Ek Budhiya Aur Do Parivaar - (एक बुढ़िया और दो परिवार)
By Kumkum Singh
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Ek Budhiya Aur Do Parivaar - (एक बुढ़िया और दो परिवार) - Kumkum Singh
Singh
अध्याय-1
सू खे की मार से ग्रस्त गाँव के आखिरी झोपड़ी की स्वामिनी डुमकी आज खदान की मजदूरी करने नहीं गई थी। उसका पति बेंतराम अकेले ही खेत पर मजदूरी करने के लिए गया था। डुमकी आज अपनी गन्दी पड़ी झोपड़ी की लीपा-पोती करके उसे चमकाने में लगी थी। झोपड़ी के सफाई अभियान में उसे अचानक पता नहीं कब से छुपा कर रखी एक साबुन की टिकिया मिल गई।
अरे साबुन की टिकिया! वो भी अम्मा के सामान में! लगता है कि अम्मा इसे यहाँ छुपा कर भूल गई है। पता नहीं कितने समय से डुमकी ने साबुन नहीं देखा था। साबुन जैसी अति आवश्यक वस्तु का मानव सभ्यता ने आविष्कार भी किया है, यह बात डुमकी लगभग भूल ही गई थी। वे लोग तो अपने कपड़े बस तालाब के पानी में ही धो लेते थे। काफी रगड़ने और पत्थर पर पटकने पर भी कपड़े साफ नहीं दिखते थे बल्कि कपड़ों के और भी फट जाने का डर रहता था। फटे कपड़े पहने हुए तीनों बच्चे तो बेझिझक खेलते-कूदते रहते थे पर डुमकी को अपने कपड़े फट जाने का लगातार डर बना रहता था। आखिर उसकी मान मर्यादा का जो प्रश्न था। घिसी हुई साबुन की टिकिया को देखकर डुमकी को लगा कि जैसे कोई गढ़ा हुआ खजाना मिल गया। बस डुमकी ने इस कपड़ा धोने के सोडायुक्त साबुन की टिकिया को लेकर तरह-तरह की योजना बनानी शुरू कर दी।
घिसी हुई साबुन की टिकिया एक, और योजनाएं अनेक! जैसे वह घर के सदस्यों के कपड़े धोकर साफ करना चाहती थी।, वो भी इतनी सावधानी और मित्तव्ययता के साथ कि कपड़े भी धुल जायें और साबुन की टिकिया भी पूरी तरह से खत्म न होने पाए। क्योंकि टिकिया छोटी थी। इसके लिए तीनों बच्चों के गन्दे कपड़ों को पहले से पानी में भिगोना होगा। जब तक कपड़े धुल कर सूख न जाएं तब तक बच्चों को नंगे रहना होगा क्योंकि उन लोगों के पास तन ढकने को मात्र एक-एक ही वस्त्र था। वो भी कहीं से दान में मिल गए थे।
डुमकी के खुद के लिए थोड़ी राहत थी कि उसके पास दो धोतियां थी, तो एक धुल सकती थी और दूसरी वो पहने रह सकती थी। पति बेंता और सास सुतारी के कपड़े साफ करने की डुमकी ने कोई योजना नहीं बनाई, क्योंकि इतने ही धुलाई के बाद बचे खुचे साबुन से डुमकी को ‘साबुन वाला’ स्नान जो करना था और तीनों बच्चों को भी कराना था। ये बात गौरतलब है कि सर से पांव तक इस अभावग्रस्त नारी को नहाने के साबुन और कपड़े धोने के साबुन में कोई फर्क नहीं पता था। अगर डुमकी को गढ़े हुए खजाने को प्राप्त होने वाली खुशी देने वाली ये कपड़ा धोने की सोडायुक्त साबुन की टिकिया नहाने के साबुन की भी होती तो भी डुमकी उसका यही कुछ करने जा रही थी।
डुमकी ने बेहद खुशी और अति उत्साह के साथ पहले अपनी झोपड़ी की सफाई की। झोपड़ी का सारा सामान निकाल कर बाहर किया। सामान भी ज्यादा कुछ नहीं था। बस कुछ टूटे-फूटे बरतन। जो बरतन टूटे नहीं थे वे टेढ़े-मेढ़े थे। जैसे पानी का लोटा वाकई बेपेन्दी के था, तीन-चार एल्यूमीनियम की छेदयुक्त टेढ़ी-मेढ़ी थालियां, कड़ाही जिसे सीधा करके चूल्हे पर रख कर सब्जी पका ली जाती और उल्टा करके चूल्हे के ऊपर रख कर तवे का काम लिया जाता, यानि कि रोटियां बना ली जाती। दाल पकाने की बटलोई जिसे गाँव के सरपंच की बीबी ने डुमकी से महीने भर तक अपनी मालिश करवाने के बाद पैसे की जगह दी थी। बरतनों के अलावा कुछ फटी चादरें, पुराने कनस्तर, लकड़ियां, मिट्टी के तेल की डिबरी जिससे रात के समय झोपड़ी प्रकाशयुक्त हो जाती थी।
झोपड़ी की सफाई करने के बाद और ये सब बाहर निकाला सामान वापस रखने के तदुपरान्त डुमकी ने बच्चों को आवाज दी। सबको लेकर डुमकी तालाब की ओर चली। तालाब घर के करीब एक डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर था। पहले कपड़े धुले। साबुन की जरा देर की संगत पाकर कपड़ों की तो रंगत ही बदल गई। कपड़े सुखाने के लिए पास के मैदान में फैलाए गए। इसके बाद डुमकी ने अपने तीनों बच्चों को रगड़ कर नहलाया। बच्चों की भी रंगत बदल गई।
सुनो तुम लोग अब सीधे घर जाओ और मिट्टी में मत खेलना
, डुमकी ने बच्चों को आदेश दिया। तीनों बगैर कपड़े पहने नंगे बच्चे खिलखिलाते हुए झोपड़ी की ओर दौड़ गए। अब डुमकी ने स्वयं स्नान का आनन्द लिया।
वाह! पूरा बदन कितना हल्का लग रहा है और कितनी ताजगी-सी महसूस हो रही है; काश नहाने के लिए रोज ही साबुन मिल जाता तो कितना अच्छा होता।
डुमकी को नहाते वक्त पहला विचार आया।
‘नहीं, नहीं, उसे इतना अधिक लालच भी नहीं करना चाहिए। भगवान जी! आठ दस दिन में बस एक बार ही साबुन वाला स्नान करने को मिल जाए; इससे मेरा काम बन जाएगा। मैं खुश रहूँगी।
स्नान करने के बाद डुमकी वापस घर को चली। अब तक तो उसको अच्छी खासी भूख लग आई थी। उसने सुन भी रखा था कि साबुन-सोडा वाले स्नान के बाद भूख भी अच्छी लगती है और नींद भी खूब आती है। बस अब डुमकी घर जाकर पेट भर खाना खाने के बाद एक अच्छी नींद का भी आनन्द लेना चाहती थी। आखिर वो सवेरे से ही काम पर काम किए जा रही है।
डुमकी ने सुबह ही दाल चावल पका कर एक ओर रख दिए थे। बच्चों को और पति को उसने परोस कर खिला भी दिया था। पर खुद नहीं खाया था। सोचा था कि पूरा काम करने के बाद ही खाऊँगी। साबुन की टिकिया मिल जाने से काम दुगुना बढ़ गया, जोश भी बढ़ गया और खाना खाने में काफी देर हो गई। यही कारण था कि भूख जबरदस्त लगी थी। पर ये क्या? दाल और भात थोड़ा-थोड़ा ही बचा था। वो तो अपना और अम्मा के हिस्सा का भोजन बरतनों में छोड़ कर गई थी। अम्मा का हिस्सा तो छोड़ो वो तो जब जंगल से वापस आएगी तब आएंगी, यहाँ तो उसके पेट की अग्नि को बुझाने को जरा सा ही भोजन था। सामने पड़ी जूठी थालियां बता रही थी कि बच्चों ने नहा कर वापस आकर दोबारा भोजन कर लिया है।
"अब? भूख के मारे तो बुरा हाल था। खैर जो भी भोजन बचा था, उसे डुमकी ने खाया। पर इतने कम भोजन से कैसे भूख शान्त होती? फिर उसने बरतनों में पानी डाल कर हिलाया और फिर उस पानी को अपनी थाली में उलट दिया ताकि भोजन का एक-एक कण उसकी थाली में आ जाए। डुमकी इस पानी को पी गई। पर भूख थी इतने कम में मानने को जरा भी तैयार नहीं हो रही थी। हालांकि डुमकी को अपने बचपन से अपनी भूख पर काबू पाने का अच्छा खासा अभ्यास था। पर आज इतना काम करने के बाद और साबुन से स्नान करने के फलस्वरूप उत्पन्न हुई भूख को दबाने का कोई भी अभ्यास काम नहीं कर रहा था। अपनी बेबसी पर डुमकी की आँखों में आंसू आ गए।
अध्याय-2
इतने में डुमकी की बुढ़िया सास सुतारी, सिर पर टोकरी रखे हुए, धीरे-धीरे चलते हुए, झोपड़ी के सामने आ खड़ी हुई। उसने धीरे से सिर से टोकरी उतार कर धरा पर रखी, और वहीं बैठ कर अपना पसीना सुखाने लगी। सुबह से ही भूखी बुढ़िया सुतारी का भी भूख और थकान के मारे बुरा हाल था।
‘रे डुमकिया कछु खाने का है क्या? जरा दे दे! बहुत ही भूख लगी है’ सुतारी बरबस ही आग्रह कर बैठी।
अपनी ही भूख से परेशान डुमकी तो जैसे फट ही पड़ी
अरे कहाँ का खाना और कहाँ का वाना! ये सब बच्चा लोग पहले से चट कर गए।
अब तो सुतारी को भी बच्चों पर क्रोध आ गया।
काहे तुम खाना छिपा कर नहीं रखी थी क्या?
सुतारी इन बच्चों की बार-बार खाना खाने की आदत को अच्छे से जानती थी।
अरे अम्मा बिल्कुल छुपा कर ही तालाब गई थी। ये हरामी लोग फिर भी ढूंढ कर पा गए।
डुमकी के स्वर में खीज थी।
"इन बच्चन का पेट है कि कुआँ? जरूर पिछले जन्म के अकाल के भूखे होंगे। और फिर से गरीब