Management Guru Kabir (मैनेजमेंट गुरु कबीर)
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Book preview
Management Guru Kabir (मैनेजमेंट गुरु कबीर) - Pratap Narayan Singh
संक्षिप्त जीवनवृत्त और कृतित्व
कबीर सहस्त्राब्दियों में जन्म लेते हैं और कभी नहीं मरते…
पं द्रहवीं शताब्दी में अवतरित हुए कबीर के आरंभिक जीवन के विषय में अधिकांश बातें अनिश्चित हैं। उनके जन्म को लेकर अनेक आख्यान प्रचिलित हैं तथा जन्मस्थान, जन्म के वर्ष एवं माता-पिता के सम्बंध में कई मत हैं।
अधिकांश लोगों की यह मान्यता है कि कबीर का जन्म वाराणसी (बनारस या काशी) में हुआ था और उनके जीवन का एक बड़ा भाग वहीं पर बीता। यह मान्यता कई अन्तःसाक्ष्यों द्वारा समर्थित भी है, यथा:-
सकल जनम सिवपुरी गँवइयाँ।
मरति वार मगहर उठि धइयाँ।।
(सारा जीवन तो शिवपुरी (बनारस) में बिताया और मरते समय मगहर चले गए।)
एवं
बहुत बरस तप कीया कासी। मरन समय मगहर को वासी।।
(काशी में वर्षों तक तपस्या करने के बाद मरने के लिए मगहर को चुना।)
एवं
काशी में हम प्रकट भये, रामानंद चेताये।
(काशी में मैंने जन्म लिया और रामानंद ने मुझे ज्ञान दिया।)
अन्तःसाक्ष्य के रूप में उन बातों को माना जाता है जो कबीर अपनी सभाओं में यदा-कदा अपने विषय में कुछ कह दिया करते थे। काशी (बनारस) में कबीर के नाम से एक स्थान कबीरचौरा आज भी स्थित है।
कबीर के जन्मस्थान को लेकर दो और भी मत हैं। किन्तु उनकी मान्यता बहुत कम है। उनमें से एक तो है मगहर। इस सम्बंध में एक पंक्ति प्रचलित है :-
पहिले दरसन मगहर पायो, पुनि कासी बसे आई।
तीसरा मत है कि उनका जन्म आजमगढ़ जिले में स्थित बेलहरा नामक स्थान पर हुआ था। किन्तु, इस नाम के किसी स्थान की कभी खोज नहीं की जा सकी। अतः यह संभावना सबसे क्षीण है।
अधिकतर मान्यताओं के अनुसार कबीर का जन्म पंद्रहवीं शताब्दी में हुआ था। उनकी जन्मतिथि को लेकर एक कविता मिलती है :-
चौदह सौ पचपन साल गए, चंद्रवार इक ठाठ ठए।
जेठ सुदी बरसायत को, पूरनमासी प्रकट भए॥
अर्थात् संवत् 1455 बीतने के बाद ज्येष्ठ माह के एक सोमवार जिस दिन पूर्णिमा रही हो और साथ ही बरसायत अर्थात वटसावित्री का पर्व रहा हो, उस दिन वे प्रकट हुए थे। अधिकांश लोगों का मत है कि संवत 1455 (1398 ई.) में ही उनका जन्म हुआ था। किंतु कुछ विद्वान एक वर्ष बाद 1456 में जन्म मानते हैं क्योंकि उपर्युक्त कविता के अनुसार 1455 बीत चुका था और उसे बाद ज्येष्ठ माह के सोमवार को वटसावित्री का पर्व अगले वर्ष पड़ा होगा।
इस सम्बंध में एक और कविता भी मिलती है जिसमें उनका जन्म संवत 1456 (1399 ई.) में होने की बात कही गई है :-
चौदह सौ छप्पन के जेठी, पूनम चंद्र सुवारा।
श्री कबीर साहब का जनहित, काशी में अवतारा।।
हालाँकि दोनों में अंतर मात्र एक वर्ष का है।
कबीर के जैविक माता-पिता कौन थे, यह किसी को नहीं ज्ञात है। किन्तु उनका लालन-पालन करने वाले माता-पिता का नाम नीरू और नीमा था, इस बात को लेकर कोई मतभेद नहीं है। साथ ही उनके जुलाहा होने को लेकर भी सभी लोग एक मत हैं। कबीर स्वयं लिखते हैं :-
जात जुलाहा, नाम कबीरा, बनि बनि फिरौं उदासी।
एवं
तू बाह्मन, मैं एक जुलाहा, बूझहुँ मोर गियाना।
एवं
पूरब जनम में बाम्हन होंगे, ओछ करम तप हीना।
राम देव की सेवा चूका, पकरि जुलाहा कीना।
पुस्तक ‘कबीर मंसूर में लिखा यह पद भी उनके जुलाहा होने की पुष्टि करता है :-
मानुस तन जुलहा कुल दीना। दोनु सँजोग बहुरि बिधि कीना।।
कासी नगर रहे पुनि सोई। नीरू नाम जुलाहा होई।।
किंतु, उस समय जुलाहे हिन्दू थे या मुसलमान यह ठीक-ठीक कहना कठिन है। कुछ लोगों का मानना है कि वे मुसलमान थे और कुछ लोग उन्हें हिन्दू ही मानते हैं। किन्तु पुस्तक ‘कबीर कसौटी में लिखा गया है-
माय तुरकनी, बाप जोलाहा, बेटा भक्त भये।
(माँ मुसलमान, पिता जुलाहा और पुत्र भक्त हो गया।)
इसका अर्थ यह हुआ कि या तो सभी जुलाहे तब तक मुसलमान नहीं बने होंगे या फिर वे नए-नए मुसलमान बने होंगे, किन्तु उस समय तक उनकी पहचान मुसलमान की अपेक्षा एक जुलाहे के रूप में ही अधिक रही होगी, जैसा कि कुछ विद्वानों का मत है कि जुलाहा समुदाय के लोग पहले हिंदू हुआ करते थे। किंतु कर्मकाण्डों से विहीन होने के कारण उनकी सामाजिक स्थिति निम्न हो गई थी। इस बात का लाभ उस समय भारत में तेजी से बढ़ रहे इस्लामी धर्म प्रवर्तकों ने उठाया। उन्होंने लालच देकर जुलाहों को मुस्लिम संप्रदाय में सम्मिलित कर लिया। नीमा का सम्बंध मुस्लिम धर्म से पहले से ही रहा होगा और नीरू ने बाद में अपनाया होगा। इसी कारण यह कहा गया होगा कि माँ मुसलमान और पिता जुलाहा थे।
हालाँकि यह सत्य है कि बाद में जुलाहे मुस्लिम सम्प्रदाय से ही सम्बद्ध हो गए। अतः मान्यता यही है कि नीरू और नीमा मुसलमान थे। ‘कबीर’ शब्द भी हिन्दी या संस्कृत का न होकर अरबी का है जिसका अर्थ होता है ‘महान।’ इससे उन लोगों के मतों को बल मिलता है जो यह मानते हैं कि नीरू और नीमा मुसलमान संप्रदाय से थे। कहीं-कहीं नीरू को नूर अली भी कहा गया है।
इस बात में कोई मतभेद नहीं है कि कबीर नीरू और नीमा की जैविक संतान नहीं थे और वे उन्हें कहीं पड़े हुए मिले थे। कबीर किस तरह से नीरू और नीमा को मिले उसे लेकर भी कई आख्यान हैं :-
पहली और सबसे प्रचलित किंवदंती तो यह है कि एक बार एक विधवा ब्राह्मणी किसी संत के आशीर्वाद से गर्भवती हो जाती हैं। अतः वे लोकलाज के कारण अपने नवजात शिशु को लहरतारा में स्थित तालाब के किनारे छोड़ देती हैं। निःसंतान दम्पति नीरु और नीमा उस बच्चे को ले जाकर पालते हैं।
दूसरा आख्यान यह है कि नीरू अपनी पत्नी नीमा को ससुराल से विदा करवाकर अपने घर कबीरचौरा (वाराणसी का एक मोहल्ला) लौट रहे थे। रास्ते में लहरतारा तालाब में हाथ-पैर धोने के लिए रुके तो झाड़ियों से एक बच्चे के रोने की आवाज सुनाई दी। आसपास कोई नहीं था। जिज्ञासावश वे लोग जिधर से आवाज आ रही थी उधर गए और देखा कि वहाँ एक अद्भुत बालक भूमि पर पड़ा रो रहा था। कुछ सोच-विचार के बाद उन्होंने उसे उठा लिया और घर ले आए।
तीसरे आख्यान में उन्हें शुकदेव का अवतार बताया गया है। महादेव के आदेश से शकदेव ने लोककल्याण के लिए पृथ्वी पर आने का निश्चय किया। किंतु वे गर्भावास नहीं चाहते थे, अतः स्वयं को एक सीपी में बंद कर लिया और बहते हुए लहरतारा के तालाब में आ गए। वहाँ कमल के पत्ते पर बालक के रूप में प्रकट हो गए। नीरु और नीमा ने उसी बालक को पाला-पोसा।
कबीर के जीवन की जो पहली सबसे आश्चर्यजनक बात है वह यह कि एक मुसलमान दम्पति के द्वारा पालन-पोषण होने के बाद भी उन्होंने स्वामी रामानंद को अपना गुरु माना और राम भजन में लग गए। जब हम दूर से कबीर को देखते हैं तो इस बात की विचित्रता का उतना भान नहीं होता है जितना कि निकट से देखने पर।
कबीर के जन्म के समय दिल्ली में तुगलक वंश का शासन था और जब वे नवयुवक हए होंगे तब सैयद वंश और उनकी प्रसिद्धि के समय लोधी वंश का शासन रहा होगा। अर्थात् शासन मुसलमान राजाओं का ही रहा। ऐसे में एक मुसलमान घर में पलते हुए भी उनका झुकाव राम की ओर होना कोई साधारण बात नहीं थी। यह झुकाव एक दिन में तो उत्पन्न नहीं हुआ होगा। आरंभ में उनके माता-पिता ने सम्भवतः रोका भी होगा। लेकिन फिर भी राम के प्रति उनकी लगन लगी रही।
कबीर की शिक्षा को लेकर भी एक भ्रम की स्थिति ही है। इस विषय में एक दोहा मिलता है :-
मसि कागद छूऔ नहीं, कलम गही नहिं हाथ।
चारों जुग के महातम, मुखहिं जनाई बात।
(कागज-स्याही छुआ नहीं और न ही कभी कलम ही पकड़ी। चारों युगों का महात्म्य मुहजबानी याद है।)
माना जाता है कि यह दोहा कबीर ने अपनी शिक्षा के विषय में कहा था। एक सर्वस्वीकार्य मान्यता है कि उन्हें अक्षर ज्ञान नहीं था और उनका समस्त सृजन उनके शिष्यों के द्वारा लिखा गया। कुछ विद्वानों का मत है कि उनका पालन-पोषण करने वाले नीरु और नीमा गरीब जुलाहे थे, इसलिए जब कबीर बड़े होने लगे होंगे तो उन्हें मदरसे या शिक्षास्थलों पर भेजने के बजाय उनके माता-पिता ने उन्हें काम में लगा कर रखा होगा। जिसके कारण उनकी शिक्षा-दीक्षा नहीं हो सकी होगी।
यद्यपि कबीर की रचनाएँ पढ़कर ऐसा नहीं लगता कि उसमें समाहित बातें किसी अनपढ़ व्यक्ति के द्वारा कही गई होंगी। अपनी रचनाओं में उन्होंने वेद, पुराण और शास्त्रों के विषय में अनेक गूढ़ बातें कही है। न मात्र हिन्दू अपितु जैन व अन्य धर्मों से सम्बंधित बातों को भी उन्होंने अनेक स्थानों पर उद्धृत किया है। यदि वास्तव में जनमान्यता के अनुसार उन्हें अक्षर ज्ञान नहीं था तो उनके द्वारा ऐसी बातों का कहा जाना किसी चमत्कार से कम नहीं प्रतीत होता है।
वैसे उपर्युक्त दोहे को शाब्दिक अर्थों में लेने पर इसमें कही गई बात कबीर की प्रकृति से मेल नहीं खाती है, क्योंकि कबीर ने अपने जीवन में जो कुछ भी कहा है उसमें कोई न कोई सार्थक और महत्त्वपूर्ण संदेश छिपा रहता है। किंतु उपर्युक्त दोहे को देखा जाए तो इसका शाब्दिक अर्थ बस यही है कि बिना पढ़े-लिखे ही मुझे समस्त बातें ज्ञात हैं। ऐसा कहकर कबीर क्या संदेश देना चाहते हैं? क्या कबीर यह कहना चाहते हैं कि पढ़ने-लिखने का कोई महत्त्व नहीं है? या यह कि मैं इतना समर्थ हूँ कि मुझे पढ़े-लिखे बिना ही सारा ज्ञान प्राप्त हो गया। ये दोनों ही बातें कबीर के व्यक्तित्व से मेल नहीं खाती हैं। वे तो मैं’ से बिलकुल परे हो गये थे। अतः अपने विषय में उनके द्वारा इस तरह की बात कहना तर्कसंगत नहीं लगता है।
अब दो संभावनाएँ बनती हैं: पहला- यह दोहा उनके द्वारा नहीं लिखा गया हो। दूसरायह दोहा कोई रूपक हो, जिसे उन्होंने उस समय के कर्मकांडियों को लक्ष्य करके लिखा होगा, जैसा कि उनकी अन्य रचनाओं में विस्तार से मिलता है। जहाँ उन्होंने पोथी, पढ़ना इत्यादि को कर्मकांडी लोगों से संदर्भित किया है। उस समय उस सम्बंध में इस दोहे का अर्थ यह हो सकता है कि युगों का महात्म्य अर्थात् युगों से चली आ रही इस सृष्टि और जीवात्मा के स्वरुप तथा परमात्मा की महत्ता को जानने के लिए बहुत से ग्रंथों के अध्ययन की आवश्यकता नहीं होती है, बल्कि उसके लिए अपने अंतर्मन को साधना होता है। या यूँ कह लें कि मात्र किताबी ज्ञान से जीवन दर्शन को नहीं समझा जा सकता है। कितना भी वेद, पुराण और धर्मशास्त्र कंठस्थ कर लो किन्तु जब तक चिंतन मनन नहीं करोगे और उस परमसत्ता के प्रति प्रेम और मिलन की प्रबल उत्कंठा नहीं जन्मेगी तब तक कोई भी प्राप्ति संभव नहीं है।
कबीर ने अपने सबद, साखी और रमैनी में अनेक स्थानों पर वेद-पुराण और उपनिषदों की गूढ़ बातों को उद्धृत किया है :-
नारद कहै व्यास यौं भाषे, सुकदेव पूछो जाई।
कहै कबीर कुमति तब छूट, जे रह्यौ राम ल्यौ लाई।
(नारद, व्यास और शुकदेव तीनों पूछने पर यही बताते हैं कि राम से प्रीति लगाओगे तभी तुम्हारी कुबुद्धि दूर हो पाएगी।)
तत्तुमसी इनके उपदेसा। ई उपनिषद कहहिं संदेसा।।
ई निस्चै इनके बड़ भारी। वाहिक वरनन करै अधिकारी।।
परम तत्व का निज परनामा। सनकादिक नारद शुक माना।।
जागबलिक औ जनक संबादा। दत्तात्रेय वोही रस स्वादा।।
उहै राम बसिष्ठ मिलि गाई। वोहि कृशन ऊधौ समझाई।।
उहै बात जे जनक दिढ़ाई। देह धरे ही विदेह कहाई।।
(तत्तुमसी- तत्वमसि अर्थात् तुम वही हो। कबीर कहते हैं कि तुम वही हो जिसका सन्देश इन उपनिषदों ने दिया। अद्वैतवादियों का भी यही निश्चय है और वे जिज्ञासुओं के समक्ष तुम्हारा वर्णन करते हैं।
परम तत्त्व को किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है, क्योंकि वह स्वतः ही एक प्रमाण है। जिसे सनकादिक (सनक, सनंदन, सनातन, सनत्कुमार), नारद और शुक सभी ने माना। इसी विषय पर याज्ञवल्क्य का जनक से संवाद हुआ और दत्तात्रेय ने उसी का रसास्वादन किया था। उसका ही राम ने वसिष्ठ के साथ मिलकर गान किया था और वही बात कृष्ण ने उधौ को समझाई थी। उसी बात को जनक ने दृढ़ता से अपने जीवन में उतारा और शरीर धारण करते हुए भी विदेह कहलाए।)
इसमें कबीर ने कितनी ही गूढ़ बातें संदर्भित की हैं, जो कि भारतीय धर्म और दर्शन शास्त्रों से सम्बंध रखती हैं। उपनिषदों, अद्वैतवादियों, सनकादिक, याज्ञवल्क्य, दत्तात्रेय इत्यादि के विषय में ज्ञान के बिना उन्हें संदर्भित नहीं किया जा सकता था। उनके विषय में ज्ञान प्राप्त करने का अर्थ है उनके दर्शन और विचारों से अवगत होना। निश्चित रूप से कबीर ने इनके विषय में किसी न किसी माध्यम से जाना होगा।
कबीर की एक रमैनी है :-
जौं पैं बीज रूप भगवाना। तौ पंडित का कथिसि गियाना॥
नहिं तन नहिं मन नहिं अहंकारा। नहीं सत रज तम तीनि प्रकारा॥
विष अमृत फल फले अनेका। बेदरु बोधक हैं तरु एका॥
कहै कबीर इहै मन माना। कहिचू छूट कवन उरझाना।
(इसमें वे सांख्यवादियों के अनुसार प्रकृति के त्रिगुणात्मक गुण सत, रज और तम को अस्वीकार करते हैं और कहते हैं कि कर्म रूपी वृक्ष पर विष और अमृत दोनों ही फलते हैं। वेद और सारे दर्शन इस बात को स्वीकार करते हैं।)
इस रमैनी में शास्त्रों की उन गूढ़ बातों को उन्होंने उद्धृत किया है जिन्हें स्वतः जान पाने की कल्पना नहीं की जा सकती है :-
अंतर जोति सब्द इक नारी। हरि ब्रह्मा ताके त्रिपुरारी।।
ते तिरिये भग लिंग अनंता। तेऊ न जाने आदिऊ अन्ता।।
बाखरि एक विधाते कीन्हा। चौदह ठहर पाठ सो लीन्हा।।
हरी हर ब्रह्मा महँतो नाऊँ। तिन पुनि तीन बसावल गाऊँ।।
तिन्ह पुनि रचल खंड ब्रह्मडा। छह दरसन छानबे पाखंडा।।
(इसमें सृष्टि के उद्भव से लेकर अनादि आत्मा और सर्वत्र व्याप्त माया के विषय में बहुत ही विस्तार से बातें कही गई हैं। इसमें अंतर्ज्योति शब्द रूपी नर और प्रकृति रूपी नारी के अनंत विस्तार को दर्शाया है। विधाता के द्वारा एक बाखरी (बखरी-बड़ा घर) अर्थात् ब्रह्मांड के निर्माण और चौदह ठहर अर्थात् चौदह भुवनों (पृथ्वी और उसके ऊपर सात- भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्गलोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक और ब्रह्मलोक तथा सात पृथ्वी के नीचे- अतल, वितल, सतल, रसातल, तलातल, महातल, पाताल) और चौदह विद्याओं (पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र, छह वेदांग-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद, ज्योतिष और चार वेद- ऋगवेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद के सृजन के बारे में उन्होंने कहा है। आगे कहते हैं कि हरि (विष्णु), हर (शिव) और ब्रह्मा ये तीन सबसे महत्त्वपूर्ण नाम (महँतो नाऊँ) हैं अर्थात् ये तीनों अनादि काल से इस बाखरी से सम्बद्ध रहे हैं। इनके नाम से तीन लोक भी बसाए गए- विष्णुलोक, शिवलोक और ब्रह्मलोक। फिर उन्होंने खंड-ब्रह्मांडों की रचना की। फिर छह दर्शन- सांख्य, मीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग और वेदांत तथा छानबे पाखंडों का प्रादुर्भाव हुआ। वे पाखण्ड निम्नलिखित प्रकार के हैं :-
दस संन्यासी, बारह योगी, चौदह शेष बखान।
ब्राह्मण अठरह, अठरह जंगम, चौबीस सेवड़ा जान।
इस तरह के कबीर के अनेक पद हैं जिसमें उन्होंने भारतीय दर्शन, योग, वेद इत्यादि के विषय में गहनता और गूढ़ता से बात की है। इसका अर्थ यही होता है कि उन्होंने इन सबका अध्ययन अवश्य किया होगा, वह चाहे जिस रूप में किया हो। या तो स्वाध्याय से या फिर गुरु के माध्यम से। हालाँकि मान्यता यही है कि उन्हें अक्षर ज्ञान नहीं था। इस विषय में सत्य चाहे जो भी हो, उससे कबीर के कृतित्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
एक और जनश्रुति जो उनके विषय में सदा से चली आ रही है वह यह कि वे स्वामी रामानंद से शिक्षा लेने गए किंतु उन्होंने उनके मुसलमान होने के कारण मना कर दिया। किंतु कबीर उनकी शिष्यता प्राप्त करने के लिए कटिबद्ध थे। अतः वे भोर में गंगाघाट की सीढ़ियों पर उस जगह जाकर लेट गए, जहाँ से रामानंद नित्य गंगास्नान के लिए जाते थे। भोर के धुंधलके के कारण रामानंद उन्हें देख नहीं सके और उनका पैर कबीर के ऊपर पड़ गया। पैर पड़ते ही जीव का भान होने से रामानंद राम-राम कहते हुए पीछे हटे। कबीर उठ खड़े हुए और बोले- गुरु जी, आपका गुरुमंत्र मुझे मिल गया। अब मैं अपने जीवन का मार्ग स्वतः ढूँढ़ लूँगा।
किंतु जब इस जनश्रुति का विश्लेषण करते हैं तो यह पाते हैं कि स्वामी रामानंद उन संतों में से थे जिनके लिए जाति-धर्म का कोई बंधन नहीं था। उनके शिष्यों में हर जाति और धर्म के लोग सम्मिलित थे। यही कारण था कि ब्राह्मण समाज ने उनका बहिष्कार कर दिया था। भारत में सर्वसमाज के पंथ का आरंभ नाथ और सिद्धों से माना जाता है। गुरु गोरक्षनाथ रामानंद से पहले उत्पन्न हो चुके थे। गोरक्षनाथ ने जब नाथ पंथ चलाया तो उसमें जाति धर्म की अवधारणा को समाप्त कर दिया। उनका प्रभाव रामानंद, गुरु नानकदेव, कबीर आदि के विचारों पर दिखाई देता है। गुरु नानक देव और कबीर कुछ जगहों पर उनका उल्लेख करते हैं। ऐसे में रामानंद के द्वारा कबीर को शिष्य के रूप में स्वीकार न करना तार्किक नहीं लगता है।
इसके अतिरिक्त अन्तःसाक्ष्यों और बहिःसाक्ष्यों के आधार पर यह बात प्रमाणित होती है कि कबीर के गुरु रामानंद थे। कबीर ने गुरु विषयक जो सबद और साखी लिखे हैं उनके केंद्र में रामानंद ही हैं। वे रामानंद की विचारधारा से प्रभावित थे और उनकी ही भाँति उन्होंने निर्गुण और ब्रह्म का निरूपण किया है। अनंतदास ने परचई’ में स्पष्ट रूप से लिखा है कि कबीर रामानंद के शिष्य थे :-
रामानंद का सिष कबीरा। मति का सांचा भगति का धीरा।।
कबीर पंथ में भी रामानंद को ही कबीर का गुरु माना जाता है :-
भगती द्राविड़ ऊपजी, लाए रामानंद।
परगट किया कबीर ने, सात दीप नवखंड।।
कबीर की अंतर्दृष्टि बहुत प्रखर थी। फिर भी जिस तरह से उन्होंने अपनी बातों में गुरु की महिमा का बखान किया है उससे यही लगता है कि उन्होंने स्वामी रामानंद से विधिवत शिक्षा अवश्य प्राप्त की होगी। अन्यथा जो भाव उन्होंने गुरु के विषय प्रकट किए हैं वैसा करना असंभव होता। वे कहते हैं कि गुरु के बिना कुछ भी संभव नहीं है :-
गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिले न मोष।
गुरु बिन लखैन सत्य को, गुरु बिन मिटे न दोष॥
कबीर की बातों से लगता है कि उन्होंने अपने गुरु से शास्त्रों की शिक्षा भी ली होगी और बाह्य जगत् से तटस्थ होकर अंतर्गमन के गूढ़ मार्ग का अन्वेषण करना भी सीखा होगा। उन्हीं की प्रेरणा रही होगी कि वे राम को अपने अंदर महसूस करने लगे। अपने गुरु से उन्होंने इतना पाया कि अपनी बातों में गुरु का बखान करते हुए वे अघाते नहीं हैं। गुरु के लिए यहाँ तक कह दिया कि :-
गुरु गोविंद दोऊँ खड़े, काके लागूं पाँय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय॥
इन पंक्तियों से गुरु के प्रति कबीर की भावनाओं को सहज समझा जा सकता है। उन्होंने ईश्वर के ऊपर गुरु को रखा। सोचिए कि उन्हें अपने गुरु से कितना कुछ प्राप्त हुआ होगा। जैसे वे राम की महिमा गाते समय भाव विभोर हो जाते थे, वैसे ही गुरु की महिमा गाते हुए भी :-
कबिरा ते नर अंध है, गुरु को कहते और।
हरि के रूठे ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर॥
उनके लिए हरि का रूठना तो एक बार के लिए स्वीकार्य है किंतु गुरु का नहीं। क्योंकि यदि हरि रूठे तो गुरु उन्हें मनाने का मार्ग बता देंगे, किंतु यदि गुरु रूठे तो उन्हें मनाने का मार्ग कौन बताएगा।
इन तथ्यों के प्रकाश में देखते हैं तो कबीर के अनपढ़ या गुरु-विहीन होने की संभावना बहुत क्षीण दिखाई देती है। उनका संपूर्ण चिंतन माया-मोह तथा अहंकार से मुक्ति एवं परमात्मा के प्रति सच्चे प्रेम और समर्पण के विषय में है। हालाँकि ये विषय प्रथम बार कबीर के द्वारा ही नहीं उठाए गए थे, अपितु अन्य ऋषियों, महर्षियों और संतों के द्वारा इस पर चिंतन-मनन किया जा चुका था। गीता में तो इस पर बहुत ही विस्तृत चर्चा हुई है। मोह के विषय में गीता में कहा गया है :-
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।
(अर्जुन बोले- हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और स्मृति प्राप्त हो गई है। मैं सन्देहरहित होकर स्थित हूँ। अब मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।)
अहंकार को एक दानवी प्रवृत्ति बताया गया है :-
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्।।
(हे पृथानन्दन! दंभ करना, घमण्ड करना, अभिमान करना, क्रोध करना, कठोरता रखना और अविवेक का होना- ये सभी आसुरी सम्पदा को प्राप्त हुए मनुष्यों के लक्षण हैं।)
इसके अतिरिक्त काम, क्रोध और लोभ को नरक का द्वार और आत्मा का नाश करने वाला बताया गया है और इन्हें त्यागने पर बल दिया गया है :-
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥
इसी तरह इंद्रिय सुखों और विषयों में अनासक्ति के विषय में भी गीता में गंभीरता से चर्चा हुई है, जो कि कबीर के चिंतन के प्रमुख बिंदुओं में सम्मिलित है। इस तरह देखा जाए तो कबीर के चिंतन-बिन्दु प्राथमिक नहीं हैं, किंतु उनका चिंतन मौलिक है। उनका पथ नवीन और विलक्षण है, जो कि उन्हें ज्ञान के प्राथमिक स्रोत के रूप में प्रतिष्ठित करता है। उन्होंने साधना के लिए प्रेम का एक सहज मार्ग ढूँढ़ा। प्रेम और समर्पण को ही अपनी तपस्या का सबसे बड़ा साधन बनाया।
कबीर घर-बार त्याग कर केवल आत्ममक्ति के लिए प्रयासरत संन्यासी नहीं थे। बल्कि पूर्ण सांसारिक जीवन जीते हुए उन्होंने गृहस्थी को ही तपोभूमि बनाया और संन्यास को अपने जीवन के हर पल में उतारा। उन्होंने तप को एक व्यवहारिकता प्रदान की। यही कारण रहा कि आमजन भी उनसे जुड़ सके।
उनका विवाह लोई नामक स्त्री के साथ हुआ था और उनकी दो संतानें कमाल व कमाली थीं। वे अपने परिजनों का पेट पालते हुए जीवन का एक नया मार्ग विकसित कर रहे थे। कभी भी ज्ञान या शांति की खोज में कहीं और नहीं गए, बल्कि अपने घर पर ही कपड़ा बुनते रहे और उसे बाजार में बेचकर जीविकोपार्जन करते रहे। उन्होंने किसी भी रूप में भिक्षा की भर्त्सना की है। कबीर कहते हैं :-
माँगन मरन समान है, मत माँगो कोई भीख।
माँगन से मरना भला, यह दी सद्गुरु सीख॥
(माँगना मरने के समान है। कभी भी भिक्षा मत माँगो। सद्गुरु ने कहा है कि माँगने से अच्छा तो मर जाना होता है।)
यदि सांसारिक सुख-सुविधा और संसाधनों की दृष्टि से देखें तो कबीर का जीवन अभावग्रस्त था। यही स्थिति तत्कालीन समाज में अधिकांश लोगों की थी। लोग जीविकोपार्जन के लिए संघर्षरत रहते थे। आज भी हमारे देश का एक बहुत बड़ा वर्ग उसी संघर्ष में अपना जीवन व्यतीत करता है। कबीर ने लोगों को मात्र बताया ही नहीं अपितु करके दिखाया कि भौतिक संसाधनों की आवश्यकता बस उतनी ही होती है जितने में अपने शरीर को जीवित रखा जा सके। आनंदपूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिए बहुत धन की आवश्यकता नहीं पड़ती है। वे कहते हैं :-
साई इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय॥
(हे ईश्वर, मुझे बस इतने संसाधन दीजिए जितने में मेरे परिजनों का भरण पोषण हो सके। न तो कभी हमें भूखा सोना पड़े और न ही कभी कोई अतिथि आ जाए तो उसे ही निराश होकर लौटना पड़े।)
यह बात लोगों के लिए एक प्रेरणा बनकर उभरी। लोग सोचते कि एक जुलाहा जिसके पास दोनों जून का भरपेट खाने के लिए नहीं है, वह मगन होकर भजन कैसे करता है। हम भी उसी की स्थिति में हैं, किंतु दुःखी रहते हैं। ऐसा भी नहीं कि उसने सब कुछ छोड़-छाड़ दिया है और अकेली जान है जिसे किसी बात की चिंता न हो। लोग उनके पास आने लगे, प्रसन्नता का गुर सीखने के लिए। आनंदित होने का रहस्य जानने के लिए। उन्होंने सबका स्वागत किया। धीरे-धीरे उनके घर पर साधु-संतों का जमावड़ा होने लगा। अपने आत्मोत्कर्ष के साथ-साथ उन्होंने दूसरों के जीवन को भी उठाने का प्रयत्न किया। उन्होंने जो बातें कहीं उनके अनुरूप अपना जीवन व्यतीत करके लोगों को दिखाया। कथनी और करनी में जब साम्यता होती है तो उसका बहुत प्रभाव पड़ता है। देश की महान विभूतियाँ इसके उदाहरण हैं।
सन्मार्ग पर चलने की बात कहना आसान होता है किंतु स्थितियों के अनुसार उस पर चल पाना अत्यंत कठिन। यही कारण रहा है कि पौराणिक आख्यानों में ईश्वर के द्वारा महापुरुषों के सदाचार की भिन्न-भिन्न तरह से परीक्षा लिए जाने के दृष्टांत बनाए गए हैं। जिससे कि मनुष्य सत आचरण पर अडिग रहे। जब कोई सामान्य व्यक्ति भूख से त्रस्त होता है तो उसे रोटी चाहिए होती है, फिर वह परिश्रम से मिली या भिक्षा से इस बात का महत्त्व नहीं रह जाता है। उसके लिए महत्त्वपूर्ण होता है अपनी क्षुधा को शांत करना। किंतु यदि कोई भूखा रहते हुए भी भिक्षा को ठुकराने का उदाहरण प्रस्तुत करता है तो वह अन्य लोगों के द्वारा प्रशंसित और अनुकरणीय हो जाता है।
जो लोग कबीर के पास नहीं आए, कबीर स्वयं उनके पास गए। जहाँ सशरीर नहीं पहुँच सके, वहाँ उनकी वाणी गई, उनके अमृत-वचन गए। वे जीवन भर समाज में व्याप्त कुरीतियों और आडम्बरों को अपने तर्कों की कटार से तार-तार करते हुए भक्ति के पथ पर अटल भाव से बढ़ते रहे। ऐसा नहीं है कि उनका विरोध नहीं हुआ। उन्होंने कुरीतियों पर प्रहार किया तो उसका पोषण करने वालों ने उनके ऊपर प्रहार किया। किंतु अंत में सत्य की ही विजय होती है। कबीर को तो जीतना ही था, क्योंकि वे जीत-हार के खेल में थे ही नहीं। वे जीवन भर समाज में व्याप्त बुराइयों को ललकारते रहे। अंत समय आया तो अपने आराध्य को भी ललकार दिया :-
जो कासी तन तजै कबीरा, तौ रामहि कहा निहोरा रे।
काशी को मोक्ष का द्वार माना जाता है और लोग मरने के लिए अंत समय में काशी आ जाते हैं। मगहर को नर्क का द्वार माना जाता है। कबीर कहते हैं कि अगर काशी में मरने से मुझे मोक्ष मिला तो मेरे राम की क्या महिमा रह जाएगी। अगर मैं राम भक्त हूँ तो मगहर में मरने पर भी मुझे स्वर्ग मिलेगा।
जस कासी तस मगहर ऊसर, हिरदै राम सति होई।
इस बात से एक बड़ा संदेश देते हैं कि जिसके हृदय में राम हैं, जो सत्य मार्ग पर चलता है, जो दूसरों का अहित नहीं करता उसके लिए जैसा काशी है, वैसा ही मगहर। मनुष्य की परिणति उसका कर्म तय करेगा, न कि मृत्यु का स्थान।
उनकी मृत्यु के समय को लेकर भी अलग-अलग दोहे मिलते हैं :-
संवत पंद्रह पाँच सौ, मगहर कीन्हों गौन।
अगहन सुदी एकादसी, मिलौ पौन में पौन।।
एवं
पंद्रह सौ पिचहत्तरा, मगहर कीन्हों गौन।
माघ सुदी एकादसी, मिलौ पौन में पौन।।
एवं
पंद्रह सौ उनचास में, मगहर कीन्हों गौन।
अगहन सुदी एकादसी, मिलौ पौन में पौन।।
हालाँकि अनंतदास ने अपनी परचई में लिखा है कि कबीर 120 वर्ष तक जीवित रहे। इस हिसाब से उनके जन्म के वर्ष 1455 में 120 जोड़ने पर 1575 आता है। अतः संवत 1575 में ही उनके देहावसान को मान्य किया गया है।
कबीर की मृत्यु के विषय में एक चमत्कारिक बात यह कही जाती है कि उनकी मृत्यु के बाद उनके हिंदू और मुसलमान शिष्यों में उनका अंतिम संस्कार अपनी-अपनी पद्धति से करने को लेकर वाद-विवाद होने लगा। हिंद लोग उनके शव को जलाना चाहते थे तो मुसलमान दफनाना।
बहुत देर तक चले वाद-विवाद के बाद जब वे लोग शव के पास पहुँचे और कफन हटाया तो देखा कि वहाँ उनका शरीर था ही नहीं। उसके स्थान पर कुछ पुष्प पड़े हुए थे। लोगों ने अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुसार उन्हीं पुष्पों की अंत्येष्टि की।
इस बात का