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Yogi ka Ramrajya (योगी का रामराज्य)
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Yogi ka Ramrajya (योगी का रामराज्य)
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Yogi ka Ramrajya (योगी का रामराज्य)

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About this ebook

यह योगी के जीवन पर आधारित एक ऐसा उपन्यास है जिसमें योगी आदित्यनाथ के व्यक्तित्व और कृतित्व के प्रति आम जन-मानस की धारणा के अनरूप चित्रित किया गया है। उपन्यास में वर्णित सभी प्रमुख घटनाएँ जो कथानक और पात्रों के चरित्र को प्रभावित करती हैं, वे सत्य हैं। हालाँकि कहीं-कहीं किसी विशेष भाव को उकेरने, किसी पात्र के चरित्र को दर्शाने या किसी कथ्य को प्रेषित करने हेतु कुछ छोटे-मोटे काल्पनिक दृश्यों का भी सहारा लिया गया है। किंतु वे दृश्य वास्तविक न होते हुए भी जो भाव या विचार उत्पन्न करते हैं वे पात्रों के चरित्र के सम्बंध में सत्य हैं।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateJun 3, 2022
ISBN9789355991263
Yogi ka Ramrajya (योगी का रामराज्य)

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    Yogi ka Ramrajya (योगी का रामराज्य) - Pratap Narayan Singh

    ऋषिकेश

    (1)

    शराब पीना विष पीने से भी अधिक भयंकर होता है। क्योंकि विष पीने से तो मात्र शारीरिक मृत्यु होती है, किन्तु शराब पीने से मनुष्य की पहले चारित्रिक मृत्यु होती है, फिर आर्थिक मृत्यु और अंततः अनेक रोगों से ग्रसित होकर शरीर भी नष्ट हो जाता है। ऐसा प्रायः देखा गया है कि कई मध्यम और निम्न-मध्यम वर्गीय परिवार के लोग शराब की लत के कारण सड़कों पर आ गए। उन्होंने इस नशे की अग्नि में अपना सब कुछ स्वाहा कर दिया। सर्वविदित है कि नशे की हालत में व्यक्ति कभी भी सही कार्य कर ही नहीं सकता...

    अजय की ओजपूर्णवाणी लाउड स्पीकर से स्कूल के प्रांगण में गूंज रही थी। शिक्षक, विद्यार्थी और अतिथिगण सभी मंत्र-मुग्ध होकर सुन रहे थे। भाषण के बीच-बीच में तालियों की गड़गड़ाहट होने लगती।

    स्कूल में आज वाद-विवाद की प्रतियोगिता थी। विषय रखा गया था- मद्य-निषेध। भरत मंदिर इंटर कॉलेज, ऋषिकेश के ग्यारहवीं कक्षा का छात्र अजय बिष्ट भाषण की कला में अत्यंत प्रवीण था। वाद-विवाद की प्रतियोगिता आरंभ होने से पहले ही सबको यह पता रहता था कि प्रथम स्थान तो अजय को ही प्राप्त होगा।

    सभी प्रतिभागियों के बोल लेने के बाद जब पुरस्कारों की घोषणा हुई तो हिंदी के अध्यापक श्री बंशीधर पोखरियाल ने अजय की पीठ थपथपाई। वह उनका प्रिय छात्र था। हालाँकि, अजय को उसके सभी अध्यापक बहुत पसंद करते थे। गणित के अध्यापक श्री देवेंद्र कुमार वार्ष्णेय सदैव उसकी प्रशंसा करते रहते। वह पढ़ने में तो अच्छा था ही, साथ ही बहुत विनम्र और जिज्ञासु भी था। कक्षा में अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए प्रायः शिक्षकों से प्रश्न पूछता रहता। जब छात्र प्रश्न पूछता है तो एक शिक्षक को छात्र की सजगता का आभास होता है और स्वाभाविक रूप से उस छात्र के प्रति शिक्षक के मन में एक जुड़ाव उत्पन्न होने लगता है।

    समारोह के बाद छुट्टी हो गई और अजय स्कूल से अपने कमरे पर आया। अगले दो-तीन दिन छुट्टी थी। वह अपने गाँव पंचूर जाना चाहता था, जो कि ऋषिकेश से लगभग सौ किलोमीटर दूर उत्तरकाशी जिले के यमकेश्वर खंड में पड़ता है। पंचूर पंद्रह-बीस घरों का एक छोटा सा गाँव था जो कि थांगड ग्राम-पंचायत का हिस्सा था।

    अजय तुरंत गाँव के लिए निकलना चाहता था, किन्तु उसके बड़े भाई मनेंद्र बिष्ट अभी कमरे पर नहीं आए थे। बिना बताए ही निकलना ठीक नहीं था। मनेंद्र ऋषिकेश महाविद्यालय से स्नातक की शिक्षा प्राप्त कर रहे थे।

    अजय व्यग्रता से भाई के आने की प्रतीक्षा करने लगा। ऋषिकेश से अंतिम बस पाँच बजे निकलती थी। चार बज चुके थे। जैसे-जैसे देर हो रही थी, अजय की चिंता बढ़ती जा रही थी। वह कमरे से निकलकर दरवाजे के बाहर टहलने लगा। दस मिनट बाद ही उसे भाई मनेंद्र आते हुए दिखाई दिए। उन्हें देखकर उसे प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त करने से अधिक प्रसन्नता हुई। वह कमरे के अंदर आ गया।

    तो कैसा रहा आज का तुम्हारा कार्यक्रम? कमरे में घुसते ही मनेंद्र ने प्रश्न किया। अजय ने मुस्कराकर तख्त पर रखे पुरस्कार की ओर संकेत कर दिया।

    वह एक छोटा सा कमरा था, जिसमें लगभग तीन फुट चौड़ा लकड़ी का एक तख्त रखा हुआ था। उस पर मनेंद्र सोते थे। जब दसवीं कक्षा के बाद अजय यहाँ आया तो मनेंद्र ने कहा कि उसके सोने के लिए एक और तख्त खरीद लेते हैं, किन्तु अजय ने मना कर दिया। क्योंकि दो तख्त पड़ने के बाद कमरे में जगह बहुत कम रह जाती। दूसरा बड़ा कमरा लेने से व्यय बढ़ता। अतः अजय ने कहा- मैं अपनी शय्या भूमि पर ही लगाऊँगा। मुझे भूमि पर सोना अच्छा लगता है। इस तरह वह नित्य सायंकाल में भूमि पर बिस्तर बिछाता और सुबह उसे लपेट कर रख देता। पढ़ने के लिए दोनों भाइयों के पास लकड़ी की छोटी-छोटी चौकियाँ थीं।

    कमरे से सटा हुआ एक छोटा सा स्थान था जिसे रसोईघर बनाया गया था। वह खिड़की के पास था।

    आज भी प्रथम! पुरस्कार हाथ में लेते हुए मनेंद्र के मुख पर गर्वित मुस्कान उभर आई।

    भैया मैं सोच रहा हूँ कि आज गाँव चला जाऊँ। अगले तीन दिनों तक स्कूल बंद रहेगा। अजय ने पुरस्कार की बात पर ध्यान न देते हुए कहा।

    अभी तो दशहरा भी आने वाला है, तभी चलेंगे। इतनी जल्दी-जल्दी जाने का क्या लाभ है? मनेंद्र ने आगे कहा, छुट्टी में तुम यहीं रहकर पढ़ाई करो। इंटर में हाई स्कूल से बहुत अधिक पढ़ना होगा। गणित बहुत कठिन भी हो जाती है।"

    दशहरे में तो अभी एक महीने से अधिक का समय है। मैं अपनी पुस्तकें साथ लेता जाऊँगा।

    मुझे पता है कि तुम्हें अपनी गायों और नए बछड़े को देखने की अधिक लालसा है। मनेंद्र ने मुस्कराते हुए कहा, साथ ही यमकेश्वर शिव-मंदिर की भी याद आ रही होगी।

    मनेंद्र जानते थे कि अजय ने एक बार जाने का तय कर लिया है तो रोकने से कोई लाभ नहीं होगा। क्योंकि रुकेगा तो हर समय अनमना सा ही रहेगा। चेहरा बुझा-बुझा रहेगा। अतः बोले, फिर जल्दी निकलो, नहीं तो बस छूट जाएगी।

    अजय ने झोले में अपने वस्त्र पहले से ही रख लिए थे। वह भाई के पैर छूकर निकल पड़ा।

    किराए के लिए पैसे हैं न? मनेंद्र ने अजय से पूछा।

    हाँ, हैं।

    (2)

    ऋषिकेश से बस चल पड़ी। अजय के मन में उसका गाँव सजीव होकर डोलने लगा। माँ का स्नेह, बहनों का दुलार, पास-पड़ोस के लोगों का अपनत्व, पहाड़ियों के मूक संवाद सब मन में चटख हो उठे। इन सबके साथ ही उसे अपनी गायों की पुकार भी सुनाई देने लगी, जिनकी वह नित्य सेवा किया करता था। उनसे बहुत प्रेम था। पिछले सप्ताह ही गाँव से कोई आया था तो बताया कि उसकी काली गाय ने एक बछड़े को जन्म दिया है। उसके जीवन में ऐसा पहली बार नहीं हो रहा था कि उसकी गाय ने जन्म दिया हो, किन्त हर बार उसे नयी अनुभूति होती थी।

    जब वह अपनी गायों को चराता तो वृन्दावन में ग्वालों और गायों के साथ विचरते श्रीकृष्ण का काल्पनिक चित्र उसके मन में उभर आता। गायों को चराने और उनकी सेवा करने में उसे अद्भत आनंद की अनुभूति होती। जब गायें चर रही होती तो वह यमकेश्वर शिव मंदिर के चबूतरे पर बैठ जाता। वहाँ प्रायः पढ़े-लिखे वरिष्ठ जनों, भक्तों और साधु-संतों का जमावड़ा लगा रहता। ज्ञान-ध्यान की बातें होतीं। वह उन्हें बहुत ही चाव से सुनता। एक तरह से वह स्थान उस क्षेत्र के आध्यात्म और सामाजिक गतिविधियों का केंद्र था। देश में चल रही प्रत्येक घटना की वहाँ चर्चा होती थी।

    उसे ऋषिकेश आए हुए तीन-चार महीने ही हुए थे। आठवीं तक की शिक्षा तो थांगड़ के सरकारी स्कूल में संपन्न हुयी। उसके बाद नौवीं चमकोट से और दसवीं की पढ़ाई टिहरी के गाजा से पूरी की थी। दोनों ही जगहों पर वह घर से आया-जाया करता था। किन्तु, ऋषिकेश की दूरी अधिक थी, अतः इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए उसे यहाँ रहना पड़ रहा था।

    अजय जब पंचूर पहुँचा तो रात घिर आई थी। हालाँकि बहुत अधिक समय नहीं हुआ था। किन्तु अब धीरे-धीरे दिन छोटा होने लगा था। अतः सात बजे तक अँधेरा छा जाता था।

    अजय आ गया! उसे देखते ही बड़ी बहन शशि के मुख पर प्रसन्नता उभर आई और वह दौड़ कर उसके पास आ गई। फिर उसे पास से देखकर बोली अरे! कितना दुबला हो गया है!

    तब तक माँ भी पास आ गई थीं। उसने माँ और बहन के पैर छुए। फिर पास में बिछी चारपाई पर बैठ गया। दोनों छोटे भाई शैलेन्द्र और महेंद्र उसे घेर कर खड़े हो गए। शशि के अतिरिक्त उसकी दो और बड़ी बहनें पुष्पा व कौशल्या भी थीं, जिनका विवाह हो चुका था। अब शशि का भी विवाह होने वाला था। वे अजय से तीन वर्ष बड़ी थीं।

    खाना-पीना ठीक से नहीं हो पाता क्या? माँ के स्वर में उदासी थी।

    अजय माँ के बहुत निकट था। पिता आनंद बिष्ट वन-विभाग में कार्यरत थे। इसलिए प्रायः उनका स्थानांतरण होता रहता था। आरंभ में तो परिवार उनके साथ ही रहता था, किन्तु जब बच्चे बड़े होने लगे और स्कूल जाने की आवश्यकता पड़ने लगी तो एक स्थान पर रहना आवश्यक हो गया। अतः बच्चे माँ के साथ पंचूर में ही रहने लगे। पास में ही थांगड़ में आठवीं कक्षा तक का सरकारी स्कूल भी था।

    पिताजी प्रायः शनिवार को घर आ जाते और सोमवार को नौकरी पर चले जाते। शेष छः दिन वहीं बिताते थे। वे एक बहुत ही कर्तव्यनिष्ठ और निष्ठावान कर्मचारी के रूप में जाने जाते थे। अपने कार्य को लेकर सदैव बहुत ही सजग रहते। यह संस्कार उनके बच्चों में भी स्पष्ट दिखाई देता था।

    साथ ही आम भारतीय परिवारों की तरह ही घर में अनुशासन बनाए रखने का दायित्व भी उनका ही था। अत: बच्चों से उनकी बातचीत काम के सन्दर्भ में ही हो पाती। उनके पास समय भी कम ही रहता। जिससे बच्चों की निकटता माँ से अधिक रहती।

    अब यहाँ और वहाँ में थोड़ा अंतर तो रहेगा न माँ। अजय ने माँ को समझाते हुए कहा, इतना भी दुबला नहीं हो गया हूँ। खाना तो दोनों समय बना ही लेते हैं हम लोग। इस आयु में लम्बाई बढ़ने के कारण भी सब लोग दुबले हो जाते हैं। मेरे साथ के सभी लड़के मेरी तरह ही हैं। कोई मोटा दिखता है आपको?

    माँ का मन तो सबसे अलग होता है। वह तर्कों को न तो जानता है और न ही मानता है। बस भावनाओं की डोर से संतान के कहे और अनकहे सभी की थाह लगा लेता है। माँ अजय की परिवर्तित हुई स्थिति से अवगत थीं। यह उनके साथ दूसरी बार हो रहा था। पहले ज्येष्ठ पुत्र दूर चला गया था और अब दूसरा भी। वे यह भी जानती थीं कि स्वयं ऋषिकेष नहीं जा सकती हैं। मन बस मसोस कर ही रह जाता था।

    बोली, पढ़ाई तो करनी ही है, लेकिन शरीर पर भी तो ध्यान देना होगा। स्वस्थ शरीर रहेगा तभी तो अच्छे से पढ़ाई-लिखाई भी हो सकेगी।

    शरीर अस्वस्थ नहीं है माँ! मैं बिलकुल स्वस्थ हूँ और रोज योगाभ्यास भी करता हूँ।

    घर के अन्य सदस्यों की तरह अजय को भी प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में उठने की आदत थी। उसके लिए प्रातःकाल में योगाभ्यास करना नित्यप्रति का एक अनिवार्य कार्य था।

    फिर वह छोटे भाई से बोला, शैलेन्द्र चलो, बछड़े को देखकर आते हैं।

    पहले पानी तो पी लो...। माँ ने कहा। शशि पानी लाने चली गई थीं। अजय रुक गया। तब तक शशि पानी लेकर आ गई। वह खड़ा हो गया और खड़े-खड़े ही पानी पीकर बोला, चलो चलते हैं।

    मैं भी चलूँगा... सबसे छोटे भाई महेंद्र ने कहा।

    ठीक है, तुम भी चलो।

    अजय दोनों भाइयों के साथ गौशाले में आ गया। चारों गायें उसे देखते ही बार-बार मुँह ऊपर करके उसे पहचानने का संकेत करने लगीं। अजय बारी-बारी से सबके सिर पर हाथ फिराता हुआ काली गाय और उसके बछड़े के पास पहुँचा। बछड़ा एकदम सफेद था।

    यह चार सेर दूध दे रही है। शैलेन्द्र ने गर्व से कहा।

    दोनों समय? अजय ने पूछा।

    हाँ...

    सच में! यह तो बहुत ही अच्छी बात है।

    अजय कुछ देर तक बछड़े और गायों को पुचकारता रहा। थोड़ी देर बाद घर से शशि की आवाज आई, चलो तुम लोग, खाना खा लो।

    थोड़ी देर में तीनों वापस आ गए।

    (3)

    दूसरे दिन सायंकाल में अजय यमकेश्वर के शिव मंदिर चला गया। पुजारी के अतिरिक्त वहाँ चार-पाँच लोग और उपस्थित थे। जिसमें गाँव के प्रबुद्ध माने जाने वाले भूपेंद्र पंत भी सम्मिलित थे। देश की वर्तमान राजनीति की बात चल रही थी। अजय को देखकर पंत जी ने स्वागत किया, आओ...आओ अजय बेटा। कब आए ऋषिकेश से?

    कल रात ही आया काका।

    अजय भैया तो परदेशी हो गए। मंदिर के पुजारी ने परिहास किया।

    अभिवादन और स्वागत के बाद पुनः पिछली बात आरंभ हो गई।

    हाँ तो मैं कह रहा था कि इस समय देश एक बड़े परिवर्तन की ओर अग्रसर हो रहा है। काँग्रेस के इतने बड़े नेता का इस तरह से रक्षामंत्री के पद से त्यागपत्र दे देना कोई सामान्य बात नहीं है। पंत जी ने कहा।

    वह भी प्रधानमंत्री पर आरोप लगाते हुए। जैत सिंह रावत बोले, एक बात तो है कि वीपी सिंह हैं तो बहुत ईमानदार आदमी।

    ‘हाँ, अभी तो यही लगता है। यह व्यक्ति कुछ न कुछ करेगा अवश्य।"

    यह भी तो हो सकता है कि उनकी राजीव गाँधी से बन नहीं रही हो, इसीलिए आरोप लगाकर निकल लिए। एक अन्य व्यक्ति ने अपना मत रखा।

    रक्षा सौदे में कुछ न कुछ गड़बड़ी तो हुई... जैत सिंह रावत ने असहमति जताते हुए कहा, नहीं तो ऐसे ही वीपी सिंह इतना बड़ा आरोप लगाकर पार्टी नहीं छोड़ देते। पार्टी के पुराने निष्ठावान नेता रहे हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से लेकर देश के वित्त मंत्री रह चुके हैं।

    उन्होंने सबको मिलाकर जनता दल का गठन तो कर लिया है, देखते हैं आगे क्या होता है। पंत जी बोले।

    अजय कुछ देर तक लोगों की बातें सुनता रहा और फिर बोला, काका! क्या हम लोग मात्र बातें ही करते रहेंगे या हममें से भी कोई कुछ करेगा?

    कहना क्या चाहते हो? क्या हम लोग कुछ नहीं करते हैं?

    मैं अपने निजी कार्यों की बात नहीं कर रहा। मेरे कहने का मतलब है कि थांगड़, यमकेश्वर और उत्तरकाशी के लोग क्या चारणों की तरह मात्र दूसरों की कथाएँ ही कहते और सुनते रहेंगे या यहाँ के लोगों के द्वारा भी देश के परिवर्तन में कोई योगदान दिया जाएगा?

    ऐसी बात नहीं है अजय... पंत जी गंभीरता से बोले, पहाड़ों की भूमि बहुत उर्वर है। एक से बढ़कर एक सपूतों को इस धरती ने जन्म दिया है। बद्रीदत्त पाण्डे, हरगोविंद पंत, गोविन्द बल्लभ पंत, हर्ष देव, कालू मेहरा इत्यादि अनेक विभूतियाँ यहाँ उत्पन्न हुई हैं। जहाँ तक यमकेश्वर की बात है तो उन्नीस सौ इकतीस में शिल्पकार मुक्ति संग्राम में इस क्षेत्र की बड़ी भूमिका रही है। अस्पृश्यता के विरुद्ध एक बहुत बड़े सफल आंदोलन का केंद्र रहा यह क्षेत्र।

    वे आगे बोले, उसके अतिरिक्त अकेले इस क्षेत्र से छब्बीस बड़े स्वतंत्रता सेनानी हुए हैं, जिनके नाम सरकारी कागजों में उल्लिखित हैं। आज भी अपने पड़ोस का ग्राम कंडी राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र है। जिसका उत्तर प्रदेश की राजनीति पर एक बड़ा प्रभाव पड़ता है।

    आपकी बात सही है काका। ये सब यहाँ की विभूतियाँ रही हैं, किन्तु अभी तक आपने जितने भी नाम लिए वे सारे लोग देश के स्वतंत्र होने से पहले जन्में थे। आखिर ऐसा क्या हो गया कि स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद यहाँ की उर्वरता समाप्त हो गई?

    नहीं ऐसी बात नहीं है। वर्तमान में भी अनेक विद्वान और राजनेता हैं, जिनकी देश की राजनीतिक और सामाजिक गतिविधियों में बड़ी भूमिका रहती है। नारायण दत्त तिवारी को ही देख लो। प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। उनके पहले हेमवती नंदन बहुगुणा भी मुख्यमंत्री रहे थे। जिनकी महानता और प्रसिद्धि के विषय में बताने की आवश्यकता नहीं है। उनके अतिरिक्त महंत अवैद्यनाथ का जन्म भी यहीं कंडी में ही हुआ था, जो आज गोरखनाथ मठ के पीठाधीश हैं। उन्होंने भी ऋषिकेश के भरत संस्कृत विद्यालय से शिक्षा ग्रहण की थी। भरत संस्कृत विद्यालय भरत मंदिर ट्रस्ट द्वारा ही बनवाया गया था। उसी ट्रस्ट के स्कूल में तो तुम भी पढ़ रहे हो न?"

    हाँ काका, मैं भी भरत मंदिर इंटर कॉलेज में ही पढ़ रहा हूँ। फिर अजय ने मुस्कराते हए कहा, जिनके नाम आपने बाद में गिनाए वे लोग भी उन्नीस सौ सैंतालीस के पहले के ही जन्में हैं।

    हाँ तो अब नई पीढ़ी में तो तुम लोग ही हो न...आगे बढ़ो और अपने क्षेत्र का नाम रोशन करो। समाज और देश की प्रगति के लिए कार्य करो। लोगों का नेतृत्व करो। फिर थोड़ा रुककर पंत जी बोले, वैसे तुम्हारा यह प्रश्न सुनकर बड़ा अच्छा लगा कि आज की युवा पीढ़ी इस तरह से सोच रही है। यह सोच तुम्हें अवश्य ही आगे तक ले जाएगी।

    मैं तो चाहता हूँ काका कि हमारी सक्रियता मात्र बैठकर चर्चा करने तक ही सीमित न रहे, अपितु हम परिवर्तन में भागीदार बनें, जैसे कि जगमोहन सिंह नेगी, चंद्र उनियाल आदि लोगों ने सब कुछ छोड़कर अपना सम्पूर्ण जीवन देश के लिए लगा दिया था।

    तुम्हें ज्ञान भी बहुत है अजय। यह बहुत अच्छी बात है। सोलह-सत्रह वर्ष का एक किशोर यदि समाज और देश के विषय में इस तरह से सोचने लगे तो निश्चित रूप से यह सभी के लिए एक शुभ संकेत है।

    (4)

    छुट्टियों के बाद अजय ऋषिकेश वापस लौट आया। अब दिनचर्या बहुत व्यस्त रहने लगी थी, क्योंकि ग्यारहवीं में आते ही पठन सामग्री बहुत बढ़ गई थी। साथ ही विषयों की गूढ़ता में भी वृद्धि हो गई थी। स्कूल से आने के बाद कुछ आवश्यक सामानों की खरीददारी के बाद व्यायाम करने के लिए कुछ समय कठिनाई से निकल पाता। उसके बाद पढ़ने बैठना होता। फिर बीच में ही खाना बनाते समय भाई का हाथ भी बँटाना होता। हाँ, प्रातःकाल का योग और व्यायाम वह नियमित रूप से करता।

    भरत मंदिर इंटर कॉलेज एक बहुत ही अनुशासित विद्यालय था। भरत मंदिर ट्रस्ट सदैव सामजिक कार्यों में लगा रहता। उसके महंत परशुराम ने ही इस विद्यालय का निर्माण सन् उन्नीस सौ बयालीस में करवाया था। यह स्कूल इस क्षेत्र का सबसे बड़ा स्कूल है और दूर-दूर से बच्चे यहाँ पढ़ने आते हैं।

    उस दिन दोपहर में मध्यांतर की छुट्टी के समय प्रांगण में दिग्विजय, दिनेश और कपिल ने अजय को घेर लिया। अजय के साथ उसका मित्र राजभूषण था।

    हमारे सिगरेट पीने की बात वार्ष्णेय मास्टर साहब को तुमने बताई? दिग्विजय ने पूछा। देवेंद्र कुमार वार्ष्णेय उनके गणित के अध्यापक होने के साथ ही कक्षा-अध्यापक भी थे।

    हाँ, मैंने ही कहा था। अजय बोला।

    क्यों कहा?

    मैंने तुम लोगों को सिगरेट पीने के लिए मना किया था, लेकिन तुम लोग नहीं माने। इसलिए मुझे उनसे कहना पड़ा।

    देखो, तुम ज्यादा चौधरी मत बनो। हम सिगरेट अपने पैसे का पीते हैं...तुम्हें इससे क्या लेना-देना...हमारी जो मर्जी हम करें, तुम्हें चुगलखोरी करने की क्या आवश्यकता है? तब तक वहाँ कई लड़के इकट्ठे हो गए।

    तुम अपनी मर्जी अपने घर के अंदर चलाओ, यहाँ स्कूल में या इसके आस-पास नहीं। यहाँ का वातावरण दषित करने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है। यह विद्यालय है, नशेड़ियों का अड्डा नहीं। अजय ने दृढ़ता से कहा।

    तुम अपना ज्ञान अपनी भाषणबाजी अपने तक ही सीमित रखो। एक-दो प्रतियोगिता जीत लिए हो तो खुद को बहुत तीसमार खाँ समझ रहे हो! कपिल बोला।

    अगली बार अगर ऐसा किया तो देख लेना तुम्हारा हम क्या हाल करते हैं! दिग्विजय ने धमकी दी।

    अगर तुम नहीं माने तो आगे भी कहूँगा। अजय ने निर्भयता से कहा, सौ बार कहूँगा....हजार बार कहूँगा...सबको बताऊँगा। पीठ पीछे नहीं बल्कि तुम्हारे सामने भी कहूँगा। लाउडस्पीकर से भी घोषणा करूँगा। तुम्हें जो करना हो कर लेना।

    देखो तुम हद से आगे बढ़ रहे हो। हम अभी तुम्हारी धुलाई कर देंगे। दिनेश ने ऊँचे स्वर में कहा।

    हाथ लगाकर तो दिखाओ... अजय ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा, एक मिनट में धूल चाटने लगोगे।

    तब तक लड़कों के भीड़ में से किसी ने कहा, अरे, मास्टर साहब आ रहे हैं। सामने से खेल-अध्यापक और प्रशासनिक अधिकारी आते हुए दिखाई दिए।

    सभी लड़के वहाँ से इधर-उधर होने लगे। झगड़ा होने से पहले ही रुक गया। अजय भी अपने मित्र राजभूषण के साथ कक्षा की ओर चल पड़ा।

    अजय को नौवीं से लेकर बारहवीं तक के सभी छात्र पहचानते थे और उसके लिए सबके मन में एक सम्मान रहता था।

    छमाही परीक्षा में अजय को अच्छे अंक प्राप्त हुए। भाई मनेंद्र पहले से ही इतना तो समझते थे कि अजय को किसी के द्वारा राह दिखाने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि वह स्वयं दूसरों को राह दिखाने वाला है।

    कोटद्धार

    (1)

    बारहवीं की परीक्षा अजय ने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। परीक्षाफल आने पर घर के साथ पूरे गाँव में उल्लास छा गया। गाँव के लोग बधाई देने और मिठाई खाने घर पर आने लगे। पहाड़ों में बस्तियाँ छोटी-छोटी होती हैं। एक स्थान पर दस, पंद्रह या अधिकतम बीस घर बने होते हैं। इस जीवन के संघर्ष में वे ही एक-दूसरे के निकटस्थ और सुख-दुःख के साथी होते हैं। अतः प्रायः उन लोगों के बीच बहुत ही मधुर सम्बंध रहता है।

    आगे के लिए क्या सोचा है? पिता आनंद बिष्ट ने पूछा।

    कोटद्वार से बी. एससी. करना चाहता हूँ।

    ऋषिकेश महाविद्यालय में पढ़ने में क्या कठिनाई है? मनेंद्र का साथ भी रहेगा।

    गणित और विज्ञान के लिए इस समय कोटद्वार के पी.जी. कॉलेज से अच्छा कोई और कॉलेज नहीं है। ऋषिकेश का कॉलेज कला के विषयों के लिए ठीक है।

    हूँ... पिता ने कहा, फिर तो वहाँ अकेले रहना पड़ेगा।

    हाँ, लेकिन अकेले रहने में कोई कठिनाई नहीं होगी। सभी लड़के रहते हैं।

    ठीक है...फिर वहीं प्रवेश ले लो। उन्होंने अनुमति देते हुए कहा, अच्छे से पढ़ाई करना कि ठीक-ठाक नौकरी मिल जाए।

    अजय ने पी.जी. महाविद्यालय, कोटद्वार में प्रवेश ले लिया। उसने गणित, भौतिकी और रसायन विषय चुने। उसके साथ राजभूषण सिंह ने भी वहीं प्रवेश लिया। दोनों लोगों ने मिलकर कॉलेज से थोड़ी दूरी पर एक कमरा किराए पर ले लिया और रहने खाने की व्यवस्था कर ली।

    कोटद्वार ऋषिकेश से बड़ा शहर था। वहाँ के रहन-सहन में भी नयापन और खुलापन था। लड़कों के साथ ही नए फैशन के कपड़े पहने, साइकिल चलाती हुई लड़कियाँ भी स्कूलों, बाजारों, पार्को, मैदानों इत्यादि प्रायः सभी जगहों पर देखी जा सकती थीं। वहाँ जीवन इतना व्यस्त था

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