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ISHQ - (इश्क)
ISHQ - (इश्क)
ISHQ - (इश्क)
Ebook100 pages54 minutes

ISHQ - (इश्क)

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About this ebook

इश्क दरअसल दो अज्ञात कुल-शील निम्न वर्ग के निश्छल युवक-युवती के नाजुक दिलों की कहानी है जो पुरुष-वर्चस्व सामंती शोषण-जाल में कैद हैं। आज सारे स्त्री विमर्श और स्त्री- सशक्तीकरण आन्दोलनों के बावजूद आज स्त्री कहीं भी आजाद नहीं है। आज के पूँजीवादी आधुनिक-उत्तर आधुनिक युग में भी वह सामंती पुरुष वर्चस्वी शिकंजे में पिस रही है। घर में वह सामंती मूल्यों वाली मर्यादा और प्रतिष्ठा के बंधन में कैद रहती है तो आफिस में वह आपस की अधीनस्थ के रूप में वल्नरलेबलिटी की शिकार होकर दैहिक-मानसिक शोषण झेलती है। सामंती मूल्यों की जंजीर में कैद सुमित्रा मुक्ति की छटपटाहट में किस तरह धीरे-धीरे अपने अंदर की दुर्गा को जगाती है और वह वफादार नौकर कोंदा की जड़बुद्धि पर से पर्दा हटा कर हथियार के रूप में उसका उपयोग करती हैं.
Languageहिन्दी
PublisherDiamond Books
Release dateSep 1, 2020
ISBN9789390088164
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    ISHQ - (इश्क) - Shukla Chaudhury

    Chaudhury

    1

    आकाश में चाँद खिला पूरा, पीतल की थाली बराबर। चाँदनी में नहा उठा जंगल। चाँद से चूंई चूंई कर झरने लगा अमृत। फागुनी, बल्ली के कंधे से झूल गई।

    बाबू आज पूनो है...

    अएं... अभी-अभी तो अमावस था, अभिये पूरणमासी, बल्ली का दिल धक-धक करने लगा। अंधा बल्ली बिटिया को छू-छू कर देखता रहा, फिर धीरे-धीरे शान्त हो गया, ‘नहीं-नहीं नानकून है फागुनी बिटिया’, मन ही मन बुदबुदाया बल्ली।

    झोपड़ी का दरवाजा खड़खड़ाया।

    कौन? बल्ली लाठी को जमीन पर जोर से पटका।

    कोंदा हंव काका

    रात बेरात काहे रे हरामी, जा भाग।

    काका

    बक दे।

    ठाकुर मेवालाल का पाखाना जाम हो गया।

    तो?

    बुलवाया है

    नहीं जाऊंगा, जा भाग बे...ठाकुर का गुलाम। कोंदा हिम्मत नहीं हारा, दरवज्जा पे ही डटा रहा। चाँदनी हरहरा रही थी।

    पाँच दिन का राशन-पानी घर पहुंचा दिही, कहत रहीन ठकुराईन...। कोंदा भीतर आने के लिए कसमसाया। उसकी जेब में चना-गुड़ था जो सुबह से फागुनी के लिए बचा कर रखा था। कब दे, कहाँ पर दे, समझ नहीं पा रहा था कोंदा।

    खबरदार! जो पांव भीतर रखा कोंदा दो कदम फिर पीछे हट गया।

    अंधे काका की कितनी आँखें, कोंदा जाते-जाते सोचने लगा। कोंदा ने सीधे ठाकुर के घर का रुख किया।

    अभी छोटे ठाकुर की तेल-मालिश बची है। ठाकुर और बड़के दोनों भाईयों की तेल-मालिश हो चुकी है।

    कोंदा सात साल की उम्र से ठाकुर का नौकर है। ठाकुर के घर का बासी-तेबासी खा-खाकर सोलह, सतरह साल का गबरू जवान होने चला है काला भुसंड, बातें करता कम हकलाता ज्यादा।

    जब कोंदा ठाकुर के घर पहुंचा, मालकिन दरवाजे पे खड़ी थी। हुलस उठी कोंदा को देखकर।

    बल्ली ईईई, आ गया भैया!

    मैं कोंदा हूँ ठकुराइन...

    अ... ठकुराइन की आवाज सूखे कुएं से होकर निकली। यह कोई मामूली बात नहीं थी कि जहाँ एक खास पूजा के लिए आए हुए मेहमानों से घर भर रहा हो वहाँ तीन पाखानों के मुख्य पाईप लाईन अचानक जाम हो जाए। ठकुराइन सुमित्रा देवी रूंवासा हो आई। वो परछी के कोने में रखे उस झोले को बार-बार निहार रही थीं जिसमें बल्ली के लिए पाँच दिन का राशन रखा हुआ था। सुमित्रा देवी थोड़ा भावुक किस्म की औरत थी। उसने सबकी नजरें बचाकर थोड़ा सा घी, कटोराभर शक्कर चावल के बीच में छुपाकर रख दिये थे कि बल्ली खुश हो जायेगा और फिर बुलाने पर वक्त-बेवक्त आ भी जाएगा। बड़ा बेटा सुखविंदर कोंदा को अकेले आया देखकर बौखला गया...

    साला बड़ा भाव खाने लगा आजकल...जाकर टेंटुआ दबा दूं क्या अम्मा, या बाबू कहे तो झोपड़ी में आग लगा दूं, एक मिनट लगेगा... इतने में ठाकुर मेवालाल लोटा लेकर मैदान जाने के लिए आंगन में आए और उबलते बेटे को ठंडा करते हुए बोले...

    यह वक्त नाराजगी का नहीं है बेटा धीरज रखना जरूरी है। समय हमारे हाथ में नहीं रहा बेटा, नहीं तो बल्ली की ये मजाल! और फिर रात में सफाई होगी भी नहीं, जो भी होगा कल होगा : फिर वे पत्नी के कान के पास मुंह ले जाकर फुसफुसाए...

    सुनो, खाना खाने से पहले बहुओं को लेकर मैदान होती आ एक बार

    अजी इस चाँदनी रात में आर-पार दिखता है गाँव, न पेड़ है न झाड़-झंकार, कहां जाई खीज उठे ठाकुर मेवालाल पत्नी की बात सुनकर...

    मूरख ही रह गई न जीवन भर, अस्कूल का पिछवाड़ा किस दिन काम आयेगा भला। ये कहते हुए मेवालाल आंगन के बाहर मैदान की ओर चल दिए। सुमित्रा देवी वहीं खड़ी-खड़ी अपने औरत होने पर पछता रही थी। अच्छा ही हुआ जो उसके बेटी नहीं हुई, पर कभी-कभी एक हूक सी उठती है, खास कर उस वक्त जब सबकी नज़रों में उनका कोई मान न रहता। सुमित्रा देवी ने सुन रखा था कि बेटी हमेशा माँ की होती है।

    उनकी एक भी बेटी नहीं थी। जब मोती और लट्टू की शादी हुई तब सुमित्रा देवी का मन खूब डोला था यह सोचते हुए कि चलो बेटी नहीं हुई तो क्या हुआ, बहू भी तो बेटी जैसी ही है। पर इस सोच पर तब पानी फिरा जब दोनों बहुएं सास को छोटा करने के लिए ससुर का साथ देने लगीं, हाँ में हाँ मिलाने लगीं। अब छोटी बहू की आस लगाए बैठी हैं सुमित्रा देवी।

    2

    चमार टोला।

    पत्थरों के बदन को जख्मी कर बसाए गए डोम और चमारों के कुछ घर। पता ही नहीं चलता ये सब कब आते हैं, कब अपना काम शुरू करते हैं और बेआवाज एक घर बन जाता है। पत्थरों को जोड़कर हर घर के आगे एक आंगन। दो पहाड़ियों को बीच से काटती एक सड़क जो पहाड़ के थोड़े से हिस्से तक ही चढ़ पाती है। यही सड़क जब उतरती है तब नीचे आकर तेजी से शहर बनते गाँव की सड़कों में गुम हो जाती है। ये

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