Bharat Ki Videsh Neeti Rakesh Aarya
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Bharat Ki Videsh Neeti Rakesh Aarya - Dr. Rakesh Kumar Arya
आर्य
अध्याय - 1
भारत की विदेश नीति और
मानवतावाद
इतिहास और विदेश नीति का चोली-दामन का साथ है। किसी भी देश के पड़ोसी देशों से उसका पुराना सम्बन्ध होना स्वभाविक है। जहाँ तक भारत की विदेश नीति और इतिहास की बात है तो भारत के लगभग सभी पड़ोसी देश कभी न कभी भारत के ही अंग रहे हैं। इस दृष्टिकोण से भारत सारे पड़ोसी देशों का पुराना ‘घर’ है। जब भी विदेश नीति के निर्धारण की बात भारत के सामने आती है तो वह अपने ऐतिहासिक सम्बन्धों के दृष्टिगत ही अपने पड़ोसी देशों से अपनी नीति निर्धारित करता है।
चीन हमारा एक ऐसा पड़ोसी देश है जिससे हमारे देश की बहुत लम्बी सीमा मिलती है। प्राचीन काल में चीन हमारे देश की सीमा से केवल अरुणाचल प्रदेश की ओर जाकर ही मिलता था। शेष सीमा पर ‘तिब्बत’ नाम का देश हुआ करता था। वामपन्थी इतिहासकारों ने वर्तमान इतिहास में कुछ इस प्रकार दिखाया है कि जैसे चीन अत्यंत प्राचीन काल से वर्तमान स्वरूप में ही हमारा पड़ोसी रहा है और तिब्बत का कभी कोई अस्तित्व नहीं रहा।
तिब्बत को चीन ने नेहरूजी के प्रधानमन्त्रित्व काल में हड़प लिया था। अतः जब प्राचीन काल में चीन के साथ सम्बन्धों की बात आती है तो हमें यह तथ्य अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि उस समय आज के बहुत बड़े चीनी आधिपत्य की भूमि के भाग का स्वामी तिब्बत नाम का देश होता था। हम अपने इतिहास में यह कई बार पढ़ते हैं कि अमुक समय में चीन से अमुक यात्री आया। अब वह यात्री चीन का था या तिब्बत का था, यह उसके जन्म-स्थान को देखकर हमें पता करना चाहिए। यदि वह यात्री उस समय के तिब्बत से आया था तो वह तिब्बती यात्री कहा जाना चाहिए ना कि चीनी यात्री। आर्यावर्तकालीन भारत में तो तिब्बत भी भारत का ही एक भाग था। कालान्तर में जब तिब्बत एक अलग देश बना तो उस समय यहाँ चीन का अस्तित्व नहीं था। हमारा मानना है कि इस तथ्य के दृष्टिगत तिब्बत को ही हमें अपना पुराना पड़ोसी मानना चाहिए। वामपंथी इतिहासकारों के कुचक्र के कारण हम तिब्बत को भूल कर चीन के गीत गाते जा रहे हैं। हमें अपनी विदेश नीति में भी इस प्रकार का परिवर्तन करना चाहिए कि जहाँ प्राचीन कालीन तिब्बत देश हमसे मिलता है उस सारी भारतीय सीमा को हम भारत-तिब्बत सीमा के नाम से पुकारें।
भारत के शासक और चीन
तिब्बत के बारे में हमें यह भी समझना चाहिए कि तिब्बत ही सृष्टि का वह आदि देश है जहाँ पर मनुष्य की उत्पत्ति हुई। यहीं से आर्य लोग भारत में आए और संसार के अन्य क्षेत्रों की ओर प्रस्थान कर गए। अब समझने की बात यह है कि जब आर्य अपने आदि देश तिब्बत से निकलकर भारत की ओर बढ़े थे तो उस समय भारत और तिब्बत के अत्यन्त पवित्र सम्बन्ध रहे होंगे। इसके पश्चात जब तिब्बत अलग देश बना होगा तो उस समय भी तिब्बत और भारत के पूर्णतया पारिवारिक सम्बन्ध ही रहे होंगे, ऐसा माना जा सकता है। इन सम्बन्धों में कड़वाहट या उत्तेजना उस समय आनी आरम्भ हुई जब विदेशी आक्रमणकारियों का भारत पर कहीं ना कहीं आधिपत्य होने लगा और भारत की स्वाधीनता के पश्चात तिब्बत को चीन ने हड़पने में सफलता प्राप्त की। इस घटना के पश्चात से चीन हमारा सबसे बड़ा पड़ोसी देश बन गया। इसके अतिरिक्त हमें यह भी समझना चाहिए कि भारत की विदेश नीति आर्य राजाओं की सोच और विवेकशक्ति के आधार पर ही नहीं चलती रही है। इसे तुर्कों, मुगलों और अंग्रेजों के शासनकाल में उनकी अपनी आवश्यकताओं, अपने स्वार्थों और अपने पूर्वाग्रहों ने भी समय-समय पर प्रभावित किया है।
भारत के आर्य हिन्दू राजाओं की चीन के प्रति नीति और दृष्टिकोण कुछ और रहता था जबकि ‘मुगल भारत’ या ‘ब्रिटिश भारत’ के शासकों का दृष्टिकोण चीन के प्रति केवल और केवल राज्य विस्तार का रहता था। जब चीन में भी कोई विदेशी शासक शासन में होता था तो उसका दृष्टिकोण भी भारत के प्रति वैसा ही होता था।
संसार के इतिहास में साम्राज्यवादी और विस्तारवादी शासकों को भी लोकतान्त्रिक मान लेना या उनके शासन के अधीन भी जनसामान्य का सहज रहना मान लेना इतिहास का सबसे बड़ा धोखा है। इन आक्रमणकारियों या विदेशी शासकों के अधीन कहीं पर भी जनता सहज नहीं रही। इन शासकों ने लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन किया, इसलिए जनता में बेचैनी रही और संसार के सभी देशों में इन विदेशी आक्रमणकारियों को लेकर लोग आन्दोलन करते रहे। यह नहीं कहा जा सकता कि भारत की विदेश नीति किसी एक ही परम्परा या रीति की रही है। इसमें शासकों की सोच के अनुसार उतार-चढ़ाव और परिवर्तन होते रहे हैं।
बात स्पष्ट है कि भारत के आर्य राजाओं का जो मित्र भाव तिब्बत, चीन या किसी भी प्राचीन पड़ोसी देश के साथ रहा था, वह किसी तुर्क शासक या मुगल और अंग्रेजों के शासन से निश्चित रूप से उच्चतर दर्जे का था। इन विदेशी शासकों का भारत के पड़ोसी देशों से किसी भी प्रकार का मोह या प्रेमभाव नहीं था। उन्होंने दोहन और शोषण के लिए भारत के पड़ोसी देशों से सम्पर्क स्थापित करने का प्रयास किया। उनके इसी प्रकार के मनोभाव, नीति और रणनीति ने भारत की तत्कालीन विदेश नीति को प्रभावित किया।
मुगल और ब्रिटिश भारत की विदेश नीति
हमारा मानना है कि संसार में दो पड़ोसी राष्ट्रों के बीच सदा शत्रु भाव बने रहने का या शंका भाव बने रहने का काल भी उस समय से आरम्भ हुआ, जब आर्य राजाओं की परम्परा शिथिल पड़ती चली गई और राज्य विस्तार को ही अपनी वीरता, शौर्य और पराक्रम का प्रतीक बनाकर एक राजा दूसरे राजाओं के राज्य को हड़पने की नीति पर काम करने लगे। अंग्रेजों और मुसलमानों ने तो सम्पूर्ण संसार पर अपना तानाशाही एकाधिकार स्थापित करने की दृष्टि से राज्य विस्तार को ही अपना लक्ष्य बनाया। वास्तव में यह राज्य-विस्तार की भावना नहीं थी। यह तो लूट मचाने का काल था। जितने बड़े क्षेत्र को जो कब्जा लेगा, उतने ही बड़े क्षेत्र का वह राजा, बादशाह या सम्राट हो जाएगा। इसी भाव से प्रेरित होकर देशों ने अपनी-अपनी विदेश नीतियों को मान्यता प्रदान की। वास्तव में यह वह काल था जब विदेश नीति नाम की कोई चीज संसार में काम नहीं कर रही थी। सब की विदेश नीति का एक ही उद्देश्य था कि दूसरे राज्य को हड़पो और समाप्त कर दो। यह काल मर्यादाहीनता, अराजकता और मानवाधिकारों के हनन का काल था।
इस काल में जितने लोग भी शासक बने वे प्राचीन भारत की आर्य परम्परा के अनुसार शासक के एक गुण से भी विभूषित नहीं थे। वास्तव में यह सारे शासक अर्थात बादशाह, सुल्तान या सम्राट स्वयंभू शासक थे। जो लूट, हत्या,डकैती और बलात्कार जैसे अमानवीय पापों को करने के पश्चात शासक बने थे।
स्वाधीन भारत की विदेश नीति
स्वतंत्र भारत में जो सरकारें बनीं उन्होंने अंग्रेजों, मुगलों और तुर्कों के शासनकाल में भारत की विदेश नीति के सूत्रों को ही पकड़कर अपनी विदेश नीति निर्धारित करने का अवैज्ञानिक, अतार्किक और देश की मौलिक आवश्यकताओं के विपरीत आचरण करने का प्रयास किया। कहने का अभिप्राय है कि जिन बादशाहों या सुल्तानों के शासनकाल में भारत के पड़ोसी देश भारत की विदेश नीति से आशंकित व सशंकित रहते थे उन्हीं की नीतियों को अपनाकर भारत की तत्कालीन सरकारों ने ठीक नहीं किया। भारत ने जिस छद्म धर्मनिरपेक्षता के मार्ग को अपनाया, उसके आधार पर उसकी विदेश नीति में हिन्दू राष्ट्र नेपाल, बौद्ध धर्म वाला बर्मा और श्रीलंका को वह प्राथमिकता नहीं मिली, जिस प्राथमिकता की अपेक्षा ये पड़ोसी देश भारत से करते थे। क्योंकि बौद्ध धर्म आर्य वैदिक धर्म से ही निकलकर एक अलग सम्प्रदाय के रूप में विकसित हुआ था और भारत को ये देश अपना धर्म का देश या ‘गुरु-देश’ मानते थे, इसलिए स्वाधीन भारत की सरकारों को इन्हें अपने प्रति उसी भ्रातृत्व भावना से बांधना चाहिए था। जिसे भारत सरकार ने अपनी धर्मनिरपेक्षता की नीतियों की बलि चढ़ा दिया और उनसे वही परम्परागत नीति अपनाने का निर्णय लिया जो अंग्रेजों के काल में अपनाई जाती रही थी।
1947 में स्वाधीनता मिलने के पश्चात आगे बढ़ते हुए भारत को भारत के इन पड़ोसी देशों ने उसे एक ऐसे उदीयमान राष्ट्र के रूप में देखा था जो उनका संरक्षक बनेगा और विश्व में बढ़ते हुए साम्राज्यवाद या विस्तारवाद से उनकी रक्षा करने में सहयोग करेगा। भारत को चाहिए था कि वह इन देशों की इस प्रकार की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए अपनी सामरिक तैयारियों पर ध्यान देता। यह तब और भी आवश्यक हो जाता था जबकि भारत स्वयं साम्राज्यवादी उपनिवेशवादी शक्तियों का शिकार हुआ था। स्वाधीन होते ही भारत को यह घोषणा करनी चाहिए थी कि वह साम्राज्यवाद और विस्तारवाद की किसी भी चेष्टा का विरोध करेगा और यदि कोई देश किसी छोटे देश को हड़पने का प्रयास करेगा तो वह ऐसे किसी भी प्रयास को अलोकतांत्रिक, मर्यादाहीन और विश्व शान्ति के लिए ‘खतरा’ के रूप में देखेगा, पर भारत ने ऐसा नहीं किया।
स्वाधीन भारत की विदेश नीति की यह बहुत बड़ी चूक थी। गुटनिरपेक्षता के नाम पर भारत ने अपने इन पड़ोसी देशों को साम्राज्यवाद और विस्तारवाद की उसी भूख की भेंट चढ़ा दिया, जिसके कारण विश्व ने अभी कुछ समय पहले ही दो विश्व युद्ध देखे थे। इस प्रकार की गुटनिरपेक्षता की नीति को अपनाकर भारत ने चीन को आगे बढ़ने का स्वर्णिम अवसर प्रदान कर दिया। स्वाधीन भारत की विदेश नीति की इस पहली चूक का परिणाम आज हम साम्राज्यवादी और विस्तारवादी चीन के रूप में हम देख रहे हैं, जो तीसरे विश्व युद्ध के लिए बड़ी भूमिका का निर्वाह कर रहा है।
देशों की विदेश नीति का मूलतत्व
शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व व विश्वशान्ति का विचार भारत के राजनीतिक दर्शन का वह प्राचीनतम सिद्धांत है जिसके भीतर ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का पवित्र भाव झलकता है। किसी भी राष्ट्र की विदेश नीति के लिए आज के राजनीतिक मनीषी या राजनीतिशास्त्री चाहे जिस प्रकार के तत्वों की उपस्थिति का उद्घोष करते हों, परन्तु हमारा मानना है कि किसी भी देश की विदेश नीति का मूल आधार यदि भारत के इसी चिन्तन को प्रोत्साहित करने वाला हो या इसी को अपना आदर्श मान कर चलने वाला हो तो विश्व कलह, कटुता और क्लेश के परिवेश से मुक्त होकर शान्ति के आनन्द को प्राप्त कर सकता है।
भारत की सनातन संस्कृति के सनातन मूल्यों को अपनाकर जब मानवता आगे बढ़ना आरम्भ करेगी तो उसकी नीति और रणनीति में केवल और केवल मानवतावाद झलकेगी। हमारा मानना है कि जब तक किसी भी देश की विदेश नीति में मानवतावाद को सर्वोच्चता प्रदान नहीं की जाएगी, तब तक वह विश्व शान्ति की स्थापना में सहायक नहीं हो सकता। इसके लिए आवश्यक है कि संयुक्त राष्ट्र ऐसे कानूनों को मान्यता प्रदान करे जो प्रत्येक देश की विदेश नीति में ‘वसुधैव कुटुंबकम’ और ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ के भारत के मौलिक चिन्तन को स्थान देने वाले हों या उन्हें प्रोत्साहित करने वाले हों। विश्व संस्था संयुक्त राष्ट्र में भारत के इस चिन्तन पर भारत के वैदिक ऋषियों के चिन्तन को लेकर वैदिक विद्वानों के संभाषण आयोजित कराए जाने चाहिए। वहाँ पर राजनीतिक लोगों के भाषण कराना उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितना विश्व शान्ति के लिए समर्पित वैदिक दृष्टिकोण के विद्वानों का भाषण कराया जाना आवश्यक है।
यह हम इसलिए भी कह रहे हैं कि संयुक्त राष्ट्र में जाने वाले ‘इमरान खान’ और ‘शी जिनपिंग’ जैसे लोग कभी भी आत्मिक रूप से उतने पवित्र नहीं होते जितना कोई वैदिक विद्वान हो सकता है। राजनीतिक विद्वेष भाव से भरे किसी राजनीतिज्ञ के माध्यम से विश्व शान्ति को खतरा तो हो सकता है, उससे यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह विश्व शान्ति की स्थापना में सहायक सिद्ध होगा। जिसके अन्तर में आग लगी हो, वह शब्दों का जादूगर बनकर एक अच्छा भाषण दे सकता है, परन्तु आग लगाने से बाज नहीं आएगा। शान्ति वही व्यक्ति स्थापित कर सकता है जिसके अंतर्मन में शान्ति का विशाल सागर लहराता हो। ऐसा तभी सम्भव है जब व्यक्ति ‘वसुधैव कुटुंबकम’ और ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ की पवित्र भावना के प्रति समर्पित हो।
यद्यपि आज के परिवेश में राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखकर चलना विदेश नीति का एक आवश्यक अंग हो गया है, लेकिन इसके लिए भारत का प्राचीन राजनीतिक दर्शन भी कहीं मनाही नहीं करता कि आप विदेश नीति के सन्दर्भ में अपने देश की प्राथमिकताओं और उसके हितों का ध्यान नहीं रखेंगे। भारत ने साम-दाम-दण्ड-भेद को भी विदेश नीति का एक आधार बनाया है और इसके आधार पर राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखकर विश्व शान्ति के लिए कार्य करते रहना भारत की विदेश नीति का अनिवार्य अंग रहा है।
नेहरू जी का अन्तरराष्ट्रवाद
स्वाधीन भारत में जब नेहरू जी ने पहले प्रधानमंत्री के रूप में सत्ता संभाली तो उन्होंने विदेश नीति के सन्दर्भ में मानवतावाद को सर्वोच्चता प्रदान की। हम प्रारंभ से ही नेहरू जी की इस प्रकार की नीति के आलोचक रहे हैं, क्योंकि उन्होंने राष्ट्रहित को उपेक्षित करके मानवतावाद और अन्तरराष्ट्रवाद को सर्वोच्चता प्रदान की। जिसे किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता। उसी का परिणाम यह निकला कि वह राष्ट्रहित की बलि चढ़ाते हुए देश को पीछे हटाते चले गए और चीन आगे बढ़ते-बढ़ते महत्ता प्राप्त करता चला गया। जब नेहरूजी के सामने यूएन की सदस्यता प्राप्त करने का प्रश्न आया तो उन्होंने वहाँ भी चीन को संयुक्त राष्ट्र का स्थायी सदस्य बन जाने दिया।
कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने अपनी एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में 9 जनवरी, 2004 की ‘द हिन्दू’ की एक रिपोर्ट की कॉपी दिखाते हुए अभी कुछ समय पहले कहा था कि भारत के पहले प्रधानमंत्री नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र में सुरक्षा परिषद की सीट लेने से इनकार कर दिया था और इसे चीन को दिलवा दिया था।
‘द हिन्दू’ की रिपोर्ट में कांग्रेस नेता और संयुक्त राष्ट्र में अवर महासचिव रहे शशि थरूर की किताब ‘नेहरू- द इन्वेंशन ऑफ इंडिया’ का हवाला दिया गया है।
इस पुस्तक में शशि थरूर ने लिखा है कि 1953 के लगभग भारत को संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य बनने का प्रस्ताव मिला था, लेकिन इस प्रस्ताव को उस समय के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने चीन को दे दिया। थरूर ने लिखा है कि भारतीय राजनयिकों ने वह पत्रावली देखी थी जिस पर नेहरू के इनकार करने का उल्लेख था। थरूर के अनुसार नेहरू ने यूएन की सीट ताइवान के बाद चीन को देने की वकालत की थी।
हमारा मानना है कि भारत यदि उस समय अपनी विदेश नीति में ऐसा प्रमाद न बरतकर संयुक्त राष्ट्र की सीट को अपने लिए सुरक्षित रखता या उस प्रस्ताव को अपने पक्ष में मान लेता तो आज चीन की स्थिति इतनी मजबूत नहीं होती। तब भारत की स्थिति और सम्मान संसार में कुछ और ही होता। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि विदेश नीति सदा स्वराष्ट्र के सम्मान और भविष्य को दृष्टिगत रखकर ही बनाई और अपनाई जाती है। मानवतावाद को तभी प्रोत्साहित किया जा सकता है जब आप स्वयं सुरक्षित हों। यदि आप मानवता के नाम पर किसी ऐसे संदिग्ध व्यक्ति या राष्ट्र को आगे बढ़ने का अवसर दे देते हैं, जिससे भविष्य में मानवता को खतरा उत्पन्न हो सकता है तो यह आपकी विदेश नीति की एक चूक ही मानी जाएगी। तब आप मानवतावाद के पोषक और पुजारी होकर भी मानवता के लिए ही एक खतरा सिद्ध हो जाएंगे। स्पष्ट है कि मानवता की रक्षा के लिए भी अपने आप को मजबूत करना पड़ेगा अर्थात स्वराष्ट्र को मजबूत करना बहुत आवश्यक है।
इसके उपरान्त भी नेहरूजी कई क्षेत्रों में एक सुयोग्य प्रधानमंत्री सिद्ध हुए। उन्होंने सारे संसार से रंगभेद और नस्लवाद को मिटाने के लिए अपनी आवाज बुलन्द की। वास्तव में नेहरू जी का इस प्रकार का उद्बोधन या सम्बोधन भारत की सनातन संस्कृति की उसी विचारधारा का एक अंग था जो प्राचीन काल से मानव मानव के बीच किसी प्रकार का अन्तर करने को एक अपराध मानती आई थी। नेहरू जी ने प्रत्येक प्रकार के साम्राज्यवाद और विस्तारवाद का विरोध किया। यह भी उनका