थानों के लिए पलायन करते थे तो अपना मूल्यवान सामान सोना-चांदी, रुपया, पैसा आदि सब ले जाते थे। वे शत्रु सेना को दुखी करने के लिए और उसे कठिनाइयों में फंसाने के लिए जलस्रोतों को विषाक्त कर जाते और अन्नादि की फसलों को नष्ट कर देते थे। यह एक प्रकार का प्रतिरोध भी था और इसमें अपनी सुरक्षा भी थी।

    इस सुव्यवस्थित पलायन को इतिहास में स्थान-स्थान पर हिंदू भयभीत होकर भाग गये, हिंदू डर गये इत्यादि विशेषणों से वर्णित किया गया है। जिससे हमारे भीतर अपने इतिहास और अपने पूर्वजों के प्रति घृणा का भाव उत्पन्न हो।

    बाबर स्वयं हिंदुओं के सुरक्षात्मक और परंपरागत प्रतिरोधी पलायन के विषय में लिखता है-‘‘हिंदुस्तान में जन-धन नगरों का पूर्ण विनाश एक साथ होता है। विशाल नगर, जो अनेक वर्षों से स्थित है एक डेढ़ दिन में इस प्रकार पूर्णतया निर्जन हो जाते हैं (अर्थात हिंदुओं द्वारा स्वयं नष्ट कर जीवन संचालन के लिए अन्न जलादि सुविधाओं से भी हीन कर दिये जाते हैं) कि अन्य कठिनता से ही विश्वास करेंगे कि उनमें कभी कोई आबादी थी।’’

    बाबर से भारतीयों ने नहीं बैठाया सामंजस्य

    देश का जनसाधारण नये शासक के साथ किसी भी प्रकार का सामंजस्य स्थापित करने को तैयार नहीं था, लोगों में बाबर और उसके अधिकारियों, सैनिकों तथा व्यक्तियों के विरुद्ध व्यापक घृणा थी। लोग उनसे किसी भी प्रकार का संबंध रखना नहीं चाहते थे। यह भी प्रतिरोध का एक प्रकार ही था। इसे एक प्रकार से समाज से बहिष्कृत करने का दण्ड भी कहा जा सकता है, जिसे भारतीय इन विदेशियों के विरुद्ध अपना रहे थे। पर क्योंकि यह दण्ड कथित रूप से पराजित जाति के द्वारा विजित जाति को दिया जा रहा था, इसलिए इसका उल्लेख नहीं किया गया है इसे केवल ‘कथित पराजित’ लोगों की मिथ्याभिमान की भावना या कुण्ठा भाव से जोड़कर देखा गया है। जबकि इसमें पग-पग पर इस कथित पराजित जाति का आत्मस्वाभिमान, वीरता, साहस, अपने को श्रेष्ठ, नैतिक और पवित्र मानने की भावना प्रबलता से कार्य कर रही थी।

    हमारे पूर्वजों के श्रेष्ठ गुण मान लिये गये अवगुण

    किसी भी जीवन्त जाति के आगे बढ़ने के लिए ये सारी बातें उसके श्रेष्ठ गुण होती हैं, ना कि उसके दोष। पता नहीं हमने अपने पूर्वजों के श्रेष्ठ गुणों को ही अवगुण क्यों मान लिया। यदि कोई व्यक्ति आज भी किसी को अपमानित कर दे और उसके साथ क्रूरता का प्रदर्शन भी करे तो कई बार अगला व्यक्ति उस पहले व्यक्ति से हो सकता है कि संवादहीनता ही स्थापित कर ले या उसके यहां आना-जाना बंद कर उसके प्रति पूर्णतः उपेक्षाभाव का प्रदर्शन करे, तो लोग उस अगले व्यक्ति को स्वाभाविक रूप से स्वाभिमानी व्यक्ति कहते हैं। पर हम अपने पूर्वजों को ऐसा नहीं कहते क्योंकि उनके प्रतिरोध के प्रति ऐसा निंदनीय आचरण अंततः हम कब तक अपनाएंगे।

    बाबर से घृणा करते थे भारत के लोग

    हिंदुओं के इस प्रकार के आचरण से दुखी बाबर ने लिखा है-‘‘जब मैं प्रथम बार आगरा गया मेरे लोगों तथा वहां के निवासियों में पारस्परिक द्वेष तथा घृणा थी। उस देश के किसान तथा सैनिक मेरे आदमियों से बचते (घृणा करते) थे तथा (उपेक्षा भाव समाज-बहिष्कृत जैसा व्यवहार करते हुए) दूर भाग जाते थे। तत्पश्चात दिल्ली तथा आगरा के अतिरिक्त सर्वत्र वहां के निवासी विभिन्न चौकियों पर किलेबंदी कर लेते थे तथा नगर शासक से सुरक्षात्मक किलेबंदी करके न तो आज्ञा पालन करते थे और न झुकते थे।’’

    एक प्रकार से बाबर के ये शब्द हमारे हिंदू पूर्वजों की आत्मस्वाभिमानी, देशप्रेमी और जाति अभिमानी भावना का सम्मान करना ही है। हमें भी अपने उन वीर पूर्वजों का यथोचित सम्मान करना सीखना होगा।

    अध्याय 2

    ‘समाज बहिष्कृत’ बाबर

    इससे पूर्व कि हम बाबर और महाराणा संग्राम सिंह के मध्य हुए युद्ध पर प्रकाश डालें, हम यहां कुछ अंश ‘बाबरनामा’ से देना चाहेंगे, जिनसे बाबर के भारत के विषय में विचारों पर अच्छा प्रकाश पड़ता है।

    हिंदुस्तान के शासक

    हिंदुस्थान के शासकों के विषय में बाबर कहता है-‘‘जब मैंने हिंदुस्थान को विजय किया तो वहां पांच मुसलमान तथा दो काफिर बादशाह राज्य करते थे। इन लोगों को बड़ा सम्मान प्राप्त था और ये स्वतंत्र रूप में शासन करते थे। इनके अतिरिक्त पहाड़ियों तथा जंगलों में भी छोटे-छोटे राज्य एवं राजा थे किंतु उनको अधिक आदर सम्मान प्राप्त नहीं था।’’

    ‘‘सर्वप्रथम अफगान थे जिनकी राजधानी देहली थी, मीरा से लेकर बिहार तक के स्थान उनके अधिकार में थे। अफगानों के पूर्व में जौनपुर सुल्तान हुसैन शकी के अधीन था। वे लोग सैयद थे। दूसरे, गुजरात में सुल्तान मुजफ्फर था। इब्राहीम की पराजय के कुछ दिन पूर्व उसकी मृत्यु हो गयी थी। तीसरे दक्षिण में बहमनी थे, किंतु आजकल दक्षिण के सुल्तानों की शक्ति एवं अधिकार छिन्न-भिन्न हो गया है। उनके समस्त राज्य पर उनके बड़े बड़े अमीरों ने अधिकार जमा लिया है। चौथे मालवा में, जिसे मंदू भी कहते हैं, सुल्तान महमूद भी था। वे खिलजी सुल्तान कहलाते हैं, किंतु राणा सांगा ने उसे पराजित करके उसके राज्य के अधिकांश भागपर अधिकार स्थापित कर लिया था। यह वंश भी शक्तिहीन हो गया था। पांचवें बंगाल के राज्य में नुसरतशाह था। वह सैयद था उसकी उपाधि सुल्तान अलाउद्दीन थी।’’

    ‘‘इनके अतिरिक्त हिंदुस्तान में चारों ओर राय एवं राजा बड़ी संख्या में फैले हुए हैं। बहुत से मुसलमानों के आज्ञाकारी हैं, और (उनमें से) कुछ दूर होने के कारण उनके स्थान बड़े दृढ़ हैं। वे मुसलमान बादशाहों के अधीन नहीं हैं।’’

    ‘हिन्दुस्थान की ताकत’ का अर्थ

    बाबर ने एक प्रकार से यहां भारत की राजनीतिक स्थिति को स्पष्ट किया है। सामान्यतः भारत के इन राज्यों को शक्ति (ताकत) कहने का प्रचलन मुसलमान बादशाहों के काल में ही स्थापित हुआ। ‘हिंदुस्तान की कोई ताकत नही’ जो ऐसा कर दे या वैसा कर दे। ऐसी बातें हम अपने सामान्य वार्त्तालाप में भी करते हैं। वस्तुतः हमारे वार्त्तालाप में यह शब्दावली मुसलमानी शासकों के काल से आयी है। ये लोग राष्ट्र को रियासत और राज्य की सैन्य शक्ति के आधार पर उसे शक्ति नाम से पुकारते थे। इस शक्ति के साथ लेने वाला सैन्य शब्द छूट गया और शक्ति ही रह गया। यह काल केवल अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को अपनी सैन्य शक्ति के आधार पर पूर्ण करने का था, जिसके लिए वर्चस्व का संघर्ष केवल राज्य विस्तार में ही देखा जाता था। इसका एक कारण यह भी था कि जितना अधिक राज्य विस्तार होगा उतना ही देश के आर्थिक संसाधनों पर अधिकार होगा और जितना अधिक आर्थिक संसाधनों पर अधिकार होगा, उतना ही अधिक सैन्यबल रखा जा सकता है। इससे राज्य की शक्ति का अनुमान लगा लिया जाता था। इसलिए रियासतों को लोग ‘ताकत’ कहकर भी पुकारते थे। उस समय हिंदुस्थान में ‘ताकतें’ तो थीं परंतु कोई चक्रवर्ती सम्राट नहीं था, इसलिए ये ‘ताकतें’ परस्पर संघर्ष करती रहती थीं।

    दी राणा संग्राम सिंह ने चुनौती

    बाबर को उस समय प्रमुख रूप से इब्राहीम लोदी और सबसे अधिक शक्ति संपन्न राणा संग्राम सिंह ने चुनौती दी थी। बाबर को इब्राहीम लोदी से संघर्ष करने के उपरांत भी यह अनुमान था कि जब तक राणा संग्राम सिंह से दो-दो हाथ नहीं हो जाते हैं, तब तक हिंदुस्थान पर निष्कंटक होकर राज्य किया जाना असंभव है। भारत की राजनीतिक परिस्थितियों को वह अपने लिए अनुकूल मान रहा था पर उनमें सबसे बड़ी बाधा राणा संग्राम सिंह ही थे।

    बाबर ने तत्कालीन हिंदुस्थान के प्रदेश और नगरों का वर्णन करते हुए लिखा है-‘‘हिंदुस्थान के प्रदेश और नगर अत्यंत कुरूप हैं। इसके नगर और प्रदेश सब एक जैसे हैं। इसके बागों के आसपास दीवारें नहीं हैं और इसका अधिकांश भाग मैदान है। कई स्थानों पर ये मैदान कांटेदार झाड़ियों से इतने ढके हुए हैं कि परगनों के लोग इन जंगलों में छिप जाते हैं। (ये छिपने वाले हिंदू स्वतंत्रता सेनानी ही होते थे।) वे समझते हैं कि वहां पर उनके पास कोई नहीं पहुंच सकता। इस प्रकार ये लोग प्रायः विद्रोह (अर्थात हिंदू अपना स्वतंत्रता संग्राम चलाते रहते है) करते रहते हैं, और कर नहीं देते हैं। भारतवर्ष में गांव ही नही, बल्कि नगर भी एक दम उजड़ जाते हैं और बस जाते हैं। (यह बहुत ही महत्वपूर्ण संकेत बाबर ने दिया है-इसका अर्थ है कि किसी मुस्लिम आक्रांता के आक्रमण के समय भारतवर्ष के शहर बड़ी शीघ्रता से उजड़ जाते हैं और आक्रांता के निकल जाने पर लोगों के लौट आने पर उतनी ही शीघ्रता से पुनः बस भी जाते हैं) बड़े-बड़े नगरों जो कितने ही बरसों से बसे हुए, हैं, खतरे (मुस्लिम आक्रमण) की खबर सुनकर एक दिन में या डेढ़ दिन में ऐसे सूने हो जाते हैं कि वहां आबादी का कोई चिन्ह भी नहीं मिलता। लोग भाग जाते हैं।’’

    लोगों की स्वतंत्रता प्रेमी भावना की ओर संकेत

    वास्तव में बाबर ने यहां भारत के लोगों के उस संघर्षपूर्ण जीवन और स्वतंत्रता के प्रति समर्पण का संकेत दिया है जिसको अपनाते-अपनाते वह उसके अभ्यस्त हो गये थे। लोगों को अपनी स्वतंत्रता और अपना धर्म प्रिय था उसके लिए चाहे जितने कष्ट आयें, वे सब उन्हें सहर्ष स्वीकार थे और कष्ट संघर्ष का ही दूसरा नाम है। इसलिए बाबर के उक्त वर्णन में भारतीयों के द्वारा कष्टों के सहने की क्षमता और अपने राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति समर्पण का भाव स्पष्ट होता है। बाबर ने अपने काल में जिन-जिन नगरों में यह स्थिति देखी होगी उन्हीं के विषय में अपना दृढ़ मत स्पष्ट किया है। उसने कहीं पर यह नहीं लिखा कि अमुक शहर इस प्रकार की प्रवृत्ति का अपवाद रहा और जब वह उक्त शहर में प्रविष्ट हुआ तो लोगों ने एक सामूहिक याचना की और अपना धर्मांतरण कर इस्लाम को स्वीकार कर लिया।

    हमारी सामूहिक चेतना

    ध्यान देने की बात है कि बाबर मुस्लिम आक्रमणों के समय शहरों के पूर्णतः निर्जन (सूना) होने की बात कहता है। इसका अभिप्राय है कि लोग सामूहिक रूप से पलायन करते थे और पूरे शहर की एक सामूहिक चेतना थी कि इस्लाम स्वीकार नहीं करना है और चाहे जो कुछ हो जाए, अपनी चोटी नहीं कटायेंगे और अपना यज्ञोपवीत नहीं उतारेंगे। इन बातों को जब कोई भी जाति अपना राष्ट्रीय चरित्र बना लेती है या अपना युग धर्म बनाकर उन्हीं के लिए जीने मरने का संकल्प ले लेती है, तो इतिहास उसे संघर्ष करते देखता है और उसका निरूपण भी इसी प्रकार की जाति के रूप में किया करता है। हमें गर्व होना चाहिए कि हमारे आर्य (हिंदू) पूर्वजों ने बड़ी सफलता से इस प्रकार के गुणों को अपना राष्ट्रधर्म या युग धर्म घोषित किया।

    बाबर को कैसा लगा हिंदुस्थान

    बाबर ने भारतवर्ष के विषय में लिखा है-‘‘हिंदुस्तान की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह बहुत बड़ा देश है। यहां अत्यधिक सोना चांदी है। शीतकाल तथा ग्रीष्म ऋतु में भी हवा बड़ी ही उत्तम रहती है। यहां बल्ख तथा कंधार के समान तेज गर्मी नहीं पड़ती और जितने समय तक वहां गर्मी पड़ती है उसकी अपेक्षा यहां आधा समय तक भी गर्मी नहीं पड़ती। हिंदुस्तान का एक बहुत बड़ा गुण यह है कि यहां हर प्रकार एवं हर कला के जानने वाले असंख्य कारीगर पाये जाते हैं। प्रत्येक कार्य तथा कला के लिए जातियां निश्चित हैं, जो पूर्वजों के समय से वही कार्य करती चली आ रही हैं।’’

    मंत्रमुग्ध करने वाला भारतीय सौंदर्य

    स्पष्ट है कि बाबर को भारत का प्राकृतिक सौंदर्य तो मंत्रमुग्ध करने वाला लगा ही साथ ही उसे भारत की वर्ण-व्यवस्था प्रधान सामाजिक-व्यवस्था भी प्रभावित कर गयी। यही स्थिति मोहम्मद बिन कासिम के लिए बनी थी। उसे भी यह देखकर आश्चर्य हुआ था कि भारत में परंपरा से कारीगरी का कार्य होता है, और उस कारीगरी को लोग परिवार में ही सीख लेते हैं। किसी विद्यालय में जाकर उसके लिए डिग्री लेने की आवश्यकता नहीं है। परंपरा से ही भारत का ज्ञान संचित है और वह पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ रहा है। जिस व्यवस्था को समाप्त कर यहां डिग्रीधारी लोगों को ही विशेषज्ञ या कुशल शिल्पी होने का प्रमाण पत्र दिये जाने का क्रम आगे चला वह भारत की सामाजिक व्यवस्था को नष्ट करने के लिए अंग्रेजों ने यहां लागू की, उसके परिणाम स्वरूप भारतीय समाज में अनेकों विसंगतियां आ गयी हैं।

    भारत की वर्ण-व्यवस्था को समझ नहीं पाया था बाबर

    वास्तव में बाबर के लिए भारत की वर्ण-व्यवस्था और उसमें फूल फल रहा समाज एक आश्चर्य और कौतूहल का विषय था कि सब लोग बड़े संतोषी भाव से अपने कार्यों में लगे रहते हैं और उनके लिए उन्हें किसी भी प्रकार से राज्य-व्यवस्था पर निर्भर नहीं रहना पड़ता। राज्य के अपने कार्य हैं और प्रजा के अपने कार्य हैं। मानो शांति पूर्ण परिवेश स्थापित किये रखना राज्य का कार्य है और उस शांति पूर्ण परिवेश में अपना कार्य-संपादन करते रहना प्रजा का कार्य है। कहीं पर आजीविका प्राप्ति के लिए संघर्ष नहीं है।

    परंपरा से अपने ज्ञान को सुरक्षित रखने की प्रवृत्ति के कारण और वर्ण व्यवस्था को आजीविका का प्रमुख माध्यम बनाये रखने के कारण ही भारत नष्ट नहीं हो पाया। वर्ण-व्यवस्था को जब जातिगत आधार प्रदान किया गया या उसका अर्थ समझने या समझाने में चूक की गयी, तब वह हमारे लिए दुखदायी बनी, अन्यथा अंग्रेजों तक ने भी अपनी चाहे जो शिक्षा पद्धति प्रचलित की भारत की आत्मा कहे जाने वाले गांवों ने उसका पूर्णतः बहिष्कार जारी रखा, और हमने देखा कि हम अपने आपको बचाने में सफल हो गये। बस, वही भारत जो अपनी जीवट शक्ति और सामाजिक वर्ण व्यवस्था के लिए जगत विख्यात था, बाबर को हृदय से प्रभावित कर रहा था।

    भारत की अर्थ व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था

    भारत की इस वर्ण-व्यवस्था के कारण उसकी अर्थ-व्यवस्था भी उन्नत थी। अर्थव्यवस्था को वर्ण व्यवस्था ने जिस प्रकार अपना अवलंब प्रदान किया अथवा उसके प्रचलन का प्रारंभ किस प्रकार हुआ इस पर 16-6-1986 ई. को संत विनोबा भावे द्वारा लिखा गया एक लेख अच्छा प्रकाश डालता है। उनके अनुसार-वैदिक आख्यानों में ऋषि गृत्स्मद द्वारा कपास का पेड़ बोने और उससे दस सेर कपास प्राप्त करने, लकड़ी की तकली से सूत कातने और इस प्रकार वस्त्र बनाने की प्रक्रिया प्रारंभ करने का वर्णन आता है। अरब यात्रियों का मत रहा है कि नौंवी शताब्दी में ढाका की मलमल ने विश्व में धूम मचा रखी थी। इस कपड़ा से बनी साड़ी पूरी की पूरी एक अंगूठी में से निकल जाती थी। सरजी वुडवर्ड ने पुस्तक ‘इंडस्ट्रियल आर्ट्स ऑफ इंडिया’ में लिखा है-‘‘जहाँगीर के काल में 15 गज लंबी और एक गज चौड़ी ढाका की मलमल का भार 100 ग्रेन (लगभग 7 ग्राम) होता था

    अंग्रेज और अन्य अंग्रेजी लेखकों ने तो यहां की मलमल सूती व रेशमी वस्त्रों को बुलबुल की आँख, मयूरकंठ, चांद सितारे, पवन के तारे, बहता पानी और संध्या की ओस जैसी अनेक काव्यमय उपमायें दी हैं।’’

    वर्ण-व्यवस्था की सुदृढ़ता ने नहीं होने दिया पराधीन

    बाबर तक आते-आते भारत को लुटते-पिटते हुए लगभग आठ सौ वर्ष हो गये थे। परंतु इसके उपरांत भी भारत की सुव्यवस्थित सामाजिक वर्णव्यवस्था के कारण देश अब भी संपन्न था। बाबर को भी पानीपत के युद्ध के पश्चात पर्याप्त धन संपदा प्राप्त हुई थी। उसकी पुत्री गुलबदन बेगम ने लिखा है-‘‘हजरत बादशाह को पांच बादशाहों का खजाना प्राप्त हुआ और उसने वह सारा खजाना सबमें बांट दिया। उसने 10 मई 1526 ई. को अनेक सरदारों को इकट्ठा किया तथा स्वयं गड़े हुए खजाने का निरीक्षण करने आगरा पहुंचा। उसने 70 लाख सिकंदरी तन्के हजरत जहां बानी (हुमायूं) को प्रदान किये। इसके अतिरिक्त खजाने का एक घर भी यह पता लगाये बिना कि उसमें क्या है। उसे प्रदान कर दिया। अमीरों को उनकी श्रेणी के एवं पद के अनुसार दस लाख से पांच तन्कों तक नकद प्रदान किया गया। समस्त वीरों, सैनिकों को उनकी श्रेणी से अधिक ईनाम देकर सम्मानित किया। सभी भाग्यशाली व्यक्ति छोटे-बड़े पुरस्कृत किये गये। शाही शिविर से लेकर बाजारी शिविर तक के लोगों के लिए कोई भी व्यक्ति पर्याप्त पुरस्कार से वंचित न रहा। सफलता के उद्यान के पौधों के लिए, जो बदख्शां, काबुल तथा कंधार में थे नकद धन तथा अन्य वस्तुएं पृथक कर ली गयीं, कामरान मिर्जा को सत्रह लाख तन्के, मुहम्मद जुमान मिर्जा को पंद्रह लाख तन्के इसी प्रकार अस्करी मिर्जा, हिंदाल मिर्जा एवं अंतःपुर की पवित्र एवं सम्मानित महिलाओं और उन सब अमीरों तथा सेवकों के लिए, जो उस समय शाही सेना में थे, उनकी श्रेणी के अनुसार उत्तम जवाहरात अप्राप्य वस्त्र सोने तथा चांदी के सिक्के निश्चित किये गये। शाही वंश से संबंधित लोगों एवं पादशाही कृपा की प्रतीक्षा करने वालों को जो समरकंद, खुरासान, काश्गर तथा इराक में थे मजारों के लिए चढ़ावे तथा उपहार भेजे गये। यह भी आदेश हुआ कि काबुल, सदृरह, वरसक, खूस्त तथा बदख्शां के सभी नर नारियों एवं बालकों तथा प्रौढ़ों के लिए एक एक शाहरूखी भेजी जाए। इस प्रकार सभी विशेष तथा साधारण व्यक्तियों को बादशाह के परोपकार द्वारा लाभ हुआ। मक्का, मदीना आदि पवित्र स्थलों पर भी धन भेजा गया।’’

    ‘लूट का माल’ परोपकार नहीं कहा जा सकता

    इस लूट के माल को वितरित करना भी बाबर का परोपकार कहा गया है। इतिहास ने इसे इसी प्रकार मान कर जिन हिंदू लोगों ने अपने धन को वापस लेने या ऐसे लुटेरों के विरुद्ध शस्त्र उठाये उन्हें इतिहास ने उल्टा लुटेरा कहना आरंभ कर दिया। इसे ही कहते हैं-‘उल्टा चोर कोतवाल को डांटे।’

    बाबर ने मंत्री से लेकर संतरी तक के अपने हर व्यक्ति को, अपने हर संबंधी को मित्र को, परिचित को, अपरिचित को ‘भारत की लूट के माल’ से हिस्सा देकर उन्हें प्रसन्न और संतुष्ट करना चाहा। इसके पीछे कारण था कि उसे भारत का बादशाह माना जाए। पर बाबर यह भूल रहा था कि उसे हिन्दुस्थान का बादशाह उसके अपने लोग नहीं भारत के लोग मानेंगे, जिनकी संपत्ति और सम्मान का वह भक्षक बन बैठा था। दूसरे, बाबर भारत में कुछ ऐसे लोग रखना चाहता था जो उसे अपना कह सकें, और वह उसके अपने ही लोग हो सकते थे। इसलिए वह उन्हें प्रसन्न कर अपने साथ रखना चाहता था। क्योंकि भारत के लोग बाबर से घोर घृणा करते थे। उन्हें उसके चेहरे और नाम तक से घृणा थी।

    हिन्दुस्थानी बाबर से करते थे घृणा

    अबुलफजल लिखता है-‘‘यद्यपि बाबर के कब्जे में दिल्ली तथा आगरा आ गये थे परंतु हिंदुस्थानी उससे घृणा करते थे। ‘इस प्रकार की घटनाओं में से यह एक विचित्र घटना है कि इतनी महान विजय एवं दान पुण्य के उपरांत इनकी दूसरी नस्ल का होना, हिंदुस्थान वालों का मेल जोल न करने का कारण बन गया और सिपाही इनसे मेल जोल पैदा करने एवं बेग व श्रेष्ठ जवान हिंदुस्थान में ठहरने को तैयार न थे। यहां तक कि सबसे अधिक विश्वास पात्र ख्वाजा कला बेग का भी व्यवहार बदल गया, तथा बाबर को उसे भी वापस काबुल भेजना पड़ा।’’ (अबुलफजल : ‘अकबरनामा’ अनु- रिजवी)

    बाबर ‘हिंदुस्थान का बादशाह’ नहीं बन पाया

    बाबर हिंदुस्थान का बादशाह होकर भी बादशाह नहीं था, क्योंकि एक बात तो यह थी कि उससे लोग घृणा करते थे, उसके साथ या उसकी सेना या उसके किसी भी व्यक्ति के साथ उठने बैठने तक को लोग तैयार नहीं थे, दूसरे उसके अपने लोग भारत में रहने को तैयार नहीं थे। बात साफ थी कि भारत में इन लोगों के लिए घृणा का ही वातावरण नहीं था, अपितु भय का भी वातावरण था। लोग, नगरों और ग्रामों को खाली करके भाग गये, यह दिखने में तो ऐसा लगता है कि जैसे भारतीय डरे और भाग गये, परंतु बीते आठ सौ वर्षों के इतिहास में ऐसे अवसर कितनी ही बार आये थे कि जब भारतीयों ने समय के अनुसार भागने का निर्णय लिया, परंतु उसके उपरांत बड़ी वीरता और साहस के साथ शत्रु पर प्रहार भी किया और कई बार तो अपने ‘शिकार’ को समाप्त ही कर दिया। इतिहास की यह लंबी हिंदू वीर परंपरा ही थी जो बाबर और उसके लोगों को भारत में ठहरने से रोक रही थी। इतिहास के इस सच को भी इतिहास के पृष्ठों में स्थान मिलना चाहिए।

    ऐसी परिस्थितियों में बाबर ने हिंदुस्थान के लोगों को आतंकित करने का मन बनाया और उसने आदेश दिया कि काफिरों के सिरों का एक स्तंभ उसी पहाड़ी पर बनाया जाए, जिसके निकट और उसके शिविरों के मध्य युद्ध हुआ था। (बाबरनामा अनु- रिजवी पृष्ठ 251)

    बाबर की हत्या का प्रयास

    ‘बाबर नामा’ से ही हमें ज्ञात होता है कि दिसंबर 1526 ई. में बाबर को इब्राहीम लोदी की बुआ ने विष देकर मरवाने का प्रयास किया था, तब बाबर ने दो व्यक्तियों तथा दो महिलाओं को क्रूरता पूर्वक मरवा दिया था। एक व्यक्ति के टुकड़े-टुकड़े कर दिये थे। बावर्ची की जीवित अवस्था में खाल खिंचवाई। एक महिला को हाथी के नीचे डाल दिया। दूसरी को तोप के मुंह पर रखकर उड़वा दिया।

    बाबर ने ऐसी क्रूरता भी हिंदू वीरता के भय से भयभीत होकर मचायी थी। वह अपने पाशविक अत्याचारों से लोगों में भय बैठाना चाहता था। इतिहास का उद्देश्य कार्य के कारण को भी स्पष्ट करना होता है, जिससे कि व्यक्तियों या परिस्थितियों का सही निरूपण और सत्यापन किया जा सके। बाबर की क्रूरता और हिंदुओं के उसके प्रति व्यवहार की भी यदि समीक्षा की जाये तो स्पष्ट हो जाएगा कि हिंदुओं की वीरता उसे किस सीमा तक भयभीत कर रही थी।

    बाबर सैनिकों को प्रोत्साहित करता रहा

    बाबर ने पानीपत के युद्ध के पश्चात ही अपने सैनिकों से जो कुछ कहा था वह भी उसके भीतर के भय को और अधिक स्पष्ट करता है। उसने कहा था-‘‘वर्षों के परिश्रम से कठिनाइयों का सामना करके लंबी यात्राएं करके अपने वीर सैनिकों को युद्ध में झोंक कर और भीषण हत्याकांड करके हमने खुदा की कृपा से दुश्मनों के झुंड को हराया है, ताकि हम उनकी लंबी चौड़ी विशाल भूमि को प्राप्त कर सकें। अब ऐसी कौन सी शक्ति है जो हमें विवश कर रही है और कौन सी आवश्यकता है जिसके कारण हम उन प्रदेशों को छोड़ दें, जिन्हें हमने जीवन को संकट में डालकर जीता है।’’

    राणा संग्राम सिंह संग्राम अभी शेष था

    बात स्पष्ट है कि बाबर को अब भारत की स्वतंत्रता प्रेमी जनता और स्वतंत्रता के परमभक्त राणा संग्राम सिंह से टक्कर लेनी थी। वह जानता था कि भारत जैसे स्वतंत्रता प्रेमी देश में प्रमाद प्रदर्शन कितना घातक होता है।

    अथर्ववेद (2/15/5) में आया है कि-‘‘जिस प्रकार परमात्मा और देवी देवताओं की शक्तियां भयभीत नहीं होतीं उसी प्रकार हम किसी से डरें नही।’’

    यह था भारतीयों का आदर्श जो सदियों से उनका मार्गदर्शन कर रहा था। पर विदेशी आक्रांता बाबर या किसी अन्य के लिए, ऐसी मार्गदर्शक बातें उनके धर्मग्रंथों में नहीं थीं। उनके पास केवल काफिरों की हत्या कर और उनके माल असबाब को लूटने के दिये गये निर्देश थे, और बाबर उन्हीं निर्देशों के अनुसार अपना राज्य स्थापित करना चाहता था।

    अध्याय 3

    महान विजेता

    महाराणा संग्राम सिंह

    संग्राम सिंह की महानता

    महाराणा संग्राम सिंह भारत के पराक्रम, साहस और वीरता का नाम है। यह उस देशभक्ति का नाम है जिसके सामने शत्रु के पसीने छूटते थे, और शत्रु जिसका नाम आने से ही पानी भरने लगता था। संग्राम सिंह भारत के स्वतंत्रता संग्राम का एक दिव्य दिवाकर है, जिसे आने वाली सदियां ही नहीं आने वाले युग भी नमन करते रहेंगे, क्योंकि इस महामानव ने परंपरागत अस्त्र, शस्त्रों का प्रयोग करते हुए बारूद और तोप का पर्याय बने बाबर की सेना और स्वयं बाबर को भी भयभीत कर दिया था। जो लोग यह मानते हैं कि बाबर के समय में हिंदू राजपूत -शक्ति का पराभव हो गया था और उनके भीतर निराशा उत्पन्न हो गयी थी, वह भारी चूक करते हैं और भारत के वीरों का अपमान करते हैं।

    एस.आर. शर्मा का कथन

    इस प्रकार के अतार्किक तथ्यों से एस.आर. शर्मा का कथन एक बानगी के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है- ‘एक ओर निराशा जनित साहस और वैज्ञानिक युद्ध प्रणाली के कुछ साधन थे दूसरी ओर मध्यकालीन -समाज से सैनिकों की भीड़ थी जो भाले और धनुष-वाणों से सुसज्जित थी और मूर्खतापूर्ण तथा अव्यवस्थित -समाज से जमा हो गयी थी।’

    गोला-बारूद की हमें पहले से ही जानकारी थी

    जब कोई लेखक या इतिहासकार भारतीयों के विषय में ऐसी बात कहता है या लिखता है तो बड़ा कष्ट होता है, क्योंकि इस प्रकार के लेखन से यह प्रतिध्वनित होता है कि भारतवासी युद्ध कला और युद्ध संचालन से अनभिज्ञ थे और विदेशियों ने ही उन्हें गोला बारूद के विषय में या सफल युद्धनीति के विषय में ज्ञान कराया है। जबकि रामायण काल से लेकर महाभारत काल तक भारत वासियों ने अपने युद्ध संचालन और युद्धनीति के जिन सोपानों का आविष्कार किया था, उनका परीक्षण और प्रदर्शन उन्होंने बाबर के आने तक भी कितनी ही बार किया था। यह संभव है कि भारतवासियों को कुछ अस्त्र-शस्त्र शत्रु सेना के हाथों में प्रहार क्षमता के दृष्टिकोण से युद्धभूमि में पहली बार दिखायी दिये हों, परंतु यह कभी संभव नहीं था कि उन अस्त्र-शस्त्रों से भारतीय कभी परिचित ही ना रहे हों।

    तोप और भुषुण्डी

    तोप और भुषुण्डियों (बंदूकों) का प्रयोग भारत में हिंदू प्राचीन काल से करते आ रहे थे। ऐसे अनेक उदाहरण हैं और कदाचित यही कारण था कि बाबर के तोपखाने से हिंदू उतने भयभीत नहीं थे जितने कि बाबर के सैनिक भारतीयों के युद्ध प्रेम से और अतुलनीय देशभक्ति और अदम्य साहस से भयभीत थे। इसलिए विजयी बाबर और उसके सैनिक पानीपत के युद्ध में सफल होकर भी निराश थे। बाबर अपनी निराशा को छिपाकर अपने सैनिकों में उत्साह भरना चाह रहा था क्योंकि वह अपने सैनिकों का साथ चाहता था और भारत को भोगना चाहता था।

    राणा पहले भी कर चुका था अपने शौर्य का प्रदर्शन

    राणा संग्राम ने अपने अदम्य शौर्य एवं साहस को अब से पूर्व कई बार प्रदर्शित कर चुका था, जिससे उसने स्वयं को एक महान पराक्रमी योद्धा के रूप में रानवजयट्रपटल पर स्थापित कर दिखाया था। उसने चित्तौड़ के राज्य का विस्तार किया था, और कई शक्तियों को परास्त कर अपनी वीरता का लोहा मनवाया था। उसने दिल्ली की लोदी वंश की सत्ता को भी हिलाकर रख दिया था और लोदी सल्तनत के कई भागों पर अधिकार कर लिया था, जिनका उल्लेख हम पूर्व में कर चुके हैं। राणा संग्राम ने गोरौन के युद्ध क्षेत्र में गुजरात के मुजफ्फरशाह का सामना किया था और उसके साथ भयानक युद्ध करके उसे युद्ध क्षेत्र में परास्त किया था। राणा ने मुजफ्फरशाह को परास्त कर उसे गिरफ्तार भी कर लिया था।

    मुजफ्फरशाह ने राणा की कैद में रहते हुए अपना आधा राज्य राणा को देकर उसके साथ संधि कर ली थी। फलस्वरूप राणा के मेवाड़ राज्य की सीमा बुंदेलखण्ड तक फैल गयी थी। उसका राज्य भोपाल, मालवा, छत्तीसगढ़ तक फैल गया था।

    राणा अब भी ‘एक लक्ष्य’ के प्रति समर्पित था

    ऐसे सफल विजय अभियानों का संचालन कर अपने राज्य की सीमाओं में अप्रत्याशित वृद्धि करने वाला राणा संग्राम सिंह बाबर के सैनिकों से पागलों की भांति आ भिड़ा हो, ऐसा भला कैसे कहा जा सकता है? राणा एक लक्ष्य के प्रति समर्पित था और वह अपने देश की पावन भूमि को म्लेच्छ विहीन कर देना चाहता था। यहां म्लेच्छ का अभिप्राय उन लोगों से है जो इस देश की भूमि को महाराणा के समय में अपनी ‘पुण्यभूमि और पितृभूमि’ मानने को तैयार नहीं थे। इसलिए राणा की सेना पर केवल भीड़ होने का आरोप लगा देना सर्वथा अन्याय परक और अतार्किक है।

    बादशाह बाबर और महाराणा सांगा की तुलना

    बादशाह बाबर और महाराणा सांगा की तुलना करते हुए इतिहासकार लिखता है-‘‘बादशाह बाबर और राणा सांगा दोनों समकालीन थे। दोनों शक्तियों का एक साथ विकास हुआ था और दोनों की बहुत सी बातें एक दूसरे से समता रखती थीं। दोनों ने युग के एक ही भाग में जन्म लिया था और दोनों ही प्रसिद्ध राजवंशज थे। जीवन के प्रारंभ में बाबर ने भयानक कठिनाईयों का सामना किया था और सांगा भी राज्य को छोड़कर मारा-मारा फिरा था। आरंभ से ही दोनों साहसी और शक्तिशाली थे। काबुल से निकलकर दिल्ली तक बाबर ने विजय प्राप्त की थी और सांगा ने भारत

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