Devi Bhagwat Puran (देवी भागवत पुराण)
By Dr.Vinay
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Devi Bhagwat Puran (देवी भागवत पुराण) - Dr.Vinay
सहस्त्रनामावली
श्रीमद देवीभागवत पुराण
एक बार भगवत-अनुरागी तथा पुण्यात्मा महर्षियों ने श्री वेदव्यास के परम शिष्य सूतजी से प्रार्थना की-हे ज्ञानसागर! आपके श्रीमुख से विष्णु भगवान और शंकर के दैवी चरित्र तथा अद्भुत लीलाएं सुनकर हम बहुत सुखी हुए । ईश्वर में आस्था बड़ी और ज्ञान प्राप्त किया । अब कृपा कर मानव जाति को समस्त सुखों को उपलब्ध कराने वाले, आत्मिक शक्ति देने वाले तथा भोग और मोक्ष प्रदान कराने वाले पवित्रतम पुराण आख्यान सुनाकर अनुगृहीत कीजिए ।
ज्ञानेच्छु और विनम्र महात्माओं की निष्कपट अभिलाषा जानकर महामुनि सूतजी ने अनुग्रह स्वीकार किया । उन्होंने कहा-जन-कल्याण की लालसा से आपने बड़ी सुंदर इच्छा प्रकट की । मैं आप लोगों को उसे सुनाता हूं ।
यह सच है कि श्रीमद् देवी भागवत पुराण सभी शास्त्रों तथा धार्मिक ग्रंथों में महान् है । इसके सामने बड़े-बड़े तीर्थ और व्रत नगण्य हैं । इस पुराण के सुनने से पाप सूखे वन की भांति जलकर नष्ट हो जाते हैं, जिससे मुनष्य को शोक, क्लेश, दुःख आदि नहीं भोगने पड़ते । जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश के सामने अंधकार छंट जाता है, उसी प्रकार भागवत पुराण के श्रवण से मुनष्य के सभी कष्ट, व्याधियां और संकोच समाप्त हो जाते हैं ।
महात्माओं ने सूतजी से भागवत पुराण के संबंध में ये जिज्ञासाएं रखी:
पवित्र श्रीमद् देवी भागवत पुराण का आविर्भाव कब हुआ?
इसके पठन-पाठन का समय क्या है?
इसके श्रवण-पठन से किन-किन कामनाओं की पूर्ति होती है?
सर्वप्रथम इसका श्रवण किसने किया?
इसके पारायण की विधि क्या है?
श्रीमद् देवीभागवत पुराण का आविर्भाव
महर्षि पराशर और देवी सत्यवती के संयोग से श्रीनारायण के अंशावतार देव व्यासजी का जन्म हुआ । व्यासजी ने अपने समय और समाज की स्थिति पहचानते हुए वेदों को चार भागों में विभक्त किया और अपने चार पटु शिष्यों को उनका बोध कराया । इसके पश्चात् वेदाध्ययन के अधिकार से वंचित नर-नारियों था मंदबुद्धियों के कल्याण के लिए अट्ठारह पुराणों की रचना की, ताकि वे भी धर्म-पालन में समर्थ हो सकें ।
सूतजी ने कहा-महात्मन! गुरुजी के आदेशानुसार सत्रह पुराणों के प्रसार एवं प्रचार का दायित्व मुझ पर आया, किंतु भोग और मोक्षदाता भागवत पुराण स्वयं गुरुजी ने जन्मेजय को सुनाया । आप जानते हैं-जन्मेजय के पिता राजा परीक्षित को तक्षक सर्प ने डस लिया था और राजा ने अपनी आत्मा के कल्याण के लिए श्रीमद् देवीभागवत पुराण का श्रवण किया था । राजा ने नौ दिन निरंतर लोकमाता भगवती दुर्गा की पूजा-आराधना की तथा मुनि वेदव्यास के मुख से लोकमाता की महिमा से पूर्ण भागवत पुराण का श्रवण किया । इसके फलस्वरूप मां ने उन्हें दर्शन दिए । अपने पूज्य पिता की सद्गति को देखकर जहां राजा जन्मेजय प्रसन्न हुए, वहां उन्होंने श्री वेदव्यास से पुराणों में श्रेष्ठ और धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष प्रदान करने वाले श्रीमद् देवीभागवत पुराण को सुनाने की विनती की ।
पारायण का उपयुक्त समय
सूतजी बोले-देवी भागवत की कथा-श्रवण से भक्तों और श्रद्धालु श्रोताओं को ऋद्धि-सिद्धि की प्राप्ति होती है । मात्र क्षणभर के कथा-श्रवण से भी देवी के भक्तों को कभी कष्ट नहीं होता । सभी तीर्थों और व्रतों का फल देवी भागवत के एक बार के श्रवण मात्र से प्राप्त हो जाता है । सतयुग, त्रेता तथा द्वापर में तो मनुष्य के लिए अनेक धर्म-कर्म हैं, किंतु कलियुग में तो पुराण सुनने के अतिरिक्त कोई अन्य धार्मिक आचरण नहीं है । कलियुग के धर्म-कर्महीन तथा आचारहीन मनुष्यों के कल्याण के लिए ही श्री व्यासजी ने पुराण-अमृत की सृष्टि की थी ।
देवी पुराण के श्रवण के लिए यों तो सभी समय फलदायी हैं, किंतु फिर भी आश्विन, चैत्र, मार्गशीर्ष तथा आषाढ़ मासों एवं दोनों नवरात्रों में पुराण के श्रवण से विशेष पुण्य होता है । वास्तव में यह पुराण नवाह्न यज्ञ है, जो सभी पुण्य कर्मों में सर्वोपरि एवं निश्चित फलदायक है ।
इस नवाह्न यज्ञ से छली, मूर्ख, अमित्र, वेद-विमुख, निंदक, चोर, व्यभिचारी, उठाईगीर, मिथ्याचारी, गो-देवता-ब्राह्मण निंदक तथा गुरुद्वेषी जैसे भयानक पापी शुद्ध और पापरहित हो जाते हैं । बड़े-बड़े व्रतों, तीर्थ-यात्राओं, बृहत् यज्ञों या तपों से भी वह पुण्य फल प्राप्त नहीं होता जो श्रीमद् देवी भागवत पुराण के नवाह्न पारायण से प्राप्त होता है ।
तथा न गंगा न गया न काशी न नैमिषं न मथुरा न पुष्करम ।
पुनाति सद्य: बदरीवनं नो यथा हि देवीमख एष विप्रा : ।
गंगा, गया, काशी, नैमिषारण्य, मथुरा, पुष्कर और बदरीवन आदि तीर्थों की यात्रा से भी वह फल प्राप्त नहीं होता, जो नवाह्न पारायण रूप देवी भागवत श्रवण यज्ञ से प्राप्त होता है । सूतजी के अनुसार-आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को स्वर्ण सिंहासन पर श्रीमद् भागवत की प्रतिष्ठा कराकर ब्राह्मण को देने वाला देवी के परम पद को प्राप्त कर लेता है । इस पुराण की महिमा इतनी महान् है कि नियमपूर्वक एक-आध श्लोक का पारायण करने वाला भक्त भी मां भगवती की कृपा प्राप्त कर लेता है ।
देवी पुराण की महिमा
देवी पुराण के पढ़ने एवं सुनने से भयंकर रोग, अतिवृष्टि, अनावृष्टि भूत-प्रेत बाधा, कष्ट योग और दूसरे आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आधिदैहिक कष्टों का निवारण हो जाता है । सूतजी ने इसके लिए एक कथा का उल्लेख करते हुए कहा-वसुदेव जी द्वारा देवी भागवत पुराण के पारायण का फल ही था कि प्रसेनजित को ढूंढ़ने गए श्रीकृष्ण संकट से मुक्त होकर सकुशल घर लौट आए थे । इस पुराण के श्रवण से दरिद्र धनी, रोगी-नीरोगी तथा पुत्रहीन स्त्री पुत्रवती हो जाती है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र चतुर्वर्णों के व्यक्तियों द्वारा समान रूप से पठनीय एवं श्रवण योग्य यह पुराण आयु, विद्या बल, धन, यश तथा प्रतिष्ठा देने वाला अनुपम ग्रंथ है ।
ऐतिहासिकता एवं प्राचीनता
वसुदेव-नारद संवाद: श्रीकृष्ण प्रसेनजित कथा
श्री कृष्ण प्रसेनजित को ढूंढने के प्रयास में खो गए थे जो श्री देवी भगवती के आशीर्वाद से सकुशल लौट आए । यह वृत्तांत। महर्षियों की इच्छा से विस्तार से सुनाते हुए श्री सूतजी कहने लगे-सज्जनों! बहुत पहले द्वारका पुरी में भोजवंशी राजा सत्राजित रहता था । सूर्य की भक्ति-आराधना के बल पर उसने स्यमंतक नाम की अत्यंत चमकदार मणि प्राप्त की । मणि की कांति से राजा स्वयं सूर्य जैसा प्रभा-मंडित हो जाता था । इस भ्रम में जब यादवों ने श्रीकृष्ण से भगवान सूर्य के आगमन की बात कही, तब अंतर्यामी कृष्ण ने यादवों की शंका का निवारण करते हुए कहा कि आने वाले महानुभाव स्यमंतक मणिधारी राजा सत्राजित हैं, सूर्य नहीं । स्यमंतक मणि का गुण था कि उसके धारण करने वाला प्रतिदिन आठ किलो स्वर्ण प्राप्त करेगा । उस प्रदेश में किसी भी प्रकार की मानवीय या दैवीय विपत्ति का कोई चिह्न तक नहीं था । स्यमंतक मणि प्राप्त करने की इच्छा स्वयं कृष्ण ने भी की लेकिन सत्राजित ने अस्वीकार कर दिया ।
एक बार सत्राजित का भाई प्रसेनजित उस मणि को धारण करके घोड़े पर चढ़कर शिकार को गया तो एक सिंह ने उसे मार डाला । संयोग से जामवंत नामक रीछ ने सिंह को ही मार डाला और वह मणि को लेकर अपनी गुफा में आ गया । जामवंत की बेटी मणि को खिलौना समझकर खेलने लगी ।
प्रसेनजित के न लौटने पर द्वारका में यह अफवाह फैल गई कि कृष्ण को सत्राजित द्वारा मणि देने से इनकार करने पर दुर्भावनावश कृष्ण ने प्रसेनजित की हत्या करा दी और मणि पर अपना अधिकार कर लिया । कृष्ण इस अफवाह से दुःखी होकर प्रसेनजित को खोजने के लिए निकल पड़े ।
वन में कृष्ण और उनके साथियों ने प्रसेनजित के साथ एक सिंह को भी मरा पाया । उन्हें वहां रीछ के पैरों के निशानों के संकेत भी मिले, जो भीतर गुफा में प्रवेश के सूचक थे । इससे कृष्ण ने सिंह को मारने तथा मणि के रीछ के पास होने का अनुमान लगाया ।
अपने साथियों को बाहर रहकर प्रतीक्षा करने के लिए कहकर स्वयं कृष्ण गुफा के भीतर प्रवेश कर गए । काफी समय बाद भी कृष्ण के वापस न आने पर निराश होकर लौटे साथी ने कृष्ण के भी मारे जाने का मिथ्या प्रचार कर दिया ।
कृष्ण के न लौटने पर उनके पिता वसुदेव पुत्र-शोक में व्यथित हो उठे । उसी समय देवर्षि नारद आ गए । समाचार जानकर नारदजी ने वसुदेव से श्रीमद् देवी भागवत पुराण के श्रवण का उपदेश किया । वसुदेव मां भगवती की कृपा से पूर्व परिचित थे । उन्होंने नारदजी से कहा-देवर्षि, देवकी के साथ कारागारवास करते हुए जब छः पुत्र कंस के हाथों मारे जा चुके थे तो हम दोनों पति-पत्नी काफी व्यथित और असंतुलित हो गए थे । तब अपने कुल पुरोहित महर्षि गर्ग से परामर्श किया और कष्ट से छुटकारा पाने का उपाय पूछा । गुरुदेव ने जगदम्बा २मां की गाथा का पारायण करने को कहा । कारागार में होने के कारण मेरे लिए यह संभव नहीं था । अतः गुरुदेव से ही यह कार्य संपन्न कराने की प्रार्थना की ।
वसुदेव ने कहा-मेरी प्रार्थना स्वीकार करके गुरुदेव ने विंध्याचल पर्वत पर जाकर ब्राह्मणों के साथ देवी की आराधना-अर्चना की । विधि-विधानपूर्वक देवी भागवत का नवाह्न यज्ञ किया । अनुष्ठान पूर्ण होने पर गुरुदेव ने मुझे इसकी सूचना देते हुए कहा-देवी ने प्रसन्न होकर यह आकाशवाणी की है-मेरी प्रेरणा से स्वयं विष्णु पृथ्वी के कष्ट निवारण हेतु वसुदेव-देवकी के घर अवतार लेंगे । वसुदेव को चाहिए कि उस बालक को गोकुल ग्राम के नंद-यशोदा के घर पहुंचा दें और उसी समय उत्पन्न यशोदा की बालिका को लाकर आठवीं संतान के रूप में कंस को सौंप दें । कंस यथावत् बालिका को धरती पर पटक देगा । वह बालिका कंस के हाथ से तत्काल छूटकर दिव्य शरीर धारण कर, मेरे ही अंश रूप से लोक कल्याण के लिए विंध्याचल पर्वत पर वास करेगी ।
गर्ग मुनि के द्वारा इस अनुष्ठान फल को सुन कर मैंने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए आगे घटी घटनाएं मुनि के कथनानुसार पूरी कीं और कृष्ण की रक्षा की । यह विवरण सुनाकर वसुदेव नारदजी से कहने लगे-मुनिवर! सौभाग्य से आपका आगमन मेरे लिए शुभ है । अत: आप ही मुझे देवी भागवत पुराण की कथा सुनाकर उपकृत करें ।
वसुदेव के कहने पर नारद ने अनुग्रह करते हुए नवाह्न परायण किया । वसुदेव ने नवें दिन कथा समाप्ति पर नारदजी की पूजा-अर्चना की । भगवती मां की माया से श्रीकृष्ण जब गुफा में प्रविष्ट हुए तो उन्होंने एक बालिका को मणि से खेलते देखा । जैसे ही कृष्ण ने बालक से मणि ली, तो बालिका रो उठा । बालिका के रोने की आवाज को सुनकर जामवंत वहां आ पहुंचा तथा कृष्ण से युद्ध करने लगा । दोनों में सत्ताईस दिन तक युद्ध चलता रहा । देवी की कृपा से जामवंत लगातार कमजोर पड़ता गया तथा श्रीकृष्ण शक्ति-संपन्न होते गए । अंत में उन्होंने जामवंत को पराजित कर दिया ।
भगवती की कृपा से जामवंत को पूर्व स्मृति हो आई । त्रेता में रावण का वध करने वाले राम को ही द्वापर में कृष्ण के रूप में अवतरित जानकर उनकी वंदना की । अज्ञान में किए अपराध के लिए क्षमा मांगी । मणि के साथ अपनी पुत्री जांबवती को भी प्रसन्नतापूर्वक कृष्ण को समर्पित कर दिया ।
मथुरा में कथा के समाप्त होने के बाद वसुदेव ब्राह्मण भोज के बाद आशीर्वाद ले रहे थे, उसी समय कृष्ण मणि और जांबवती के साथ वहां पहुंच गए । कृष्ण को वहां देखकर सभी की प्रसन्नता की कोई सीमा न रही । भगवती का अभार प्रकट करते हुए वसुदेव-देवकी ने श्रीकृष्ण का अश्रुपूरित नेत्रों से स्वागत किया । वसुदेव को सफल काम बनाकर नारद देवलोक वापस लौट गए ।
अगस्त्य-स्कन्द संवाद
श्री सूतजी ने जगदम्बा भगवती देवी की महिमा का एक अन्य आख्यान सुनाते हुए कहा-तपस्वी मुनियों! अगस्तय मुनि ने एक बार कार्तिकेय स्कन्द के श्रीमुख से शास्त्र चर्चाएं सुनी । कुमार कार्तिकेय ने वाराणसी, मणिकर्णिका, गंगादि तीर्थों का महत्त्व विस्तार से समझाया किंतु जब मुनि अगर को संतोष न हुआ तब कुमार से उन्होंने देवी भागवत पुराण की महिमा, उसके पारायण की विधि बताने का आग्रह किया । स्कन्दजी ने अगस्तय मुनि से जगदम्बा मां की अपरंपार महिमा को व्यक्ति की सामर्थ्य से परे कहते हुए देवी की महिमा से सबंधित एक आख्यान सुनाया-
सुद्युम्न के पुंसत्व-प्राप्ति की कथा
विवस्वान के पुत्र श्राद्धदेव निस्संतान थे । श्राद्धदेव ने मुनि वसिष्ठ के परामर्श से पुत्रेष्टि यज्ञ किया । यज्ञ करते हुए पुत्र की प्राप्ति के लिए प्रार्थना करते समय उनके मुख से 'पुत्रों दीयताम्' के स्थान पर 'पुत्री दीयताम्' निकल गया जिसके फलस्वरूप श्राद्धदेव के घर 'इला' नामक कन्या ने जन्म लिया । राजा श्राद्धदेव ने तब गुरु वसिष्ठ के पास जाकर प्रार्थना के पलट जाने और पुत्री इला को किसी प्रकार पुरुषत्व प्राप्त कराने की प्रार्थना की । मुनि वसिष्ठ ने उस इला को ही अपने तप के बल पर पुंसत्व प्रदान करते हुए सुद्युम्न रूप में परिणत कर दिया ।
युवा सुद्युम्न एक बार आखेट करते समय एक वन से दूसरे वन में जाता हुआ रास्ता भूलकर भटकते हुए, उस वन प्रदेश में जा पहुंचा जिसे भगवान शिव ने पार्वती के साथ निःशंक रमण के लिए सुरक्षित घोषित कर रखा था । पार्वती की इच्छा से उस वन में कोई भी अन्य पुरुष प्रवेश नहीं कर सकता था । प्रवेश की अनधिकार चेष्टा करने वाले को स्त्रीत्व में परिणत हो जाने का शापमय विधान था । अत: जैसे ही सुद्युम्न वहां पहुंचा, शाप के अनुसार वह, उसके संगी-साथी और अश्व स्त्री रूप में परिवर्तित हो गए ।
स्त्री रूप में भटकता सुद्युम्न एक बार महात्मा बुध के आश्रम में पहुंचा तो दोनों एक दूसरे के रूप पर मुग्ध हो गए । सुद्युम्न ने बुध से गर्भ धारण किया तथा यथासमय पुरुरवा नामक पुत्र का जन्म हुआ । बुध के आश्रम में रहते हुए सुद्युम्न को अपने पूर्व जीवन का वृत्त स्मरण हो आया । वह अपने कुलगुरु वसिष्ठ के पास आया । वसिष्ठ ने शिष्यसम यजमान के कष्ट को अनुभव करते हुए पुनः पुसत्व के लिए शिव की स्तुति की । शंकर ने प्रसन्न होकर वसिष्ठ को बताया कि सुद्युम्न एक मास स्त्री, एक मास पुरुष बनकर रहेगा । तब वसिष्ठजी ने देवी जगदम्बा भगवती की आराधना की । भगवती ने प्रसन्न होकर वसिष्ठ से सुद्युम्न के घर जाकर उनकी पूजा करने का उपदेश किया । सुद्युम्न के लिए नवाह्न यज्ञ का अनुष्ठान करने के लिए कहा ।
भगवती को शीश नवाते हुए और उनकी कृपा से कृतार्थ वसिष्ठ मुनि ने सुद्युम्न के घर आकर आश्विन शुक्ल पक्ष में राजा द्वारा भगवती-पूजन और श्रीमद्भागवत् पुराण का नवाह यज्ञ का अनुष्ठान संपन्न कराया । इस अनुष्ठान से देवी ने प्रसन्न होकर सुद्युम्न को पुनः पुरुष बना दिया । इसके पश्चात् वसिष्ठजी ने ही सुखमन का राज्याभिषेक कराया ।
देवी भागवत की श्रवण विधि
आगत मुनियों को यह कथा सुनाते हुए सूतजी बोले-श्रद्धालु ऋषियो! कथा श्रवण के लिए श्रद्धालु जनों को शुभ मुहूर्त निकलवाने के लिए किसी ज्योतिर्विद से सलाह लेनी चाहिए या फिर नवरात्रों में ही यह कथा-श्रवण उपयुक्त है । इस अनुष्ठान की सूचना विवाह के समान ही अपने सभी बंधु-बांधवों, सगे-संबंधियों, परिचितों, ब्राह्मण, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों एवं स्त्रियों को भी आमंत्रित करना चाहिए । जो जितना अधिक समय श्रवण में दे सके, उतना अवश्य दे । सभी आगंतुकों का स्वागत-सत्कार आयोजक का धर्म है । कथा-स्थल को गोबर से लीपकर एक-मंडप और उसके ऊपर एक गुंबद के आकार का चंदोवा लटकाकर इसके ऊपर देवी चित्र युक्त ध्वजा फहरा देनी चाहिए ।
कथा सुनाने के लिए सदाचारी, कर्मकांडी, निर्लोभी कुशल उपदेशक को ही नियुक्त करना चाहिए ।
प्रातःकाल स्नान आदि से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण कर कलश की स्थापना करनी चाहिए । गणेश, नवग्रह, योगिनी, मातृका, क्षेत्रपाल, बटुक, तुलसी, विष्णु तथा शंकर आदि की पूजा करके भगवती दुर्गा की आराधना करनी चाहिए । देवी की षोडशोपचार पूजा-अर्चना करके देवी भागवत ग्रंथ की पूजा करनी चाहिए तथा देवी यज्ञ निर्दिष्ट समाप्त होने की अभ्यर्थना करनी चाहिए । प्रदक्षिणा और नमस्कार करते हुए देवी की स्तुति प्रारंभ करनी चाहिए । तत्पश्चात् ध्यानावस्थित होकर देवी-कथा श्रवण करनी चाहिए ।
कथा के श्रवणकाल में श्रोता अथवा वक्ता को क्षौर कर्म नहीं करवाना चाहिए । भूमि पर शयन, ब्रह्मचर्य का पालन, सादा भोजन, संयम, शुद्ध आचरण, सत्य भाषण तथा अहिंसा का व्रत लेना चाहिए । तामस पदार्थ यथा-प्याज, लहसुन, मांस, मदिरा आदि का भक्षण भी वर्जित है । स्त्री-संग का बलपूर्वक त्याग करना चाहिए ।
नवाह्न यज्ञ की समाप्ति पर नवें दिन अनुष्ठान का उद्यापन करना चाहिए । उस दिन वक्ता तथा भागवत पुराण दोनों की पूजा करनी चाहिए । ब्राह्मण तथा कुमारिकाओं को भोजन एवं दक्षिणा देकर तृप्त करना चाहिए । गायत्री मंत्र से होम करके स्वर्ण मंजूषा पर अधिष्ठित भागवत पुराण वक्ता ब्राह्मण को दान में देते हुए दक्षिणादि से संतुष्ट करते हुए उसे विदा करना चाहिए ।
पूर्वोक्त विधि-विधान से निष्काम भाव से पारायण करने वाला श्रोता श्रद्धालु मोक्षपद को और सकाम भाव से पारायण करने वाला अपने अभीष्ट को प्राप्त करता है । कथा-श्रवण के समय किसी भी प्रकार का वार्तालाप, ध्यानभग्नता, आसन बदलने, ऊंघने या अश्रद्धा से बड़ी भारी हानि हो सकती है अतः ऐसा नहीं करना चाहिए ।
सूतजी महाराज ने कहा-अठारह पुराणों में देवी भागवत पुराण उसी प्रकार सर्वोत्तम है, जिस प्रकार नदियों में गंगा, देवों में शंकर, काव्यों में रामायण, प्रकाश स्रोतों में सूर्य, शीतलता और आह्लाद में चंद्रमा, क्षमाशीलों में पृथ्वी, गंभीरता में सागर और मंत्रों में गायत्री आदि श्रेष्ठ हैं । यह पुराण श्रवण सब प्रकार के कष्टों का निवारण करके आत्मकल्याण करता है । अतः इसका पारायण सभी के लिए श्रेष्ठ एवं वरेण्य है ।
प्रथम अध्याय
या दे वी सर्व भूते षु निद्रा रूपेण संस्थित्ता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः । ।
प्रथम स्कंध
शौनक