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21vi Sadi ki Shreshtha Baal Kahaniyan (21वी सदी की श्रेष्ठ बाल कहानियां)
21vi Sadi ki Shreshtha Baal Kahaniyan (21वी सदी की श्रेष्ठ बाल कहानियां)
21vi Sadi ki Shreshtha Baal Kahaniyan (21वी सदी की श्रेष्ठ बाल कहानियां)
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21vi Sadi ki Shreshtha Baal Kahaniyan (21वी सदी की श्रेष्ठ बाल कहानियां)

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'इक्कीसवीं सदी की श्रेष्ठ बाल कहानियाँ' पुस्तक में मेरी चुनी हुई तेईस कहानियाँ शामिल हैं, जिनका मिजाज कुछ बदला-बदला सा है, दुनिया कुछ बदली बदली सी है, और इनमें नई सदी की दस्तकें बहुत साफ सुनाई देती हैं। खुद मेरे लिए इन कहानियों को लिखना खासा रोमांचक था।
अलबत्ता, इक्कीसवीं सदी की ये रोचक और रसपूर्ण बाल कहानियाँ आपको कैसी लगीं। इस बारे में आपकी नन्ही- मुन्नी, प्यारी सी चिट्ठी का मुझे बड़ी उत्सुकता से इंतजार रहेगा ।
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateDec 21, 2023
ISBN9789356849983
21vi Sadi ki Shreshtha Baal Kahaniyan (21वी सदी की श्रेष्ठ बाल कहानियां)

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    21vi Sadi ki Shreshtha Baal Kahaniyan (21वी सदी की श्रेष्ठ बाल कहानियां) - Prakash Manu

    1

    मूँछों वाले मास्टर जी

    कम्मो दीदी रोज सुबह-सुबह तैयार होकर, कंधे पर बस्ता टाँग स्कूल क जाती, तो कुक्क अचरज से आँखें फाड़े देखा करता था। कम्मो दीदी को हँसी आ जाती। कहती, तू भी बिल्कुल बुद्धू है कुक्कू! पता नहीं, मैं स्कूल जा रही हूँ, स्कूल? पढ़ने के लिए। इसमें इतना हैरान होने की क्या बात है?

    पर कितना ही दिमाग लगाए कुक्कू, उसकी समझ में ही नहीं आता था कि स्कूल क्या चीज है। वहाँ कैसे पढ़ते हैं?

    एक दिन कम्मो दीदी ने खेल-खेल में ही पूछ लिया, अच्छा कुक्कू, तू भी स्कूल जाएगा मेरे साथ? और कुक्कू ने बगैर सोचे, खेल-खेल में ही जवाब दिया, हाँ-हाँ दीदी, जरूर।

    तब कुक्कू को स्कूल का कुछ पता नहीं था। बस, इतना पता था कि कम्मो दीदी ने जब से स्कूल जाना शुरू किया था, वह दिन भर सहेलियों के आगे अपने स्कूल के किस्से सुनाती रहती है। और इधर तो उसका हर किस्सा स्कूल से शुरू होकर स्कूल पर ही खत्म होता था, जिसमें कभी मास्टर जी की बात चलती, तो कभी सुंदर-सुंदर रंग-बिरंगी किताबों की, जिनमें शेर, हाथी, भालू, हिरन, खरगोश और न जाने कौन-कौन से जानवर बने होते थे।

    कुक्कू कम्मो दीदी की बातें सुनता था बड़े अचरज से मुँह बाए और कभी-कभी खुशी के मारे हैं …! कहकर जोर की ताली बजा देता। सब हँसने लगते। कहते, कम्मो, लगता है कुक्कू को तो तेरा स्कूल कुछ ज्यादा ही पसंद आ गया है। तू इसे अपने साथ क्यों नहीं ले जाती?

    सुनकर कम्मो के दिमाग में भी आइडिया आया, हाँ सचमुच, कुक्कू भी चले तो कितना मजा आएगा। दोनों एक साथ जाया करेंगे काली तख्तियाँ चमकाकर…!

    उसने कुक्कू से पूछा और कुक्कू उत्साह में आकर झटपट बोला, चलूँगा, चलूँगा कम्मो दीदी!

    उसी दिन कम्मो दीदी ने बलराम भैया से पूछा तो वे बेफिक्री से बोले, ठीक है, नाम लिखवा देंगे अगले हफ्ते।

    पर यह तो कल से ही जाने के लिए बोल रहा है भैया।

    तो ठीक है, कल ले जा। हैडमास्टर जी से कह देना कि हमारे भैया दो-चार रोज बाद आकर नाम लिखवा देंगे। बोल देना, मैं बलराम की बहन हूँ। वे कुछ नहीं कहेंगे।

    ठीक है। कम्मो दीदी बोली।

    उसे पता था, हैडमास्टर बाँकेबिहारीजी भैया को अच्छी तरह जानते हैं। कैसे न जानेंगे? कुछ साल स्कूल में पहले पढ़ते थे तो इतने होशियार थे कि हमेशा फर्स्ट आते थे।

    कम्मो दीदी कुक्कू को हैडमास्टर जी के पास ले गई, तो वे हँसकर बोले, अरे, यह तो बड़ा हँसमुख बच्चा है। क्या बिटर-बिटर देख रहा है मुझे! फिर बोले, कम्मो, तुम खुद जाकर इसे कच्ची वाली क्लास में बैठा दो। वहाँ तिवारी मास्टर जी होंगे, बड़े से चश्मे वाले। कहना, हैडमास्टर जी ने भेजा है।

    कम्मो ने कुक्कू को पहले तो अपनी क्लास दिखा दी। फिर उसे कच्ची वाली क्लास में बैठा आई, जहाँ तिवारी मास्टर जी हँस-हँसकर गोगी खरगोशनी की कहानी सुना रहे थे। कुक्कू डरा-झिझका हुआ-सा क्लास में सबसे पीछे पट्टी पर बैठा था। मजे में वह भी कहानी सुनने लगा।

    साथ ही तिवारीजी के चेहरे को भी वह ध्यान से देख रहा था। लंबे, दुबले और प्यारे-से तिवारी जी। आँख पर भारी-सा चश्मा। बड़ी-बड़ी मूँछें। तिवारीजी बात-बात पर हँसते थे तो साथ ही उनकी मूँछें भी हँसती थीं, चश्मा भी हँसता था।

    कहानी खत्म होने पर तिवारीजी ने कुक्कू को पास बुलाया। फिर हँसते हुए पूछा, ओहो, तुम तो अभी बहुत छोटे-से हो। तुम्हारा नाम क्या है?

    कुक्कू को इतना पता था कि घर में उससे सब कुक्कू बुलाते हैं। तो फिर यही तो उसका नाम हुआ। लिहाजा उसने जवाब दिया, कुक्कू…!

    क्या? मास्टर जी ने अजब-सा मुँह बनाकर कहा, घुग्घू…?

    इस पर कुक्कू ने उनकी गलतफहमी दूर करने के लिए और भी जोर से चिल्लाकर कहा, घुग्घू नहीं मास्टर जी, कुक्कू, कुक्कू…!!

    क्या कहा, घुग्घू…? मास्टर जी ने फिर पूछा। हँसते-हँसते। इस बार उनकी मूँछें भी फुरफुरा रही थीं।

    अब तो कुक्कू का धैर्य जवाब दे गया। वह दौड़ा-दौड़ा गया और अपनी कम्मो दीदी को बुला लाया, जो कक्षा दो में पढ़ती थी। बोला, कम्मो दीदी, ये मास्टर जी मेरा नाम पूछ रहे हैं। जरा बता दो।

    कम्मो दीदी कुक्कू से दो साल बड़ी थी। तो जानती थी कि घर में सब कुक्कू कहकर बुलाते हैं, पर असली नाम तो चंद्रप्रकाश है। उसने कहा, मास्टर जी, इसका स्कूल वाला नाम है, चंद्रप्रकाश।

    इस पर तिवारी मास्टर जी पहले की ही तरह अपने होंठों को खूब फैलाकर बोले, चंटपरकास…!! चश्मे से झाँकती उनकी आँखों में बड़ी शरारती हँसी थी।

    कम्मो दीदी जितनी बार भी कहती, नहीं मास्टर जी, चंट परकास नहीं, चंद्रप्रकाश…! उतनी बार मास्टर जी मुँह फैलाकर हँसते हुए कहते, क्या कहा, चंट परकास? पर यह तो जरा भी चंट नहीं लगता!

    फिर आखिर में बोले, अच्छा भाई अच्छा, समझ गया! कुक्कू… कुक्कू, कुक्कू माने चंद्रप्रकाश।

    इस पर कम्मो दीदी ही नहीं, क्लास के बच्चे भी हँसे, कुक्कू भी। कुक्कू को तिवारी मास्टर जी की बाँकी अदा भा गई। उस दिन घर जाकर उसने मम्मी-पापा और बलराम भैया को बताया, तो वे भी हँसे।

    *

    कुक्कू समझ गया कि तिवारी मास्टर जी मुझे बहुत प्यार करते हैं। जो कुछ मास्टर जी पढ़ाते, वह झट से याद कर लेता। क कबूतर, ख खरगोश। गिनती भी। फिर वह सुनाता, तो मास्टर जी हँसकर कहते, शाबाश! साथ ही वे प्यार से गिनती और क, ख, ग लिखना भी सिखाते। थोड़े ही दिनों में कुक्कू बीस तक गिनती भी सीख गया। दो का पहाड़ा भी।

    कुक्कू को स्कूल अच्छा लगने लगा और सबसे अच्छे लगते चश्मे वाले मास्टर जी। वे हँसते हुए पढ़ाते थे। सब कुछ बड़ी जल्दी याद हो जाता था। फिर वे रोज एक कहानी सुनाते, कविता भी याद कराते।

    कुछ समय बीता, अब कुक्कू तरक्की पाकर पहली क्लास में पहुँच गया था। पता चला, अब चश्मे वाले तिवारी मास्टर जी नहीं पढ़ाएँगे। भोलानाथ मास्टर जी पढ़ाएँगे। थोड़े गुस्से वाले भोलानाथ मास्टर जी। कुक्कू को उनसे डर लगता था।

    कभी-कभी तिवारीजी कुक्कू की क्लास में आकर पूछ लेते, अरे कुक्कू, तुम्हारे क्या हाल हैं? खुश हो ना बच्चे। कोई मुश्किल तो नहीं?

    पर कुक्कू तो सचमुच मुसीबत में पड़ गया था। मगर समझ में नहीं आता था, किससे कहे? असल में ये जो दूसरे वाले भोलानाथ मास्टर जी आए थे, बिल्कुल हँसते ही नहीं थे। बच्चों से ज्यादा बात भी नहीं करते थे। तो फिर कुक्कू को भला पाठ कैसे समझ में आए? कैसे गिनती और पहाड़े याद हों? बल्कि जो याद था, वह भी भूल जाता।

    भोलानाथ मास्टर जी गुस्से से घूरते। कहते, अरे, कल तो दो का पहाड़ा सुनाया था तुमने, आज कैसे भूल गए? यह तो बुरी बात है। जल्दी सुनाओ, नहीं तो पिटाई होगी।

    सुनकर कुक्कू चुप। आँखों में आँसू आ जाते। उसे खुद पता नहीं था, वह कैसे भूलने लगा है।

    एक बार भोलानाथ मास्टर जी को ज्यादा गुस्सा आ गया। बोले, अच्छा खड़े हो जाओ दीवार के साथ। मेरे साथ-साथ जोर से दो का पहाड़ा बोलो, तब याद होगा।

    कुक्कू जोर-जोर से दो- एकम-दो, दो-दूनी-चार बोल रहा था, तभी तिवारी मास्टर जी वहाँ से निकले। कुक्कू को खड़ा देखा तो चौंके। पास आकर बोले, अरे, यह हमारा प्यारा खरगोश कुक्कू खड़ा क्यों है? कुक्कू! क्यों परेशान है भाई?

    भोलानाथ मास्टर जी शिकायती चेहरा बनाकर बोले, इसे तो कुछ याद ही नहीं होता। कितने दिन हो गए, दो का पहाड़ा ही याद नहीं हो पा रहा।

    तिवारी मास्टर जी एक पल के लिए हैरान हुए। फिर हँसकर बोले, ओहो, आपने ठीक से याद नहीं कराया होगा। आप गुस्से में तो नहीं बोले थे? मैं तो हँसकर पढ़ाता था तो फट फट सुना दिया करता था, क्लास में सबसे पहले!

    फिर कुक्कू . से बोले, अरे कुक्कू, जरा मेरे सामने सुनाओ तो सही। मैंने तुम्हें याद कराया था न! तिवारी मास्टर जी की चश्मे के पीछे से झाँकती निगाहें। उनमें मीठी-सी हँसी थी।

    साथ ही उनकी मूँछें फुरफुरा रही थीं, जैसे कह रही हों, देखना, अभी सुनाएगा कुक्कू, अभी सुनाएगा।

    सामने चश्मे वाले तिवारी मास्टर जी को देखा तो कुक्कू का तो डर एकदम खत्म। जो कुछ भूला था, वह याद आ गया। उसने झटपट पूरा पहाड़ा सुना दिया।

    देखकर तिवारी मास्टर जी बोले, देखो ना, इसे तो याद है, पूरा याद है। आपने गुस्सा किया तो भूल गया।

    यही बात तो कुक्कू कहना चाहता था भोलानाथ मास्टर जी से, पर कह नहीं पा रहा था। पर तिवारीजी ने कह दी।

    अब भोलानाथ मास्टर जी अचकचाए। फिर एकाएक हँसकर बोले, अरे तिवारीजी, यह तो चमत्कार कर दिया आपने। मुझे इसका पता ही नहीं था। सोचता था, थोड़े शैतान बच्चे हैं, शोर न करें, इसलिए डाँटना चाहिए। पर लगता है, कुछ गड़बड़ हो गई…!

    शैतान…? अरे, ये तो छोटे-छोटे खरगोश हैं, खरगोश। कुक्कू खरगोश, मोहना खरगोश, माधव खरगोश, राधा खरगोशनी …! इनको तो आप बस, हँसाते रहो। खेल-खेल में खुद ही सब कुछ सीख जाएँगे।

    सुनकर भोलानाथ मास्टर जी जोर से हँसने लगे। हँसते-हँसते बोले, पर अब आप जैसी हँसी कहाँ से लाऊँ तिवारी जी?

    तिवारी जी और भी जोर से हँसकर बोले, बच्चों से प्यार करो, तो हँसी भी बच्चों जैसी बन जाती है। अरे भई, ये सारे के सारे बच्चे तो हँसी के गुब्बारे हैं।

    सुनकर तिवारी मास्टर जी के साथ-साथ भोलानाथ मास्टर जी, कुक्कू और क्लास के सब बच्चे भी हँसने लगे थे।

    कुछ दिन पहले कुक्कू सोच रहा था, किसी तरह भोलानाथ मास्टर जी चले जाएँ। फिर से चश्मे वाले तिवारी मास्टर जी पढ़ाने लगें, तो मजा आ जाए। पर अब तो भोलानाथ भी तिवारी मास्टर जी बन गए थे। कुक्कू को अब सारे पाठ झटपट याद होने लगे थे।

    2

    छत पर कबूतर

    नि क्की परेशान थी। सुबह से कई बार सोच चुकी थी, ‘ये परिंदे बेचारे प्यासे होते हैं तो इन्हें पानी कहाँ से मिलता है? भूख लगती है तो खाने को दाना मिल जाता होगा? … कितनी मुश्किल है। ये अपनी बात भी तो किसी से नहीं कह पाते न!’

    निक्की ने मम्मी से पूछा तो मम्मी समझ गईं उसके दिल की बात। बोली, निक्की, तुम हर सुबह छत पर कबूतरों के लिए दाना डाल दिया करो। मिट्टी के सकोरे में उनके पीने के लिए पानी रख दिया करो। तब सच्ची-मुच्ची वे खुशी से चहकेंगे।… पर इसके लिए तुम्हें सुबह जल्दी उठना होगा। उठ पाओगी?

    क्यों नहीं, मम्मी? इसमें क्या मुश्किल है…! निक्की को मम्मी की बात एक चुनौती की तरह लगी। बोली, मैं तो उठ जाऊँगी, पर मम्मी, दाने किसमें डालूंगी…? कोई बड़ी सी प्लेट तो रखो। या फिर मिट्टी की ले आते हैं। और हाँ, पानी के लिए एक सकोरा भी तो चाहिए।

    मम्मी ने अगले ही दिन चौक के पास वाले माँगेलाल कुम्हार के पास जाकर मिट्टी की एक छोटी-सी तश्तरी ले ली। साथ ही एक छोटा-सा सकोरा भी। उसे निक्की को देकर बोली, निक्की, अब तू वादा कर, कभी नागा नहीं करेगी।…तुझे एक दिन नाश्ता न मिले तो आफत आ जाती है न! ऐसे ही कबूतरों से तेरी दोस्ती हो जाएगी, तो वे रोज-रोज बड़ी उम्मीद से आएँगे छत पर। और अगर दाना-पानी न मिले, तो जरा सोच, उन्हें कितना दुख होगा।

    निक्की बोली, देख लेना मम्मी, मैं वादा निभाऊँगी। फिर मजे में गरदन हिलाकर बोली, मम्मी, फिर तो कबूतरों से मेरी पक्की दोस्ती हो जाएगी न!

    मम्मी ने हँसकर उसके गाल पर चपत लगाते हुए कहा, हाँ जी, निक्की बिटिया, जरूर…!

    अगले दिन से ही निक्की की सुबहें बदल गईं। रोजाना वह आधा घंटा पहले उठती और सीधा छत पर भागती। झटपट मिट्टी की तश्तरी में दाना डालती और सकोरा पानी से भरकर रख देती। और फिर कबूतरों का इंतजार…! सोचती, ‘अब आए कबूतर … अब आए!’

    ऐसे ही एक दिन बीता, दो दिन। तीसरा दिन भी निकल गया। पर कबूतरों ने इधर रुख ही नहीं किया तो निक्की परेशान।

    तभी निक्की का ध्यान सामने वाली छत पर गया। उसने देखा कि सामने वाले घर में फौजी अंकल कबूतरों को बड़े प्यार से दाना खिला रहे हैं। और इतना ही नहीं, वे तो जैसे हँस-हँसकर उनसे कुछ बातें भी कर रहे हैं। कबूतर उनके इर्द-गिर्द ऐसे आकर जमा हो गए, जैसे फौजी अंकल के प्यारे दोस्त हों और उनकी सारी बातें समझ रहे हों।

    फौजी अंकल की छत पर बाँस का बना एक जाल भी था, जिस पर दाना चुगने के बाद कबूतर मजे में बैठे हुए थे और अब वे बड़े प्यार से ‘गुटर-गूँ, गुटर-गूँ’ कर रहे थे। जैसे मीठा गाना गाकर फौजी अंकल का अभिनंदन कर रहे हों।

    निक्की सोचने लगी, ‘ओहो, तो यह बात है! फौजी अंकल इतना प्यार जताते हैं, इसीलिए तो कबूतर वहाँ से हिलने का नाम नहीं लेते। तो फिर वे मेरी छत पर क्यों आएँगे? पता नहीं, यहाँ आकर वे कभी दाना खाएँगे भी या नहीं?’

    कुछ देर निक्की परेशान सी यहाँ-वहाँ टहलती रही। फिर अचानक उसे एक आइडिया सूझा। उसने दाने से भरा कटोरा उठा लिया। उसे दिखाकर जोर-जोर से पुकारने लगी, कबूतर आ- आ-आ… कबूतर आ-आ-आ!

    नन्ही निक्की को ‘कबूतर आ-आ’ की पुकार लगाते देख, फौजी अंकल को इतना मजा आया कि उनकी लंबी-लंबी मूँछें फड़कने लगीं। हँसते हुए बोले, अरे निक्की, ऐसे ही थोड़े आ जाएँगे कबूतर! बिटिया, ये तो मेरे पले हुए हैं, बरसों बरस से यहीं रह रहे हैं।

    पर फौजी अंकल यह देखकर हैरान रह गए कि अभी उनकी बात पूरी हुई भी न थी कि उनके जाल पर से उड़कर दो-तीन कबूतर निक्की की छत पर आ गए। निक्की ने झट अपने हाथ में पकड़ी हुई बाजरे के दानों से भरी तश्तरी नीचे रखी और पुचकारकर उन्हें पास बुलाया।

    पर निक्की समझ गई कि अभी कबूतर कुछ डरे हुए हैं। इसीलिए पास आने में झिझक रहे हैं। उसने झटपट बाजरे की तश्तरी से दाने निकालकर आसपास बिखेर दिए। फिर दूर पत्थर की बेंच पर जाकर बैठ गई कि देखूँ, ये कबूतर दाने चुगते हैं कि नहीं?

    निक्की की खुशी का कोई ठिकाना न रहा, जब उसने देखा कि उन तीनों कबूतरों ने बड़े मजे से पहले थोड़ा पानी पिया, फिर दाना चुगने लगे।

    अभी ये तीन कबूतर दाना चुग ही रहे थे कि देखते-देखते पाँच-सात कबूतर और आ गए। और फिर तो थोड़ी ही देर में कबूतरों का एक बड़ा सा झुंड निक्की की छत पर नजर आने लगा।

    दूर पत्थर की बेंच पर बैठी निक्की मजे में तालियाँ बजा रही थी। उसने मीठे सुर में गाना भी गाना शुरू कर दिया था, कबूतर आ-आ-आ… दाना खा-खा-खा…गाना गा-गा-गा…!!

    गाना खत्म हुआ तो निक्की ने घूमकर देखा, फौजी अंकल के बाँस वाले जाल पर कबूतरों की संख्या अब आधी भी नहीं रह गई थी। देखते ही देखते फौजी अंकल का चेहरा लटक गया। भला अपनी छत से जाते हुए कबूतरों को वे कैसे रोकें?

    अब तो निक्की का रोजाना का ही यह नियम बन गया। वह मिट्टी की बड़ी-सी तश्तरी में ढेर सारे बाजरे के दाने रखती और सकोरे में पानी भरकर रखती। फिर उसी तरह मीठे सुर में गाती हुई पुकार लगाती, कबूतर आ-आ-आ…दाना खा-खा-खा… गाना गा-गा-गा…!!

    निक्की की आवाज में न जाने कैसा जादू था कि फौजी अंकल की छत से कबूतर उड़ते और देखते ही देखते निक्की की छत पर नजर आने लगते। वे बाजरे के दाने खाते, पानी पीते। इधर-उधर बैठकर मजे में गुटर-गूँ करते और फिर उड़ जाते।

    *

    फौजी अंकल हैरान, कुछ-कुछ परेशान भी थे। वे रोजाना देखते कि उनके यहाँ से कबूतर ढेर सारा दाना रखने के बावजूद उड़कर निक्की के यहाँ चले जाते हैं। कोई घंटे भर के लिए उनकी छत एकदम सुनसान हो जाती है और निक्की की छत गूँजने और चहचहाने लगती है। अब तो कबूतरों से निक्की की इस कदर दोस्ती हो गई थी कि वे उसके चारों ओर घेरा बनाकर बैठ जाते थे। कुछ उसके कंधों पर भी बैठ जाते थे। मानो सारे के सारे कबूतर निक्की से बातें करना चाहते हों!

    फौजी अंकल अकेले अपनी छत पर टहलते हुए यह देखते रहते और कुढ़ते रहते। निक्की ने कई बार उन्हें गाल पर हाथ रखे कुछ सोचते देखा तो सोचा, ‘अरे, फौजी अंकल तो लगता है, कुछ ज्यादा ही परेशान हो गए। पर कबूतरों को बच्चों से दोस्ती ज्यादा पसंद है न, तो मैं भला क्या करूँ?’

    इतने में निक्की का स्कूल जाने का टाइम हो गया। कबूतरों को ‘टा-टा’ करके वह छत से नीचे आई और नहा--धोकर स्कूल जाने की तैयारियों में लग गई। इस पर कुछ कबूतर तो उड़कर वापस फौजी अंकल की छत पर चले गए। लेकिन बहुत से कबूतर ऐसे थे, जिन्हें निक्की से प्यार हो गया था। निक्की के जाने के बाद भी वे उसकी छत पर मँडराते और ‘गुटर-गूँ, गुटर-गूँ’ करते रहे।

    निक्की यह देखकर दुखी थी कि फौजी अंकल तो बेचारे बिल्कुल अकेले रह गए। उसे पता था, आंटी तो दो साल पहले हार्ट अटैक से गुजर गईं। दो बेटे हैं, दोनों अमेरिका में। इतने बड़े घर में अकेले फौजी अंकल रह रहे हैं। कल तक कबूतरों से उनकी छत भरी रहती थी। पर अब ये कबूतर उनके पास जाना ही नहीं चाहते। यह तो ठीक बात नहीं। उसने सोचा, मुझे कुछ करना चाहिए।

    अगले दिन कबूतरों को दाना चुगाने के बाद वह बोली, फौजी अंकल, आप ही बताइए, मैं क्या करूँ? ये कबूतर तो वापस जा ही नहीं रहे हैं।

    सुनकर फौजी अंकल एक पल के लिए चुप। वे भला क्या कहें? फिर एकाएक हँसकर बोले, बिटिया, जैसे तुम ‘कबूतर आ-आ-आ’ करती हो वैसे ही ‘कबूतर जा-जा-जा’ भी कहा करो। तब शायद ये वापस मेरे पास आ जाएँ।

    नन्ही निक्की को बात जँच गई। जैसे ही कबूतरों का दाना खत्म हुआ, उसने खाली तश्तरी दिखाकर, हाथ हिलाते हुए सभी कबूतरों से कहा, कबूतर जा-जा-जा… कबूतर जा-जा- जा! और सचमुच नन्ही निक्की के जा-जा कहते ही सभी कबूतर उड़ते हुए फौजी अंकल की छत पर जा पहुँचे और उनके बाँस के जाल पर जा बैठे।

    यह देखकर फौजी अंकल का कुम्हलाया चेहरा खिल गया। इस पर नन्ही निक्की को बड़े जोर की हँसी आई। उसे लगा, उसकी छत से फौजी अंकल की छत पर उड़कर जाते हुए कबूतर भी धीरे-धीरे हँसते हुए गुटर-गूँ, गुटर-गूँ करते जा रहे हैं।

    अब तो यह रोजाना का ही तमाशा बन गया। निक्की का यह मजेदार खेल था। शुरू में दाने से भरी हुई तश्तरी दिखाकर वह कबूतर आ-आ कहती और सारे कबूतर उसकी छत पर आ जाते और बाद में जा-जा कहती, तो सारे कबूतर फौजी अंकल की छत पर जा बैठते। फिर निक्की बड़े मजे में तैयार होकर स्कूल की ओर चल देती।

    फौजी अंकल अब खुश थे और अकसर अपनी फड़कती हुई मूँछों के साथ, कबूतरों से पहले की तरह बातें करते दिख जाते थे। इतना ही नहीं, निक्की को छत पर देखकर वे खूब जोर से हँसते हुए हाथ हिलाकर अपनी खुशी प्रकट करते थे। और निक्की भी अपनी छत से आवाज लगाती थी, हैलो फौजी अंकल, आप खुश हैं न…!

    निक्की को लगा, कबूतरों से दोस्ती ने उसे प्यारे फौजी अंकल का भी दोस्त बना दिया है। अब तो वे कई बार घूमते-टहलते हुए घर आ जाते हैं और निक्की के मम्मी-पापा से मिलकर कहते हैं, निक्की तो एक नन्ही एंजिल है। सबका दिल जीतने वाली एंजिल। इसीलिए तो इसका जादू कबूतरों पर भी चल गया।

    और निक्की सोच रही थी, ‘इस बार अपने बर्थडे पर दोस्तों के साथ-साथ मैं फौजी अंकल को भी जरूर बुलाऊँगी। अपनी बड़ी-बड़ी, फड़कती हुई मूँछों में भी मुझे तो वे बिल्कुल बच्चे जैसे लगते हैं!’

    3

    रहमत चाचा का लट्टू

    का ली-ऊदी बदलियों वाली शाम थी। बड़ा ही खुशनुमा मौसम। क्या मस्त हवा चल रही थी! जैसे दुनिया के सारे बच्चों को घरों से निकालकर खेल के मैदान में उछाल देने के लिए चली हो। कुक्कू ने होमवर्क पूरा करने के बाद घर की चहारदीवारी के ऊपर से गरदन उचकाकर देखा, सामने वाला मैदान एकदम गुलजार था। मोहल्ले के बच्चों की पूरी सेना जमा हो चुकी थी। और खूब हो-हल्ला हो रहा था। एक तरफ गेंदतड़ी का जोश था, दूसरी ओर कबड्डी-कबड्डी का शोर।

    मगर उसका ध्यान तो कहीं और था। और लो, एक कोने में उसे नजर आ गए उसके मनपसंद लट्टू और चकई। उसके दिल-दिमाग में कुछ दिनों से बस लट्टू और चकई ही छाए हुए थे। मैदान के एक कोने में अपना नीले रंग का लट्टू नचाता मोहना था और उसका दोस्त आशु, जिससे सब मटकन्ना कहते थे। इसलिए कि अपनी गरदन वह हमेशा हिलाता रहता था। खासकर मोहना का लट्टू जब बिजली की तरह तेजी से चक्कर पर चक्कर काटता तो आशु की गरदन भी उसी तरह तेजी से मटकने लगती थी।

    इस पर आसपास खड़े बच्चे हँसकर कहते, ओ रे मटकन्ने! लट्टू चला… गरदन नहीं! पर आशु को तो मोहना के लट्टू ने ही लट्टू कर लिया था। उसी का कमाल देख-देखकर उसकी गरदन खुद-ब-खुद नाचने लगती।

    इधर कुक्कू को भी नया-नया शौक चढ़ा था लट्टू नचाने का। पर अभी हाथ तो सधा नहीं था। एक-दो दोस्तों से जरा सी देर के लिए लट्टू या चकई लेकर उसने भी थोड़ा दिल बहला लिया था। पर इसमें क्या मजा आता? अब उसने सोच लिया था कि ऐसे नहीं। अब तो अपना लट्टू लेकर ही चलाना होगा। तब आएगा मजा।

    उसी समय वह दौड़ा-दौड़ा मम्मी के पास गया। बोला, मम्मी…मम्मी, बाहर सब बच्चे लट्टू चला रहे हैं। मुझे भी लट्टू खरीदकर दो ना।

    मम्मी किसी काम में लगी थीं। बोलीं, कुक्कू, ले ये पैसे। जा, रहमत चाचा की दुकान से खरीद ला।

    कुक्कू ने गिने, पूरे आठ आने। वाह, इतने में तो खूब बढ़िया लट्टू आएगा! वह दौड़ा-दौड़ा गया। रहमत चाचा की दुकान पर जाकर बोला, चाचा, चाचा, जल्दी से एक अच्छा सा, प्यारा-सा लट्टू दे दो। लो ये पैसे।

    रहमत चाचा की दुकान पर उस समय काफी भीड़ थी। बिसातखाने की दुकान थी उनकी, जिसमें टीन के कनस्तर, संदूक, बरतन, कपड़े से लेकर बच्चों के खेलने के गुट्टे, गुड्डे-गुड़िया के छोटे-छोटे बरतन, खिलौने और रोल्ड गोल्ड के जेवर तक सब कुछ मिल जाता था। किस्म-किस्म की चीजें, किस्म-किस्म के ग्राहक। बच्चे भी बड़े भी। औरतें, आदमी, बूढ़े सभी। पर कितनी भी भीड़ हो, बच्चों की बात वे कतई अनसुनी न करते थे। बोले, देखो कुक्कू, सामने रंग-बिरंगे लट्टू पड़े हैं, छोटे-बड़े हर साइज के। तुम अपनी पसंद का छाँट लो।

    कुक्कू ने देखे, लाल, पीले, हरे, गुलाबी, नीले, फिरोजी किस्म-किस्म के लट्टू। कुछ बड़े, कुछ छोटे। एक-दो पर तो डिजाइन भी बने थे। उसे लगा, हर लट्टू हाथ उठाकर बुला रहा है, मुझे लेना कुक्कू… मुझे! देखो न, मैं कितना अच्छा हूँ। तुमसे मेरी दोस्ती खूब जमेगी।

    कुक्कू को हँसी आ गई। हँसते-हँसते बोला, ओह, मेरे कितने सारे दोस्त! पर मेरे पास इतने पैसे कहाँ हैं? आठ आने में तो बस एक ही लट्टू आ सकता है।

    उसने लाल रंग का एक बड़ा-सा लट्टू पसंद किया। बोला, रहमत चाचा, मैं यह लूँगा।

    रहमत चाचा बोले, ठीक है कुक्कू, थोड़ा इंतजार करो। मैं इसे अभी तैयार करके देता हूँ।

    रहमत चाचा ने दो-एक ग्राहक जल्दी-जल्दी निबटाए। फिर दुकान के चबूतरे से उतरकर नीचे आए, जहाँ टीन का लट्टुओं वाला बड़ा सा टोकरा रखा हुआ था। उन्होंने कुक्कू के हाथ से लट्टू लिया। उसे उल्टा करके, एक पत्थर पर रखकर धीरे से कील ठोंकी। फिर उस कील की टोपी काटकर उस सिरे को खूब नुकीला किया। इसके बाद लपककर अंदर गए। बढ़िया सी सफेद सूतली निकालकर लाए। सूतली लपेटकर उन्होंने लट्टू को चलाया तो लट्टू ऐसे नाचने लगा, मानो उसमें बिजली भर गई हो और अब वह कभी रुकेगा ही नहीं।

    कुक्कू का जी खुश हो गया, वव्वोह…! रहमत चाचा वहाँ न होते तो वह सचमुच तालियाँ बजाकर नाचने लगता। कुछ देर बाद लट्टू थमा तो चाचा बोले, कुक्कू, अब तुम खुद चलाकर देख लो।

    कुक्कू ने कसकर सूतली लपेटी और लट्टू चलाया। मगर लट्टू सधा नहीं, एक ओर जा पड़ा। रहमत चाचा हँसे। बोले, सीखना पड़ेगा, कुक्कू। ऐसे थोड़े ही सधेगा!

    रहमत चाचा ने फिर दो-तीन बार लट्टू चलाकर दिखाया। कुक्कू को सिखाना भी चाहा। मगर कुक्कू परेशान, उससे लट्टू सध ही नहीं रहा था। शर्मिंदा होकर बोला, "रहने दो, चाचा। घर जाकर बार- बार कोशिश करूँगा। कभी तो

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