Discover millions of ebooks, audiobooks, and so much more with a free trial

Only $11.99/month after trial. Cancel anytime.

Satyarth Prakash Me Itihaas Vimarsha (सत्यार्थ प्रकाश में इतिहास विमर्श)
Satyarth Prakash Me Itihaas Vimarsha (सत्यार्थ प्रकाश में इतिहास विमर्श)
Satyarth Prakash Me Itihaas Vimarsha (सत्यार्थ प्रकाश में इतिहास विमर्श)
Ebook556 pages4 hours

Satyarth Prakash Me Itihaas Vimarsha (सत्यार्थ प्रकाश में इतिहास विमर्श)

Rating: 0 out of 5 stars

()

Read preview

About this ebook

जब महर्षि दयानंद जी महाराज 'वेदों की ओर लौटो' का उद्घोष कर रहे थे तो उनके उद्घोष का अभिप्राय अपने स्वर्णिम अतीत की ओर लौटने से था अर्थात अपने स्वर्णिम इतिहास को खोजकर उसे वर्तमान में स्थापित करने का संकल्प दिलाने के लिए हम भारतवासियों को उन्होंने यह नारा दिया था।
स्वामी जी महाराज समग्र क्रांति के अग्रदूत थे। भारत में राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक सभी क्षेत्रों में क्रांतिकारी परिवर्तन लाकर वे भारत को भारत की आत्मा से, भारत के स्वर्णिम अतीत से अर्थात भारत के गौरवशाली इतिहास से जोड़ना चाहते थे।। उनके द्वारा लिखित अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश को हमें इसी दृष्टिकोण से पढ़ना चाहिए। प्रस्तुत पुस्तक में पुस्तक के लेखक डॉ राकेश कुमार आर्य द्वारा सत्यार्थ प्रकाश के आध्यात्मिक पक्ष की भी इसी प्रकार व्याख्या की गई है। निश्चित रूप से लेखक का यह प्रयास स्तवनीय है। जिन्होंने पहली बार सत्यार्थ प्रकाश का इस प्रकार सत्यार्थ करने का प्रयास किया है। इस पुस्तक में सत्यार्थ प्रकाश के पहले सात समल्लासों को समाविष्ट किया गया है।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateMar 24, 2023
ISBN9789356841673
Satyarth Prakash Me Itihaas Vimarsha (सत्यार्थ प्रकाश में इतिहास विमर्श)

Read more from Dr. Rakesh Kumar Arya

Related to Satyarth Prakash Me Itihaas Vimarsha (सत्यार्थ प्रकाश में इतिहास विमर्श)

Related ebooks

Reviews for Satyarth Prakash Me Itihaas Vimarsha (सत्यार्थ प्रकाश में इतिहास विमर्श)

Rating: 0 out of 5 stars
0 ratings

0 ratings0 reviews

What did you think?

Tap to rate

Review must be at least 10 words

    Book preview

    Satyarth Prakash Me Itihaas Vimarsha (सत्यार्थ प्रकाश में इतिहास विमर्श) - Dr. Rakesh Kumar Arya

    अध्याय 1

    ईश्वर के 100 नामों की व्याख्या

    आजकल के प्रचलित इतिहास के लेखन कार्य में लगे ऐसे अधिकांश इतिहासकार हैं जिन्होंने वेदों और आर्ष ग्रंथों के मनमाने अर्थ किए हैं। कितने ही इतिहासकार हैं जो वेदों में इतिहास मानते हैं। यही कारण है कि ऐसे इतिहासकार वेदों के शब्दों, सूक्तियों या मंत्रों का मनमाना अर्थ करके उसमें इतिहास संबंधी प्रमाण प्रस्तुत करते रहते हैं। वास्तव में ऐसे तथाकथित विद्वानों का इस प्रकार का दृष्टिकोण आर्ष-ग्रंथों के साथ किया जाने वाला अन्याय है। सृष्टि प्रारंभ में हमारे ऋषियों को जिस प्रकार वेदों का ज्ञान ईश्वर से प्राप्त हुआ, उससे वेद अपौरुषेय सिद्ध होते हैं। इसके उपरांत भी तथाकथित इतिहासकार उन्हें पौरूषेय सिद्ध करने का अतार्किक प्रयास करते रहते हैं। इससे हमारे इतिहास की और वेदों की अनुचित व अतार्किक व्याख्या होती है। जिसे किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता। व्याकरण के ज्ञान से सर्वथा अछूते इतिहासकार वेदों के अर्थ जब करने लगते हैं तो वह उनकी अनाधिकार चेष्टा ही होती है। इसके अतिरिक्त इसे और कुछ नहीं कहा जा सकता। यही कारण है कि विद्यार्थियों को इन तथाकथित इतिहासकारों या विद्वानों के द्वारा जो इतिहास लिखकर दिया गया है, या दिया जा रहा है उसमें वेद, वेद के शब्द, वेद की भावना और वेद का उद्देश्य सब धूमिल से हो जाते हैं।

    अनाधिकार चेष्टा के साथ वेदों का अर्थ करना और वेदों के संबंध में लिखने का काम मैक्समूलर जैसे विदेशी तथाकथित विद्वानों से हमारे देश के इतिहासकारों और विद्वानों ने सीखा है।

    यही कारण है कि आर्य विद्वानों से अलग ऐसे अनेक इतिहासकार हैं, जिन्हें ‘आर्य’ और ‘ओ३म’ शब्द के अर्थ का भी ज्ञान नहीं है। इसके उपरांत भी वे इस पर अधिकारपूर्वक लिखने का प्रयास करते देखे जाते हैं। यह अलग बात है कि उनका इस प्रकार लिखा जाना पूर्णतया ऊटपटांग होता है। उनके इस प्रकार लिखने का सबसे अधिक घातक प्रभाव विद्यार्थियों के कोमल मन पर पड़ता है, जो उनकी व्याख्याओं को ही ‘ब्रह्मवाक्य’ मानकर स्वीकार कर लेते हैं और जीवन भर उन्हीं की दी हुई गलत व्याख्या के शिकार बने रहते हैं। हमारा मानना है कि इतिहास जैसा ग्रंथ भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की गहरी समझ रखने वाले विद्वानों के द्वारा ही लिखा जाना चाहिए। जिन्हें वेद, वेद के शब्द और वेद की भावना का गहरा ज्ञान हो।

    जिन तथाकथित विद्वानों ने वेद, वेद के शब्द और वेद की भावना का ध्यान न रखते हुए चीजों की अपनी मनमानी व्याख्या की है उनके अनुसार:- आर्य विविध देवताओं की पूजा करते थे। इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, यम आदि ऐसे अनेक देवता थे, जिन्हें तृप्त व सन्तुष्ट करने के लिए वे अनेक विविध-विधानों का अनुसरण करते थे। संसार का स्रष्टा, पालक व संहर्ता, एक ईश्वर की कल्पना सम्भवतः बाद में विकसित हुई, और प्रारम्भ में आर्य लोग प्रकृति की विविध शक्तियों को देवता के रूप में मान कर उन्हीं की उपासना करते थे।

    भारतीय वैदिक संस्कृति के वैज्ञानिक और तार्किक दृष्टिकोण से अनभिज्ञ लोगों ने इस प्रकार की धारणा इसके संबंध में विकसित की। दुर्भाग्यवश स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भी हमें अपनी वैदिक संस्कृति के पवित्रतम संबंध के साथ जोड़ा नहीं गया। सरकारों ने वैदिक संस्कृति को पिछड़ेपन का प्रतीक माना और आधुनिकता के नाम पर हमें पश्चिम की संस्कृति के साथ जोडने का कार्य करने में ही भारत के लोगों का भला समझा। उसी का परिणाम रहा कि वैदिक संस्कृति के संबंध में व्याप्त उपरोक्त धारणा और भी गहरी होती चली गई।

    भारत के आर्यों के बारे में मान्यता स्थापित की गई कि:- ‘प्रकृति में हम अनेक शक्तियों को देखते हैं। वर्षा, धूप, सर्दी, गरमी सब एक नियम से होती हैं। इन प्राकृतिक शक्तियों के कोई अधिष्ठात्री-देवता भी होने चाहिये, और इन देवताओं की पूजा द्वारा मनुष्य अपनी सुख-समृद्धि में वृद्धि कर सकता है, यह विचार प्राचीन आर्यों में विद्यमान था।’

    वेद माने गए ग्वालों के गीत

    वेदों को ग्वालों के गीत कहकर उन्हें उपेक्षित करने का प्रयास किया गया। वेदों के अर्थ का अनर्थ करते हुए आर्यों के बारे में लिखा गया कि प्राकृतिक दशा को सम्मुख रखकर वेदों के देवताओं को तीन भागों में बाँटा जा सकता है: (1) धुलोक के देवता, यथा सूर्य, सविता, मित्र, पूषा, विष्णु, वरुण और मित्र। (2) अन्तरिक्ष-स्थानीय देवता, यथा इन्द्र, वायु, मरुत और पर्जन्य। (3) पृथिवी-स्थानीय देवता, यथा, अग्नि, सोम और पृथिवी।

    दयु लोक, अन्तरिक्षलोक और पृथिवीलोक के विभिन्न क्षेत्रों में प्रकृति की जो शक्तियाँ दृष्टिगोचर होती हैं, उन सबको देवतारूप में मानकर वैदिक आर्यों ने उनकी स्तुति में विविध सूक्तों व मन्त्रों का निर्माण किया था। अदिति, ऊषा, सरस्वती आदि के रूप में वेदों में अनेक देवियों का भी उल्लेख है, और उनके स्तवन में भी अनेक मन्त्रों का निर्माण किया गया है। यद्यपि बहुसंख्यक वैदिक देवी-देवता प्राकृतिक शक्तियों व सत्ताओं के मूर्तरूप हैं, पर कतिपय देवता ऐसे भी हैं, जिन्हें भाव-रूप समझा जा सकता है। मनुष्यों में श्रद्धा, मन्यु (क्रोध) आदि की जो विविध भावनाएँ हैं, उन्हें भी वेदों में दैवी रूप प्रदान किया गया है।’

    यदि महर्षि दयानंद होते तो...

    अब प्रश्न यह उठता है कि यदि महर्षि दयानंद होते तो वह वेद, वेद के शब्दों और वेद की भावना का इतिहास के लेखन में किस प्रकार प्रयोग करते या करवाते? यदि इस पर विचार करें तो महर्षि दयानंद कृत सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास को हमें पढ़ना चाहिए। जिसमें महर्षि दयानंद जी महाराज ने ओ३म और उसके 100 अर्थों पर विचार प्रस्तुत किए हैं। इनके अर्थ महर्षि दयानंद ने व्याकरण के आधार पर किए हैं। यदि इनको आज का इतिहासकार अपना ले तो महर्षि दयानंद के अनुसार इतिहास के लेखन का कार्य पूर्ण करने में हमें बहुत अधिक सफलता प्राप्त हो सकती है। तब वेदों में इतिहास ढूंढने का मूर्खतापूर्ण कार्य भी रुक जाएगा। महर्षि दयानंद हमें बताते हैं:-

    "अर्थ- (ओ३म) यह ओंकार शब्द परमेश्वर का सर्वोत्तम नाम है, क्योंकि इसमें जो अ, उ और म् तीन अक्षर मिलकर एक (ओ३म्) समुदाय हुआ है, इस एक नाम से परमेश्वर के बहुत नाम आते हैं जैसे-अकार से विराट्, अग्नि और विश्वादि। उकार से हिरण्यगर्भ, वायु और तैजसादि। मकार से ईश्वर, आदित्य और प्राज्ञादि नामों का वाचक और ग्राहक है। उसका ऐसा ही वेदादि सत्यशास्त्रों में स्पष्ट व्याख्यान किया है कि प्रकरणानुकूल ये सब नाम परमेश्वर ही के हैं।’

    वर्तमान इतिहासकारों को महर्षि दयानंद द्वारा इस प्रकार की गई व्याख्या को ध्यान में रखना चाहिए। उन्हें ऋषि दयानंद के एक-एक शब्द पर विचार करना चाहिए और उसी के अनुसार अपना इतिहास लेखन का कार्य ‘ओ३म’ की व्याख्या के संबंध में करना चाहिए। ‘ओ३म’ शब्द को समस्त सृष्टि का या चराचर जगत का बीजतत्व कहा जा सकता है। प्राण तत्व भी कहा जा सकता है। बीज तत्व की उपेक्षा कभी नहीं की जा सकती। यही कारण है कि ऋषि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश का शुभारंभ इस बीजतत्व की व्याख्या के साथ ही आरंभ किया है।

    इस बीजतत्व की सुगंध सृष्टि के कण-कण में है। कण-कण में रमा है। कण-कण में बसा है। इसलिए इतिहास लेखक की हर श्वांस में भी उसकी सुगंध प्रकट होनी चाहिए। जिससे वह अपने इतिहास लेखन को सुव्यवस्थित, सुंदर और न्यायपूर्ण बनाने का कार्य कर सकेगा।

    इतिहासकारों की सबसे बड़ी समस्या

    वर्तमान इतिहासकारों के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह ओ३म के विषय में ना तो कुछ जानते हैं और ना ही कुछ मानते हैं। ‘ओ३म’ शब्द को कई इतिहासकार सांप्रदायिक तक मानते हैं। इसलिए वे अपना इतिहास लेखन कार्य नास्तिकता के साथ आरंभ करते हैं। उसका परिणाम यह होता है कि वे कम्युनिस्टों, मुसलमानों और ईसाइयों के द्वारा किए गए अत्याचारों को भी कई बार महान कार्यों में वर्णित या उल्लिखित करते देखे जाते हैं। सृष्टि की संवेदनाशक्ति अर्थात ओ३म के साथ जुड़कर जो व्यक्ति इतिहास लेखन का कार्य करेगा वह पापी और अत्याचारी शासकों या विचारधारा के लोगों के पापपूर्ण कृत्यों का कभी महिमामंडन नहीं कर सकता। संवेदना शून्य होकर लिखा जाने वाला इतिहास भावशून्यता की स्थिति उत्पन्न करता है।

    उनके द्वारा ऐसा कार्य इसलिए किया जाता है कि वे ओ३म जैसी निष्पक्ष और न्यायपूर्ण सत्ता से अपने आपको दूर कर लेते हैं। ऋषि दयानंद की शैली में यदि इतिहास लिखा जाता या लिखा जाए तो ‘ओ३म’ जैसे सृष्टि के प्राण तत्व के साथ समन्वित होकर कार्य करने वाला इतिहासकार निष्पक्ष और न्यायपूर्ण होकर उन लोगों का महिमामंडन करेगा जो इतिहास के गौरव हैं या जिन्होंने संसार में अन्याय और अत्याचार को मिटाने के लिए अपने बलिदान दिए या जो संसार में निष्पक्षता और न्यायप्रियता को स्थापित करने के लिए कार्य करते हैं। दीपक बुझाने वाले कभी महान नहीं हो सकते, दीपक जलाने वाले ही महान होते हैं।

    शब्दों के अर्थों के प्रति अपने अज्ञान को प्रकट करते हुए कई बार इतिहासकार अर्थ का अनर्थ करके अपनी मनमानी व्याख्या करते देखे जाते हैं। कई बार किसी शब्द का प्रसंगानुकूल जो अर्थ अपेक्षित है, उसे न लगाकर वे दूसरा अर्थ लगाते हैं।

    ऐसे लोगों के विषय में ऋषि सदानंद जी के इस उदाहरण को हमें ध्यान में रखना चाहिए:- जो आप ऐसा कहें कि जहाँ जिसका प्रकरण है वहाँ उसी का ग्रहण करना योग्य है, जैसे किसी ने किसी से कहा कि ‘हे भृत्य! त्वं सैन्धवमानय’ अर्थात् तू सैन्धव को ले आ। तब उसको समय अर्थात् प्रकरण का विचार करना अवश्य है, क्योंकि सैन्धव नाम दो पदार्थों का है; एक घोड़े और दूसरा लवण का। जो स्वस्वामी का गमन समय हो तो घोड़े और भोजन का काल हो तो लवण को ले आना उचित है और जो गमन समय में लवण और भोजन-समय में घोडे को ले आवे तो उसका स्वामी उस पर क्रुद्ध होकर कहेगा कि तू निर्बुद्धि पुरुष है। गमनसमय में लवण और भोजनकाल में घोड़े के लाने का क्या प्रयोजन था? त प्रकरणवित नहीं है, नहीं तो जिस समय में जिसको लाना चाहिए था उसी को लाता। जो तुझ को प्रकरण का विचार करना आवश्यक था वह तूने नहीं किया, इससे तू मूर्ख है, मेरे पास से चला जा। इससे क्या सिद्ध हुआ कि जहाँ जिसका ग्रहण करना उचित हो वहाँ उसी अर्थ का ग्रहण करना चाहिए तो ऐसा ही हम और आप सब लोगों को मानना और करना भी चाहिए।

    इतिहास लेखन के संबंध में परमपिता परमेश्वर के विभिन्न नामों के गलत अर्थ लगाने की प्रक्रिया को भारतीय साहित्य के संदर्भ में सबसे पहले हम पुराणों में देखते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि पुराणों के ही तथाकथित देवताओं या भगवानों को आधार बनाकर कई इतिहासकार उन्हीं के आधार पर इतिहास लेखन का कार्य करते हैं। यद्यपि पुराणों में इतिहास है और भारत के इतिहास के लेखन में पुराण महत्त्वपूर्ण भूमिका भी निभा सकते हैं, परंतु इसके उपरांत भी अंधा होकर उनका अनुकरण नहीं किया जा सकता। क्योंकि पुराणकार का ज्ञान वैदिक विद्वानों की अपेक्षा बहुत निम्न है।

    वैदिक दृष्टिकोण अपनाकर और महर्षि दयानंद जी से प्रेरित होकर यदि इतिहास का लेखन किया जाएगा तो हमें उनकी इस बात पर ध्यान देना होगा:- "परमेश्वर का कोई भी नाम अनर्थक नहीं, जैसे लोक में दरिद्री आदि के धनपति आदि नाम होते हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि कहीं गौणिक, कहीं कार्मिक और कहीं स्वाभाविक अर्थों के वाचक हैं।

    उसी की उपासना करनी योग्य है

    ‘ओम्’ आदि नाम सार्थक हैं- जैसे (ओम, खम्) ‘अवतीत्योम्, आकाशमिव व्यापकत्वात् खम्, सर्वेभ्यो बृहत्वाद् ब्रह्म’ रक्षा करने से (ओम्), आकाशवत् व्यापक होने से (खम्), सबसे बड़ा होने से ईश्वर का नाम (ब्रह्म) है।।1।।

    (ओ३म्) जिसका नाम है और जो कभी नष्ट नहीं होता, उसी की उपासना करनी योग्य है, अन्य की नहीं।।2।।

    सब वेदादि शास्त्रों में परमेश्वर का प्रधान और निज नाम ‘ओ३म्’ को कहा है, अन्य सब गौणिक नाम हैं।।3।।

    क्योंकि सब वेद सब धर्मानुष्ठानरूप तपश्चरण जिसका कथन और मान्य करते और जिसकी प्राप्ति की इच्छा करके ब्रह्मचर्याश्रम करते हैं, उसका नाम ‘ओ३म्’ है।।4।।

    जो सबको शिक्षा देनेहारा, सूक्ष्म से सूक्ष्म, स्वप्रकाशस्वरूप, समाधिस्थ बुद्धि से जानने योग्य है, उसको परम पुरुष जानना चाहिए।।5।। और स्वप्रकाश होने से ‘अग्नि’ विज्ञानस्वरूप होने से ‘मनु’ और सब का पालन करने से ‘प्रजापति’ और परमैश्वर्यवान् होने से ‘इन्द्र’ सब का जीवनमूल होने से ‘प्राण’ और निरन्तर व्यापक होने से परमेश्वर का नाम ‘ब्रह्म’ है।।6।।

    (स ब्रह्मा स विष्णु:०) सब जगत् के बनाने से ‘ब्रह्मा’, सर्वत्र व्यापक होने से ‘विष्णु’, दुष्टों को दण्ड देके रुलाने से ‘रुद्र’, मंगलमय और सबका कल्याणकर्ता होने से ‘शिव’, ‘यः सर्वमश्नुते न क्षरति न विनश्यति तदक्षरम्’

    ‘यः स्वयं राजते स स्वराट’ ‘योऽग्निरिव कालः कलयिता प्रलयकर्ता स कालाग्निरीश्वरः’ (अक्षर) जो सर्वत्र व्याप्त अविनाशी, (स्वराट्) स्वयं प्रकाशस्वरूप और (कालाग्नि०) प्रलय में सबका काल और काल का भी काल है, इसलिए परमेश्वर का नाम ‘कालाग्नि’ है।।7।।

    इतिहासकारों को देना चाहिए ध्यान

    महर्षि दयानंद जी महाराज सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में कुछ अन्य शब्दों की भी परिभाषा करते हैं। जिसमें उन्होंने ईश्वर के 100 नामों को व्याख्यायित किया है। इसके माध्यम से स्वामी जी महाराज हमारी कई प्रकार की भ्रांतियों का समाधान कर देते हैं। जिन्हें वर्तमान समय में इतिहासकारों को इतिहास लेखन के समय विशेष ध्यान देना चाहिए। यदि वैदिक कालीन इतिहास के लेखन के समय महर्षि दयानंद द्वारा की गई इन परिभाषाओं पर इतिहासकार ध्यान देंगे तो उनके इतिहास लेखन में बहुत कुछ सुधार होना संभव है। जैसे वह अक्सर आर्यों को प्राकृतिक शक्तियों के उपासक दिखाते हैं। कई अग्नि का उपासक लिखते हैं तो कई सूर्य का या किसी और प्रकार की प्राकृतिक शक्ति का उपासक दिखाकर उनके वैज्ञानिक वैदिक ज्ञान को निम्न करके आंकते हैं। ऐसे इतिहास लेखकों को महर्षि दयानंद जी के द्वारा की गई इन परिभाषाओं पर ध्यान देना चाहिए।

    (इन्द्रं मित्रं) जो एक अद्वितीय सत्यब्रह्म वस्तु है, उसी के इन्द्रादि सब नाम हैं।... जो प्रकृत्यादि दिव्य पदार्थों में व्याप्त, (सुपर्ण) जिसके उत्तम पालन और पूर्ण कर्म हैं, (गरुत्मान्) जिसका आत्मा अर्थात् स्वरूप महान् है, (मातरिश्वा) जो वायु के समान अनन्त बलवान् है, इसलिए परमात्मा के ‘दिव्य’, ‘सुपर्ण’, ‘गरुत्मान्’ और ‘मातरिश्वा’ ये नाम हैं।

    जिसमें सब भूत प्राणी होते हैं, इसलिए ईश्वर का नाम ‘भूमि’ है।

    ...इत्यादि प्रमाणों के ठीक-ठीक अर्थों के जानने से इन नामों से परमेश्वर ही का ग्रहण होता है। क्योंकि ‘ओ३म्’ और अग्न्यादि नामों के मुख्य अर्थ से परमेश्वर ही का ग्रहण होता है। जैसा कि व्याकरण, निरुक्त, ब्राह्मण, सूत्रादि ऋषि मुनियों के व्याख्यानों से परमेश्वर का ग्रहण देखने में आता है, वैसा ग्रहण करना सबको योग्य है, परन्तु ‘ओ३म्’ यह तो केवल परमात्मा ही का नाम है और अग्नि आदि नामों से परमेश्वर के ग्रहण में प्रकरण और विशेषण नियमकारक हैं। इससे क्या सिद्ध हुआ कि जहाँ-जहाँ स्तुति, प्रार्थना, उपासना, सर्वज्ञ, व्यापक, शुद्ध, सनातन और सृष्टिकर्ता आदि विशेषण लिखे हैं वहीं-वहीं इन नामों से परमेश्वर का ग्रहण होता है।

    ...ऐसे प्रमाणों में विराट्, पुरुष, देव, आकाश, वायु, अग्नि, जल, भूमि आदि नाम लौकिक पदार्थों के होते हैं, क्योंकि जहाँ-जहाँ उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय, अल्पज्ञ, जड़, दृश्य आदि विशेषण भी लिखे हों, वहाँ-वहाँ परमेश्वर का ग्रहण नहीं होता। वह उत्पत्ति आदि व्यवहारों से पृथक् हैं और उपरोक्त मंत्र में उत्पत्ति आदि व्यवहार हैं, इसी से यहाँ विराट् आदि नामों से परमात्मा का ग्रहण न हो के संसारी पदार्थों का ग्रहण होता है। किन्तु जहाँ-जहाँ सर्वज्ञादि विशेषण हों, वहीं-वहीं परमात्मा और जहाँ-जहाँ इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दु:ख और अल्पज्ञादि विशेषण हों, वहाँ-वहाँ जीव का ग्रहण होता है, ऐसा सर्वत्र समझना चाहिए। क्योंकि परमेश्वर का जन्म-मरण कभी नहीं होता, इससे विराट आदि नाम और जन्मादि विशेषणों से जगत् के जड़ और जीवादि पदार्थों का ग्रहण करना उचित है, परमेश्वर का नहीं। अब जिस प्रकार विराट आदि नामों से परमेश्वर का ग्रहण होता है, वह प्रकार नीचे लिखे प्रमाणे जानो।

    अथ ओंकारार्थः

    1. ‘यो विविधं नाम चराऽचरं जगद्राजयति प्रकाशयति स विराट’ विविध अर्थात् जो बहु प्रकार के जगत् को प्रकाशित करे, इससे ‘विराट’ नाम से परमेश्वर का ग्रहण होता है।

    2. ‘योऽञ्चति, अच्यतेऽगत्यंगत्येति सोऽयमग्निः’ जो ज्ञानस्वरूप, सर्वज्ञ, जानने, प्राप्त होने और पूजा करने योग्य है, इससे उस परमेश्वर का नाम ‘अग्नि’ है।

    3. जिसमें आकाशादि सब भूत प्रवेश कर रहे हैं अथवा जो इनमें व्याप्त होके प्रविष्ट हो रहा है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘विश्व’ है, इत्यादि नामों का ग्रहण अकारमात्र से होता है।

    4. ‘यो हिरण्यानां सूर्यादीनां तेजसां गर्भ उत्पत्तिनिमित्तमधिकरणं स हिरण्यगर्भः’ जिसमें सूर्यादि तेज वाले लोक उत्पन्न होके जिसके आधार रहते हैं अथवा जो सूर्यादि तेज:स्वरूप पदार्थों का गर्भ नाम, (उत्पत्ति) और निवासस्थान है, इससे उस परमेश्वर का नाम ‘हिरण्यगर्भ’ है।

    5. (गन्धनं हिसनम्) ‘यो वाति चराऽचरजगद्धरति बलिनां बलिष्ठः स वायुः जो चराऽचर जगत् का धारण, जीवन और प्रलय करता और सब बलवानों से बलवान् है, इससे उस ईश्वर का नाम ‘वायु’ है।

    6. जो आप स्वयंप्रकाश और सूर्यादि तेजस्वी लोकों का प्रकाश करने वाला है, इससे ईश्वर का नाम ‘तेजस’ है। इत्यादि नामार्थ उकारमात्र से ग्रहण होते हैं।

    7. जिसका सत्य विचारशील ज्ञान और अनन्त ऐश्वर्य है, इससे उस परमात्मा का नाम ‘ईश्वर’ है।

    8, 9. ‘न विद्यते विनाशो यस्य सोऽयमदितिः, अदितिरेव आदित्यः’ जिसका विनाश कभी न हो उसी ईश्वर की ‘आदित्य’ संज्ञा है।

    10, 11. ‘यः प्रकृष्टतया चराऽचरस्य जगतो व्यवहारं जानाति स प्रज्ञः, प्रज्ञ एव प्राज्ञः’ जो निर्धान्त ज्ञानयुक्त सब चराऽचर जगत् के व्यवहार को यथावत् जानता है, इससे ईश्वर का नाम ‘प्राज्ञ’ है। इत्यादि नामार्थ मकार से गृहीत होते हैं। जैसे एक-एक नामार्थ से तीन-तीन अर्थ यहाँ व्याख्यात किये हैं वैसे ही अन्य नामार्थ भी ओंकार से जाने जाते हैं। जो (शन्नो मित्रः शं व०) इस मन्त्र में मित्रादि नाम हैं वे भी परमेश्वर के हैं, क्योंकि स्तुति, प्रार्थना, उपासना श्रेष्ठ की ही की जाती है। श्रेष्ठ उसको कहते हैं जो अपने गुण, कर्म, स्वभाव और सत्य-सत्य व्यवहारों में सबसे अधिक हो। उन सब श्रेष्ठों में भी जो अत्यन्त श्रेष्ठ है, उसको परमेश्वर कहते हैं। जिसके तुल्य न कोई हुआ, न है और न होगा। जब तुल्य नहीं तो उससे अधिक क्योंकर हो सकता है?

    12. ‘मेद्यति, स्निह्यति स्निह्यते वा स मित्रः’ जो सबसे स्नेह करके और सबको प्रीति करने योग्य है, इससे उस परमेश्वर का नाम ‘मित्र’ है।

    13. ‘वरुणो नाम वरः श्रेष्ठः’ जिसलिए परमेश्वर सब से श्रेष्ठ है, इसीलिए उसका नाम ‘वरुण’ है।

    14. जो सत्य न्याय के करने हारे मनुष्यों का मान्य और पाप तथा पुण्य करने वालों को पाप और पुण्य के फलों का यथावत् सत्य-सत्य नियमकर्ता है, इसी से उस परमेश्वर का नाम ‘अर्यमा’ है।

    15. जो अखिल ऐश्वर्ययुक्त है, इससे उस परमात्मा का नाम ‘इन्द्र’ है।

    16. ‘यो बृहतामाकाशादीनां पतिः स्वामी पालयिता स बृहस्पतिः’ जो बड़ों से भी बड़ा और बड़े आकाशादि ब्रह्माण्डों का स्वामी है, इससे उस परमेश्वर का नाम ‘बृहस्पति’ है।

    17. ‘वेवेष्टि व्याप्नोति चराऽचरं जगत् स विष्णुः’ चर और अचररूप जगत् में व्यापक होने से परमात्मा का नाम ‘विष्णु’ है।

    18. जो सब में व्यापक परमेश्वर है, वह (नः) हमारा कल्याणकारक (भवतु) हो।

    19. जो सबके ऊपर विराजमान, सबसे बड़ा, अनन्तबलयुक्त परमात्मा है, उस ब्रह्म को हम नमस्कार करते हैं। हे परमेश्वर! (त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि) आप ही अन्तर्यामिरूप से प्रत्यक्ष ब्रह्म हो (त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि) मैं आप ही को प्रत्यक्ष ब्रह्म कहूँगा, क्योंकि आप सब जगह में व्याप्त होके सबको नित्य ही प्राप्त हैं।

    ‘सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च’

    20. ‘तस्थुषः’ अप्राणी अर्थात् स्थावर जड़ अर्थात् पृथ्विी आदि हैं, उन सबके आत्मा होने और स्वप्रकाशरूप सब के प्रकाश करने से परमेश्वर का नाम ‘सूर्य’ है।

    21, 22. जो सब जीव आदि से उत्कृष्ट और जीव, प्रकृति तथा आकाश से भी अतिसूक्ष्म और सब जीवों का अन्तर्यामी आत्मा है, इससे ईश्वर का नाम ‘परमात्मा’ है।

    23. सामर्थ्यवाले का नाम ईश्वर है।

    24. जो सब जगत् की उत्पत्ति करता है, इसलिए परमेश्वर का नाम ‘सविता’ है।

    25. (क्रीडा) जो शुद्ध जगत् को क्रीडा कराने (विजिगीषा) व मार्मिकों को जिताने की इच्छायुक्त (व्यवहार) सब चेष्टा के साधनोपसाधनों का दाता (द्युति) स्वयंप्रकाशस्वरूप, सबका प्रकाशक (स्तुति) प्रशंसा के योग्य (मोद) आप आनन्दस्वरूप और दूसरों को आनन्द देनेहारा (मद) मदोन्मत्तों का ताडनेहारा (स्वप्न) सबके शयनार्थ रात्रि और प्रलय का करनेहारा (कान्ति) कामना के योग्य और (गति) ज्ञानस्वरूप है, इसलिये उस परमेश्वर का नाम ‘देव’ है। ....

    26. जो अपनी व्याप्ति से सबका आच्छादन करे, इस से उस परमेश्वर का नाम ‘कुबेर’ है।

    27. जो सब विस्तृत जगत् का विस्तार करने वाला है, इसलिए उस ईश्वर का नाम ‘पृथ्विी’ है।

    28. जो दुष्टों का ताड़न और अव्यक्त तथा परमाणुओं का अन्योऽन्य संयोग वा वियोग करता है, वह परमात्मा ‘जल’ संज्ञक कहाता है।

    29. जो सब ओर से सब जगत् का प्रकाशक है, इसलिए उस परमात्मा का नाम ‘आकाश’ है।

    30, 31, 32. जो सबको भीतर रखने, सबको ग्रहण करने योग्य, चराऽचर जगत् का ग्रहण करने वाला है, इससे ईश्वर के ‘अन्न’, ‘अन्नाद’ और ‘अत्ता’ नाम हैं।

    33. जिसमें सब आकाशादि भूत वसते हैं और जो सब में वास कर रहा है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘वसु’ है।

    34. जो दुष्ट कर्म करनेहारों को रुलाता है, इससे परमेश्वर का नाम ‘रुद्र’ है।

    36. जो आनन्दस्वरूप और सबको आनन्द देने वाला है, इसलिए ईश्वर का नाम ‘चन्द्र’ है।

    37. यो मंगति मंगयति वा स मंगल:’ जो आप मंगलस्वरूप और सब जीवों के मंगल का कारण है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘मंगल’ है।

    38. ‘यो बुध्यते बोध्यते वा स बुधः’ जो स्वयं बोधस्वरूप और सब जीवों के बोध का कारण है। इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘बुध’ है। ‘बृहस्पति’ शब्द का अर्थ कह दिया।

    39. ‘यः शुच्यति शोचयति वा स शुक्रः’ जो अत्यन्त पवित्र और जिसके संग से जीव भी पवित्र हो जाता है, इसलिये ईश्वर का नाम ‘शुक्र’ है।

    40. ‘यः शनैश्चरति स शनैश्चरः’ जो सब में सहज से प्राप्त धैर्यवान् है, इससे उस परमेश्वर का नाम ‘शनैश्चर’ है।

    41. ‘यो रहति परित्यजति दुष्टान् राहयति त्याजयति स राहुरीश्वरः’। जो एकान्तस्वरूप जिसके स्वरूप में दूसरा पदार्थ संयुक्त नहीं, जो दुष्टों को छोड़ने और अन्य को छुड़ाने हारा है, इससे परमेश्वर का नाम ‘राहु’ है।

    42. ‘यः केतयति चिकित्सति वा स केतुरीश्वरः’ जो सब जगत् का निवासस्थान, सब रोगों से रहित और मुमुक्षुओं को मुक्ति समय में सब रोगों से छुड़ाता है, इसलिए उस परमात्मा का नाम ‘केतु’ है।

    43. जो सब जगत् के पदार्थों को संयुक्त करता और सब विद्वानों का पूज्य है, और ब्रह्मा से लेके सब ऋषि मुनियों का पूज्य था, है और होगा, इससे उस परमात्मा का नाम ‘यज्ञ’ है, क्योंकि वह सर्वत्र व्यापक है।

    45. जैसे भ्राता भाइयों का सहायकारी होता है, वैसे परमेश्वर भी पृथिव्यादि लोकों के धारण, रक्षण और सुख देने से ‘बन्धु’ संज्ञक है।

    46. ‘यः पाति सर्वान् स पिता’ जो सबका रक्षक जैसा पिता अपने सन्तानों पर सदा कृपालु होकर उनकी उन्नति चाहता है, वैसे ही परमेश्वर सब जीवों की उन्नति चाहता है, इससे उसका नाम ‘पिता’ है।

    47. ‘यः पितृणां पिता स पितामहः’ जो पिताओं का भी पिता है, इससे उस परमेश्वर का नाम ‘पितामहः’ है।

    48. ‘यः पितामहानां पिता स प्रपितामहः’ जो पिताओं के पितरों का पिता है, इससे परमेश्वर का नाम ‘प्रपितामह’ है।

    49. ‘यो मिमीते मानयति सर्वाञ्जीवान् स माता’ जैसे पूर्ण कृपा युक्त जननी अपने सन्तानों का सुख और उन्नति चाहती है, वैसे परमेश्वर भी सब जीवों की बढ़ती चाहता है, इससे परमेश्वर का नाम ‘माता’ है।

    50. ‘य आचारं ग्राहयति, सर्वा विद्या बोधयति स आचार्य ईश्वरः’ जो सत्य आचार का ग्रहण करानेहारा और सब विद्याओं की प्राप्ति का हेतु होके सब विद्या प्राप्त कराता है, इससे परमेश्वर का नाम ‘आचार्य’ है।

    51. जो सत्यधर्म प्रतिपादक, सकल विद्यायुक्त वेदों का उपदेश करता, सृष्टि की आदि में अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा और ब्रह्मादि गुरुओं का भी गुरु और जिसका नाश कभी नहीं होता, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘गुरु’ है।

    52. जो सब प्रकृति के अवयव आकाशादि भूत परमाणुओं को यथायोग्य मिलाता, जानता, शरीर के साथ जीवों का सम्बन्ध करके जन्म देता और स्वयं कभी जन्म नहीं लेता, इससे उस ईश्वर का नाम ‘अज’ है।

    53. जो सम्पूर्ण जगत् को रच के बढ़ाता है, इसलिए परमेश्वर का नाम ‘ब्रह्मा’ है।

    54, 55, 56. जो पदार्थ हों उनको सत् कहते हैं, उनमें साधु होने से परमेश्वर का नाम ‘सत्य’ है। जो जानने वाला है, इससे परमेश्वर का नाम ‘ज्ञान’ है। जिसका अन्त अवधि मर्यादा अर्थात् इतना लम्बा, चौड़ा, छोटा, बड़ा है, ऐसा परिमाण नहीं है, इसलिए परमेश्वर के नाम ‘सत्य’, ‘ज्ञान’ और ‘अनन्त’ हैं।

    57. जिसके पूर्व कुछ न हो और परे हो, उसको आदि कहते हैं, जिस का आदि कारण कोई भी नहीं है, इसलिए परमेश्वर का नाम ‘अनादि’ है।

    58. जो आनन्दस्वरूप, जिस में सब मुक्त जीव आनन्द को प्राप्त होते और सब धर्मात्मा जीवों को आनन्दयुक्त करता है, इससे ईश्वर का नाम ‘आनन्द’ है।

    59. जो सदा वर्तमान अर्थात् भूत, भविष्यत्, वर्तमान कालों में जिसका बाध न हो, उस परमेश्वर को ‘सत्’ कहते हैं।

    60, 61. जो चेतनस्वरूप सब जीवों को चिताने और सत्याऽसत्य का जनानेहारा है, इसलिए उस परमात्मा का नाम ‘चित्’ है। इन तीनों शब्दों के विशेषण होने से परमेश्वर को ‘सच्चिदानन्दस्वरूप’ कहते हैं।

    62. जो निश्चल अविनाशी है, सो ‘नित्य’ शब्दवाच्य ईश्वर है।

    63. जो स्वयं पवित्र सब अशुद्धियों से पृथक् और सबको शुद्ध करने वाला है, इससे ईश्वर का नाम ‘शुद्ध’ है।

    64. जो सदा सबको जाननेहारा है इससे ईश्वर का नाम ‘बुद्ध’ है।

    65. जो सर्वदा अशुद्धियों से अलग और सब मुमुक्षुओं को क्लेश से छुड़ा देता है, इसलिए परमात्मा का नाम ‘मुक्त’ है।

    66. ‘अत एव नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावो जगदीश्वरः’ इसी

    Enjoying the preview?
    Page 1 of 1